BCom 3rd Year Financial Management Capitalisation Study Material Notes In Hindi

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  1. सम्भावित आय का कम अनुमान (Under-estimation of earnings)-यदि पूंजीकरण की मात्रा का निर्धारण सम्भावित आय के कम अनुमान के आधार पर कर दिया जाता है एवं बाद में यह ज्ञात होता है कि फर्म की वास्तविक आय अनुमानित आय से अधिक है तो आगे चलकर कम्पनी में अल्प-पूँजीकरण की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी।
  2. ऊँची दर पर पूँजीकरण (Capitalisation at a high rate)-यदि पंजीकरण की राशि निर्धारित करते

प्रचलित दर की तुलना में ऊँची पूँजीकरण दर का प्रयोग किया गया है तो आगे चलकर कम्पनी में अल्प-पूँजीकरण की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी।

  1. मन्दीकाल में प्रवर्तन (Promotion during deflation)-मन्दीकाल में प्रवर्तित कम्पनिया सामान्यतया मन्दीकाल समाप्त होने के बाद अल्प-पूँजीकृत हो जाती हैं। इसका एक कारण तो यह है कि मन्दीकाल में यन्त्र, उपकरण एवं अन्य सम्पतियाँ सस्ते मूल्य पर क्रय कर ली जाती हैं परन्तु मन्दीकाल समाप्त होते ही सम्पत्तियों का वास्तविक मूल्य बढ़ जाता है । दसरा कारण यह है कि मन्दीकाल में प्रवर्तन की दशा म। प्रारम्भिक आय का कम अनुमान लगाया जाता है और उसी के आधार पर पूँजीकरण की राशि निश्चित का जाती है जबकि मन्दीकाल समाप्त होते ही कम्पनी की आय-अर्जन क्षमता बढ़ जाती है। परिणामतः कम्पनी अपने को अल्प-पूँजीकृत अनुभव करने लगती है।
  2. समता अंशों पर व्यापार की नीति को अपनाना (Follow-up the policy of trading on camitv shares)-समता अंशों पर व्यापार का आशय कम साधारण पूजी रखकर अधिकतर ऋणगत पंजी। द्वारा व्यवसाय संचालित करके अधिक लाभ कमाने की नीति से है। ऐसा करने से कम्पनी अधिक लाभांश वितरित करने की स्थिति में होती है जो अल्प-पूँजीकरण का द्योतक है।
  3. संरक्षी लाभांश नीति (Narrow dividend policy)-जब लाभ का अधिकांश भाग विस्तार एवं विकास कार्य के लिए कोष में संचित रख लिया जाता है तथा ह्रास, पुनर्स्थापन एवं नवीनीकरण, आदि आवश्यक कार्यों के लिए पर्याप्त व्यवस्था करने के उपरान्त शेष उपलब्ध लाभ में से ही लाभांश वितरित करते हैं तो इसे हम संरक्षी लाभांश नीति कहते हैं। ऐसा करने से व्यवसाय की सम्पत्तियों का वास्तविक मूल्य उनके पुस्तकीय मूल्य से अधिक हो जाता है जो अल्प-पूँजीकरण का प्रमुख लक्षण है।
  4. पूँजी की आवश्यकता का कम अनुमान (Under-estimating of capital)-यदि कम्पनी की स्थापना के समय आवश्यकता से कम पूँजी अनुमानित की जाती है तो भविष्य में कम्पनी अल्प-पूँजीकरण की स्थिति में लगने लगती है।
  5. कार्यक्षमता का ऊँचा स्तर (High standard of efficiency)-जब कम्पनी में विवेकीकरण एवं आधुनिकीकरण को अपनाया जाता है तो इससे कम्पनी की कार्यक्षमता काफी ऊँची हो जाती है. परिणामतः कम्पनी की आय-अर्जन क्षमता बढ़ जाती है जो अल्प-पूँजीकरण की परिचायक होती है।

अल्प-पूँजीकरण का प्रभाव (Effects of Under-capitalisation)

Table of Contents

अति-पूँजीकरण की भाँति अल्प-पँजीकरण भी कम्पनी. अंशधारी श्रमिक एवं समाज सभी को प्रभावित करता है। संक्षेप में, अल्प-पूँजीकरण के प्रभावों का निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन किया जा सकता

