BCom 1st Year Indian Business Environment Study Material Notes in Hindi

//

BCom 1st Year Indian Business Environment Study Material Notes in Hindi

BCom 1st Year Indian Business Environment Study Material Notes in Hindi: Indian Business Environment before independence Post Independence Business Environment Conclusion  Examinations Questions Long Answer Questions Short Answer Questions ( This Post is most Important For BCom 1st Year Examinations  :

Indian Business Environment
Indian Business Environment

BCom 1st Year Business Environment Economic Component Study Material Notes in Hindi

भारतीय व्यावसायिक पर्यावरण

[INDIAN BUSINESS ENVIRONMENT]

भारतीय व्यावसायिक परिदृश्य की विवेचना करते समय हमें भारतीय आर्थिक नीति के सभी पहलुओं की ओर ध्यान देना होगा।

आर्थिक नीति का अर्थ है देश की अर्थव्यवस्था के सिलसिले में राज्य का आचरण। अर्थव्यवस्था की ओर राज्य की धारणा दो प्रकार की हो सकती है और ये दो छोर पर हैं : (i) अहस्तक्षेप की नीति (Policy of non-intervention) जिसे Laissez-faire अर्थात् ‘अकेला छोड़ दो’ (Leave alone) कहा जाता है, तथा (ii) हस्तक्षेप की नीति (Interventionist policy) जैसा आयोजित अर्थव्यवस्था में होता है।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व भारतीय व्यावसायिक वातावरण

(INDIAN BUSINESS ENVIRONMENT BEFORE INDEPENDENCE)

1947 में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था। इसका भारतीय अर्थव्यवस्था पर दूरगामी प्रभाव पड़ा। इसने हमारी उन्नत अर्थव्यवस्था को औपनिवेशिक, अर्द्ध-सामन्तवादी, पिछड़ी, गतिहीन, शोषित अर्थव्यवस्था में परिवर्तित कर दिया। इसलिए आर. सी. दत्त (R. C. Dutt) ने कहा है कि, “यद्यपि भारत एक निर्धन देश नहीं है, ब्रिटिश शासन को धन्यवाद दें कि यह निर्धन व्यक्तियों का देश बन गया है।” लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि ब्रिटिश शासन के कुछ लाभदायक परिणाम भी निकले जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं :

  • एक नई सामाजिक व्यवस्था;
  • राजनीतिक एकीकरण;
  • परिवहन के साधनों का विकास; तथा
  • कुछ उद्योगों का विकास।

फिर भी इस अवधि का भारतीय व्यावसायिक वातावरण हमारी अर्थव्यवस्था के तीव्रतर आर्थिक विकास के लिए पूर्णतः अनुकूल नहीं था।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व भारतीय व्यावसायिक वातावरण की विवेचना कुछ विस्तार से करने की जरूरत है।

व्यवसाय को एक दिए हुए वातावरण में क्रिया करनी पड़ती है। ब्रिटिश शासन काल में भारतीय व्यवसाय को औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की सीमा के अन्तर्गत कार्य करना होता था। विपिन चन्द्र के अनुसार, ऐसी अर्थव्यवस्था के चार प्रमुख तत्व थे :

Indian Business Environment

(1) इस अर्थव्यवस्था में उपनिवेश का विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ एक जटिल एकीकरण होता है जिसमें उपनिवेश मातहत की स्थिति में क्रिया करता है।

(2) इस अधीनस्थ एकीकरण के कारण भारत ने कच्ची सामग्री तथा खाद्यान्नों के उत्पादन में विशिष्टता हासिल की जबकि ब्रिटेन ने निर्मित वस्तुओं के निर्माण में। भारत खाद्यान्न तथा कच्ची सामग्री का निर्यात तथा निर्मित वस्तुओं का आयात करता था। विदेशी व्यापार शोषण तथा विकासहीनता का माध्यम बन गया।

