BCom 1st Year Business Self Development Communications Study material Notes in Hindi

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स्वॉट विश्लेषण की सीमाएँ

Table of Contents

(Limitations of SWOT Analysis)

स्वॉट विश्लेषण से निश्चय ही व्यक्ति और संस्था के विकास का मार्ग प्रशस्त होता है तथापि इसे दाषमुक्त नहीं कहा जा सकता है। प्रत्येक कार्य की अपनी कछ न कछ सीमायें अवश्य होती है। अतः स्वॉट विश्लेषण की भी कुछ सीमाएँ है जिन्हें निम्नलिखित प्रकार व्यक्त किया जा सकता है

(1) वर्तमान परिस्थितियों पर आधारित (Based on present situations)-स्वाद तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किया जाता है. इसीलिये परिस्थितियों में परिवतन हा जान पर सम्पूर्ण स्वॉट विश्लेषण निरर्थक व अविश्वसनीय हो जाता है।

(2) प्रबन्धन के स्तर पर मतभेद का प्रभाव (Effect of differences at Managerial Level)-कसा भा व्यावसायिक संगठन में प्रबन्धन के स्तर पर मतभेद एक स्वाभावक क्रिया हा मतभेद निश्चित रूप से स्वॉट विश्लेषण को कहीं न कहीं प्रभावित अवश्य करता है और जब स्वाट विश्लेषण प्रभावित होगा तो उसकी विश्वसनीयता पर भी प्रश्न चिह्न लग जाता है।

स्वाट विश्लेषण निश्चित रूप से किसी संस्था के लिये बहत ही उपयोगा हा इसका स मानवीय क्रियाओं के कारण उत्पन्न होती हैं जिन्हें दूर किया जा सकता ह। प्रत्यकस वे स्वॉट विश्लेषण के आधार पर संगठनात्मक समस्याओं को दर करके एकरूपता और कर्मचारियों के मध्य स्वस्थ सम्बन्ध बनाकर आगे बढे। संगठनात्मक समस्याओं को दूर करने के उपरान्त उचित वातावरण तैयार करने की कोशिश करनी चाहिये।

अत: आन्तरिक एवं बाहरी वातावरण को समझ कर व्यवसाय के लिये अवसर, चुनौतियों, शक्तियों तथा बैलताओं का पता लगाना व्यवसाय की प्रगति, उन्नति एवं लाभप्रदता के लिये आवश्यक है। उचित रणनीति बनाना तथा उसका सही प्रकार से पालन करना. किसी व्यावसायिक संगठन के बाहरी तथा आन्तरिक वातावरण के विश्लेषण पर ही निर्भर करता है।

पारस्परिक निर्भरता मॉडल

(Interdependence Model)

उदारीकरण के इस युग में प्रत्येक देश की सीमाएँ एक दूसरे के मध्य व्यापार करने के लिये खोल दी गयी हैं जिसने कठिन प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है। इस कठिन प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिये व्यापार के लिये यह आवश्यक हो गया है कि वह अपनी वस्तुओं की लागत को कम करें तथा उच्च गुणवत्ता वाली वस्तुएँ प्रदान करें। बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा और बढ़ती हुई उत्तम सेवा की इच्छा से अधिशासियों और कर्मचारियों के लिये वह आवश्यक हो गया है कि वे परस्पर निर्भरता से कार्य करें। प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिये उत्तम सेवा और कम खर्च पर गुणवत्ता वाली वस्तुओं का उत्पादन आवश्यक है। इसके लिये समूह के प्रयास तथा अच्छी और नई वस्तुओं का उत्पादन आवश्यक है और इसके लिये समह के सदस्यों के मध्य विचारों का स्वतन्त्र आदान-प्रदान भी आवश्यक है। सदस्यों को मिल-जलकर एक दल (Team) के रूप में निष्ठापूर्वक कार्य करना होगा। यदि संगठन के सदस्यों में पारस्परिक निर्भरता की भावना होगी तो इससे संचार क्रिया भी आसान हो जायेगी।

