BCom 1st Year Indian Business Environment Study Material Notes in Hindi

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(3) भारतीय अर्थव्यवस्था की अपेक्षाकृत बंद संरचना (closed structure) विकास की दर को उच्चतम स्तर पर ले जाने में बाधक सिद्ध हो रही थी। ऐसा उस समय हो रहा था जिस समय कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में तलनात्मक लाभ विकासमान देशों के पक्ष में जा रहा था। विश्व के इस परिवर्तित आर्थिक पर्यावरण में बहिरोन्मुख व्यापार नीति (outward trade policy) का महत्त्व बढ़ गया, अर्थात् आवश्यकता थी बहुपक्षीयता के विकास.संरक्षण में कमी तथा कठोर व्यापार प्रतिबन्धों को हटाने की। उपर्युक्त उपायों द्वारा भारतीय घरेलू उद्योगों की कार्यक्षमता (efficiency) में वृद्धि तथा बचत के अन्तर्राष्ट्रीय आवागमन पर से रोक हटाकर घरेलू पूंजी के आधार को मजबूत करने की संभावना बढ़ जाती है।

बिमल जालान का भी कहना है कि औपनिवशिक शासन की पृष्ठभूमि में केन्द्र द्वारा निर्देशित विकास योजना को अपनाना उचित ही था। किन्तु, शाघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि इस रणनीति के जो परिणाम निकले वे आशानुकूल नहीं थे। विकास की ऊंची दर, सार्वजनिक बचत की ऊंची दर तथा बड़े पैमाने पर। आत्मनिर्भरता के स्थान पर भारत की वास्तविक विकास दर विकासमान देशों के मध्य निम्नतम रही और साथ ही सार्वजनिक बचत के स्थान पर सार्वजनिक घाटा बढ़ता गया तथा देश को अक्सर भुगतान संतुलन के संकट का सामना करना पड़ा। एक अनुमान के अनुसार 1950 तथा 1990 के चालीस वर्षों की अवधि में तीस वर्षों में भारत ने भुगतान संतुलन की समस्या को झेला।।

किन्तु, भारत के आर्थिक विकास की प्रमुख विफलताएं न तो विकास की निम्न दर रहीं और न ही भुगतान संतुलन की समस्याएं, क्योंकि इनके लिए कुछ-न-कुछ बहाने दिए जा सकते हैं, जैसे—चीन एवं पाकिस्तान से युद्ध, भयानक सूखा, तेल की कीमतों में कई गुना वृद्धि, असहानुभूतिपूर्ण वैश्विक वातावरण, आदि। ये सभी कारण भारत के नियंत्रण के बाहर थे। परन्तु, सर्वाधिक विफलता जिसके लिए कोई बहाना नहीं दिया जा सकता है, रही सार्वजनिक बचत (Public saving) की समाप्ति तथा निवेश या लोक सेवाओं के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में संसाधनों का सृजन न होना।।

यद्यपि भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण (liberalisation) की प्रक्रिया 1980 के दशक के मध्य से ही प्रारंभ हो चुकी थी, तथापि परिवर्तन की यह प्रक्रिया न केवल धीमी थी, अपितु इसमें व्यापकता का अभाव था। किन्तु, 1991 का आर्थिक संकट इतना गहरा था कि व्यापक पैमाने पर आर्थिक सुधार की प्रक्रिया को अपनाया गया। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार घटकर इतना कम हो गया कि उससे मात्र दो महीने की आयात आवश्यकता पूरी हो सकती थी। भारतीय रिजर्व बैंक के स्वर्ण भंडार को अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 600 मिलियन डॉलर की अल्प अवधि के ऋण लेने के लिए मुद्रा कोष के पास अमानत के रूप में रखना पड़ा तथा सोना को वस्तुतः जहाज से भेजना पड़ा। इसलिए 1991 में 1991-92 के केन्द्रीय बजट को सदन में रखते हुए उस समय के वित्त मंत्री, मनमोहन सिंह ने कहा कि अर्थव्यवस्था का संकट तीव्र होने के साथ-साथ गहरा भी है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में हमने कभी भी इस तरह की स्थिति का अनुभव नहीं किया है।

ऐसी ही भीषण आर्थिक परिस्थिति में जुलाई 1991 में तत्कालीन वित्त मंत्री, मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधारों के एक पैकेज की घोषणा की जिसके निम्न उद्देश्य थे :

  • आर्थिक उदारवाद (Economic Liberalism);
  • भूमंडलीकरण (Globalisation); तथा
  • निजीकरण (Privatisation)

इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए निम्न कदम उठाए गए : .

