BCom 3rd Year Financial Management Planning Study Material Notes In Hindi

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एक श्रेष्ठ वित्तीय योजना के लक्षण या विशेषताएँ

Table of Contents

अथवा

आदर्श वित्तीय योजना की विशेषताएँ या लक्षण

(Characteristics of a Sound Financial Plan)

निगम की भावी सफलता वित्तीय योजना पर ही निर्भर करती है। यदि इसके तैयार करने में पर्याप्त अनुभव, ठोस ज्ञान एवं दूरदर्शिता का सहारा लिया जाये, तो यह भविष्य में निगम के लिए वरदान सिद्ध होती। है। इसके विपरीत, अदूरदर्शिता, अपरिपक्व ज्ञान एवं अनुभवहीनता के आधार पर जल्दबाजी में बनायी गयी वित्तीय योजना व्यवसाय के लिए एक अभिशाप बन जाती है। स्पष्ट है कि किसी भी व्यवसाय की सफलता काफी सीमा तक उसकी वित्तीय योजना पर निर्भर करती है। अतः एक व्यवसाय की वित्तीय योजना बहत अधिक सावधानीपूर्वक तैयार की जानी चाहिए जिसे श्रेष्ठ वित्तीय योजना कहा जा सके। एक श्रेष्ठ (आदर्श या सुदृढ़) वित्तीय योजना में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है

1 सरलता (Simplicity)-सुदृढ़ वित्तीय योजना में सरलता का गुण होना आवश्यक है। सरलता से अभिप्राय यह है कि पूँजी-ढाँचे का स्वरूप इस प्रकार का हो कि वह विनियोक्ताओं की समझ में आसानी से आ जाये और निर्गमित की जाने वाली प्रतिभूतियों की प्रकृति एवं लाभदायकता के विषय में उनके मस्तिष्क में कोई शंका उत्पन्न न हो। ऐसा होने से विनियोक्ता संस्था की पूँजी में विनियोजन करने हेतु स्वयं ही तैयार हो जाते हैं और संस्था को आवश्यक वित्त की प्राप्ति आसानी से हो जाती है। इसके साथ-साथ सरल वित्तीय योजना का प्रबन्ध एवं नियन्त्रण करने में भी सुविधा रहती है।

2 उद्देश्यपरकता (Objectivity)-उसी वित्तीय योजना को श्रेष्ठ कहा जाता है, जिसका निर्माण फर्म के उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है। अतः वित्तीय योजना का निर्माण करने से पूर्व योजनाकर्ताओं के मस्तिष्क में इस बात का स्पष्ट चित्र होना चाहिए कि वित्तीय योजनाओं का निर्माण किन उद्देश्यों को लेकर किया जाना है।

3 लोचशीलता (Flexibility)-वित्तीय योजना कतिषय मान्यताओं पर आधारित होती है तथा ये मान्यताएँ अनेक आन्तरिक एवं बाहरी कारकों से प्रभावित होती रहती हैं। अतः भावी दशाओं का बिल्कुल सही अनुमान लगाना प्रायः असम्भव होता है। वस्तुओं की मांग, मूल्य-स्तर, सरकारी कर नीति. श्रम-नीति. आदि कारकों में यदि अचानक परिवर्तन होता है, तो उसके अनुरूप वित्तीय योजना में भी परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है। इसके अतिरिक्त व्यवसाय में विस्तार या संकुचन हो जाने के कारण भी वित्तीय योजना में परिवर्तन की आवश्यकता पड़ सकती है। इसलिए आवश्यक है कि वित्तीय योजना कठोर व जड़ न होकर लोचपूर्ण होनी चाहिए जिससे आवश्यकतानुसार कोई भी फेर-बदल किया जा सके।

4 तरलता (Liquidity) कार्यशील पूंजी का एक निश्चित भाग नकदी में रखा जाना ही तरलता का कहलाता है। व्यवसाय के सफलतापूर्वक संचालन के लिए पर्याप्त तरलता की व्यवस्था होना अनिवार्य है। अनेक बार तरलता के अभाव में व्यावसायिक संस्था अपनी देनदारियों का समय पर भुगतान नहीं कर पाती जिसका उसकी ख्याति तथा स्थायित्व पर बुरा प्रभाव पड़ता है। अतः सुदृढ़ वित्तीय योजना में तरलता का होना नितान्त आवश्यक है। जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि तरलता का क्या अनुपात रखा जाय-यह संस्था के आकार, साख-स्थिति, व्यापार चक्र की दिशा और व्यवसाय की प्रकृति पर निर्भर करता है।