पारस्परिक निर्भरता (Interdependence)-पारस्परिक निर्भरता से आशय है एक दूसरे पर विश्वास करते हुये मिलकर कार्य करना तथा अपने-अपने अनुभव से एक दूसरे को अवगत कराना। जब हम किसी दूसरे व्यक्ति के सम्पर्क में आते हैं और उसके विचारों व भावनाओं से प्रभावित होकर उसके साथ अपने अनुभवों को बाँटते हैं तथा साथ मिलकर किसी कार्य को करने के लिये तैयार होते हैं और एक दसरे पर पूर्ण विश्वास करते हैं, तो इसे ही पारस्परिक निर्भरता कहा जाता है। समूहों की यह सदस्यता जो एक जैसे सामाजिक महत्त्व वाले तत्त्वों से जड़ी होती है. व्यक्तियों के विचारों तथा व्यवहार को प्रभावित करती है। यह प्रभाव और भी अधिक लाभप्रद सिद्ध होते हैं, जब समूह के सभी सदस्य एक दसरे से वार्तालाप करते हैं तथा पारस्परिक निर्भरता का भाव रखते हैं।

परस्पर निर्भरता से आशय साझे अनुभवों एवं साझी निर्यात को एक साथ

आप एक जीवन्त चुम्बक की तरह हैं, आप अपने जीवन में उन लोगों, स्थितियों और हालात को आकर्षित करते हैं जो आपके प्रबल विचारों के साथ लयबद्ध है।”

परस्पर निर्भरता के प्रकार

(Types of Interdependence )

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(1) सामाजिक परस्पर निर्भरता (Social Interdependence)-जब व्यक्ति किसी समूह में साथ-साथ रहकर कार्य करता है तो वह समह के सदस्यों के साथ भावानात्मक रूप से जुड़ता है तथा उनम मित्रता का भाव पैदा होता है। यह मित्रता की भावना सामाजिक एकरूपता के इस समूह के सदस्य समह के दूसरे सदस्यों पर सम्बन्धों के लिये, सामाजिक तथा मानसिक सन्तुष्टि क लिये तथा सकारात्मक सामाजिक पहचान के लिये एक दूसरे पर विश्वास करते हैं। ये सदस्य सामाजिक स्तर पर एक दूसरे पर निर्भर होते हैं।

(2) कार्य सम्बन्धी परस्पर निर्भरता (Task Interdependence)-जब एक व्यक्ति किसा काय विशेष के लिये दूसरे व्यक्ति या विभाग के सम्पर्क में आता है और आपस में अनुभवों को बाँटता है तथा पारस्परिक निर्भरता को महत्त्व देता है तो इसे कार्य सम्बन्धी पारस्परिक निर्भरता कहा जाता है। इस समूह के सदस्यों को भौतिक श्रेष्ठता प्राप्त करने के लिये एक दूसरे के साथ कार्य करना पड़ता है।

(3) न्यूनतम परस्पर निर्भरता (Minimum Interdependence)-जब व्यक्तियों का समूह एक ही स्थान पर रहते हुये और अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुये एक दूसरे पर आश्रित रहता है तो इसे न्यूनतम निर्भरता कहते हैं।

(4) अधिकतम परस्पर निर्भरता (Maximum Interdependence)-जब एक समूह के सदस्य दूसरे समूह के सदस्यों के साथ संस्था के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये वार्तालाप करते हैं और एक दूसरे के मध्य अपने अनुभवों को बाँटते हैं तो इसे अधिकतम निर्भरता कहते हैं। समूह की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसके नेताओं तथा सदस्यों द्वारा समूह की निर्भरता की समस्या को कैसे प्रबन्धित किया जाता है।

पारस्परिक निर्भरता का महत्त्व

(Importance of Interdependence)

उदारीकरण के इस युग में बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिये परस्पर निर्भरता आवश्यक है अर्थात् परस्पर निर्भरता ही किसी व्यवसाय को प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ा सकता है। अत: परस्पर निर्भरता किसी व्यवसाय या संस्था के लिये अत्यन्त आवश्यक है। इस आवश्यकता को निम्नलिखित रूपों में व्यक्त किया जा सकता है

