BCom 1st Year Human Resource Accounting Study Material Notes In Hindi

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मानवीय संसाधन लेखांकन के विभिन्न पहलू

Table of Contents

(Various Aspects of H. R. A.)

जैसा कि प्रारम्भ में बताया गया है, परम्परागत लेखा-विधि मानवीय संसाधनों को ‘सम्पदा’ की मान्यता नहीं प्रदान करती है। हाँ, इनके प्रयोग सम्बनधी खर्चों को आगम-व्यय के रूप में लेखांकित अवश्य करती है। वर्तमान में ‘मानवीय सम्पदा’ या ‘मानवीय पुँजी’ की अवधारणा जोर पकड़ती जा रही है। इसी के फलस्वरूप लेखांकन की उक्त नयी विचारधारा का प्रवाह हआ है। इस नयी लेखांकन विचारधारा के मुख्य पहलू इस प्रकार हैं

(1) मानवीय संसाधनों को सम्पदा (asset) माना जाये या नहीं।

(2) यदि सम्पदा माना जाये, तो इसका मूल्य कैसे मापा जाये?

(3) सम्पदा मानने की स्थिति में मानवीय संसाधनों की इन्वेण्टी व उनके अप्रचलन के लिए किस लेखांकन सिद्धान्त का प्रयोग किया जाये। इन सभी पहलुओं का स्पष्ट विवेचन अग्रवत है

क्या मानवीय संसाधन सम्पत्ति है?

(Is Human Resource an Assets?)

अर्थशास्त्रियों का मत (Economists’ Opinion) मानव की दक्षता, बुद्धि व ज्ञान पूजी है या नहीं, इस अवधारणा पा अर्थशास्त्रियों ने काफी चिन्तन वाईबासाहतीं शताब्दी के मध्य में अर्थशास्त्री सर विलियम पेटी (Sir William Petty) ने का माद्रिक रूप में मुल्यांकित करने का प्रयत्न किया था और तब से इस अवधारणा को व्यापक स्तर (Macro Level )के अथशास्त्रियों ने प्रयक्त किया है। व्यापक स्तर पर मानव को उत्पादन का साधन मात्र न मानकर पूजी मानने का श्रेय पेटी के अतिरिक्त प्रख्यात व प्रतिष्ठित. नव-प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रिया को जाता है । बिसवी शताब्दी के मध्य में कछ अर्थशास्त्रियों को मानव पूंजी अर्थशास्त्री की श्रेणी में रखा गया। इनमें से थियोडोर डब्ल्यू. शुल्ज प्रमुख हैं, जिनका मत है, “मानव प्राणी को पंजीगत वस्तु न मानने का कारण मानव-छवि के विषय में भावनात्मक दृष्टि व उसके मानव-छवि के विषय में भावनात्मक दष्टि व उसके मापने में निहित जटिलता और अव्यावहारिकता ही है।” लिस्टर सी.थरो (Lester C.Thurow) के अनुसार, मानव प्राणियों  की उत्पादकता सम्बन्धी क्षमता के मापन के साधन के रूप में ही मानव पूजी अवधारणा को आर्थिक विश्लेषण में लाग किया गया। जो अर्थशास्त्री मानव पूंजी की अवधारणा का विरोध करते हैं, उनका तर्क यह है कि व्यक्तिगत दक्षता व योग्यता को कभी भी पँजी नहीं माना जा सकता क्योंकि उनमें हस्तान्तरणीयता की कमी होती है और उनके मापन में कठिनावई होती है. लेकिन यह तर्क सैद्धान्तिक न होकर व्यावहारात्मक है।

लेखापालकों का मत (Accountants’ Opinion) जैसा कि अन्यत्र बताया गया है, लेखापालकों ने भी प्रारम्भ में मानव संसाधन को पूँजी या सम्पत्ति नहीं माना और इसे कभी भी खाताबहियों व वित्तीय विवरणों में नहीं दिखाया। इसके लिए कई कारण उत्तरदायी थे ।

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(1) व्यक्तियों को सम्पत्ति के रूप में समझना व खातों में दर्शाना सरल नहीं है: परिभाषा के अनसार सम्पत्ति वह है जिसे हस्तान्तरित किया जा सके और संस्था की समाप्ति पर जिनका कोई मल्य हो, परन्त व्यक्तियों को बेचा नहीं जा सकता और न ही व्यवसाय की समाप्ति पर उनका कोई मूल्य ही होता है और जो सम्पत्ति नोटिस देकर संस्था को छोड दे उसे किसी भी माने में सम्पत्ति नहीं कह सकते है।