  • औद्योगिक लाइसेन्स प्रणाली की समाप्ति
  • फर्म के आकार पर से प्रतिबन्ध को हटा लेनाः
  • सार्वजनिक क्षेत्र के लिए सुरक्षित क्षेत्र में भारी कटौती;
  • अन्ततः निजीकरण के उद्देश्य को पूरा करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की सरकारी ईक्विटी का

निर्निवेश (disinvestment);

  • आयात शुल्क का पर्याप्त मात्रा में उदारीकरण तथा परिमाणात्मक प्रतिबन्ध की समाप्ति:
  • उत्पाद शुल्कों की दरों में कटौती; तथा
  • व्यक्तिगत आयकर तथा निगम करों की दरों में कटौती।

1990 के दशक के आर्थिक सुधारों के परिणामस्वरूप 15 वर्षों के अन्तर्गत भारत की आर्थिक प्रगति अविश्वसनीय लगती है। नवम्बर 2005 में विश्व आर्थिक मंच (World Economic Forum) के समक्ष प्रधान मंत्री के रूप में भाषण करते हुए मनमोहन सिंह ने कहा कि “आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं, मुझे और भी अधिक विश्वास हो जाता है कि मैंने 1991 में अपने प्रथम बजट में जो कहा था कि भारत प्रथम श्रेणी की आर्थिक शक्ति के रूप में उभरेगा, उसके सच होने का समय आ गया है।” ।

1947-90 की अवधि के आर्थिक विकास को दो हिस्सों में बांटकर देखने से जानकारी मिलती है कि 1950 के दशक से लेकर 1970 के दशक तक भारत की राष्ट्रीय आय की औसत वार्षिक वृद्धि दर 3.5 प्रतिशत थी। 1980 के दशक में इसमें काफी सुधार हुआ और यह औसतन 5.9 प्रतिशत रही। लेकिन 1001 म भारतीय अर्थव्यवस्था एक जानलेवा हिमशिला (fatal iceberg) से टकरा गई। ऐसा दो रूपों में हुआ। कच्चे पेट्रोल की कीमतों में 70 प्रतिशत की बढ़ोतरी तथा पश्चिम एशिया से प्रवासी भारतीयों द्वारा भेजी जाने वाली रकम में भारी गिरावट। इस जानलेवा टक्कर का तीसरा रूप था केन्द्रीय राजकोषीय घाटे में भारी वृद्धि। लेकिन 1990 के आर्थिक सुधारों ने भारतीय अर्थव्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन ला दिया।

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2003 में प्रकाशित Goldman Sachs रपट में चार उदीयमान देशों पर ध्यान दिया गया। ये हैं ब्राजील रूस, चीन तथा भारत। यदि सभी चीजें ठीक से चलती रहें तो इन चारों देशों की अर्थव्यवस्था डॉलर के रूप में G6 के देशों से बड़ी हो जायेगी। 2050 तक विश्व की 10 सर्वाधिक बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का रूप ही बदल जायेगा।

