BCom 3rd Year Financial Management Capitalisation Study Material Notes In Hindi

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अति-पूँजीकरण के कारण (Causes of Over-capitalization)

अति-पूँजीकरण के लिए अनेक कारण उत्तरदायी होते हैं । यह आवश्यक नहीं कि अति-पूँजीकरण प्रवर्तकों द्वारा प्रारम्भ में लगाये गये गलत अनुमानों का ही परिणाम हो, बल्कि बाद में कम्पनी प्रबन्धकों द्वारा अपनायी गयी गलत नीतियों के कारण भी अति-पूँजीकरण की दशा उत्पन्न हो सकती है। यही नहीं, कई बार बाहरी कारणों से भी अति-पूँजीकरण हो सकता है । अति-पूंजीकरण के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं

  1. आय का गलत अनुमान (Wrong estimate of earnings)-जब किसी कम्पनी के प्रवर्तन के समय अर्जित की जाने वाली आय का अधिक अनुमान लगा लिया जाता है तो इससे कम्पनी में अति-पंजीकरण हो जाता है क्योंकि अनुमानित आय के आधार पर ही पूंजीकरण की राशि निर्धारित की जाती है। आय के अधिक अनमान लगा लेने पर कम्पनी को उसके अनुरूप आय नहीं प्राप्त होती और अति-पंजीकरण की स्थिति

बन जाती है। मान लीजिए कि आरम्भ में आय का अनुमान 25,000 रुपये आंका गया, जिससे 10% की प्रचलित दर से पूँजीकृत करके पूँजीकरण की कल मात्रा 2.50,000 रु. निश्चित की गयी। बाद में यह ज्ञात हुआ कि अनुमान के विपरीत वास्तविक आय केवल 21.000 रु. ही है, अतः पूंजीकरण की मात्रा 10% से केवल 2,10,000 रुपये ही होनी चाहिए थी। इस त्रुटि का परिणाम यह होगा कि कम्पनी 40,000 रुपये से अति-पूँजीकृत हो जायेगी।

  1. निम्न दर पर पूँजीकरण (Capitalization at a lower rate)-यदि पूँजीकरण की मात्रा निर्धारित करने में पूँजीकरण की प्रचलित प्रत्याय दर की तुलना में निम्न पंजीकरण दर का प्रयोग कर लिया जाता है तो इससे भी पूँजी की मात्रा आवश्यकता से अधिक हो जाती है। मान लीजिए उपर्युक्त उदाहरण में यह ज्ञात होता है कि पूँजीकरण की दर 10 प्रतिशत न होकर 12 प्रतिशत होनी चाहिए थी। 10 प्रतिशत पर 25,000 रुपये का पूँजीकरण 2,50,000 रुपये हुआ जबकि 12 प्रतिशत पर यह केवल 2,00,000 रुपये ही होना चाहिए था।
  2. अधिक पूँजी का निर्गमन (Excess capital floatation)-यदि कम्पनी अंश या ऋणपत्र जारी करके आधक पूँजी एकत्रित कर लेती है तो बहुत-सी पूँजी व्यवसाय में निष्क्रिय हो जाती है । कम्पनी को इस पूँजी पर लाभांश लो देना पड़ता है, लेकिन कम्पनी को उससे कोई आय नहीं होती। परिणामतः प्रति अंश लाभांश की दर गिर जाती है औ -पूँजीकरण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।
  3. प्रवर्तन की ऊँची लागत (High cost of promotion)-अति-पूँजीकरण की स्थिति कम्पनी के प्रवर्तन के समय प्रारम्भिक व्ययों पर आवश्यकता से अधिक राशि व्यय हो जाने के कारण भी उत्पन्न हो सकती है।
  4. उदार लाभांश नीति (Liberal dividend policy) कभी-कभी कुछ कम्पनियों में अपनी साख जमाने के लिए लाभांश की उदार नीति का अनुसरण किया जाता है परिणामस्वरूप ऊँची दर से लाभांश घोषित किया जाता है। ऐसा करने से लाभ का अधिकांश भाग तो अंशधारियों में बँट जाता है और ह्रास एवं सुरक्षित कोषों की मदों के लिए समुचित व्यवस्था नहीं हो पाती जिसके कारण कुछ समय उपरान्त ही अति-पूँजीकरण के लक्षण दिखायी देने लगते हैं।
  5. दोषपूर्ण ह्रास नीति (Defective depreciation policy)-कभी-कभी उपक्रम में दोषपूर्ण ह्रास नीति के कारण भी अति-पूँजीकरण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कुछ कम्पनियां ह्रास,प्रतिस्थापन एवं अप्रचलन की पर्याप्त व्यवस्था नहीं कर पातीं । यद्यपि सम्पत्तियों के निरन्तर प्रयोग में रहने से उनकी आय उपार्जन क्षमता एवं उनका वास्तविक मूल्य घटने लगता है परन्तु ह्रास एवं अप्रचलन के लिए पर्याप्त राशि की व्यवस्था न होने के कारण संयन्त्रों की प्रतिस्थापना करना कठिन होता है। इस प्रकार सम्पत्तियों के पुस्तक-मूल्य की तुलना में वास्तविक मूल्य कम हो जाने के कारण अति-पूँजीकरण की अवस्था उत्पन्न हो जाती है।
  6. स्फीतिकाल में कम्पनी का निर्माण (Formation of the company during inflationary period) सामान्य रूप से स्फीतिकाल में मूल्य-स्तर ऊँचा होता है। अतः यदि स्फीतिकाल में कम्पनी का निर्माण किया जाता है तो स्वाभाविक है कि सम्पत्तियों का क्रय अधिक मूल्यों पर किया जायेगा। परिणामतः स्फीतिकाल में स्थापित कम्पनियों में पंजीकरण की मात्रा अधिक निश्चित की जायेगी। लेकिन स्फीतिकाल समाप्त हो जाने पर कम्पनी की आय गिर जाती है जबकि पूँजी की मात्रा पूर्ववत् ही रहती है फलस्वरूप कम्पनी अति-पूँजीकृत हो जाती है।
  7. ऊँची कर दरें (High rates of taxation) कभी-कभी ऊँची कर दरें भी अति-पंजीकरण का महत्त्वपूर्ण कारण बन सकती हैं। जब निगम-कर की दर अत्यन्त ऊँची निश्चित की जाती है तो कम्पनियों के पास इतनी विशुद्ध आय नहीं बचती कि वे प्रचलित दर से लाभांश दे सकें।

chetansati

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