BCom 3rd Year Financial Management An Introduction Study Material Notes In Hindi

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1 वित्तीय नियोजन (Financial Planning)-एक वित्तीय प्रबन्धक का सर्वप्रथम कार्य उपक्रम का लिये, चाहे वह नया हो अथवा पुराना, एक सुदृढ वित्तीय योजना तैयार करना होता है। वेस्टन एवं ब्राइम के ।

अनुसार, नियोजन का आशय व्यवसाय के लक्ष्यों अथवा उद्देश्यों के निर्धारण अथवा उपलब्ध विभिन्न विकल्पों। में से सर्वोत्तम विकल्प का चयन करने तथा उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये नीतियों एवं कार्यक्रमों के निर्धारण से। है। वित्तीय योजना निर्माण में तीन बातों पर विचार किया जाता है (अ) उद्देश्यों का निर्धारण, (ब) वित्तीय नीतियों का निर्धारण, तथा (स) कार्य विधियों का निर्धारण।।

2 वित्तीय नियंत्रण (Financial Control) वित्तीय योजना के अन्तर्गत निर्धारित उद्देश्यों, नीतियों एवं कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक क्रियान्वित करने के लिये वित्तीय नियंत्रण परम आवश्यक होता है। इसके अन्तर्गत पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये अधीनस्थ कर्मचारियों को आवश्यक निर्देश व नेतृत्व देना,योजना के अनुसार वित्तीय प्रगति का समय-समय पर मूल्यांकन करना तथा विचलन की दशा में आवश्यक सुधार करना शामिल किया जाता है। बजटरी नियन्त्रण तथा विचरण विश्लेषण, वित्तीय नियन्त्रण की मुख्य तकनीकें हैं।

3 वित्तीय निर्णय (Financial Decisions)-व्यवसाय से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के वित्तीय निर्णय लेना वित्तीय प्रबन्ध का महत्त्वपूर्ण कार्य है। ये वित्तीय निर्णय इस प्रकार लिये जाने चाहिए ताकि स्वामियों की सम्पदा अधिकतम हो सके। वित्तीय निर्णय मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं (i) वित्त-पूर्ति निर्णय (Financing Decisions), (ii) विनियोग निर्णय (Investment Decisions), तथा (iii) लाभांश निर्णय (Dividend Decisions)। ये तीनों प्रकार के निर्णय परस्पर एक दूसरे को ही प्रभावित नहीं करते. वरन सभी निर्णय सामूहिक रूप में फर्म के मूल्य (Value of the firm) को भी प्रभावित करते हैं।

(i) वित्त-पूर्ति निर्णय (Financing Decisions)-वित्त-पूर्ति निर्णय उपक्रम की पूँजी सम्बन्धी आवश्यकताओं से सम्बन्धित होते हैं। इनके अन्तर्गत पूँजी की मात्रा का निर्धारण, पूँजी संरचना का निर्माण तथा वित्त के स्रोतों के चयन सम्बन्धी निर्णय लिये जाते हैं। पंजी की मात्रा का निर्धारण संस्था सम्पत्तियों, चालू सम्पत्तियों एवं अमूर्त सम्पत्तियों (प्रवर्तन व्यय, संगठन व्यय, वित्त प्राप्ति व्यय, ख्याति, पेटेन्ट आदि) में विनियोजित की जाने वाली राशि का पूर्वानुमान लगाकर किया जाता है। पूँजी संरचना (Capital Structure) का निर्धारण कुल विनियोजित पूँजी में समता पूँजी व ऋण पँजी के अनुपात द्वारा किया जाता है । ऋण पूँजी के अधिक उपयोग से उपक्रम की लाभदायकता की सीमा में वृद्धि होती है क्योंकि ऐसी स्थिति में कर दायित्व में कमी आ जाती है, परन्तु साथ ही क्षमता से अधिक ऋण का उपयोग करने से जोखिम में वृद्धि होती है जिससे लाभदायकता में कमी आ जाती है। अतः पूँजी संरचना ऐसी होनी चाहिए जिससे उपक्रम की जोखिम को न्यूनतम रखते हुये उसकी लाभदायकता को अधिकतम किया जा सके। ऐसी पूँजी संरचना ही अनुकूलतम पूँजी संरचना (Optimum Capital Structure) कहलाती है।

पूँजी संरचना का निर्धारण करने के उपरान्त वित्तीय प्रबन्धक को प्रस्तावित पूँजी संरचना के अनुसार विभित्र स्रोतों से आवश्यक कोषों की प्राप्ति (Procurement of Funds) की व्यवस्था करनी होती है । कोषों के स्रोतों का चयन पूँजी की लागत, लागत की प्रकृति (स्थायी या परिवर्तनशील) तथा कोष प्राप्ति की अवधि पर निर्भर करता है। इसके लिये वित्तीय प्रबन्धक विभिन्न वित्तीय स्रोतों (विकास बैंकों, जनता, बैंक आदि) से सम्पर्क स्थापित करता है तथा अभिगोपकों आदि की नियुक्ति करता है। वित्तीय प्रबन्धक न केवल प्रारम्भिक वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उत्तरदायी होता है, अपितु भविष्य में उपक्रम के विकास, विस्तार, एकीकरण एवं संविलयन योजनाओं के लिये अतिरिक्त पूँजी की व्यवस्था भी करता है।

