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Co-Operative Auditing Study Material notes in Hindi

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सहकारी अंकेक्षण

[CO-OPERATIVE AUDITING].

सहकारी समितियों की स्थापना अन्य व्यापारिक संस्थाओं की भांति ही की जाती है। परन्तु सहकारी समितियों की स्थापना का उद्देश्य अन्य व्यापारिक संस्थाओं जैसे, एकाकी व्यापार, साझेदारी एवं कम्पनी से भिन्न होता है। व्यापारिक संस्थाओं की स्थापना का प्रमख उद्देश्य लाभ कमाना होता है जबकि सहकारी समितियां अपने सदस्यों की यथासम्भव सहायता करने के उद्देश्य से स्थापित की जाती हैं। इस प्रकार, सहकारी समिति का प्रमुख कार्य अपने सदस्यों की समस्याओं का समाधान करना एवं उनके आर्थिक विकास में सहायता करना होता है। सहकारी समितियों का समस्त व्यवहार अपने सदस्यों से ही होता है। सहकारी समितियों के सभी सदस्य एक-दूसरे के सहयोगी की तरह कार्य करते हैं। संक्षेप में, सहकारी समितियां कुछ चयनित व्यक्तियों का संघ हैं जो सदस्यों के आर्थिक हितों की रक्षा करती हैं एवं पारस्परिक सहयोग की भावना से कार्य करने की प्रेरणा देती हैं।

Co-Operative Auditing notes

सहकारी समितियों का प्रादुर्भाव

(ORIGIN OF CO-OPERATIVE SOCIETY)

सर्वप्रथम सहकारी समितियों के सम्बन्ध में 1904 में अधिनियम पारित किया गया था। परन्तु उस समय साख समितियां ही स्थापित की जाती थीं। तत्पश्चात सहकारी समिति अधिनियम, 1912 (Co-operative Societies Act, 1912) पारित किया गया जिसके अन्तर्गत साख (credit) एवं गैर-साख (non-credit) दोनों प्रकार की समितियों की स्थापना से सम्बन्धित प्रावधान किए गए और धीरे-धीरे दोनों ही प्रकार की सहकारी समितियां प्रचलन में आईं। इस अधिनियम का उद्देश्य सहकारी समिति का संचालन करना था, जो किसी राज्य विशेष के सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार के साथ पंजीकृत की जा सकती है। यद्यपि इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि कुछ राज्यों ने अपने पृथक्-पृथक् सहकारी समिति अधिनियम पारित कर लिए हैं।

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सहकारी समिति का पंजीकरण

(REGISTRATION OF CO-OPERATIVE SOCIETY)

सहकारी समिति के लिए आवश्यक न्यूनतम सदस्यों की संख्या 10 निर्धारित की गई है। जिस राज्य में भी सहकारी समिति की स्थापना की जानी है, सहकारी समिति को सम्बन्धित राज्य के सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार को पंजीकरण के लिए आवेदन करना होता है। यद्यपि सहकारी समिति का पंजीकरण कराना वैधानिक रूप से अनिवार्य नहीं है। परन्तु सहकारी समिति के पंजीकरण कराने से सहकारी समिति को अतिरिक्त लाभ प्राप्त होते हैं। अतः सहकारी समितियों का पंजीकरण वांछनीय माना गया है।

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सहकारी समिति के सदस्यों का दायित्व

(LIABILITIES OF MEMBERS OF CO-OPERATIVE SOCIETY)

सहकारी समिति के सदस्यों का दायित्व दो प्रकार का होता है

1 सीमित दायित्व (Limited Liability)—सीमित दायित्व के अन्तर्गत सहकारी समिति के सदस्यों का दायित्व सीमित होता है अर्थात सहकारी समिति के उत्तरदायित्वों के सन्दर्भ में सदस्य केवल अपने व्यक्तिगत योगदान (Contribution) तक ही उत्तरदायी होता है। किसी भी दशा में सहकारी समिति उस निश्चित योगदान की राशि से अधिक राशि के लिए सदस्य को बाध्य नहीं कर सकती है।

सामान्यतः सदस्यों के दायित्व सीमित होते हैं। सहकारी समिति अधिनियम, 1912 (Co-operative Societies Act, 1912) के अन्तर्गत पंजीकत प्रत्येक सीमित दायित्व वाली सहकारी समिति को अपने ना के अन्तिम शब्द के रूप में लिमिटेड (Limited) शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है।