(1) रचनात्मकता को प्रोत्साहन (Encouraging Creativity)—पारस्परिक निर्भरता से व्यक्ति में मिल-जुलकर कार्य करने की भावना विकसित होती है जिससे उनकी कार्यशैली व कार्यक्षमता दोनों में सधार आता है तथा उनमें रचनात्मकता का विकास होता है। साथ ही रचनात्मकता भी फलीभूत होती है। जब संस्था के सदस्यों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध होते हैं।

(2) बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा के लिये (For Growing Competition)बढ़ती हुई प्रतिस्पद्धा का सामना करने के लिये भी पारस्परिक निर्भरता की बहुत आवश्यकता है। वैश्वीकरण और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगमन से बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ गयी है। उपभोक्ता अच्छा माल कम कीमत पर क्रय करना चाहता है। इसके लिये संस्थाओं को प्रतियोगी कीमतों पर उच्च गुणवत्ता वाले उत्पाद तैयार करन। की आवश्यकता है और यह तभी सम्भव है जब सदस्यों के मध्य पारस्परिक निर्भरता का विकास होगा।

(3) दल बनाने के लिये (For Team Building)-समर्पित कर्मचारियों का दल बनाने के लिये की पारस्परिक निर्भरता अत्यन्त आवश्यक है। दल का अपना एक विशेष लक्ष्य होता है जिसे प्राप्त करने के लिये दल के सभी सदस्य मन से कार्य करते हैं। दल के सदस्यों में स्वस्थ मेल-जोल की सम्भावना अधिक होती है।

 (4) आपसा सन्तोष (Mutual Satisfaction)_जब व्यक्ति एक दसरे पर विश्वास करक पारस्परिक मेल-जोल बढ़ाते हैं तो इससे दोनों को ही सन्तोष की अनभति होती है और यही सन्तोष का अनुभूति उनकी कार्यक्षमता में वृद्धि लाती है। अत: आपसी सन्तोष के लिये भी पारस्परिक निर्भरता का होना आवश्यक है।

(5) गुणवत्ता के उत्पाद एवं सेवाएँ (Ouality Product and Services)-बढ़ती प्रतिस्पद्धा का सामना तभी किया जा सकता है जब वस्त की गणवत्ता में सुधार लाया जाये एवं ग्राहक को अच्छी सेवायें प्रदान की जाये, यह सब तभी सम्भव है जब समर्पित कर्मचारी होंगे और समर्पित कर्मचारी बनाने के लिये परस्पर निर्भरता की आवश्यकता होगी।

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परस्पर निर्भरता में अवरोध

(Barrier to Interdependence)

परस्पर निर्भरता जो कि किसी व्यवसाय के लक्ष्य प्राप्ति का एक महत्त्वपूर्ण साधन है इसे स्थापित करने के रास्ते में कई अवरोध भी उत्पन्न होते हैं, जिन्हें निम्नलिखित प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

(1) कर्मचारियों में संघर्ष (Line and Staff Conflicts) यदि किसी संस्था के कर्मचारियों में आपस में सहयोग की भावना के स्थान पर संघर्ष की भावना है तो वहाँ पारस्परिक निर्भरता की स्थापना नहीं हो सकती है।

(2) उदासीनता (Indifference) जब किसी व्यक्ति को अपने लक्ष्य की प्राप्ति में रूकावट महसूस होती है तो वह कार्य के प्रति उदासीन होने लगते हैं एवं जब कोई व्यक्ति किसी कार्य के प्रति उदासीन होता है तो वह दूसरों को सनना नहीं चाहता है अर्थात् दूसरों पर निर्भरता पसन्द नहीं करता है। इस प्रकार उदासीनता, पारस्परिक निर्भरता में बाधक बन जाती है।

(3) रक्षात्मक एवं कानूनी भाषा में संचार (Defensive and legalistic communication)जब कोई अधिकारी या कर्मचारी एक दूसरे से रक्षात्मक एवं कानूनी भाषा में सन्देशों का आदान-प्रदान करता है तो वहाँ भी आपस में निर्भरता की बात नहीं होती है। इस तरह का संचार हमें प्रतिद्वन्द्वी के साथ करना चाहिये। परस्पर निर्भरता के लिये आपसी विश्वास और स्वतन्त्र संचार की आवश्यकता होती है।

