BCom 3rd Year Financial Management Capitalisation Study Material Notes In Hindi

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अति-पूँजीकरण

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(Over-Capitalisation)

सामान्य व्यक्ति अति-पूँजीकरण का अर्थ पूँजी की अधिकता से लगाता है जबकि यथार्थ में ऐसा नहीं है। वास्तव में अति-पूँजीकरण एक सापेक्ष शब्द है जिसका प्रयोग सदैव किसी फर्म विशेष की पर्याप्त आय उपार्जित करने की असमर्थता को व्यक्त करने के लिए किया जाता है।

जब कोई कम्पनी कुल विनियोजित पूँजी द्वारा इतनी आय प्राप्त करने में निरन्तर असफल रहती है कि वह अंश-पूँजी पर उचित दर से लाभांश दे सके, तो ऐसी दशा को अति-पूँजीकरण कहते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि जब कम्पनी की औसत आय की तुलना में पूँजीकरण की राशि अधिक होती है तो उसे अति-पूँजीकरण कहते हैं।

यह ध्यान देने योग्य है कि दीर्घकालीन अध्ययन के पश्चात् ही अति-पूँजीकरण की विद्यमानता का निर्णय लिया जा सकता है क्योंकि अल्पकाल में तालाबन्दी, हड़ताल, अग्निकांड जैसी असामान्य घटनाओं के कारण किसी वर्ष कम्पनी की आय इतनी कम हो सकती है कि वह प्रचलित दर से लाभांश न दे सके। यह भी सम्भव है कि स्थापना के बाद कुछ वर्षों तक शुद्ध लाभ की मात्रा इतनी कम हो कि कोई लाभांश ही घोषित न हो पाये तो इसे हम अति-पूँजीकरण नहीं मान सकते । अतः निरन्तर कुछ वर्षों की प्रगति के सूक्ष्म अध्ययन के पश्चात् ही हम यह कह सकते हैं कि अति-पूँजीकरण है या नहीं। वास्तव में अति-पूँजीकरण दीर्घकालिक अनियमितता का परिणाम है।

बानविले एवं डिवे (Bonneville and Dewey) के अनुसार,” जब एक फर्म अपनी अदत्त प्रतिभूतियों पर उचित दर से प्रत्याय उपार्जित करने में असमर्थ होती है. तो वह अति-पूँजीकृत कही जाती है ।

गेस्टनबर्ग (Gestenberg) के अनुसार, “एक निगम तब अधि-पूँजीकृत होता है जब उसके द्वारा अर्जित आय निर्गमित स्कन्धों तथा बन्धों (Bonds) की राशि पर उचित दर से लाभांश एवं ब्याज देने के लिए पर्याप्त न हो अथवा जब देय प्रतिभूतियों का पुस्तक-मूल्य सम्पत्तियों के वर्तमान मूल्य से अधिक हो ।”

एच. गिलबर्ट के अनुसार, “जब कोई कम्पनी अपनी देय प्रतिभूतियों पर (उसी उद्योग में वैसी ही कम्पनियों के अर्जन तथा निहित जोखिम मात्रा को ध्यान में रखते हुए) बाजार में वर्तमान दर से प्रत्याय अर्जित करने में लगातार असमर्थ रहती है तो उसे अति-पँजीकत कहा जाता है।”

हॉगलैण्ड के अनुसार, “जब कभी किसी निगम में स्थाई सम्पत्तियों का वास्तविक मूल्य अंशों तथा बन्धों (Bonds) के द्वारा प्राप्त पूँजी के सम-तुल्य (par-value) से अधिक हो जाये तो ऐसी दशा में कम्पनी अति-पूँजीकृत कहलायेगी।

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि अति-पूँजीकरण की स्थिति व्यवसाय में तभी उत्पन्न होती है जबकि व्यवसाय के लाभ इतने कम हो जाते हैं कि निर्गमित प्रतिभतियों पर उचित दर से प्रत्याय नहीं दिया जाता अर्थात् अति-पूँजीकरण की दशा में निर्गमित अंशों की राशि कम्पनी की आवश्यकताओं से बहुत अधिक हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप लाभांश दर घट जाती है और कम्पनी के अंशों का मूल्य बाजार में गिर जाता है। अन्य शब्दों में, जब निगम या कम्पनी के निर्गमित अंशों एवं बन्धकों या ऋणपत्रों का सम-मूल्य उनकी स्थाई सम्पत्तियों के मूल्य से अधिक हो जाता है तो ऐसी स्थिति में उस निगम या कम्पनी में अति-पूँजीकरण होगा।

अति-पूँजीकरण को कैसे पहचाना जाए ?

(How Over-capitalisation can be identified?)

