BCom 3rd Year Financial Management An Introduction Study Material Notes In Hindi

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वित्तीय प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताएं

Table of Contents

(Main Characteristics of Financial Management)

वित्तीय प्रबन्ध की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :

  1. वर्तमान वित्तीय प्रबन्ध, वित्तीय समस्याओं पर विश्लेषणात्मक रूप से विचार करता है। आज अधिकतर निर्णय सांख्यिकीय तथ्यों के वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर लिये जाते हैं।
  2. आधुनिक समय में वित्तीय प्रबन्ध एक सतत प्रशासनिक प्रक्रिया है। पहले वित्तीय प्रबन्ध का उपयोग कभी-कभी किया जाता था अर्थात् वित्तीय प्रबन्ध की प्रक्रिया निरन्तर नहीं चलती थी परन्तु वर्तमान में वित्तीय प्रबन्धक को निरन्तर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ती है।
  3. वित्तीय प्रबन्धक आवश्यक तथ्य एवं प्रतिवेदन उच्च प्रबन्धकों के समक्ष प्रस्तुत करके सर्वोच्च प्रबन्ध के निर्णय लेने हेतु ठोस आधार प्रदान करता है।
  4. वित्तीय प्रबन्ध, जोखिम और लाभदायकता में सन्तुलन स्थापित करता है।
  5. व्यवसाय की समस्त क्रियाओं में समन्वय स्थापित करता है।
  6. वित्तीय प्रबन्ध की प्रकृति मूलत: केन्द्रीकृत है-प्रबन्ध के सभी क्षेत्रों में वित्तीय प्रबन्ध की प्रकृति केन्द्रीकृत है। अन्य क्रियाओं का विकेन्द्रीकरण तो सम्भव है परन्तु वित्त कार्य का विकेन्द्रीकरण व्यावसायिक दृष्टि से उचित नहीं है क्योंकि वित्तीय समन्वय के नियन्त्रण की स्थिति केन्द्रीकरण के द्वारा ही स्थापित की जा सकती है।

वित्तीय प्रबन्ध की प्रकृति

(Nature of Financial Management)

वित्तीय प्रबन्ध की प्रकृति का अध्ययन करने के लिए हमें इस तथ्य का परीक्षण करना होगा कि यह विज्ञान है या कला अथवा दोनों । विज्ञान एवं कला के रूप में वित्तीय प्रबन्ध की प्रकृति को समझने के लिए पहले यह जानना आवश्यक है कि ‘विज्ञान’ एवं ‘कला’ का क्या अर्थ है, इसके बाद ही हम यह निर्णय कर सकते हैं कि वित्तीय प्रबन्ध विज्ञान है या कला अथवा दोनों।।

विज्ञान का अर्थ (Meaning of Science)-किसी भी प्रकार का व्यवस्थित ज्ञान जो किन्हीं सिद्धान्तों पर आधारित हो, विज्ञान कहलाता है। यह ज्ञान का वह स्वरूप है जिसमें अवलोकन व प्रयोग द्वारा सिद्धान्त  प्रतिपादित किये जाते हैं तथा कारण एवं परिणाम में सम्बन्ध स्थापित किया जाता है।।