5 दरदर्शिता (Foresichtedness)-एक सदढ वित्तीय योजना में वर्तमान आवश्यकताओं के साथ-साथ भावी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जाता है। वित्तीय योजना ऐसी होनी चाहिए जो कम्पनी। की स्थिर एवं कार्यशील पूँजी की आवश्यकताओं को भली प्रकार पूरा कर सके एवं भविष्य में कम्पनी का विस्तार एवं विकास के लिए आवश्यक अतिरिक्त पूँजी के लिए अनुकूल वातावरण एवं परिस्थितियों को प्रोत्साहन दे सके।

6 कोषों का पूर्ण उपयोग (Full utilization of funds)-सुदृढ़ वित्तीय योजना उसे ही कहा जा। सकता है जो कोषों के पूर्ण उपयोग को सम्भव बना पाती है। ऐसा तभी सम्भव है जब पूँजी की मात्रा एव वित्तीय आवश्यकताओं में पूर्ण सामंजस्य हो अर्थात् उचित पूँजीकरण की स्थिति हो । अति पूँजीकरण अथवा अल्प पूँजीकरण दोनों ही स्थिति नहीं होनी चाहिए।

7 मितव्ययिता (Economy) वित्तीय योजना में पूँजी प्राप्त करने व प्रतिभूतियों के निर्गमन से सम्बन्धित व्ययों को न्यूनतम रखा जाना चाहिए, तभी वित्तीय योजना सुदृढ़ मानी जायेगी।

वित्तीय योजना का प्रारूप तैयार करते समय ध्यान देने योग्य बातें

(Factors to be considered in drafting a Financial Plan)

अथवा

वित्तीय योजना को प्रभावित करने वाले तत्व

(Factors affecting the Financial Plan)

वित्तीय योजना का निर्माण मख्य रूप से पर्याप्त पँजी की व्यवस्था करने, न्यूनतम लागत पर पूँजी एकत्रित करने तथा लागत एवं जोखिम में सन्तुलन स्थापित करने के उद्देश्य से किया जाता है। अत: व्यवसाय की वित्तीय आवश्यकताओं और विभिन्न वित्तीय स्रोतों के वैकल्पिक महत्त्व को निश्चित करने के पश्चात् ही वित्तीय योजना तैयार करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ प्रश्न भी विचारणीय हैं जिन पर ध्यान केन्द्रित करना आवश्यक है। संक्षेप में, वित्तीय योजना तैयार करते समय निम्नलिखित तत्वों पर भली-भाँति विचार कर लेना चाहिए

