BCom 3rd Year Financial Management An Introduction Study Material Notes In Hindi

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  1. अस्पष्ट धारणा (Vague Concept) लाभ की धारणा एक अस्पष्ट धारणा है। फर्म अल्पकालान लाभ का आधकतम करे अथवा दीर्घकालीन लाभ को? लाभ के अनेक रूप हो सकते हैं जैसे सकल लाभ, ब्याज एवं कर के पूर्व लाभ, कर के बाद लाभ. शद्ध लाभ आदि । इनमें से कौन से लाभ को अधिकतम किया जाये?
  2. मुद्रा के समय मूल्य की उपेक्षा (Ignores time value of money)-लाभ को अधिकतम करने क उद्दश्य का इस आधार पर भी आलोचना की जाती है कि यह विभिन्न समय अवधियों में प्राप्त की गई। लाभ की राशियों में कोई अन्तर नही करता है अर्थात यह मद्रा के समय मूल्य को महत्त्व नहीं देता है । आज जो लाभ होता है तथा एक वर्ष,दो अथवा अधिक वर्षों बाद प्राप्त होने वाले लाभ मुद्रा के मूल्य की दृष्टि से समान नहीं हो सकते हैं। आज प्राप्त होने वाले एक रुपये का मूल्य आज से एक वर्ष बाद प्राप्त होने वाल एक रुपये के मूल्य से निश्चित रूप से अधिक होगा। इसका कारण यह है कि आज प्राप्त होने वाले लाभ की राशि को आय अर्जित करने के लिए पुनः विनियोग किया जा सकता है। इसे मुद्रा का समय मूल्य कहा जाता है जिसकी इस विचारधारा द्वारा उपेक्षा की जाती है।
  3. जोखिम की उपेक्षा (Overlooks of Risk)- किसी कार्य से भविष्य में प्राप्त होने वाली आय में निश्चितता अथवा अनिश्चितता का अंश कम या अधिक मात्रा में हो सकता है जो न्यूनाधिक जोखिम का प्रतीक माना जायेगा। सम्भवतः स्वामियों द्वारा सुनिश्चित किन्तु अपेक्षाकृत कुछ कम लाभ की परियोजनाओं को कुछ अधिक लाभदायक किन्तु अनिश्चित परियोजनाओं की तुलना में अधिक पसन्द किया जावेगा। परन्तु अधिकतम लाभार्जन का सिद्धान्त इस बात पर कोई ध्यान नहीं देता है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वित्तीय प्रबन्ध का लाभ अधिकतम करने का उद्देश्य आधुनिक समय की परिवर्तित व्यावसायिक परिस्थितियों में अनुचित एवं अनुपयुक्त हो गया है। मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार भी अधिकतम लाभ के विचार को शोषण का प्रतीक माना जाता है। अपूर्ण प्रतियोगिता में लाभ अधिकतम करने का सिद्धान्त निश्चय ही आर्थिक सत्ता के केन्द्रीयकरण व एकाधिकारी प्रवृत्तियों को जन्म देगा। यही कारण है कि अब वित्तीय प्रबन्ध का मुख्य उद्देश्य लाभ अधिकतम करने के स्थान पर सम्पदा अधिकतम करना माना जाता है। (II) सम्पदा के मूल्य को अधिकतम करना (Goal of Wealth Maximisation) __

प्रोफेसर इजरा सोलोमन के अनुसार, किसी व्यवसाय के वित्तीय प्रबन्ध का मुख्य उद्देश्य उसकी सम्पदा को अधिकतम करना होना चाहिए। उनके अनुसार यह एक ऐसा केन्द्र बिन्दु है जिस पर व्यवसाय के अन्य सभी उद्देश्य निर्भर करते हैं। प्रो. इरविन फ्रेंड ने भी इसी मत का समर्थन करते हुये व्यवसाय का उद्देश्य विशुद्ध सम्पत्तियों के मूल्य में वृद्धि करना बतलाया है। विशुद्ध सम्पत्तियों में वृद्धि होने से विनियोग मूल्य बढ़ जायेंगे तथा इससे अंशों के बाजार मूल्य में वृद्धि होगी। स्वामियों की सम्पदा कम्पनी के अंशों के बाजार मूल्य के रूप में परिलक्षित होती है। अतः सम्पदा अधिकतम करने के सिद्धान्त के अनुसार वित्तीय प्रबन्ध का मूलभूत उद्देश्य कम्पनी के समता अंशों के बाजार मूल्य में अधिकतम वृद्धि करना चाहिए, क्योंकि अंशधारियों की विनियोजित सम्पत्ति तभी बढ़ती है जब उनके अंशों के बाजार मूल्य में वृद्धि हो।