क्या वित्तीय प्रबन्ध एक विज्ञान है ? (Is Financial Management a Science?) के अर्थ की कसौटी पर वित्तीय प्रबन्ध को परखा जाय तो निश्चित रूप से इसे विज्ञान की श्रेणी में रख सकते है । यदि विज्ञान हैं। आधुनिक समय में वित्तीय प्रबन्ध के भी अनेक सिद्धान्त हैं जिनका प्रतिपादन वित्तीय समस्याओं के कारण और परिणाम के रूप में किया गया है। वित्तीय विश्लेषण हेतु अनेक सांख्यिकीय तथा गणितीय विधियाँ उपलब्ध हैं जिनका वित्तीय समस्याओं के निराकरण हेतु प्रयोग किया जाता है। वित्तीय निष्पादन के विश्लेषण हेतु अनुपात विश्लेषण, प्रवृत्ति विश्लेषण, कोष-प्रवाह विश्लेषण, लागत-मात्रा-लाभ विश्लेषण अनेक महत्त्वपूर्ण तकनीकों का प्रयोग किया जाता है। वस्तुतः वित्तीय प्रबन्ध के आधुनिक सिद्धान्तों की समुचित जानकारी के बिना वित्तीय प्रबन्धक अपनी भूमिका का निर्वाह भली प्रकार नहीं कर सकते । वित्तीय प्रबन्ध के सिद्धान्तों के पूर्ण ज्ञान के आधार पर ही वे ठीक-ठीक वित्तीय नीतियों का निर्धारण और परिपालन कर पाते हैं।

कला का अर्थ (Meaning of Art) किसी भी कार्य को श्रेष्ठ ढंग से कैसे किया जाये, यह उस कार्य के कला-पक्ष को दर्शाता है। दूसरे शब्दों में उपलब्ध ज्ञान एवं कौशल को व्यावहारिक रूप देना ही कला है।

क्या वित्तीय प्रबन्ध एक कला है ? (Is Financial Management an Art?) वित्तीय प्रबन्ध को कला के अर्थ की कसौटी पर परखने से स्पष्ट होता है कि कला के लक्षण वित्तीय प्रबन्ध में भी पाये जाते हैं,

वित्तीय अधिकारी वित्तीय प्रबन्ध की अनेक समस्याओं (जैसे वित्तीय नियोजन, वित्तीय नियन्त्रण विनियोग तथा स्थिर और चल सम्पत्तियों का प्रबन्ध, लाभ-नियोजन, मूल्य निर्धारण नीति, पूँजी बजटिंग एवं पँजी की लागत. आदि) का वित्तीय प्रबन्ध के सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए ही बुद्धिमता व सूझबूझ से समाधान करता है। अतः यह कहा जा सकता है कि वित्तीय प्रबन्ध एक कला भी है।।

वित्तीय प्रबन्ध, विज्ञान तथा कला दोनों है (Financial Management is both Science and an Art) निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि वित्तीय प्रबन्ध विज्ञान भी है और कला भी। एक कुशल वित्तीय अधिकारी के लिए दोनों ही पक्ष (विज्ञान एवं कला) उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार एक चिकित्सक के लिए सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों पक्षों का ज्ञान आवश्यक होता है।

कोहेन एवं रॉबिन्स के अनुसार.”वित्तीय प्रबन्ध एक कला होने के साथ-साथ एक विज्ञान भी है। इसके लिए परिस्थिति की सही पकड़ एवं विश्लेषणात्मक दक्षता की तो आवश्यकता होती ही है साथ ही वित्तीय विश्लेषण की विधियों और तकनीकों के प्रचुर ज्ञान तथा उनके व्यावहारिक उपयोग एवं प्राप्त परिणामों की सही समीक्षा करने की भी अपेक्षा होती है।

वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्य

(Objectives or Goals of Financial Management)

एक व्यावसायिक उपक्रम में वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्य क्या होते हैं? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्यों पर दो दृष्टियों से विचार किया जाता है : एक तो समष्टि स्तर पर (Macro level) और दूसरे व्यष्टि स्तर पर (Micro level) । समष्टि स्तर पर (At Macro Level) वित्तीय प्रबन्ध का एकमात्र उद्देश्य देश में उपलब्ध सीमित पूँजी का गहन, सर्वश्रेष्ठ और मितव्ययी उपयोग करना है ताकि देश को अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त हो सके।