1990 के दशक में आर्थिक सुधारों के परिणामों का विश्लेषण करते हुए बिमल जालान’ का कहना है कि 1956 के बाद पहली बार भारत ने भुगतान संतुलन के मामले में अपने को सुरक्षित महसूस किया। 1991 के पश्चात भारत के आर्थिक विकास के संबंध में दो महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर ध्यान देने की जरूरत है। 1990 के दशक में विश्व की कुछ मजबूत एवं तीव्र गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्थाओं को बार-बार वित्तीय संकट का सामना करना पड़ा। ऐसे देशों में प्रमुख नाम मेक्सिको (1992 और 1995), अर्जेन्टीना (1995 एवं 2001), ब्राजील (1998), रूस (1998), पूर्वी एशिया की टाइगर अर्थव्यवस्थायें (1997) तथा जापान के हैं। लेकिन भारत इन वित्तीय संकटों से अपने को बचाए रख सका यद्यपि उन देशो की तुलना में इसकी अर्थव्यवस्था कमजोर थी। बिमल जालान का कहना है ऐसा इसलिए संभव हो सका, क्योंकि भारत ने आर्थिक सुधारों को अपनाने में सावधानी बरती तथा व्यवहारशीलता (Pragmatism) पर ध्यान दिया, किसी सैद्धान्तिक जाल में नहीं फंसा और न ही प्रसिद्ध विशेषज्ञों तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं की सिफारिशों को पूर्णतः लागू किया। भारत को समझने में देर नहीं लगी कि यद्यपि विश्वस्तरीय वित्तीय बाजारों तथा तकनीकी प्रगति के साथ एकीकरण अनेक नए अवसरों को प्रदान करता है, तथापि विकासशील देश बाहरी धक्कों (External Shocks) से अपने को अधिक असुरक्षित (vulnerable) पाते हैं। इसलिए भारत ने बाहरी संकट से अपने को सुरक्षित रखने के लिए अनेक उपाय किए। ये नीतियां अत्यधिक सफल रहीं तथा 1990 के दशक के अन्त तक भारत एक ऐसे विकासमान देश के रूप में उभरा जिसका बाह्य क्षेत्र काफी शक्तिशाली हो गया था। सावधानीपूर्वक आर्थिक सुधारों को अपनाने के फायदे आगे चलकर 2008 में और स्पष्ट हुए, जब अमरीका, ब्रिटेन, यूरोप तथा अन्य विकसित एवं विकासशील देशों को भयानक वित्तीय संकट (global economic crisis) से गुजरना पड़ा। इस संकट का उत्केन्द्र (epicentre) अमरीका था जहां यह सितम्बर 2008 में प्रकट हुआ तथा सम्पूर्ण विश्व में फैल गया। इसकी गंभीरता को देखते हुए इसे विशाल वित्तीय पतन (massive financial collapse), वित्तीय चक्रवात (financial tornado), वित्तीय सुनामी (financial Tsunami) आदि की संज्ञा दी गयी।

बिमल जालान के अनुसार, 1990 के दशक के आर्थिक सुधारों के संबंध में दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सफल समष्टि आर्थिक प्रबन्धन के बावजूद धारणीय (sustainable) उच्च आर्थिक विकास के लिए आवश्यक संस्थागत तथा प्रशासकीय सुधारों की दिशा में अधिक प्रगति नहीं हो सकी। भारतीय अर्थव्यवस्था की बनियाद अब निस्सन्देह पहले से अधिक मजबूत है, फिर भी राजनीतिक, आर्थिक तथा शासन के क्षेत्र में देश के समक्ष अनेक पुरानी तथा नई चुनौतियां हैं जिनके समाधान के लिए, राजनीतिक इच्छा-शक्ति की आवश्यकता

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निष्कर्ष (Conclusion)

1980 के दशक के विकास दर में संगति (consistency) नहीं थी। इस दशक के अंतिम 3 वर्षों में विकास की औसत दर 7.6 प्रतिशत था। इन तीन वर्षों में विकास दर में वृद्धि के कारण थे महत्त्वपर्ण आर्थिक बोयापार तथा औद्योगिक नीति का उदारीकरण । प्रसारवादी (expansionary) नीति ने 1980 के जाटान किया। किन्तु, इसके कारण विशाल परिमाण में बाह्य ऋण लेना पड़ा जिसने आर्थिक संकट का सृजन किया।