2. असीमित दायित्व (Unlimited Liability)-असीमित दायित्व के अन्तर्गत सहकारी समिति के सदस्यों का दायित्व उनके व्यक्तिगत अंशदान तक ही सीमित नहीं होता है, वरन् उनका दायित्व असीमित होता है। सामान्यतः जहां समितियों का उद्देश्य उसके सदस्यों को धन उधार देना है और जिसके लिए समितियों के कोषों का निर्माण किया जाता है एवं समितियों के लेनदार सदस्यों की संख्या अधिक हो, वहां सदस्यों का दायित्व असीमित होता है।

सहकारी समिति के उपनियम

(BYE-LAWS OF THE CO-OPERATIVE SOCIETY)

सहकारी समिति अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत यह प्रावधान किया गया है कि प्रत्येक सहकारी समिति अपने उपनियम बना सकती है। पंजीकरण के लिए सहकारी समिति को उपनियमों की एक प्रतिलिपि आवेदन-पत्र के साथ रजिस्ट्रार को प्रेषित करनी होती है। धारा 11 (Section 11) के अन्तर्गत सहकारी समिति के उपनियमों को तब तक वैध नहीं माना जाता है जब तक उन्हें रजिस्ट्रार के यहां पंजीकृत एवं स्वीकृत न कराया गया हो।

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कुछ प्रतिबन्ध

(CERTAIN RESTRICTIONS)

सहकारी समितियों के क्रियाकलाप पर निम्न प्रमुख प्रतिबन्ध हैं :

(1) अंशस्वामित्व (Shareholdings)—सहकारी समिति अधिनियम की धारा 5 में यह प्रावधान है कि यदि सदस्यों का दायित्व सीमित है, रजिस्टर्ड समिति के अलावा कोई भी सदस्य, 20 प्रतिशत से अधिक, नियमों के द्वारा निर्धारित एक समिति की अंश-पूंजी के भाग अथवा 1,000 ₹ से अधिक के मूल्य के समिति के अंशों का स्वामी नहीं हो सकता है।

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(2) अंशों का हस्तान्तरण (Transfer of Shares) यदि समिति असीमित दायित्व के साथ रजिस्टर्ड है, तो कोई भी सदस्य अपने अंश-स्वामित्व का तब तक हस्तान्तरण नहीं कर सकता है, जब तक कि

(i) उसके पास अंश-स्वामित्व में एक वर्ष से कम न हुआ हो, अथवा

(ii) हस्तान्तरण समिति को या समिति के किसी सदस्य को किया गया हो।

(3) उधार ऋण प्राप्ति (Borrowings)—समिति के नियमों या उपनियमों के अन्तर्गत निर्धारित सीमा के अन्तर्गत ही केवल एक रजिस्टर्ड समिति उन व्यक्तियों के ऋण या निक्षेप (deposits) स्वीकार कर सकती है जो समिति के सदस्य नहीं हैं। यह व्यवस्था धारा 30 में की गयी है।

(4) ऋण (Loans)—सहकारी समिति अधिनियम की धारा 29 के अन्तर्गत सदस्य के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों को कोई भी रजिस्टर्ड समिति ऋण नहीं दे सकती है।

(5) केन्द्रीय सरकार का अधिकार (Power of the Central Government) सहकारी समिति। अधिनियम की धारा 28 केन्द्रीय सरकार को यह अधिकार देती है कि वह किसी रजिस्टर्ड समिति को आयकर, स्टाम्प कर (Stamp Duty) तथा रजिस्ट्रेशन फीस से छूट दे सकती है।

(6) कोषों का विनियोग (Investment of Funds) धारा 22 के अन्तर्गत एक रजिस्टर्ड समिति केवल। निम्नलिखित संस्थाओं में विनियोग या जमा (Deposit) कर सकती है:

(i)) सरकारी बचत बैंक (Government Savings Bank),

(ii) भारतीय प्रन्यास अधिनियम, 1882 (Indian Trust Act, 1882) की धारा 20 में निदिष्ट

(iii) प्रतिभूतियों में से किसी में, किसी अन्य रजिस्टर्ड समिति की प्रतिभूतियों अथवा अंशों में

(iv) रजिस्टार द्वारा स्वीकृत बैंकिंग व्यवसाय में संलग्न किसी व्यक्ति या बैंक के साथ

(v) नियमों (rules) के द्वारा अनुमोदित किसी अन्य स्थान पर।

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 (7) संचय कोष  लाभांश (Reserve Fund and Dividend) सहकारा सामात आषा 33 के अन्तर्गत एक रजिस्टर्ड समिति को प्रति वर्ष अपने शुद्ध लाभ का कम-से-कम 25% संचय कोष म हस्तान्तरण करना होगा। शेष लाभ अंशधारियों में लाभांश के रूप में वितरित किया जा सकता है। असीमित दायित्व वाली समिति राज्य सरकार से अनुमति प्राप्त करने के उपरान्त ही लाभांश वितरण कर सकती है।