  1. व्यवसाय की प्रकृति (Nature of business)-व्यवसाय की प्रकृति, वित्तीय नियोजन को प्रभावित करने वाला महत्त्वपूर्ण घटक है। सामान्यतः पूँजी प्रधान व्यवसायों में अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है। जबकि श्रम प्रधान व्यवसायों में कम पूँजी की। कुछ व्यवसाय ऐसे होते हैं जिनमें उत्पादन एवं विक्रय निरन्तर वर्ष पर्यन्त होता रहता है, जबकि कुछ व्यवसाय मौसमी प्रकृति के होते हैं ; जैसे-चीनी उद्योग, ऊनी वरु उद्योग, बर्फ और शीत पेय उद्योग आदि। इससे भी पूँजी की मात्रा की आवश्यकता प्रभावित होती है। स्थिर एवं नियमित आय वाले उद्योग उच्चावचन वाले उद्योगों की तुलना में सरलतापूर्वक पूँजी एकत्रित कर सकते हैं।
  2. जोखिम की मात्रा (Amount of risk)-व्यवसाय की अनिश्चितता एवं जोखिम भी वित्तीय योजना के प्रारूप को प्रभावित करती है। अधिक जोखिम वाले उद्योगों को अपनी पूँजी जुटाने के लिए स्वामी पूँजी वाली प्रति पूतियों (जैसे-अंश) पर निर्भर रहना पड़ता है क्योंकि ऐसे उद्योगों में ऋण-पूँजी प्रदान करने में ऋणदाता संकोच करते हैं, इसके विपरीत कम जोखिम वाले उद्योगों की दशा में ऋण-पूँजी सरलतापूर्वक मिल जाती है। अतः ऐसे व्यवसायों में स्वामी पूँजी कम रखकर ‘समता पर व्यापार’ (Trading on Equity) का लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
  3. वैकल्पिक वित्तीय साधनों का मूल्यांकन (Appraisal of alternative sources of finance)-वित्तीय योजना का प्रारूप तैयार करते समय, समय-विशेष पर बाजार में उपलब्ध विभिन्न वित्तीय साधनों का अध्ययन आवश्यक है । इसके लिए बाजार में प्रचलित तथा लोकप्रिय प्रतिभूतियों के अंकित मूल्य, निर्गमन लागत तथा अन्य तथ्यों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना चाहिए। यह निश्चित करने के लिए कि किस-किस स्रोत से कितना धन एकत्रित करना है, इस बात पर भी विचार करना होगा कि उस साधन से उस समय धन एकत्रित करने का अनुकूल समय भी है या नहीं।
  4. भावी विस्तार की योजनाएँ (Plans for the future expansion)-वित्तीय योजना का निर्माण केवल वर्तमान आवश्यकताओं को ही ध्यान में रखकर नहीं किया जाता बल्कि इसमें भविष्य की विस्तार योजनाओं का भी ध्यान रखा जाता है । इसके लिए वित्तीय योजनाओं में पर्याप्त लोच रखी जाती है।
  5. प्रबन्धकों का दृष्टिकोण (Attitude of managers)-प्रबन्धकों का दृष्टिकोण भी वित्तीय नियोजन को प्रभावित करता है। यदि प्रबन्धकगण एवं वर्तमान स्वामी, नियन्त्रण अपने ही हाथों में केन्द्रित करना चाहते हैं तो समता अंशों का अधिक निर्गमन नहीं करेंगे या बहुत कम करेंगे। ऐसे प्रबन्धक विस्तार के लिए अतिरिक्त वित्त की प्राप्ति हेतु संस्थागत ऋणों तथा लाभों के पुनर्विनियोजन को प्रोत्साहन देते हैं।
  6. सरकारी नियन्त्रण (Government control)-वित्तीय योजना का निर्माण करते समय सरकारी नीतियों, वित्त नियन्त्रणों व अन्य वैधानिक व्यवस्थाओं को भी ध्यान में रखना चाहिए।
  7. पूँजी की लागत (Cost of capital)-पूँजी-ढाँचे के निर्माण में पूँजी की लागत पर विचार करना बहुत आवश्यक होता है । पूँजी के सभी साधनों की लागत समान नहीं होती है । कुछ साधन अपेक्षाकृत सस्त। होते हैं, तो कुछ साधन महंगे होते हैं। अत: पँजी-ढाँचे का निर्माण करते समय पूँजी के सस्ते एवं महंगे साधनों का ऐसा मिश्रण (mix) अपनाया जाता है जिससे कि कुल पूंजी की औसत लागत (Average Cost Capital) एक निश्चित काट-बिन्दु (Cut-off Point) से अधिक न बढ़े। इसके लिए पूंजी के समस्त साधनों की भारयुक्त औसत लागत (Weighted Average Cost) की गणना की जाती है।
  8. आय की सम्भावनाएँ (Possibilities of income) सभी व्यवसायों में आय की सम्भावनाएँ एक जैसी नहीं होती। कुछ व्यवसायों में आय की सम्भावनाएँ निश्चित, नियमित एवं स्पष्ट होती हैं जबकि कछ अब व्यवसायों में आय की सम्भावनाएँ अनिश्चित एवं अनियमित होती हैं। आय की प्रकृति की सम्भावनाओं के अनुरूप ही पूँजी-ढाँचे का निर्माण किया जाना चाहिए। इस प्रकार पूँजी-ढाँचे के निर्माण में आय की जिन आवश्यकताओं पर ध्यान देना आवश्यक है, वे हैं-निश्चितता, पर्याप्तता तथा नियमितता। अनिश्चित एवं अनियमित आय वाली परियोजनाओं के पूँजी-ढाँचे में ब्याज अथवा लाभांश सम्बन्धी अनिवार्य दायित्व उत्पन्न करने वाले पूँजी साधनों (जैसे-ऋणपत्र अथवा पूर्वाधिकार अंश) का समावेश वित्तीय संकटों को ही जन्म देता
  9. बाह्य पँजी आवश्यकता की मात्रा (Magnitude of external capital requirement) -यदि व्यवसाय के क्रमिक विस्तार की अवस्था में कुछ ही समय के लिए धन की आवश्यकता हो तो उसके लिए शोधनीय पूर्वाधिकार अंश अथवा ऋणपत्र निर्गमित किये जाने चाहिए।
  10. अन्य बाह्य तत्व (Other external factors)