जहाँ तक वित्तीय प्रबन्ध के व्यष्टिगत स्तर पर (At Micro Level) उद्देश्यों का प्रश्न है,इनका अध्ययन एक फर्म अथवा उपक्रम के दृष्टिकोण से किया जाता है। इस दृष्टिकोण से वित्तीय प्रबन्ध का उद्देश्य फर्म के उद्देश्यों की प्राप्ति में अधिकतम सहायता करते हुए वित्तीय क्रियाओं का प्रभावपूर्ण एवं कुशल संचालन करते हुए लाभदायक वित्त की व्यवस्था करना है। वित्तीय प्रबन्धकों को यह देखना होता है कि कितनी मात्रा में एवं कहाँ से कोषों का प्रबन्ध करें, कितनी मात्रा में तथा कहाँ कोषों का विनियोग करें तथा कितने लाभांश का भुगतान करें। इन निर्णयों को युक्तिसंगत बनाने के लिए फर्म का एक निश्चित उद्देश्य होना चाहिए अर्थात फर्म का उद्देश्य आन्तरिक विनियोग एवं वित्त पूर्ति के लिए एक सुनिश्चित पद्धति तय करना है। सामान्यतः पर्म का वित्तीय उद्देश्य फर्म के स्वामियों के आर्थिक हितों को अधिकतम करना स्वीकार किया गया है परन्त इस बात पर असहमति है कि स्वामियों के आर्थिक हितों को किस प्रकार अधिकतम किया जाये। इसके लिए दो मापदण्ड (1) लाभ को अधिकतम करना, तथा (2) सम्पदा के मूल्य को अधिकतम करना है। वास्तव में ये मापदण्ड ही वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्य कहे जाते हैं जिनकी विस्तृत विवेचना आगे की जा रही है

(1) अधिकतम लाभोपार्जन का उद्देश्य (Goal of Profit Maximisation)

प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम का मल उद्देश्य उसके स्वामियों का हित साधना माना जाता है जिस आधकतम लाभोपार्जन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। अतः इस मापदण्ड के अनुसार उपक्रम के विनियोग। वित्तपूर्ति तथा लाभांश निर्णयों को लाभों को अधिकतम करने की ओर अभिमुख होना चाहिए अर्थात उन सम्पत्तियों, परियोजनाओं एवं निर्णयों का चयन किया जाये जो अधिक लाभप्रद हैं तथा जो लाभप्रद नहीं हैं. उन्हें अस्वीकार किया जाये। अधिकतम लाभोपार्जन के उद्देश्य को निम्नलिखित तर्कों के आधार पर न्यायोचित ठहराया गया है

(1) विवेकपूर्ण आधार (Ground of Rationality)-जैसा कि हम जानते ही हैं कि किसी आर्थिक क्रिया को विवेकपूर्ण ढंग से करने का उद्देश्य उपयोगिता को अधिकतम करना होता है एवं उपयोगिता को चूंकि लाप के रूप में मापा जा सकता है, अतः विवेक के आधार पर लाभ को अधिकतम करना उचित ठहराया जा सकता है।

(2) आर्थिक कुशलता का मापक (Measurement of Economic Efficiency)-परम्परागत रूप से व्यवसाय को एक आर्थिक संस्था माना जाता है एवं संस्था की कुशलता को मापने के लिए लाभ को एक अच्छा मापदण्ड माना गया है। अतः लाभ के आधार पर किसी व्यावसायिक उपक्रम की कार्य निष्पत्ति का मूल्यांकन किया जा सकता है क्योंकि लाभ में वृद्धि उत्पादन को अधिकतम अथवा लागतों को न्यूनतम करके ही की जा सकती है।

(3) प्रमुख प्रेरणा स्त्रोत (Source of Incentive) लाभ, व्यवसाय में प्रेरणा का एक मुख्य स्रोत होता है। अधिक लाभ अर्जित करने के लिए एक फर्म अन्य फर्मों से अधिक कुशल बनने का प्रयत्न करती है, अतः लाभ व्यावसायिक कुशलता का आधार है। यदि व्यावसायिक उपक्रमों से लाभ की प्रेरणा समाप्त कर दी जाये तो पारस्परिक प्रतियोगिता का अन्त हो जायेगा तथा इससे विकास एवं प्रगति की दर धीमी पड़ जायेगी।