कम्पनियों पर प्रभाव (Effects on Companies)

(1) प्रतियोगिता में वृद्धि (Increasing competition)-चूँकि अल्प-पूँजीकरण के अन्तर्गत कम्पनी को अधिक लाभ होते हैं जिसके कारण उस व्यवसाय में नई-नई संस्थाएँ स्थापित होने लगती हैं, परिणामतः उस व्यवसाय में प्रतियोगिता बढ़ जाती है।

(2) श्रम सम्बन्धों में तनाव (Tension in labour relations)-चूँकि अल्प-पूँजीकृत कम्पनियों के भा में वृद्धि हो जाती है जिसके कारण श्रमिक वर्ग प्रबन्ध से अधिक मजदूरी एवं बोनस की मांग करते हैं जिसके पूरा न होने पर प्रबन्ध एवं मजदूरों के बीच तनाव पैदा हो जाता है।

(3) उपभोक्ताओं द्वारा आन्दोलन (Opposition by consumers)-जैसा कि हम जानते ही हैं कि अल्प-पूँजीकरण में कम्पनी के लाभ बढ़ जाते हैं। परन्तु जब यह बात उपभोक्ता की जानकारी में आ जाती है तो वह यह अनुभव करते हैं कि कम्पनी उनसे अधिक मूल्य वसूल करके अपने लाभ बढ़ा रही है। परिणामतः वे कम्पनी से वस्तुओं के मूल्य कम करने की माँग करते हैं।

(4) अंशों में सट्टा (Speculation in shares)-अल्प-पूँजीकृत कम्पनियों में ऊँची दर से लाभांश वितरित किये जाते हैं जिससे अंशों के बाजार मूल्य में आकस्मिक उतार-चढ़ाव होते रहते हैं जो सट्टे की क्रियाओं को प्रोत्साहित करते हैं।

(5) सरकारी नियन्त्रण एवं हस्तक्षेप की सम्भावना (Possibility of govt. interference) यदि किसी कम्पनी में बहुत ज्यादा लाभ होते हैं तो सरकार भी उस कम्पनी पर अपना नियन्त्रण बढ़ा देती है। अतः अल्प-पूँजीकृत कम्पनियों में लाभांश की दर ऊँची होने के कारण सरकारी नियन्त्रण एवं हस्तक्षेप बढ़ने की सम्भावना रहती है।

अंशधारियों पर प्रभाव (Effects on Shareholders)

सामान्यतः अल्प-पूँजीकरण की स्थिति में अंशधारियों को लाभ ही होता है। अल्प-पूंजीकरण के । अंशधारियों पर पड़ने वाले प्रभाव की संक्षिप्त चर्चा निम्नलिखित

(1) आधक लाभांश की प्राप्ति (High dividend)-अल्प-पंजीकरण की स्थिति में अंशधारिया का नियमित रूप से ऊँची दर पर लाभांश प्राप्त होता है।

(2) पूँजीगत लाभ (Capital gains)-अल्प-पूँजीकरण की स्थिति में अंशों के बाजार मूल्य में वटि हो जाती है जिससे अंशों के बेचने पर अंशधारियों को पूँजीगत लाभ प्राप्त होता है।

(3) ऋण प्राप्ति में सुविधा (Easy in getting loans)-यदि अंशधारियों को ऋण लेने की आवश्यकता होती है तो अल्प-पूँजीकृत कम्पनी के अंशों की जमानत पर आसानी से ऋण प्राप्त हो जाता है क्योंकि समपाश्विक प्रतिभूति (Collateral Security) के रूप में अंशों की उपयोगिता बढ़ जाती है।

  1. श्रमिकों पर प्रभाव (Effects on Workers)

अल्प-पूँजीकरण के अन्तर्गत कम्पनी के लाभ बढ़ने के कारण श्रमिकों को अधिक वेतन एवं मजदूरी । बोनस तथा अधिक सुविधाएँ प्राप्त होने लगती हैं।

  1. समाज पर प्रभाव (Effects on Society)