(A) पूँजी बाजार की दशाएँ (Capital market conditions)-मन्दी की दशाओं में जब लाभांश की दरें कम होती हैं तो लाभ की सम्भावनाएँ अनिश्चित होती हैं, तब समता अंशों की अपेक्षा ऋणपत्र अधिक लोकप्रिय होते हैं। यह समय ऋणपत्रों के निर्गमन के लिए अनुकूल होता है। इस दशा में पूर्व निर्गमित ऊंची ब्याज दर वाले ऋण पत्रों को नवीन नीची दर वाले ऋणपत्रों द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है। इसके विपरीत, तेजी के काल में जब लाभ की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं, ऋणपत्रों के बजाय समता अंशों की माँग अधिक बढ़ जाती है। अतः पूँजी का स्वरूप निश्चित करते समय पूँजी बाजार की विद्यमान दशाओं को ध्यान में रखकर ही पूँजी-ढाँचे का निर्धारण किया जाना चाहिए।

(B) विनियोजकों की मनोवैज्ञानिक दशा (Psychology of investors)-सब विनियोक्ता समान नहीं होते । कुछ लोगों के पास विनियोग के लिए अधिक पूँजी होती है, जबकि कुछ लोगों के पास कम । फिर सबकी प्रकृति एवं धारणाएँ भी समान नहीं होतीं। कुछ विनियोक्ता साहसी होते हैं एवं जोखिम उठाने को तत्पर हो जाते हैं, जबकि अन्य सतर्क होते हैं तथा धन की सुरक्षा एवं निश्चित गारण्टी चाहते हैं । अतः विभिन्न विनियोक्ताओं की माँग के स्वरूप में भी भिन्नता होती है । इसलिए अनेक कम्पनियाँ विभिन्न प्रकार की प्रतिभूतियों का निर्गमन करती हैं ताकि विभिन्न प्रकृति के व्यक्ति एक या अधिक प्रकार की प्रतिभूतियों में पूँजी का विनियोग कर सकें। पूँजी निर्गमन की सफलता विभिन्न विनियोक्ताओं की मनोवैज्ञानिक दशा पर निर्भर होती है।

(C) करारोपण नीति (Taxation policy)-आय-कर अधिनियम के अनुसार कुल आय (gross income) से व्यावसायिक व्यय (business costs) निकाल देने के बाद जो राशि बचती है वह कर-देय (taxable) होती है। अशो पर देय लाभांश व्यावसायिक व्यय नहीं माना जाता जबकि ऋणों पर देय बयाज व्यावसायिक व्यय माना जाता है, तथा अन्य व्ययों के साथ यह कुल आय में से घटाया जाता है। स्पष्ट है कि इस दृष्टिकोण से एक सफल कम्पनी में अतिरिक्त पूँजी का प्रश्न उपस्थित होने पर ऋणपत्रों के निर्गमन को प्राथमिकता दी जायेगी, क्योंकि ऐसा करके कम्पनी निगम कर में पर्याप्त बचत कर लेगी और इसलिए उस सीमा तक उसकी कर रहित आय (income after tax) में वृद्धि हो जायेगी।

chetansati

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