(4) अधिकतम सामाजिक कल्याण (Maximum Social Welfare)-अधिक लाभ होने पर ही एक उपक्रम विभिन्न सामाजिक कार्यों जैसे शिक्षा, चिकित्सा,श्रम कल्याण आदि पर व्यय करके समाज का अधिकतम कल्याण कर सकता है।

(5) निर्णयन का आधार (Basis of Decisions)-व्यवसाय में प्रायः सभी निर्णय लाभोपार्जन के उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही किये जाते हैं। प्रबन्ध का कोई निर्णय सफल हुआ अथवा नहीं, इसका मापन लाभ के आधार पर किया जा सकता है। वास्तव में यह निर्णयों की सफलता का मूल आधार है।

(6) साधनों का कशल आबंटन एवं उपयोग (Efficient allocation and utilisation of resources) उपलब्ध साधनों का कुशल आबंटन एवं उपयोग लाभ के आधार पर किया जा सकता है। वित्तीय प्रबन्धक साधनों को कम लाभदायक उपयोगों से निकाल कर अधिक लाभदायक उपयोगों में लगाता है जिससे कुशलता बढ़ती है।

उपर्युक्त तर्कों के आधार पर व्यवसाय का अधिकतम लाभोपार्जन का उद्देश्य न्यायोचित होते हुये भी इसकी पिछले कुछ वर्षों में अनेक आलोचनाएं की गई हैं। आधुनिक समय में अधिकतर विद्वानों का यह मानना है कि लाभ अधिकतम करने का उद्देश्य पूर्ण प्रतियोगिता (Perfect competition) की स्थिति में ही प्राप्त । किया जा सकता है, जबकि आधुनिक युग में प्रायः विश्व के सभी बाजारों में अपूर्ण प्रतियोगिता (Imperfect competition) ही दृष्टिगोचर होती है। अत: अपूर्ण प्रतियोगिता की वर्तमान परिस्थिति में लाभ को अधिकतम करने का उद्देश्य उचित नहीं माना जा सकता। यह भी कहा जाता है कि जब 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में लाभ को अधिकतम करने को व्यवसाय का उद्देश्य स्वीकार किया गया. उस समय व्यावसायिक ढांचे की विशेषताए। स्वयं वित्त, निजी सम्पत्ति तथा एकाकी संगठन आदि थी। एकाकी व्यापारी का उद्देश्य अपनी निजी सम्पत्ति एव। शक्ति को बढ़ाना होता था जो लाभ को अधिकतम करने के उद्देश्य द्वारा ही पूरा किया जा सकता था। परन्तु । आधुनिक व्यवसाय की प्रमुख विशेषताएं सीमित दायित्व एवं प्रबन्ध तथा स्वामित्व में पृथक्करण है । आधुनिक समय में व्यवसाय का प्रबन्ध पहले की भाँति व्यवसाय के स्वामियों द्वारा न किया जाकर पेशेवर प्रबन्धकों द्वारा। किया जाता है जो विभिन्न परस्पर विरोधी हितों (ग्राहक, कर्मचारी, सरकार एवं समाज) में उचित सामजस्य रखकर ही व्यवसाय को लाभप्रद स्थिति में रखने में सफल हो सकते हैं। अत: इस नवीन व्यावसायिक वातावरण में लाभ अधिकतम करने का उद्देश्य अवास्तविक, कठिन, अनुचित तथा अनैतिक लगता है। इतना ही नह,

नालाखत कमियों के आधार पर लाभ अधिकतम करना व्यवसाय स्वामियों के अधिकतम आथिक कल्याण के मापदण्ड के रूप में भी अस्वीकार किया जा चुका है

chetansati

Admin

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