1991 में बाजार सुधारों (market reforms) की प्रक्रिया तेजी से शुरू की गयी और फिर उदारवादी नीतियों (liberalising policy) को अपनाया गया। आर्थिक सुधारों का अच्छा प्रभाव पड़ा। 1988-89 तथा 2008-09 के मध्य की दो दशाब्दियों में भारत के आर्थिक विकास की दीर्घकालीन औसत वार्षिक वृद्धि दर 6.6 प्रतिशत थी। 2005-06 तथा 2007-08 के मध्य वार्षिक औसत वृद्धि दर 9.0 प्रतिशत से अधिक हो गयी। वर्ष 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट से तेजी से उबरने के पश्चात् आज भारतीय अर्थव्यवस्था चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रही है जिसकी परिणति 2012-13 में स्थिर कीमतों पर उपादान लागत पर स.घ. उ. की विकास दर 5% से नीचे पहुंचने के रूप में हुई। वर्ष 2013-14 में यह वृद्धि दर 6.9 प्रतिशत, वर्ष 2014-15 में 7.5 प्रतिशत, 2015-16 में 8%, 2016-17 में 7.1 प्रतिशत रही। वर्ष 2017-18 में अनुमानित वृद्धि दर 6.5% है। इस प्रगति के बावजूद कृषि पर जनसंख्या की निर्भरता बहुत अधिक है। 2011-12 में कुल श्रमिकों के 48.9 प्रतिशत कृषि तथा सहायक कार्यों में रोजगाररत थे. किन्तु 48.9 प्रतिशत श्रमिकों का योगदान राष्ट्रीय आय में मात्र वर्ष 2017-18 में 17.4 प्रतिशत रहा; स्पष्ट है कि इन श्रमिकों की उत्पादकता अति निम्न है। यह भी स्पष्ट है कि तीव्र गति से विकास करते हुए अन्य देशों की तरह भारत में वह परिवर्तन नहीं हुआ है, जिसमें पारम्परिक कृषि व्यवस्था आधुनिक औद्योगिक अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हो जाती है। अतः देश के सम्मुख यह महान चुनौती है कि श्रमिकों को कम उत्पादक कृषि कार्यों से हटाकर अधिक उत्पादक गैर-कृषि कार्यों में लगाया जाय।

पिछले दो दशकों में भारतीय अर्थव्यवस्था में कुछ नाटकीय परिवर्तन हुए हैं। 1990-2000 की अवधि में प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय में 4.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यह वृद्धि दर 2000-2013 की अवधि में 7.3 प्रतिशत तथा 2013-14 एवं 2014-15 में क्रमशः 4.6 तथा 6.3 प्रतिशत हो गयी। स्थिर कीमतों पर प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय में वृद्धि वर्ष 2015-16, 2016-17 तथा 2017-18 में क्रमशः 6.8%, 5.7% तथा 5.3% रही। सूचना प्रौद्योगिकी, संचार, मोटर तथा औषधि जैसे प्रमुख क्षेत्रों के विकास की औसत दर 15 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही। कुल जनसंख्या में निर्धनों का प्रतिशत जो 1987-88 में 39 प्रतिशत था, 2011-12 में घटकर 29.5 हो गया।

आर्थिक नीतियों के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि भारत ने प्रायः निरंकुशता (autarky) के स्थान पर औद्योगिक उत्पादन तथा सेवाओं के क्षेत्र में उन्मुक्त व्यापार को अपना लिया है। आयात लाइसेन्स की व्यवस्था समाप्त हो गयी है। विदेशी निवेश को अनुमति मिल गयी है। इन परिवर्तनों के कारण वस्तुओं तथा सेवाओं का विदेशी व्यापार की वृद्धि दर जो 1990-91 में 17.2 प्रतिशत थी, 2003-07 में बढ़कर 30.10 प्रतिशत हो गयी। यह वृद्धि वैश्विक मंदी के कारण 2009-13 की अवधि में 16.0% ही रही। वर्ष 2016-17 में निर्यात एवं आयात की वृद्धि दर क्रमश: 5.2% तथा 0.9% रही। विदेशी निवेश जो 1990-91 में 100 मिलियन डॉलर था, वर्ष 2016-17 में निवल प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 35.6 बिलियन डॉलर हो गया (1000 मिलियन = 1 बिलियन)।