(3) आर्थिक विकास के लिए बचत आवश्यक है। उस अवधि में भारत में निवेश के लिए आन्तरिक बचत बहुत कम थी और जो बचत होती थी उसका एक बड़ा भाग एक तरफा निर्यात के माध्यम से विदेश चला (drain) जाता था तथा ब्रिटेन में पूंजी के रूप में निवेश होता था।

(4) भारत के लिए आर्थिक नीति का निर्धारण ब्रिटेन में होता था जिसमें ब्रिटिश अर्थव्यवस्था तथा ब्रिटिश जापतिया के हित को ध्यान में रखा जाता था। इस तरह भारत के पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण कारण रहा कृषि सचा उद्योगों के विकास के लिए राज्य की सहायता का अभाव जो प्रारम्भिक चरण में अत्यावश्यक होती है।

निष्कर्ष यह निकलता है कि 1947 के पूर्व भारतीय व्यवसाय को फूलने-फलने के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं मिला। फिर भी उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में रेलवे के विकास के पश्चात् भारत में कुछ उद्योगों का विकास भारतीय उद्यमियों द्वारा हुआ। 1920 के दशक में विभेदात्मक संरक्षण (Discriminating protection) की नीति का अच्छा प्रभाव पड़ा। चीनी उद्योग को तो संरक्षण का शिशु (Child of protection) ही कहा गया। 1939 तक भारत प्रमुख उपभोक्ता वस्तुओं के मामले में प्रायः आत्मनिर्भर हो गया। बचत क्रमशः अधिक मात्रा में सूदखोरी, भूमि, सोना तथा नकद से हटकर निवेशकों के हाथ जाने लगी।

1918 के बाद का औद्योगिक विकास घरेलू बाजारोन्मुख था तथा घरेलू कच्ची सामग्री पर आधारित था। इससे कृषि तथा उद्योग के मध्य घना सम्बन्ध हो गया। उन्नीसवीं तथा बीसवीं सदी के प्रारम्भ में प्रबन्धकीय तथा तकनीकी कर्मचारी भारतीय उद्योगों में भी अधिकांश मात्रा में विदेशी थे, किन्तु 1914 के पश्चात् एक शक्तिशाली स्वदेशी पूंजीपति वर्ग का उदय हुआ जिसके पास स्वतन्त्र आर्थिक एवं वित्तीय आधार था। भारतीय अर्थव्यवस्था विदेशी पूंजी पर आश्रित थी, किन्तु भारतीय पूंजीपति वर्ग ऐसा नहीं था। 1918 के पश्चात् बहुराष्ट्रीय कम्पनियां (बर्माशेल, ब्रुक बाण्ड, आदि) का पदार्पण हुआ, किन्तु भारतीय पूंजी की तुलना में इनका विकास धीमा था। बैंकिंग, बीमा, जूट, जहाजरानी, विदेशी व्यापार, चाय तथा कोयला उद्योगों में विदेशी पूंजी का प्रभुत्व था। 1918 के बाद Federation of India Chambers of Commerce and Industry (FICCI) का गठन हुआ, किन्तु भारत में औद्योगिक क्रान्ति के बिना ही औद्योगिक विकास हुआ।

Indian Business Environment

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् का व्यावसायिक वातावरण

(POST-INDEPENDENCE BUSINESS ENVIRONMENT)

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था विकास के विभिन्न चरणों से गुजरी है तथा प्रत्येक दस या पन्द्रह वर्षों के बाद इसकी ख्याति महान अवसरों के देश से लेकर अनिश्चित भविष्य की अर्थव्यवस्था के मध्य झूलती रही है। इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ में प्रजातंत्र तथा उदीयमान भूमंडलीय आर्थिक शक्ति के रूप में भारत की प्रतिष्ठा चोटी पर है। किन्तु, कुछ ही वर्ष पूर्व 1991 में इस देश को सबसे बुरे आर्थिक संकट से होकर गुजरना पड़ा था। 24 जुलाई, 1991 को 1991-92 का केन्द्रीय बजट प्रस्तुत करते हुए वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था :

अर्थव्यवस्था का संकट तीव्र होने के साथसाथ गहरा भी है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में हमने कभी भी इस तरह की स्थिति का अनुभव नहीं किया है।