सम्पदा के मूल्य को अधिकतम करने के लिए वित्तीय प्रबन्ध को निम्नलिखित कार्य करने होंगे

(1) ऊँचे स्तर की जोखिमों से बचा जाए, (2) लाभांश का भुगतान फर्म तथा अंशधारियों की आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए, (3) फर्म को सदैव विकास एवं विस्तार के लिए कार्यशील रहना चाहिए (4) अंशों के बाजार मूल्य को ऊँचा बनाये रखें।

संक्षेप में, सम्पदा के मूल्य को अधिकतम करने का सिद्धान्त विभिन्न वर्षों में प्राप्त होने वाली सम्भावित आय को एक निश्चित बट्टा दर पर कटौती करके समय मूल्य को भी मान्यता प्रदान करता है तथा जोखिम एवं अनिश्चितता की सीमा का भी विश्लेषण करता है जिसके अनुसार विभिन्न विकल्पों में से सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव सरलतापूर्वक किया जा सकता है। अतः कम्पनियों एवं निगमों के मूल उद्देश्य के रूप में सम्पदा अधिकतम करने के सिद्धान्त को स्वीकार किया जाता है।

वित्त के कार्य

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(Functions of Finance)

एक व्यावसायिक उपक्रम में वित्तीय प्रबन्ध को कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करने होते हैं जिन्हें वित कायों के रूप में जाना जाता है। वित्त कार्यों के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न वित्तीय विशेषज्ञों की अलग-अलग है। वित्त कार्यों के सम्बन्ध में कछ प्रमख वित्तीय प्रबन्ध विशषज्ञा क दृष्टिकोण को नीचे स्पष्ट किया गया है

जॉन जे. हैम्पटन (John J. Hampton-Financial Decision Making) के अनुसार वित्त के निम्नलिखित चार कार्य होते हैं

(i) कोषों का प्रबन्ध (Management of Funds)

(ii) सम्पत्तियों का प्रबन्ध (Management of Assets)

(iii) तरलता कार्य (Liquidity Functions)

(iv) लाभदायकता कार्य (Profitability Functions)

राबट जॉन्सन (Robert Johnson-Financial Management) के अनुसार वित्त के चार कार्य होते हैं

(i) वित्तीय नियोजन एवं नियंत्रण (Financial Planning and Control)

(ii) कोषों की प्राप्ति (Raising Funds),

(ii) कोषों का विनियोग (Investing Funds)

(iv) विशेष समस्याओं का सामना (Meeting Special Problems)

वेस्टन एवं ब्राइम (Weston and Brigham-Managerial Finance) के अनुसार वित्त कार्यों को पाँच भागों में बांटा गया है

(i) वित्तीय नियोजन एवं नियंत्रण (Financial Planning and Control)

(ii) कार्यशील पूँजी का प्रबन्ध (Management of Working Capital)

(iii) स्थायी सम्पत्तियों में विनियोग (Investment in Fixed Assets)

(iv) पूँजी संरचना निर्णय (Capital Structure Decisions) (v) व्यक्तिगत वित्त-पूर्ति घटनाएँ (Individual Financing Episodes)

जेम्स. सी. वॉनहार्न (James C. Vanhorne – Financial Management and Policy) के अनुसार वित्त कार्यों को निम्नलिखित तीन वर्गों में रखा गया है

(i) विनियोग निर्णय (Investment Decisions)

(ii) वित्त-पूर्ति निर्णय (Financing Decisions)

(iii) लाभांश निर्णय (Dividend Decisions)

संक्षेप में, अध्ययन की सुविधा के दृष्टिकोण से वित्त के कार्यों को निम्नलिखित तीन भागों में बाँटा जा सकता है

(1) प्राथमिक अथवा प्रशासकीय कार्य (Primary or Administrative Functions)

(ii) सहायक कार्य (Subsidiary Functions)

(iii) नैत्यिक कार्य (Routine or Incidental Functions)

(1) प्राथमिक अथवा प्रशासकीय कार्य (Primary or Administrative Functions)

प्राथमिक अथवा प्रशासकीय वित्तीय कार्यों से अभिप्राय वित्त सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने से होता । है। इन निर्णयों को लेने के लिये वित्तीय प्रबन्धक में उच्चस्तरीय ज्ञान, चातुर्य एवं अनुभव की आवश्यकता होती है। उपक्रम की अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये कोषों की प्राप्ति, कोषों का उचित आबंटन एवं उनका प्रभावपूर्ण उपयोग तथा लाभ एवं सम्पदा को अधिकतम करना वित्तीय प्रबन्ध का मुख्य उद्देश्य होता है । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए निम्नलिखित प्रशासनिक अथवा निर्णयात्मक कार्य करने पड़ते हैं

chetansati

Admin

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