लघुस्तरीय उद्यमों के लिए आरक्षित क्षेत्र भी प्रायः समाप्त हो गया है। लाइसेन्स व्यवस्था समाप्त कर दी गयी है तथा लोक क्षेत्र (public sector) के एकाधिकार को केवल रेलवे तथा अणु ऊर्जा तक ही सीमित कर दिया गया है। लोक-उद्यमों के निनिवेश (disinvestment) में भी काफी प्रगति हुई है। शायद परिवर्तन का सर्वाधिक नाटकीय एजेण्ट दूरसंचार सेवायें (telecommunication services) रहा है। 1999 से इसमें आशातीत सफलता मिली है। 1990-91 में फोनों की संख्या 60 लाख थी। यह 31 दिसम्बर, 2017 में बढ़कर 119.86 करोड़ हो गयी। 1990-91 में प्रति 100 व्यक्तियों पर दूरसंचार का घनत्व (density) 0.7 था। दिसम्बर 2017 तक यह बढ़कर 91.9% हो गया थ। दिसम्बर 2017 में यह घनत्व शहरी क्षेत्र में 168.29% तथा ग्रामीण क्षेत्र में 56.66% हो गया। इस उद्योग के विकास का एक प्रमुख कारण था निजी क्षेत्र का प्रवेश। निजी क्षेत्र तथा सार्वजनिक क्षेत्र का हिस्सा अब 4 : 1 अनुपात में है अर्थात् 5 फोन में से केवल एक फोन सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा उपलब्ध कराया गया है और 4 निजी क्षेत्र द्वारा।।

पिछले दो दशकों में भारत ने जो आर्थिक विकास किया है उसमें सेवा-क्षेत्र (Services Sector) ने महत्वपूर्ण योगदान किया है। इसमें सूचना प्रौद्योगिकी (Information Technology) के विशेष योगदान के साथ-साथ व्यापार, परिवहन तथा सूचना क्षेत्रों ने भी अंशदान किया है। इसके विपरीत उद्योगों का अंशदान

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तालिका 3.1 के आंकड़ों से स्पष्ट है कि सकल घरेलू उत्पाद (सघउ) में कृषि क्षेत्र का अंशदान जो 1950-51 में 55.28 प्रतिशत था, 1990-91 में घटकर 31.37 प्रतिशत, 2000-01 में लगभग 23.89 प्रतिशत तथा 2013-14 में 18.2 प्रतिशत रह गया। इसके विपरीत सेवा क्षेत्र का अंशदान इसी अवधि में 34 प्रतिशत (1950-51) से बढ़कर 2013-14 में 57.0 प्रतिशत हो गया। सघउ में औद्योगिक क्षेत्र का अंशदान जहां 1950-51 में 10.65 प्रतिशत था, बढ़कर 2013-14 में 24.80% हो गया। इस क्षेत्र में रोजगार का प्रतिशत वर्ष 2011-12 में 24.30 प्रतिशत रहा। कृषि क्षेत्र में रोजगार में कमी हुई है (1993-94 में 65 प्रतिशत से घटकर 2011-12 में 48.9 प्रतिशत)। सेवा क्षेत्र में रोजगार बढ़ा है-1993-94 में 24.2 प्रतिशत से बढ़कर 2011-12 में 26.9 प्रतिशत।

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आर्थिक समीक्षा 2017-18 के अनुसार स्थिर कीमतों (आधार वर्ष 2011-12) पर वास्तविक सकल मूल्य वर्धन (GVA) में वर्ष 2016-17 में कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र का हिस्सा 17.77%, उद्योग क्षेत्र का हिस्सा 27.95% तथा सेवा क्षेत्र का हिस्सा 54.28 प्रतिशत रहा। इसी तरह वर्ष 2017-18 में सकल जी.वी.ए. में कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र का हिस्सा 17.4%, उद्योग क्षेत्र का हिस्सा 27.8% तथा सेवा क्षेत्र का हिस्सा 54.8% रहा।

