BCom 3rd Year Financial Management An Introduction Study Material Notes In Hindi

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वित्त कार्य की विचारधाराएं

Table of Contents

(Approaches to Finance Function)

पिछले कुछ दशकों में वित्त कार्य के स्वरूप एवं विचार में पर्याप्त परिवर्तन हुआ है।

सोलोमन इजरा के अनुसार, “परम्परागत व्याख्या के अनुसार कोषों के साधनों पर अधिक बल दिया जाता था जिसका सम्बन्ध अधिकांशतः विशिष्ट प्रक्रियात्मक ब्यौरे से होता था। अब नवीन व्यापक व्याख्या के अन्तर्गत कोषों के अनुकूलतम संकलन, उपयोग एवं आबंटन की दिशा में विवेकपूर्ण नीति निर्धारण पर अधिक बल दिया जाता है।”

सोलोमन इजरा के कथन से स्पष्ट है कि वित्त कार्य से सम्बन्धित विचारधाराओं को मुख्यतः निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है :

वित्त कार्य की परम्परागत विचारधारा (Traditional Approach of Finance Function);

वित्त कार्य की आधुनिक विचारधारा (Modern Approach of Finance Function)

वित्त कार्य की परम्परागत विचारधारा (Traditional Approach of Finance Function)

परम्परागत विचारधारा के अनुसार व्यवसाय के लिए आवश्यक पूँजी संग्रह करना ही वित्त का प्रमुख कार्य माना जाता था। किन-किन स्रोतों से समय-समय पर कितना धन प्राप्त किया जाये, किन शर्तों पर प्राप्त किया जाये तथा उसे प्राप्त करने का उचित समय क्या हो, इस सम्बन्ध में सारे निर्णय वित्तीय प्रबन्धक द्वारा ही लिये जाते थे। वित्तीय संस्थाओं से सम्पर्क स्थापित करना, पूँजी प्राप्त करने के लिए उनसे बातचीत करना और आवश्यक समझौता करना भी वित्त के कार्य-क्षेत्र में ही सम्मिलित किये जाते थे। यह समस्त अध्ययन विनियोजक के दृष्टिकोण (Investors point of view) का परिचय था जिससे ऐसा प्रतीत होता था कि वित्तीय प्रबन्ध का उद्देश्य आन्तरिक प्रबन्ध से न होकर बाहरी व्यक्तियों (पूँजी लगाने वाले व्यक्तियों, बैंकरों, वित्तीय संस्थाओं) के मार्गदर्शन के लिए अधिक था। लगभग 1950 तक वित्त कार्य की परम्परागत विचारधारा का ही अनुसरण किया गया और इसलिए 1950 तक प्रकाशित पुस्तकों में वित्त प्राप्ति के साधनों, संस्थाओं तथा व्यवहारों के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन मिलता है।

परम्परागत विचारधारा की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं :

1 व्यवसाय के लिए आवश्यक कोषों की व्यवस्था एवं उनका प्रशासन करना ही वित्त का प्रमुख कार्य है।

2. वित्त का सम्बन्ध दैनिक व्यवसाय संचालन से न होकर यदा-कदा उत्पन्न होने वाली कतिपय समस्याओं (कम्पनी प्रवर्तन, प्रतिभूतियाँ, पूँजी बाजार, पुनर्संगठन, एकीकरण, संविलयन, आदि) के हल से है।

3 वित्तीय प्रबन्ध का उद्देश्य आन्तरिक प्रबन्ध के लिए न होकर बाहरी व्यक्तियों के मार्गदर्शन के लिए अधिक है।

वित्त कार्य की आधनिक विचारधारा (Modern Approach of Finance Function)

पिछले पाँच दर्शकों में वित्त कार्य के विचार एवं स्वरूप तथा इसके कार्य-क्षेत्र में जो क्रमिक परिवर्तन हुआ है उसके फलस्वरूप वित्त कार्य केवल कुछ विशिष्ट अवसरों तक ही सीमित न रहकर व्यवसाय की प्रक्रिया में निरन्तर प्रशासनिक कार्य बन गया है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार, वित्त कार्य का आशय केवल वित्त जुटाना ही नहीं है अपतुि उसका प्रभावशाली उपयोग करना भी है। कोषों का प्रभावशाली उपयोग करने हेतु एक वित्तीय प्रबन्धक को तीन महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने पड़ते हैं- विनियोग निर्णय लेना, वित्तीय निर्णय लेना तथा । लाभांश सम्बन्धी निर्णय लेना। वस्तुतः वर्तमान समय में वित्त कार्य केवल वित्तीय आयोजन, वित्तीय पूर्वानुमान तथा सम्पत्ति प्रशासन तक ही सीमित नहीं है अपितु इसमें वित्तीय नियन्त्रण, वित्तीय विश्लेषण तथा मूल्यांकन, आदि कार्य भी सम्मिलित होते हैं।