इस संकट को समझने के लिए हमें स्वतंत्र भारत के आर्थिक विकास की प्रक्रिया को समझना होगा। 1947 में स्वतंत्रता मिलने के बाद अति शीघ्र इस विषय पर राजनीतिक नेताओं तथा अर्थशास्त्रियों में विस्तृत सहमति बन गई थी कि मौजूदा आर्थिक ढांचे में परिवर्तन लाने तथा आर्थिक विकास की दर में वृद्धि करने के लिए राज्य ही प्रमुख माध्यम होगा। विकासशील देशों की निर्धनता का प्रमुख कारण था असमान देशों के मध्य उन्मुक्त व्यापार, जिसमें ऐसे व्यापार से प्राप्त लाभ का अधिकांश उपनिवेशीय शक्तियों (Colonial powers) को प्राप्त होता था। इसलिए अनेक विकासशील देशों ने विकास की अत्यधिक हस्तक्षेपकारी (interventionist) रणनीति को अपनाया।

1950 के दशक के विकास की हस्तक्षेपकारी रणनीति को न केवल विकासशील देशों के अर्थशास्त्रियों की स्वीकति प्राप्त थी, अपितु औद्योगिक देशों के प्रमुख अर्थशास्त्रियों की भी। जी. रोजेन’ ने अपनी पस्तक में योजना के संबंध में 1955 तथा 1965 के मध्य भारतीय विचार पर पश्चिमी अर्थशास्त्रियों तथा संस्थानों के।

भाव का दिलचस्प विवरण प्रस्तुत किया है। भारतीय अर्थव्यवस्था के बहुक्षेत्रीय योजना मॉडल के निर्माण में MIT के Centre for International Studies ने, उदाहरणार्थ, कई वर्षों तक काम किया। इस कार्य में कई प्रमुख पश्चिमी अर्थशास्त्री लगे हुए थे। इसी अवधि में,मालेनबाम (Wilfred Malenbaum), रोजेनटेन-रोडन (Paul, Rosentein-Rodan), गॉलब्रेथ (John Kenneth Galbraith), बैरॉन (Paul Baran), लांगे (Oscar Lange), कैलेस्की (Michael Kalecki), कॉल्डर (Nicholas Kaldor), फ्रिस्क (Ragnar Frisch), स्ट्रीटन (Paul Streeten), लिट्ल (I. M. D. Little), रेड्डावे (W. B. Reddaway), आदि अर्थशास्त्रियों ने भारत का भ्रमण करके अपने विचार व्यक्त किए। भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास की रणनीति पर उस समय के विद्वानों की विचारधारा का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

Indian Business Environment

स्वतंत्र भारत के आर्थिक विकास पर काफी लिखा गया है। इसको भली-भांति समझने के लिए हमें यह याद रखना होगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त ही पिछड़ा देश था। अमिय कुमार बागची ने 1972 में प्रकाशित अपनी पुस्तक Private Investment in India, 1900-1939 में लिखा कि भारत, जो ब्रिटिश ताज का सर्वाधिक चमकीला रत्न था, 1900 में विश्व के निर्धनतम देशों में से एक बन गया था। ग्रेट ब्रिटेन की 50 पाउण्ड की प्रति व्यक्ति आय की तुलना में भारत की प्रति व्यक्ति आय 2.0 से 2.1 पाउंड (30-40 ₹) थी। उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारत के आर्थिक विकास दर नगण्य थी। जगदीश भगवती एवं पद्मा देसाई ने 1970 में प्रकाशित अपनी पुस्तक India : Planning for Industrialisation में लिखा कि उन्नीसवीं सदी के पूर्व भारत एक महान उत्पादक देश (manufacturing country) था।लेकिन 1947 में हम इस विषय में ऐसा नहीं कह सकते थे, क्योंकि जैसा आर्थर ल्यूविस (Arthur Lewis) ने कहा है, “किसी भी औपनिवेशिक शक्ति ने अपने उपनिवेश के औद्योगीकरण में सहायता नहीं की।” (“No colonial power helped its colony to industrialise.”) केवल भारत ही नहीं, अपितु उष्ण कटिबंध (tropics) के सभी देश प्रथम विश्वयुद्ध के साथ ही प्रसुप्तावस्था (hibernation) में चले गये। 1920 के दशक में व्यापार की शर्ते इनके प्रतिकूल चली गईं। 1930 के दशक की महान आर्थिक मंदी ने इन्हें निर्धन बना दिया। 1940 के दशक में द्वितीय विश्वयुद्ध ने इन्हें अकेला छोड़ दिया। 35 वर्ष का शून्य विकास विश्व के लिए काफी लम्बा था यह भूल जाने के लिए कि पहले क्या घटित हुआ था तथा ऐसा मान लेने के लिए कि पहले कुछ भी घटित नहीं हुआ था।