(8) धर्मार्थ कार्यों के लिए अंशदान (Contribution to Charitable Purposes)-Charitable Endowment Act, 1890 की धारा 2 में परिभाषित किसी धर्मार्थ कार्य के लिए एक रजिस्टर्ड समिति रजिस्ट्रार की आज्ञा से संचय कोष में अनिवार्य हस्तान्तरण के पश्चात शेष शद्ध लाभ (Net Profits) में से ऐसी राशि का जो इसके 10 प्रतिशत से अधिक न हो, अंशदान कर सकती है।

(9) हिसाब रखना (Maintenance of Accounts) अधिनियम की धारा 43(h) के अन्तर्गत राज्य सरकार, ऐसे नियम बना सकती है जिनसे सहकारी समितियां अपने लेखों के लिए पुस्तकें तथा खातों का स्वभाव निर्धारित कर सकती हैं। समितियों के द्वारा सामान्यतया आय-व्यय खाता, लाभ-हानि खाता तथा चिट्ठा तैयार किए जाते हैं।

(10) सहकारी समिति का अंकेक्षण (Audit of Co-operative Society) सहकारी समिति अधिनियम की धारा 17 के अनुसार प्रत्येक समिति की पुस्तकों व खातों का अंकेक्षण सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार अथवा अंकेक्षण के लिए उसके द्वारा नियुक्त किसी भी अधिकत व्यक्ति के द्वारा किया जाएगा। अंकेक्षण में सम्पत्तियों तथा दायित्वों का सत्यापन और पुराने कों का निरीक्षण, आदि महत्वपूर्ण बातें होंगी।

इस प्रकार सहकारी अंकेक्षक अंकेक्षण कार्य के लिए समिति की खाता-पुस्तकों को स्वतन्त्र रूप से देख सकता है और समिति के प्रत्येक अधिकारी का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह सहकारी अंकेक्षक को अंकेक्षण कार्य के लिए आवश्यक सहायता उपलब्ध कराने की व्यवस्था करे।

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सहकारी अंकेक्षण की आवश्यकता

(NEED FOR CO-OPERATIVE AUDIT)

सहकारी समितियां प्रमुखतः अपने सदस्यों की आर्थिक स्थिति में सुधार करने के लिए बनायी जाती हैं। इनका कार्य ठीक प्रकार से चलाने के लिए आर्थिक व्यवहारों का उचित लेखा करना परमावश्यक है। यह लेखा किए बिना यह जानना कठिन है कि ये समितियां कहां तक एवं किस प्रकार अपने उद्देश्यों की ओर बढ़ रही हैं। दैनिक लेन-देनों का लेखा भी किया जाना चाहिए और यदि इन लेखों में त्रुटियां हों तो उनका भी पता चलाना चाहिए। यही नहीं, इन त्रुटियों तथा दोषों को दूर करने के उपाय भी किए जाने चाहिए ताकि समितियों का कार्य सुचारु रूप से चलता रहे। इसी कारण इन समितियों के लेखों के अंकेक्षण की आवश्यकता प्रतीत होती है।

इसके अतिरिक्त सहकारी समिति का स्वभाव व्यावसायिक संगठनों से काफी भिन्न होता है। सहकारी समितियों के उद्देश्य, कार्यक्षेत्र एवं कार्यप्रणाली अन्य व्यावसायिक संगठनों से भिन्न होती हैं। सहकारी समितियों का प्रमुख उद्देश्य अपने सदस्यों के व्यक्तिगत एवं सामूहिक हितों का संरक्षण करना होता है। अधिकांशतः सहकारी समितियों के सदस्य लेखाकर्म का प्रारम्भिक ज्ञान नहीं रखते हैं अतः अंकेक्षण के अभाव में सदस्यों के शोषण किए जाने की सम्भावना अधिक रहती है। इस प्रकार सहकारी समिति में अंकेक्षण की आवश्यकता और अधिक प्रतीत होती है, क्योंकि सहकारी समिति में वित्तीय एवं प्रशासकीय दोनों ही प्रकार के अंकेक्षण समान रूप से महत्वपर्ण हैं जिससे कि सहकारी समिति के सदस्यों का विश्वास सहकारी समिति की कार्यप्रणाली में बढ़ जाता है। साथ ही सहकारी अंकेक्षण एवं उचित आन्तरिक निरीक्षण से कोषों के गबन एवं लेखों की अशुद्धता की सम्भावना लगभग समाप्त ही हो जाती है।

 

 

 

 

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