अथवा

अति-पूँजीकरण का परीक्षण (Test of Over-capitalisation)

अति-पूँजीकरण का अर्थ समझने के बाद प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि इस बात का पता कैसे लगाया जाये कि कोई कम्पनी अति-पूँजीकृत है? इस सम्बन्ध में विभिन्न विद्धानों के विचारों में भिन्नता पायी जाती है। इस सम्बन्ध में मुख्य रूप से दो विचारधाराएँ देखने को मिलती हैं

1. अंशों के सम-मूल्य तथा बाजार मूल्य की तुलना द्वारा अति-पूँजीकरण को ज्ञात करना (Determination of over-capitalisation by comparing par-value and market value of shares)-कुछ विद्वान अंशों के सम-मूल्य (par-value) एवं उनके बाजार मूल्य (market value) की तुलना करके अति-पूँजीकरण की स्थिति सिद्ध करते हैं। इनके अनुसार यदि अंशों का बाजार मूल्य उनके सम-मूल्य से कम हो जाये तो यह अति-पूँजीकरण का प्रतीक होता है। अति-पूँजीकरण को गणितीय रूप में निम्न प्रकार अभिव्यक्त कर सकते हैं

Par-value per share > Market value per share

अंशों के बाजार मूल्य का अभिप्राय औसत बाजार मूल्य से है।

2. अंशों के पस्तकीय मल्य (आन्तरिक मल्य) तथा वास्तविक मूल्य की तुलना रीति द्वारा अति-पंजीकरण को ज्ञात करना (Determination of Over-capitalisation by comparing intrinsic value (book-value) and real Talue of the shares)-दूसरे वर्ग के विद्वान अंशों के पस्तकीय मल्य (book-value) तथा वास्तविक मूल्य (real value) की तुलना करके अति-पूँजीकरण की स्थिति सिद्ध करते हैं। उनके अनुसार यदि अंशों का पुस्तकीय मूल्य उनके वास्तविक मूल्य से अधिक है तो यह अति-पंजीकरण। का परिचायक होता है। इसे गणितीय भाषा में निम्नांकित प्रकार व्यक्त किया जा सकता है
Over-capitalisation = Book Value or Intrinsic Value per Share >

Real Value per Share

इन दोनों विचारधाराओं को भली प्रकार समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि अंशों के सम-मल्य बाजार मूल्य, पुस्तकीय मूल्य एवं वास्तविक मूल्य से क्या तात्पर्य है।

अंशों का सम-मूल्य (Par value of shares)-अंशों के सम-मूल्य से अभिप्राय अंशों के अंकित मूल्य से है।

अंशों का बाजार मूल्य (Market value of shares)-अंशों का बाजार मूल्य वह मूल्य है जिस पर अंशों को स्कन्ध बाजार में उद्धृत किया जाता है।

अंशों का पुस्तकीय मूल्य (Book value of shares)-अंशों का पुस्तकीय मूल्य वह मूल्य है जो अंश-पूँजी और स्वामित्व कोष एवं अधिशेष की कुल राशि में कम्पनी के कुल अदत्त अंशों की संख्या का भाग देने पर प्राप्त होता है।

अंशों का वास्तविक मूल्य (Real value of shares) कम्पनी की पूँजीकृत आय में अदत्त अंशों की संख्या का भाग देने पर जो मूल्य प्राप्त होता है, उसे अंशों का वास्तविक मूल्य कहते हैं। पूंजीकृत आय ज्ञात करने के लिए औसत वार्षिक आय में पूँजीकरण दर का गुणा कर देते हैं। .

यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना नितान्त आवश्यक है कि अति-पूँजीकरण को पहचानने के लिए अंशों के पुस्तकीय मूल्य तथा वास्तविक मूल्य की तुलना करना ही अधिक युक्तिसंगत है न कि सम-मूल्य से बाजार मूल्य की तुलना। सम-मूल्य क्योंकि सदैव स्थिर होता है एवं अधिशेष एवं स्वामिगत संचित कोष को सम-मूल्य में शामिल नहीं किया जाता जबकि इन पर भी अंशधारियों का पूरा अधिकार होता है। इसी प्रकार बाजार मूल्य अत्यन्त परिवर्तनशील तत्व है और इस पर कम्पनी की वित्तीय स्थिति एवं लाभ उपार्जन करने की क्षमता के साथ-साथ अन्य कईं बाहरी कारणों का भी प्रभाव पड़ता है; जैसे, बाजार में अंशों की माँग एवं पूर्ति, तेजी व मन्दी का व्यापक-चक्र, सामान्य मूल्य-स्तर, क्रय शक्ति, आदि। अतः सम-मूल्य से बाजार मूल्य की तुलना करके कम्पनी के पूँजीकरण की स्थिति जाँच करना अनुचित होगा।

व्यवसाय के पुस्तक-मूल्य एवं वास्तविक मूल्य की तुलना रीति-अति-पूँजीकरण के परीक्षण हेतु कुछ विद्वान व्यवसाय के पुस्तक-मूल्य (Book value) एवं उसके वास्तविक मूल्य (Real value) की तुलना रीति का भी प्रयोग करते हैं। यदि पुस्तक-मूल्य वास्तविक मूल्य से अधिक है (अथवा वास्तविक मूल्य, पुस्तक-मूल्य से कम है) तो यह माना जायेगा कि कम्पनी में अति-पूँजीकरण की स्थिति है।

अब प्रश्न यह उठता है कि पुस्तक-मूल्य क्या है और वास्तविक मूल्य क्या है? पुस्तक मूल्य (Book value) का आशय विनियोजित पूँजी का लेखों में दर्शाया गया मूल्य है जबकि वास्तविक मूल्य का सम्बन्ध व्यवसाय की लाभोपार्जन क्षमता से होता है जिसे कम्पनी की औसत आय को बाजार में प्रचलित पूँजीकरण की दर पर पूंजीकृत करके ज्ञात किया जाता है ।

chetansati

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