(2) प्रारम्भ में ही सम्पूर्ण लेखा पद्धति अंशधारियों, सरकार, बाह्य व्यक्तियों के प्रति ही सेवा अर्पण का कार्य करती रही है; आन्तरिक प्रबन्धक को सूचना प्रदान करने का नहीं। फलस्वरूप मानव संसाधन के उसी अंग का लेखा रखा जाता रहा है, जो उनके द्वारा अर्पित सेवा के बदले में किये गये भुगतान (वेतन व मजदूरी) से सम्बन्धित रहा हो।

(3) मानव संसाधन के लागत व मूल्य की मापन सम्बन्धी कठिनाइयों के कारण भी इन्हें सम्पत्ति नहीं माना गया। परन्तु हाल ही में लेखापालकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ। वर्तमान काल में व्यावसायिक संस्थाओं द्वारा कर्मचारियों की भर्ती, प्रशिक्षण व उनके विकास पर बड़ी मात्रा में धन खर्च किया जा रहा है जिसके पीछे उद्देश्य यही है कि योग्य व कशल व्यक्तियों से संस्था को भविष्य में सतत रूप में लाभ मिलता रहेगा। अत: इन व्यक्तियों की भर्ती, प्रशिक्षण, आदि पर किया गया व्यय विनियोग है, न कि आयगत व्यय। चूंकि संस्था को एक सततन चलने वाली इकाई माना गया है। अत: मानवीय संसाधनों के विकास पर किये गये खर्च से प्राप्त भावी लाभ के कारण इस विनियोग को सम्पत्ति माना जा सकता है। इस प्रकार वर्तमान में लेखांकन विशेषज्ञों द्वारा मानव संसाधन को सम्पत्ति की मान्यता प्रदान की गयी है।

मानव संसाधन का मूल्यांकन

(Valuation of Human Resources)

मानव संसाधन को सम्पत्ति मानने के बाद दूसरी समस्या उसके सम्पत्ति के रूप में मल्य-मापन की है। इस सम्बन्ध में अब तक जो भी शोध कार्य हुए हैं, उनके अनुसार मूल्य मापन की निम्न विधियाँ हैं

(1) ऐतिहासिक लागत विधि (Historical Cost Method)

(2) पुनर्स्थापन लागत विधि (Replacement Cost Method)

(3) अवसर लागत विधि (Opportunity Cost Method)

(4) मॉडल्स के आधार पर (On the basis of Models)

(1) ऐतिहासिक लागत विधि (Historical Cost Method) भौतिक सम्पत्तियों के मूल्यांकन की यह विधि मानव संसाधनों के मूल्यांकन में भी प्रयोग की जा सकती है। इस विधि के अनुसार व्यक्तियों को भर्ती करने, चुनाव करने, कार्य पर लगाने, प्रशिक्षित करने व विकसित करने में जो कुछ भी खर्च किया जाता है, उन्हें ही पंजीकृत कर दिया जाता है। व्यक्तियों की सेवा काल की अवधि का अनुमान लगाकर पूँजीकृत मूल्य को उस सम्पूर्ण अवधि के दौरान समान किस्तों में अपलिखित किया जाता है। न । अपलिखित किये गये मूल्य को सम्पत्ति के रूप में दर्शाया जाता है।

आलोचनात्मक समीक्षा-भौतिक सम्पत्तियों की भाँति मानव संसाधनों की सेवा काल का ठीक-ठीक पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है। साथ ही मानव संसाधनों को प्रशिक्षित व विकसित इसलिए किया जाता है कि संस्था के लिए उनका मूल्य भावी वर्षों में बढ़ जाये। उक्त विधि में इस मूल्य सम्वर्द्धन को ध्यान में नहीं रखा जाता है। बल्कि दूसरी तरफ इनका मूल्य वर्ष प्रति वर्ष अपलेखन के कारण कम होता जाता है। इस विधि द्वारा मूल्यांकित रकम की सूचना विनियोजकों के लिए कोई महत्व नहीं रखती है। प्रबन्ध के लिए भी ऐतिहासिक लागत की सूचना कोई माने नहीं रखती है। थियोडोर डब्ल्यू.शुल्ज ने इस विधि को अस्वीकार करते हुए लिखा