उपर्युक्त स्थिति को अतीत का महाभार (Deadweight of the Past) की संज्ञा देते हुए बिमल जालान’ का कहना है कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारतीय राष्ट्रीय आय की वार्षिक वृद्धि दर एक प्रतिशत थी जो उस अवधि की जनसंख्या की वृद्धि दर के बराबर थी। इसलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के समय औसत भारतीय की आर्थिक अवस्था वैसी ही थी, जो उस सदी के प्रारंभ में रही थी। इस पृष्ठभूमि में राष्ट्रवादी विद्वानों, राजनीतिक नेताओं तथा उद्योगपतियों के बीच आम सहमति थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् आर्थिक रणनीति क्या होनी चाहिए। देश तेजी से औद्योगीकरण चाहता था, लेकिन विदेशी व्यापार तथा निवेश के माध्यम से स्थापित विदेशी प्रभुत्व के प्रति शत्रता की भावना भी बिल्कुल स्वाभाविक थी। भारतीय आर्थिक विकास की रणनीति को निर्धारित करने में औपनिवेशिक शासन (Colonial Rule) के अतिरिक्त एक और बात का प्रभाव पड़ा। वह था केन्द्रीय योजना के माध्यम से थोड़े ही समय में सोवियत रूस का औद्योगिक विकास के माध्यम से पश्चिमी देशों से बराबरी का टक्कर लेना।

औपनिवेशिक शासन के अनुभव के आधार पर निर्यात-आधारित विकास की रणनीति को अपनाया नहीं गया। दूसरी ओर, सोवियत रूस के उदाहरण का अनुसरण करते हुए उस आर्थिक रणनीति के प्रति आम सहमति उमड़ी जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र को प्रमुख भूमिका प्रदान की गई, विदेशी निवेश को हतोत्साहित किया गया. भारी उद्योगों के विकास को विशेष महत्त्व दिया गया तथा संसाधनों के केन्द्रीय आबंटन पर बल दिया गया। संसाधनों के आबंटन की इस प्रणाली ने लाइसेन्स-परमिट-कोटा राज को पुष्पित-पल्लवित होने में सहायता पहुंचायी, यद्यपि कंट्रोल राज का जन्म द्वितीय विश्वयुद्ध काल में ही हो चुका था। राकेश मोहन का कहना है। कि भारतीय औद्योगिक लाइसेंस प्रणाली युद्ध की आवश्यकताओं, भारतीय राष्ट्रीय नेताओं की आकांक्षाओं तथा स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रमुख नेताओं के समाजवाद की ओर रुझान का संयुक्त परिणाम थी। उस समय निजी क्षेत्र के नेता भी सरकारी हस्तक्षेप के पक्षधर थे। भारतीय औद्योगिक लाइसेन्स प्रणाली एक विस्तृत व्यवस्था थी जिसमें निम्न शामिल थे:

Indian Business Environment

  • आयात और निर्यात नियंत्रण;
  • पूंजी जारी करने (Capital Issues) पर नियंत्रण;
  • विदेशी विनिमय पर नियंत्रण;
  • कच्ची सामग्री के आबंटन सहित परिवहन नियंत्रण:
  • कीमत नियंत्रण; तथा
  • साख आबंटन पर नियंत्रण।

