पूँजीकरण के सिद्धान्त
Table of Contents
(Theories of Capitalisation)
किसी व्यावसायिक संस्था के लिए आवश्यक पूँजी की मात्रा का निर्धारण कैसे किया जाये, वस्तुतः यह एक जटिल एवं महत्त्वपूर्ण कार्य है। पूँजीकरण की राशि का निर्धारण मुख्यतः निम्नलिखित दो सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता है
1 पूँजीकरण का लागत सिद्धान्त (Cost Theory of Capitalisation),
2 पूँजीकरण का आय उपार्जन सिद्धान्त (Earning Theory of Capitalisation)
पूँजीकरण का लागत सिद्धान्त (Cost Theory of Capitalisation)
इस सिद्धान्त का अनुसरण मुख्यतः नव-प्रवर्तित संस्थाओं हेतु पूँजी की मात्रा निर्धारित करने के लिए किया जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार पूंजीकरण की कुल राशि का अनुमान परियोजना (projects) के विभिन्न अंगों की लागत से आंका जाता है; जैसे, स्थायी सम्पत्तियों तथा कार्यशील पूँजी हेतु वांछित पूँजी,प्रवर्तन एवं संगठन के अनुमानित व्ययों की रकम, आदि । इन सबकी लागतों के योग के बराबर की रकम ही पूजीकरण की आवश्यक मात्रा को स्पष्ट करती है । इस प्रकार इस सिद्धान्त के आधार पर पूँजी की मात्रा का निर्धारण करने के लिए प्रारम्भिक व्ययों, स्थायी सम्पत्तियों एवं कार्यशील पूँजी की राशि, आदि के सम्बन्ध में पूर्वानुमान लगाने । पडते हैं। ये पूर्वानुमान गत अनुभव के आधार पर, उसी प्रकार के व्यवसाय करने वाली संस्थाओं के वित्तीय विवरणों के आधार पर या वित्तीय विशेषज्ञों के परामर्श के आधार पर लगाये जा सकते हैं । ऊपरी तौर से यह सिद्धान्त युक्तिसंगत दिखाई पड़ता है क्योंकि सम्पत्तियों की लागत के आधार पर ही पूँजी की मात्रा तय की जाती है।
इस सिद्धान्त के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यही दिया जा सकता है कि यह एक सरल एवं सुविधाजनक सिद्धान्त है। किन्तु इस प्रकार निर्धारित पूँजीकरण की मात्रा किसी विशेष समय पर व्यवसाय के चालू विनियोग मल्य को प्रदर्शित नहीं करती। अतः कार्यरत कम्पनियों की दशा में पूँजीकरण का लागत सिद्धान्त, पूंजीकरण का सही चित्र प्रस्तुत नहीं करता है । यथार्थ में सम्पत्ति का वास्तविक मूल्य उसके द्वारा अर्जित आय पर निर्भर करता है कि कि उसकी लागत पर । यदि सम्पत्तियाँ अधिक मूल्य पर खरीद ली जायें या व्यापारिक तेजी के
समय खरीदी जायें या कुछ सम्पत्तियां व्यापार में निरर्थक पड़ी रहें या अप्रचलित हो जायें तो ऐसी दशा में व्यवसाय की आय क्षमता कम हो जायेगी और निगम उचित दर से लाभांश प्रदान नहीं कर पायेगा, अत: पूंजीकरण का अनुमान भ्रान्तिमूलक हो जायेगा। वास्तव में लागत सिद्धान्त केवल उन्हीं व्यवसायों के लिए उपयुक्त है जहाँ स्थिर पूँजी की मात्रा अधिक होती है एवं आय भी निरन्तर तथा अनियमित रूप से होती रहती है; जैसे, जनोपयोगी व्यवसाय ।
पूँजीकरण का आय उपार्जन सिद्धान्त (Earning Theory of Capitalisation)
पूँजीकरण का आय उपार्जन सिद्धान्त, पूँजीकरण के लागत ।सद्धान्त की कमियों के ऊपर एक सुधार है। आय सिद्धान्त के अनुसार कम्पनी की पूँजी की मात्रा उसकी अनुमानित आय को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाती है। दूसरे शब्दों में, पूँजीकरण से अभिप्राय कम्पनी की अनुमानित आय के पूँजीकृत मूल्य से है।
इस सिद्धान्त के अनुसार पूँजीकरण की राशि का निर्धारण निम्नांकित सूत्र की सहायता से किया जा सकता है
पूँजीकरण की राशि = अनुमानित वार्षिक आय X पूँजीकरण दर
अतः स्पष्ट है कि आय सिद्धान्त के अनुसार पूँजीकरण की मात्रा निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित दो बातों का ज्ञान होना आवश्यक है
(i) अनुमानित वार्षिक आय (Estimated Annual Income);
(ii) पूँजीकरण की दर (Rate of Capitalisation)
(i) अनुमानित वार्षिक आय–किसी भी व्यवसाय में आगामी वर्ष की आय का अनुमान लगाना सरल कार्य नहीं है। नव-प्रवर्तित संस्था की तुलना में पूर्व-स्थापित संस्थाओं में आय का अनुमान लगाना सरल होता है क्योंकि उनकी विगत वर्षों की आय के आधार पर भावी आय की प्रवृत्ति ज्ञात की जा सकती है।