(1) नये उद्यमियों को प्रोत्साहन (Encouragement to new entrepreneurs)-चूंकि अल्प-पूँजीकरण की स्थिति में लाभ बढ़ जाते हैं, अत: नये उपक्रमियों को उस व्यवसाय में आने का प्रोत्साहन मिलता है।

(2) वर्ग संघर्ष (Class conflict)-अल्प-पूँजीकरण की स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति के मन में एक सन्देह उत्पन्न हो जाता है कि कम्पनी मजदूरों एवं उपभोक्ताओं का शोषण करके ही अधिक लाभ कमा रही है। परिणामतः मजदूरों एवं मालिकों तथा उपभोक्ताओं के बीच गम्भीर तनाव उत्पन्न हो जाता है।

(3) पूँजी-निर्माण को प्रोत्साहन (Encouragement to capital formation)-अल्प-पूजीकरण की स्थिति में लाभांश की दर ऊँची होने के कारण विनियोक्ताओं में संचय क्षमता तथा विनियोजन की तत्परता बढ़ जाती है। अतः स्पष्ट है कि अल्प-पूँजीकरण पूँजी-निर्माण को प्रोत्साहित करता है।

अल्प-पूँजीकरण का उपचार (Remedy for Under-capitalisation)

कम्पनी के संचालकों को जब यह प्रतीत होने लगे कि कम्पनी के साधारण अंशों पर दी जाने वाली लाभांश की दर उसी प्रकार की कम्पनियों में प्रचलित सामान्य दर से निरन्तर अधिक है और इसके कारण ही कम्पनी के साधारण अंशों का बाजार-मूल्य उनके सम-मूल्य से बहुत अधिक होता जा रहा है तो उन्हें यह जान लेना चाहिए कि कम्पनी अल्प-पूँजीकृत है । अतः प्रबन्धकों को शीघ्रताशीघ्र पुनः पूँजीकरण (recapitalisation) के द्वारा इस असन्तुलन की स्थिति को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए अन्यथा अल्प-पूँजीकरण कालान्तर में अति-पूंजीकरण में परिवर्तित हो जाता है। अल्प-पूंजीकरण की स्थिति को ठीक करने के लिए मुख्यत: अग्रांकित उपाय काम में लिए जा सकते हैं

  1. अंशों का उप-विभाजन (Splitting-up of shares)-यदि बड़े सम-मूल्य वाले अंशों को छोटे सम-मूल्य वाले अंशों में करके उसी अनुपात में अंशों की संख्या को बढ़ा लिया जाय अर्थात् अंशों का उप-विभाजन कर लिया जाय तो इससे प्रति अंश लाभांश की मात्रा कम हो जायेगी। यद्यपि इससे कुल अंश-पूँजी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा परन्तु इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव अवश्य पड़ेगा और अल्प-पूँजीकरण के लक्षणो में कुछ कमी दिखायी देने लगेगी।
  2. बोनस अंशों का निर्गमन (Issue of bonus shares)-सामान्यतः अल्प-पूँजीकृत कम्पनियों में पर्याप्त कोष एकत्रित हो जाते हैं। अल्प-पूँजीकरण से छुटकारा पाने के लिए कम्पनियाँ इन कोषों का पंजीकरण। कर सकती हैं। इसके लिए कम्पनी को प्रत्येक अंशधारी को उसके द्वारा पहले से धारित अंशों के अनुपात म। बोनस अंश वितरित करने चाहिए। ऐसा करने से कम्पनी में अंशों की संख्या बढ़ जाती है जिससे कम्पनी की। आय पूर्ववत् रहने पर भी प्रति अंश लाभांश में कमी हो जायेगी।
  3. नये अंशों का निर्गमन (Issue of fresh shares)-यदि कम्पनी समता अंशों पर व्यापार की नीति का अनुसरण कर रही है तो ऐसी दशा में नवीन अंशों का निर्गमन करके अल्प-पूँजीकरण की स्थिति को ठीक किया जा सकता है। नये अंशों का निर्गमन करने से पूँजी की मात्रा बढ़ जायेगी एवं लाभांश दर सामान्य स्तर पर आ जायेगी।

chetansati

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