परम्परागत तथा आधुनिक विचारधारा में अन्तर

(Difference between Traditional and Modern Approach)

  1. परम्परागत विचारधारा संकुचित थी जबकि आधुनिक विचारधारा व्यापक है।
  2. परम्परागत विचारधारा वर्णनात्मक थी जबकि आधुनिक विचाराधारा विश्लेषणात्मक है।
  3. परम्परागत विचारधारा में व्यावसायिक वित्त के प्रबन्ध का कार्य यत्रतत्रिक (Sporadic) था जबकि आधुनिक विचारधारा के अनुसार निरन्तर तथा नियमित कार्य है।
  4. परम्परागत विचारधारा में कोषों की उपलब्धि पर अधिक ध्यान दिया जाता था जबकि आधुनिक विचारधारा में कोषों के प्रभावपूर्ण उपयोग पर भी उतना ही ध्यान दिया जाता है ।
  5. परम्परागत विचारधारा के अन्तर्गत प्रबन्धकीय निर्णयों का आधार अन्त प्रेरणा (Intuition) तथा अनुभव थे जबकि आधुनिक विचारधारा में वैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित आधुनिक प्रविधियों का प्रयोग किया जाता है।
  6. परम्परागत विचारधारा इस बात पर अधिक जोर देती थी कि बाहरी व्यक्ति आन्तरिक प्रबन्ध को किस नजरिये से देखते हैं, परन्तु आधुनिक विचारधारा बाहरी दशाओं के परिप्रेक्ष्य में वित्तीय नीतियों के निर्धारण एवं वित्तीय प्रशासन के कार्य करने पर बल देती है।

वित्तीय प्रबन्ध का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Financial Management)

वित्तीय प्रबन्ध दो शब्दों ‘वित्तीय’ तथा ‘प्रबन्ध’ के योग से बना है। वित्तीय शब्द का अर्थ है धन प्राप्ति के साधनों को जुटाना तथा व्यवसाय की मौद्रिक आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाकर उसके आधार पर धन प्राप्ति के साधनों का निर्धारण करना। प्रबन्ध शब्द से अभिप्राय किसी संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए मानवीय क्रियाओं और भौतिक संसाधनों के नियोजन, संगठन, समन्वय एवं नियन्त्रण से है। इस प्रकार वित्तीय प्रबन्ध, प्रबन्ध की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत संस्था के वित्तीय कार्य का नियोजन, संगठन, निर्देशन एवं नियन्त्रण किया जाता है ताकि वित्तीय कार्य का प्रभावपूर्ण एवं कुशल संचालन सम्भव हो सके।

वित्तीय प्रबन्ध के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ इस प्रकार हैं :

हावर्ड एवं उपटन के अनुसार, “नियोजन एवं नियन्त्रण कार्य को वित्तीय कार्यों पर लागू करना वित्तीय प्रबन्ध है।”

जे. एफ. ब्रेडले के अनुसार “वित्तीय प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबन्ध का वह क्षेत्र है जिसका सम्बन्ध पूँजी के न्यायपूर्ण प्रयोग एवं पूँजी के साधनों के सतर्कतापूर्ण चयन से है जिससे कि व्यावसायिक संस्था अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में समर्थ हो सके।”2

वेस्टन तथा ब्रीघम के अनुसार, “वित्तीय प्रबन्ध निर्णय लेने का वह क्षेत्र है जो व्यक्तिगत उद्देश्यों एवं उपक्रम के लक्ष्यों में एकरूपता स्थापित करता है।”

जे. एल. मैसी के अनुसार, “वित्तीय प्रबन्ध एक व्यवसाय की वह संचालनात्मक क्रिया है जो कुशल संचालन के लिए आवश्यक वित्त को प्राप्त करने तथा उसका प्रभावशाली प्रयोग करने के लिए उत्तरदायी होता।

फिलिप्पटस के अनुसार, “वित्तीय प्रबन्ध, उन प्रबन्धकीय निर्णयों से सम्बन्धित है जिनका परिणाम उपक्रम की दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन साख की प्राप्ति एवं वित्त पूर्ति है।”

बियरमैन तथा स्मिथ के अनुसार, “वित्तीय प्रबन्ध पूँजी के स्त्रोतों का निर्धारण करने तथा उसके श्रेष्ठतम उपयोग का मार्ग ज्ञात करने वाली प्रविधि है।”

निष्कर्ष-उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि वित्तीय प्रबन्ध, व्यावसायिक प्रबन्ध का एक कार्यात्मक क्षेत्र (Functional Area) है, जिसकी सहायता से उपक्रम की वित्तीय क्रियाओं एवं वित्त कार्य का प्रभावपूर्ण एवं कुशल संचालन किया जाता है।

chetansati

Admin

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