नव-प्रवर्तित संस्था की दशा में उसी प्रकार के व्यवसाय में समान आकार-प्रकार की कुछ कार्यरत कम्पनियों की आय की तुलना करके प्रस्ताविक कम्पनी की सम्भावित आय का अनुमान लगाया जा सकता है। इसके लिए सर्वप्रथम नव-प्रवर्तित संस्था की कुल माँग का अनुमान लगाना होगा और तदुपरान्त एक निश्चित मूल्य स्तर के आधार पर कुल बिक्री की राशि का अनुमान लगाया जायेगा। इसमें से परिचालन व्ययों एवं खर्चों को निकालने के बाद शुद्ध आय ज्ञात कर ली जायेगी। ऐसा करते समय प्रस्तावित कम्पनी का आकार, प्रबन्ध का स्तर, सामान्य मूल्य स्तर, कर नीति, उपभोक्ताओं की रुचि तथा आर्थिक दशा, आदि सभी बातों पर विचार कर लेना आवश्यक होगा।
पूर्वस्थापित संस्थाओं के सम्बन्ध में भावी आय का अनुमान लगाने के लिए सर्वप्रथम पिछले कुछ ऐसे वर्षों का चुनाव करेंगे जो कम्पनी के विगत इतिहास में अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के वर्षों का प्रतिनिधित्व करते हों। इसके बाद लिये गये वर्षों की औसत आय ज्ञात कर लेते हैं। हडताल अथवा तालाबन्दी वाले वर्षों को छोड़ देते हैं।
यह ध्यान रहे कि पिछले वर्षों की आय में केवल व्यापारिक अर्थात् आयगत लाभों का ही समावेश किया जाना चाहिए न कि पूँजीगत लाभों का। इसके साथ-साथ व्यापारिक लाभ की गणना कर (tax) घटाने के पश्चात् ही की जानी चाहिए।
(ii) पूँजीकरण की दर-अनुमानित औसत आय को जिस दर पर पूँजीकृत किया जाये उसे ही पूँजीकरण की दर कहते हैं। दूसरे शब्दों में, पूँजीकरण दर वह प्रत्याय दर (Rate of Return) है जो कम्पनी विशेष को विनियोक्ताओं से धन प्राप्त करने के लिए देनी आवश्यक है। अत: यह दर उसी उद्योग में संलग्न कुछ कम्पनियों में दिये जाने वाले लाभांश की दरों एवं उनके साधारण अंशों के बाजार मूल्यों के आधार पर अनुमानित। की जा सकती है। यह दर अलग-अलग उद्योगों एवं क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न हो सकती है।
पूँजीकरण दर की गणना के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है
पंजीकरण दर (Capitalisation Rate) = Market Price per Equity Share
Earning per Equity Share
उदाहरण के लिए, किसी कम्पनी के अंशों का बाजार मूल्य 20 रुपये है तथा प्रति अंश अर्जन 2 रु. है तो पूँजीकरण की दर 20 = 10 होगी जबकि प्रत्याय की दर (Rate of Return) = 2 x 100 = 10% होगी।
पूँजीकरण दर को मूल्य अर्जन अनुपात (Price Earning Ratio) भी कह सकते हैं।
आय उपार्जन सिद्धान्त के आधार पर पूँजीकरण की राशि निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित सूत्रों का प्रयोग किया जाता है
(A) जब पूँजीकरण दर या मूल्य अर्जन अनुपात ज्ञात हो
Amount of Capitalization = Average Estimated Annual Income x
Capitalisation Rate
(B) जब प्रत्याय दर (Rate of Return) ज्ञात हो
C_100 xi
100
C = 100 xi
Where, C = Amount of Capitalisation
i = Estimated Income
r = Rate of return
उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण माना कि किसी कम्पनी की सम्भावित औसत आय 50,000 रुपये वार्षिक है। उसी प्रकार की दूसरी कम्पनियों में विनियोजित पूँजी पर 10% की दर से आय उपार्जित की जाती है तो पूँजीकरण की राशि ज्ञात कीजिए।
C = 100xi _ 100X50,000 = Rs 5,00,000 =
r 10
पूँजीकरण का यह सिद्धान्त अधिक युक्तिसंगत है क्योंकि कम्पनी का पूँजीकरण उसकी आय उपार्जित करने की योग्यता के आधार पर ही किया जाता है। परन्तु यह सिद्धान्त तभी उपयोगी है जब सम्भावित आय एवं पूँजीकरण की दर का ठीक-ठीक अनुमान लग जाये जबकि व्यावहारिक जीवन में दोनों की शुद्ध गणना करना अत्यन्त दुष्कर है।
दोनों सिद्धान्तों में से कौन-सा सिद्धान्त श्रेष्ठ है?
दोनों में से कौन-सा सिद्धान्त श्रेष्ठ है यह एक सापेक्ष प्रश्न है। वस्तुतः कोई-सा भी सिद्धान्त स्वतन्त्र रूप से पूर्ण नहीं है। फिर भी ऐसी संस्थाओं में जिनकी स्थिर पूँजी अधिक होती है और आय निरन्तर एवं नियमित रूप से होती रहती है (जैसे, जनोपयोगी व्यवसाय), की दशा में पूँजीकरण का लागत सिद्धान्त उपयुक्त है। इसके साथ-साथ नये उपक्रमों के लिए भी लागत सिद्धान्त द्वारा ही पूँजीकरण की राशि निर्धारित करनी चाहिए. जबकि विद्यमान उपक्रमों के सम्बन्ध में आय सिद्धान्त अधिक उपयुक्त होगा।