लाइसेंस व्यवस्था को शुरू करने का मूल उद्देश्य था चुने हुए उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए इस यंत्र का चयनात्मक उपयोग (selected use)। लेकिन बाद में इसका उपयोग सभी उद्योगों पर होने लगा। परिणामतः नियमन (regulation), न कि विकास, इसकी प्रमुख विशेषता बन गई।

1950 के दशक से लेकर 1970 के दशक अर्थात योजना के प्रथम तीस वर्षों में भारत के आर्थिक विकास की दर धीमी रही-औसतन लगभग 3.5 प्रतिशत। 1980 के दशक में इस दर में वृद्धि हुई और यह 5.9 प्रतिशत हो गयी। आर्थिक मोर्चे पर जो भी सफलता मिली वह अपेक्षाकृत बन्द अर्थव्यवस्था के अन्तर्गत ही संभव हुआ। 1947-90 के मध्य भारतीय अर्थव्यवस्था में पर्याप्त मजबूती आ गयी थी, क्योंकि एक विशाल एवं विविध औद्योगिक आधार तैयार हो चुका था। यह आधार सार्वजनिक एवं निजी दोनों ही क्षेत्रों में स्थापित हो सका था। विकासहीन कृषि भी गतिमान हो चली थी तथा हरित क्रान्ति के कारण देश खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हो चुका था। इसी अवधि में प्रशिक्षित मानव शक्ति के विशाल भंडार का सृजन हुआ। किन्तु, इस अवधि में

आर्थिक विकास दर को पूर्वी एशिया की तेजी से वृद्धि कर रही अर्थव्यवस्था के समकक्ष पहुंचाने में देश असमर्थ रहा। कारण यह था कि देश के समक्ष कई तरह की विवशताएं (Constraints) थीं जिनमें में निम्न प्रमुख थीं :

(1) 1980 के दशक के अन्त की ओर भारतीय अर्थव्यवस्था का समष्टि आर्थिक संतुलन समाप्त हो चला था। इसके कारण थे सरकारी बजट में अत्यधिक घाटे का उभरना, मुद्रास्फीति की दर में वृद्धि तथा भारतीय बाह्य संतुलन की स्थिति में ह्रास । समष्टि आर्थिक संतुलन की इस बिगड़ती परिस्थिति में 1980 के दशक की आर्थिक वृद्धि दर को बनाये रखना मुश्किल हो गया।

(2) 1980 के दशक में घरेलू बचत एवं निवेश में पर्याप्त वृद्धि के बावजूद यह स्पष्ट हो चला था कि संभावित वृद्धि दर तथा वास्तविक वृद्धि दर के मध्य काफी अन्तर था। ऐसे अन्तर के प्रमुख कारण थे अर्थव्यवस्था में उत्पादकता में वृद्धि तथा पूंजी संचय में तेजी लाने के लिए समुचित आर्थिक प्रेरणाओं की अनुपस्थिति एवं समुचित सरकारी नीति का अभाव। ऐसे वातावरण में परिवर्तन की आवश्यकता थी। ठीक इसी समय (1980 के दशक में) विश्व में बदलते आर्थिक वातावरण में कई विकासमान देशों ने संरचनात्मक सुधार (Structural reforms) तथा प्रतिस्पर्धा के प्रोत्साहन के लिए महत्त्वपूर्ण कदम उठाए। विकास की संभाव्य दर को प्राप्त करने के लिए इन देशों में सरकारी नीति में सुधार किए गए। विकास की ऊंची दर को पाने के लिए आर्थिक नियंत्रण एवं नियमन (Control and regulation) की सीमाएं भी सामने आ गई।

Indian Business Environment

chetansati

Admin

https://gurujionlinestudy.com

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Previous Story

BCom 1st Year Business Environment Economic Component Study Material Notes in Hindi

Next Story

BCom 1st Year Income & National Income Study Material Notes in Hindi

Latest from BCom 1st year Business Environment Notes