वैश्विक वित्तीय संकट (2007-09) का प्रभाव भारत पर भी पड़ा, किन्तु उस पैमाने पर नहीं जितना अमरीका तथा यूरोप प्रभावित हुआ। वित्तीय क्षेत्र का आधारभूत (basic) नियम होना चाहिए इसे सुरक्षित रखो, इसे सरल रखो तथा, जैसा वारेन बुफे (Warren Buffet) का कहना है, बड़े पैमाने पर विध्वंस (mass destruction) के वित्तीय अस्त्रों के निर्माण पर ध्यान न दो। रिजर्व बैंक ने अत्यन्त सावधानी से काम लिया तथा मूल नियमों (basic rules) का अनुसरण किया। इसलिए भारत पर इस वित्तीय संकट का प्रभाव पड़ा, लेकिन उतना नहीं जितना अमरीका तथा यूरोप प्रभावित हुए। भारत पर इस संकट का यह प्रभाव पड़ा कि प्रारंभिक महीनों में देश का निर्यात 30 प्रतिशत घट गया तथा वित्त के अन्तर्राष्ट्रीय स्रोत सूख गए। केन्सीय नीति का अनुसरण करते हुए सरकार ने उपयोग व्यय बढ़ाने के उपाय किए। व्यय में वृद्धि करने के लिए करों में कटौती की गई तथा लोक व्यय में वृद्धि तथा बजट घाटे को पाटने के लिए अधिक कर्ज लिए गए। चूंकि 2006-07 तक भारत में केन्द्र तथा राज्य सरकारों का राजकोषीय तथा राजस्व घाटा राजकोषीय उत्तरदायित्वतथाबजट प्रबन्धन अधिनियम 2003 के अन्तर्गत अत्यन्त कम हो चुका था (1990-91 में राजकोषीय घाटा GDP के 8.4 से घटकर वित्तीय संकट के समय 2.5 प्रतिशत), वर्ष 2008-09 में राजकोषीय घाटा पनः बढ़कर 6.0 प्रतिशत तथा वर्ष 2009-10 में कम होकर 6.5 प्रतिशत तक पहुंच गया। इसके उपरांत केन्द्र सरकार के राजकोषीय घाटे में सुधार हुआ और यह क्रमशः घटकर 2017-18 में 3.5 प्रतिशत हो गया। तथा 2018-19 में 3.3 प्रतिशत अनुमानित है। राज्यों का राजकोषीय घाटा जो 2007-08 में 14 प्रतिशत था. 2009-10 में बढ़कर 2.9 प्रतिशत तथा 2014-15 के बजट में घटकर 2.3 प्रतिशत पर पहुंच गया। वर्ष 2015-16 से 2016-17 तक राज्यों के राजकोषीय घाटे में वृद्धि हुई, परन्तु 2017-18 में इसमें पर्याप्त सुधार हुआ।