(4) निजी लक्ष्यों की पूर्ति (Persuance of Personal Goals)-जब किसी संस्था में व्यक्ति अपने निजी लक्ष्यों को अधिक महत्त्व देने लगते हैं अर्थात् सामूहिक लक्ष्य की अपेक्षा व्यक्तिगत लक्ष्य साधन में लग जाते हैं, तो दूसरे व्यक्ति उस पर प्रतिक्रिया करते हैं जिसका नतीजा होता है-आपस में संघर्ष और इसका परिणाम होता है पारस्परिक निर्भरता में बाधा।

(5) अत्यधिक विशिष्टता (Too much specialization)-जब किसी व्यक्ति में यह भाव पैदा हो जाता है कि वह दूसरों से अलग है अर्थात् विशिष्ट है तो ऐसा व्यक्ति दूसरों के साथ सहयोगपूर्ण व्यवहार नहीं करता है और परिणाम स्वरूप परस्पर निर्भरता में रूकावट आती है।

(6) संगठन का श्रेणीबद्ध ढाँचा (Hierarchical structure of organisation)-जब संगठन में पद श्रृंखला लम्बी हो जाती है तो कनिष्ठ कर्मचारी, वरिष्ठ कर्मचारी से वार्तालाप नहीं कर पाता है अर्थात् संचार के स्वतन्त्र प्रवाह में रूकावट आती है जिससे पारस्परिक निर्भरता में बाधा उत्पन्न हो जाती

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संस्था में परस्पर निर्भरता को कैसे बढ़ाया जाये?

(How to Build Interdependence in Organisation)

पारस्परिक निर्भरता की बाधाओं को दूर करके संस्था में परस्पर निर्भरता को बढ़ाया जा सकता है। संस्था में कर्मचारियों के बीच परस्पर निर्भरता को निम्नलिखित बातों के द्वारा स्थापित किया जा सकता है

(1) कर्मचारियों में समन्वय (Co-ordination in line and staff)-कर्मचारियों में समन्वय की स्थापना करके तथा उनमें मेल-जोल की भावना बढ़ाकर परस्पर निर्भरता को स्थापित किया जा सकता है।

(2) प्रोत्साहन (Encouragement)-कर्मचारियों को उनके कार्यों की प्रशंसा करके उन्हें प्रोत्साहित किया जा सकता है। उनके अन्दर की उदासी को प्रोत्साहन देकर समाप्त किया जा सकता है और संस्था में पारस्परिक निर्भरता की स्थापना की जा सकती है।

(3) अनौपचारिक सन्देशवाहन (Informal Communication)-रक्षात्मक एवं कानूनी भाषा में संचार के स्थान पर अनौपचारिक संचार व्यवस्था को बढ़ावा देकर कर्मचारियों में आपस में प्रेम एवं । सहयोग की भावना को विकसित किया जा सकता है जिससे पारस्परिक निर्भरता की बाधा दूर हो जायेगी।

(4) संस्था के लक्ष्य सबको बताओ (Convey the mission of organisation) कमचारिया को संस्था के लक्ष्यों से अवगत कराया जाना चाहिये और उन्हें निर्देशित करना चाहिय कि रहा लक्ष्या का प्राप्ति के लिये सबको प्रयास करना है। व्यक्तिगत लक्ष्य पूर्ति को हतोत्साहित किया जाना। चाहिये।

(5) स्वतन्त्र संचार को बढावा (Encourage Open Communication)-विशिष्टता एवं श्रणाबद्ध ढांचे की रुकावट को स्वत: संचार व्यवस्था द्वारा समाप्त किया जा सकता है। प्रत्येक कर्मचारी को अपने अधिशासी को कोई सन्देश देने में किसी प्रकार की हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये।

(6) कायं का अच्छा वातावरण पैदा करें (Create favourable Environment for work)-पारस्परिक निर्भरता के लिये यह आवश्यक है कि संस्था में कार्य करने के लिये अनकल वातावरण उत्पन्न किया जाये अर्थात् अधिकारी और कर्मचारी के मध्य अच्छे सम्बन्धों की स्थापना हो। सभी व्यक्ति आपस में सहयोगात्मक रूख रखें।