“प्रत्येक प्रकार की मानव पूँजी का मूल्य उसके द्वारा प्रदत्त सेवाओं के मूल्य पर निर्भर करता है न कि उसके मूल्य लागत पर।”

(2) पुनर्स्थापन लागत विधि (Replacement Cost Method) इस विधि के अनुसार मानव संसाधनों का पुनर्स्थापन मूल्य (अर्थात् विद्यमान मानव संसाधनों को पुनस्थापित करने की लागत) ज्ञात किया जाता है। इसको दो तरीकों से ज्ञात किया जा सकता है। प्रथम, एक विशेष पद पर कार्य करने वाले व्यक्ति के स्थान पर प्रतिस्थानापन्न व्यक्ति को, जो उस पद पर वही कार्य कर सकता है, लगाने पर होने वाली लागत को मूल्य माना जा सकता है। जैसे एक उत्पादन अधीक्षक की पुनर्स्थापन लागत दूसरे उत्पादन अधीक्षक को नियुक्त करने में होने वाली लागत को माना जा सकता है। इसे पदीय पुर्नस्थापन लागत (Positional Replacement Cost) कहते है। इसमें पुराने पदाधिकारी की जगह नये पदाधिकारी की भर्ती, चुनाव, कार्य पर लगाना व विकास करने में होने वाले व्ययों को शामिल करते हैं। द्वितीय, किसी विशेष व्यक्ति को पुर्नस्थापित करने में होने वाली लागत को मूल्य माना जा सकता है। इस लागत को व्यक्तिगत पुनस्र्थापन लागत (Personal Replacement Cost) कहते हैं। यह एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से, जो पहले वाले व्यक्ति के सभी पदों पर समान सेवा कर सकता हो, बदलने में होने वाले व्ययों को शामिल किया जाता है। व्यक्तिगत पुनर्स्थापन लागत की अवधारणा आर्थिक मूल्य की अवधारणा से मिलती-जुलती है। लागत को निर्धारित करते समय मानव संसाधनों को चालू मूल्य व कीमत-स्तर में परिवर्तनों को भी ध्यान में रखा जाता है।

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आलोचनात्मक समीक्षा-इस विधि की अच्छाई यह है कि वह व्यवसाय में कार्यरत कर्मचारियों का आर्थिक मूल्य ज्ञात करने में सहायता करती है। इसके द्वारा अनुमानित मूल्य वर्तमान मूल्य पर आधारित है, जो प्रबन्ध की निर्णयन प्रक्रिया में पर्याप्त सहायक होता है, परन्तु व्यवहार में ऐसे व्यक्ति की खोज करना, जो पहले से कार्य कर रहे व्यक्ति के समान ही योग्य हो, कठिन कार्य बन जाता है। इस तथ्य के कारण पुनस्थापन लागत अवास्तविक बन कर रह जाती है। यही नहीं, पूनर्स्थापित लागत का अनुमान भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा भिन्न-भिन्न लगाया जा सकता है।

(3) अवसर लागत विधि (Opportunity Cost Method) इसे कभी-कभी प्रतिस्पर्धात्मक बोली (Competitive bidding) विधि भी कहते हैं। इस विधि का प्रयोग तभी किया जाता है, जब कर्मचारियों की उपलब्धि सीमित हो अर्थात मानव सम्पदा का अर्थ सीमित कर्मचारियों से लगाया गया हो। एक सीमित कर्मचारी की सेवाओं को प्राप्त करने से लाभ में होने वाली वृद्धि को ज्ञात किया जाता है। सामान्य प्रत्याय की दर (R.O.I.) से लाभ में इस वृद्धि का पंजीकरण कर लिया जाता है और इस पूँजीकृत मूल्य को। संस्था की आधार पूँजी में जोड़ दिया जाता है एवं इस नयी पूँजी की रकम के आधार पर सामान्य दर से लाभ की गणना की जाती है।। इस नयी पूँजी पर आकलित लाभ या मूल पूँजी पर अर्जित लाभ पर आधिक्य को पंजीकत कर लिया जाता है। आधिक्य लाभ के इसी। पूंजीकृत मूल्य तक अधिकतम बोली लगायी जाती है। प्रतिस्पर्धात्मक बोली लगाकार अवसर लागत ज्ञात कर ली जाती है। जिन। विभागों या विनियोग केन्द्र अधिकारियों द्वारा सीमित कर्मचारी की भर्ती करने की इच्छा को प्रकट किया जाता है, वे ही प्रतिस्पद्धात्मक। बोली लगाते हैं।