2007-08 के सितम्बर मास के मध्य से जो वैश्विक वित्तीय संकट प्रारंभ हुआ उसका कम्पन मध्य-सितम्बर 2008 को भारत भी पहुंच गया। वैद्यनाथन अय्यर का कहना है कि मध्य-सितम्बर 2008 से प्रारंभ होने के बाद चार सप्ताहों की अवधि अत्यन्त ही संकटपूर्ण थी। इसी अवधि में इस संकट के समाधान के लिए निर्णय लेना था। भारतीय रिजर्व बैंक ने 4,60,000 करोड़ र के महासागर को खोल अन्ततः दिया। यह वैश्विक वित्तीय संकट वस्तुतः तरलता तथा विश्वास (भरोसा) की कमी से ही प्रारम्भ हुआ था। रिजर्व बैंक ने नकदी की कमी को पूरा करने के लिए जिस महासागर को खोला, उसके पीछे वस्तुतः उस समय के वित्त मंत्री चिदम्बरम की प्रमुख भूमिका थी। उन्होंने ही रिजर्व बैंक को इस गैर-परम्परागत (unorthodox) कदम उठाने के लिए राजी किया। इस कदम के महत्व को समझने के लिए याद रखना होगा कि अक्टूबर 2008 के प्रथम सप्ताह में रिजर्व बैंक ने अत्यन्त ही रूढ़िवादी (conservative) रुख अपनाया था। उस समय वित्तीय संकट के समाधान के लिए 90.000 करोडर की नकदी की जरूरत था, किन्तु रिजर्व बैंक ने सिर्फ 20,000 करोड र ही दिए। रिजर्व बैंक के गवर्नर, सब्बा रेडी को मनवाने का काम वित्तमंत्री ने ही किया। चार सप्ताहों के भारी प्रयत्नों के पश्चात् ही गाड़ी पटरी पर आ सकी। इसके पहले सरकार ने, वैद्यनाथन अय्यर का कहना है कि, कभी भी ऐसा गैर-परम्परावादी निर्णय नहीं लिया था। गैर-परम्परावादी इसलिए कहा गया, क्योंकि उन्मुक्त बाजार का समर्थक निजी क्षेत्र जहां बाजार पर नियंत्रण लगाने की सिफारिश कर रहा था, वहां सरकार ने बाजार व्यवस्था पर विश्वास व्यक्त किया तथा बहुत ही कम समय में इस संकट से अर्थव्यवस्था को उबारा।

भारत निवेश फोरम (India Investment Forum) की सातवीं बैठक न्यूयार्क में अक्तूबर 2010 को हुई। इसमें भाषण करते हुए भारतीय वित्तमन्त्री ने कहा कि वैश्विक वित्तीय संकट से उबरने के लिए भारत ने सितम्बर 2008 से जो कदम उठाए उनके कारण निवेश तथा निजी उपभोग मांग का पुनरुद्धार (revival) अवश्य हुआ है, किन्तु भारत अभी भी 2008 के पूर्व के विकास की गति को प्राप्त नहीं कर सका है। भारत की विकास दर 2005-06 से 2007-08 के दौरान लगातार तीन वर्षों तक 9 प्रतिशत से अधिक रही। यह विकास दर 2004-05 से 2011-12 के दौरान 8.3 प्रतिशत वार्षिक की औसत से गिरकर 2012-13 में 4.9 प्रतिशत की औसत पर पहुंच गयी। जबकि वर्ष 2013-14 तथा 2014-15 में यह क्रमिक रूप से 6.9 प्रतिशत तथा 7.5 प्रतिशत रही। वर्ष 2015-16 में यह विकास दर 8% के स्तर तक पहुंच गयी परन्तु 2016-17 में तफ 7.1% तक आ गयी वर्ष 2017-18 में यह 6.5% अनुमानित है। भारत सरकार की नीति को स्पष्ट करते हुए वित्तमंत्री ने कहा कि यदि हम आर्थिक क्रियाओं का नियमन (regulation) न करें तो निर्धन ऋण के फंदे में फंस जायेंगे तथा 2007 का आर्थिक संकट दुहराया जायेगा। किन्तु, यदि जरूरत से अधिक नियमन (over regulate) किया जाय, तो नवप्रवर्तन (innovation) समाप्त हो जायेगा और इससे आर्थिक विकास को नुकसान पहुंचेगा। अतः उन्मुक्त बाजार तथा नियंत्रण के मध्य एक संतुलन की आवश्यकता है।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 योजनाकरण के प्रथम चार दशकों में भारतीय व्यावसायिक परिदृश्य की स्थिति की जांच करें।

2. हाल के आर्थिक सुधारों के कारण भारतीय व्यावसायिक परिदृश्य में किस तरह के परिवर्तन आए हैं? क्या वे उद्यमों के विकास के लिए अधिक अनुकूल है?

लघु उत्तरीय प्रश्न

1 योजना के प्रथम चार दशकों में भारतीय व्यावसायिक परिदृश्य को चित्रित करें।

2. स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व भारत का व्यावसायिक वातावरण कैसा था?

3. “आर्थिक सुधारों का कार्य अभी भी पूरा नहीं हुआ है।” इस कथन की जांच करें।

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