(ii) विनियोग निर्णय (Investment Decisions)-कोषों की व्यवस्था करने के पश्चात् वित्तीय प्रबन्धक का कार्य इन कोषों का विभिन्न सम्पत्तियों में आबंटन करना होता है। इसके लिये वित्तीय प्रबन्धक उन सम्पत्तियों का चयन करता है जिनमें उपक्रम के कोषों का विनियोग किया जायेगा। ऐसी सम्पत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं : प्रथम, स्थायी अथवा दीर्घकालीन सम्पत्तियाँ जिनसे भविष्य में दीर्घकाल तक आय प्राप्त होती रहेगी तथा द्वितीय, चालू अथवा अल्पकालीन सम्पत्तियाँ जो सामान्यत: एक वर्ष की अवधि में नकदी में परिवर्तित हो जाती हैं। अतः विनियोग निर्णय दो प्रकार के होते हैं-(i) स्थायी सम्पत्तियों में विनियोग सम्बन्धी निर्णय जिन्हें पूँजी बजटन निर्णय (Capital Budgeting Decisions) कहते हैं,तथा () चालू या अल्पकालीन सम्पत्तियों में विनियोग सम्बन्धी निर्णय जिसे कार्यशील पूँजी प्रबन्ध (Working Capital Management) कहा जाता है। पूँजी बजटन निर्णयों में उन सम्पत्तियों में धन लगाने अथवा न लगाने के बारे में निर्णय किया जाता है जिनमें कोषों का विनियोग लम्बी अवधि के लिये होता है। ऐसे निर्णय इन सम्पत्तियों की लागतों एवं उनसे उदय होने वाले लाभों या प्रत्याय के आधार पर लिये जाते हैं। इनमें अनिश्चितता एवं जोखिम की मात्रा आधक होती है। अत: ऐसे निर्णय कोषों के विनियोग से आगामी वर्षों में प्राप्त होने वाले लाभों तथा निहित जोखिम को ध्यान में रखकर ही लिये जाते हैं। आधनिक विचारधारा के अनुसार विनियोग निर्णय लेते समय पूजा का लागत (Cost of Capital) का भी ध्यान रखना आवश्यक होता है।

कार्यशील पूँजी के प्रबन्ध से आशय चालू सम्पत्तियों के प्रबन्ध से है। चालू सम्पत्तियों में विनियोग सम्बन्धी निर्णय लाभदायकता तथा तरलता अथवा जोखिम को प्रभावित करते हैं । चालू सम्पत्तियों में आवश्यकता से कम विनियोग लाभदायकता की सीमा में तो वृद्धि कर देगा किन्तु समय पर चालू दायित्वों का भुगतान न कर पाने से दिवालियेपन की जोखिम को आमंत्रित करेगा। दूसरी ओर चाल सम्पत्तियों में आवश्यकता से अधिक कोषों के विनियोग से तरलता एवं जोखिम की स्थितियों में तो सुधार होगा किन्तु साथ ही लाभदायकता की मात्रा में कमी हो जाएगी। अत: चाल सम्पत्तियों में कोषों का विनियोग करते समय वित्तीय प्रबन्धक को यह देखना होगा कि लाभदायकता. तरलता एवं जोखिम में संतुलन बना रहे । इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत चाल सम्पत्तियों (स्कन्ध,रोकड,प्राप्य विपत्र आदि) का प्रबन्ध भी कुशलतापूर्वक किया जाना चाहिए ताकि अनावश्यक या अपर्याप्त कोषों का विनियोग न हो सके।

(iii) लाभांश निर्णय (Dividend Decisions)-लाभांश निर्णय लाभांश के उचित वितरण से सम्बन्धित होते हैं। इनके अन्तर्गत यह तय किया जाता है कि शुद्ध लाभों का कितना भाग नकद लाभांश के रूप में अंशधारियों को वितरित किया जाये कितना भाग प्रतिधारित अर्जनों के रूप में व्यवसाय में रखा जाये तथा कितना भाग कर्मचारियों को बोनस एवं लाभ-भागिता के रूप में वितरित किया जाये। लाभांश नीति का निर्णय लाभांश का अंशधारियों की सम्पदा पर पड़ने वाले प्रभावों के आधार पर किया जाना चाहिए। अनुकूलतम लाभांश नीति वह होती है जिससे प्रति अंश बाजार मूल्य अधिकतम होता है ।अतः वित्तीय प्रबन्धक को अनुकूलतन भुगतान-अनुपात (Payout Ratio) का निर्धारण करना चाहिए। इसके लिये वित्तीय प्रबन्ध को सीमान्त विनियोजकों की चालू लाभांश के प्रति वरीयता, अंशों के बाजार मूल्य में वृद्धि, प्रतिधारित अर्जनों का पूँजी संरचना व औसत पूँजी लागत पर प्रभाव को भी ध्यान में रखना होगा। II. सहायक कार्य (Subsidiary Functions)

उपर्युक्त वर्णित प्रमुख कार्यों के अतिरिक्त वित्तीय प्रबन्धक को निम्नलिखित सहायक कार्यों को भी सम्पादित करना पड़ता है

chetansati

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