आलोचनात्मक समीक्षा-इस विधि के प्रयोग से मानव संसाधनों का पूनर्मूल्यांकन सम्भव होता है जो प्रबन्ध के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। इस सूचना से प्रबन्ध मानव संसाधनों का उचित ढंग से नियोजन व विकास कर सकता है। पुनस्थापन लागत की कमियों को यह विधि दूर करती है, परन्तु इसका प्रयोग तभी किया जा सकता है, जब संस्था में कार्यरत कर्मचारीयों सीमित (Scarce) हो। अन्य शब्दों में, यह विधि उन कर्मचारियों को सम्पत्ति मानती ही नहीं, जो सीमित न हो। सीमित व अन्य वर्ग विभेद के कारण कर्मचारियों के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यही नहीं, उच्च प्रबन्ध की दशा में बोली लगाना सम्भव ही नहीं होता है। अत: उच्च प्रबन्ध के मूल्यमापन में इस विधि का प्रयोग असम्भव है। यही नहीं, एक कर्मचारी को कार्य पर लगाने से लाभ में भावी वृद्धि का पता लगाना भी जटिल कार्य है।

(4) मॉडल्स के आधार पर (On the basis of Models) बहुत से विद्वानों ने मानव संसाधनों के मूल्यांकन की समस्या को हल करने के प्रयास में कुछ मॉडल्स निर्मित किये है। इनमें से कुछ प्रमुख का वर्णन नीच किया गया है

(अ) लेव एवं श्वार्ज मॉडल्स (Level  and Schwartz’s Model) यह मॉडल भावी आय के वर्तमान मूल्य पर आधारित है तथा बचे हुए सेवा काल से संस्था के लिए कर्मचारी (व्यक्ति) के आशंसित आर्थिक मूल्य को मान्यता प्रदान करता है। भावी आय का अनुमान लगाया जाता है और यह आय कर्मचारी के अवकाश ग्रहण की तिथि तक की अवधि के लिए होती है। इन आयों को एक उचित दर से हासिल करके वर्तमान मल्य जात कर लिया जाता है। सामान्यतः यह दर संस्था के लिए पंजी की लागत की दर के बराबर ही मानी जाती है। इस मॉडल का सूत्र इस प्रकार है

इस मॉडल की यह मान्यता है कि कर्मचारी संस्था में नौकरी करते हुए भविष्य में अपनी भूमिका को नहीं बदलेंगे। लेव एवं श्वार्ज ने सभी कर्मचारियों को समान व समरूप वर्गों में (जैसे, अकुशल, अर्द्धकुशल व कुशल) में बाँट दिया है। विभिन्न आयु वर्ग वाले व्यक्तियों की औसत आय ज्ञात करके और सम्बन्धित वर्ग को ध्यान में रखते हुए मानव संसाधनों का वर्तमान मूल्य निर्धारित किया जाता है। भारत में भेल (BHEL) ने इसी मॉडल का प्रयोग किया है।

आलोचनात्मक समीक्षायह मॉडल आर्थिक मूल्य की अवधारणा को लेकर चला है और कर्मचारी के बचे हुए सेवाकाल के लिए ही मानव पूँजी मूल्य को ज्ञात किया जाता है परन्तु जब कर्मचारी अवकाश ग्रहण की तिथि से पहले ही संस्था को छोड़ देता है। या उसकी मृत्यु हो जाती है, तो इस मॉडल से ज्ञात किया गया मूल्य सही नहीं माना जा सकता है। यह मान्यता भी गलत है कि कर्मचारी अपनी भमिका को नहीं बदलता है। कभी-कभी तो संस्था को भूमिका ही बदल जाती है। ऐसी स्थिति में कर्मचारी के मल्य में भी परिवर्तन सम्भव लगता है। इस मॉडल में इन सब तथ्यों को ध्यान में नहीं रखा गया है।

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chetansati

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