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मतों का पारस्परिक निर्भरता प्रतिमान (मॉडल)

(Vote’s Model of Interdependence)

मतों पर आधारित परस्पर निर्भरता प्रतिमान निम्नलिखित दो घटनाओं पर निर्भर रहता हैं

(i) कृत्रिम घटनाएँ (Psendo Events), (ii) भावी घटनाएँ (Future Events)

(i) कृत्रिम घटनाएँ (Psendo Events) से अभिप्राय किसी संस्था/संगठन/समूह अथवा व्यक्ति द्वारा प्रसारित सूचनाओं के माध्यम से भविष्य की सम्भावित घटनाओं को निश्चित आकार-प्रकार प्रदान करने सम्बन्धी अनुकूल परिस्थितियों को जन्म देने से है अर्थात् किसी व्यक्ति अथवा संस्था द्वारा सूचनाओं के द्वारा, उद्देश्यों के अनुरूप इस प्रकार की परिस्थिति को जन्म देना जो बनावटी घटनाओं सम्बन्धी प्रक्षेपण में सहयोगी हो, उन्हें कृत्रिम घटनाएँ (Psendo Events) कहा जाता है। वर्तमान में मीडिया में इसका प्रचलन बढ़ा है।

(ii) भावी घटनाएँ (Future Events) से अभिप्राय कृत्रिम घटनाओं के आधार पर आगामी समय में घटने वाली घटनाओं के प्रक्षेपण से है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि प्रक्षेपित घटनाएँ ही घटें, क्योंकि प्रक्षेपण व यथार्थता में अन्तर होता है, परन्तु जब भावी घटनाओं का प्रक्षेपण, वर्तमान वास्तविक परिस्थितियों के आधार पर किया जाता है जोकि कृत्रिम घटनाओं के कारण पैदा होती हैं तो यह स्थिति कृत्रिम व भावी घटनाओं की पारस्परिक निर्भरता को भी जन्म देती है। पॉल ई. लेजर्सफेल्ड (Paul E. Lazarsfeld) द्वारा प्रतिपादित मतों के पारस्परिक निर्भरता प्रतिमान के अन्तर्गत कृत्रिम व भावी घटनाओं के पारस्परिक प्रभाव का मापन किया जाता है। इसे निम्न उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है

एक चुनाव में दो प्रतिष्ठित राजनैतिक पार्टियाँ x वY के दो उम्मीदवार क्रमश: ‘A’ व ‘B’ हैं (यद्यपि एक चुनाव में एक से अधिक राजनैतिक पार्टियाँ व उम्मीदवार होते हैं, परन्तु सुविधा की दृष्टि से यहाँ दो राजनैतिक पार्टी व दो उम्मीदवार लिये गये हैं)। ये दोनों उम्मीदवार A व B मतदाताओं को अपनी-अपनी ओर रिझाने का भरपूर प्रयास करेंगे और वे तरह-तरह की सूचनाओं के माध्यम से इस प्रकार की परिस्थितियों को निर्मित करने की चेष्टा करेंगे ताकि समस्त पूर्वानुमान व भविष्यवाणियाँ उनके अनुकूल हो जाएं। इसके लिये ये दोनों चुनावी उम्मीदवार पूरे चुनाव के समय एक-दूसरे के क्रिया-कलापों व उनके द्वारा व्यक्त की जा रही प्रतिक्रियाओं पर नजर व सूक्ष्म अध्ययन द्वारा अपनी चुनाव जीतने सम्बन्धी रणनीति व व्यूह रचना बनायेंगे।

यदि इस चुनाव का सर्वेक्षण किया जाये तो सम्पूर्ण चुनावी घटना के सम्बन्ध में मतदाताओं के निम्नलिखित स्वरूप प्रकट होंगे

(i) प्रथम स्वरूप-इस स्वरूप में ऐसे मतदाता आते हैं जिनकी कथनी एवं करनी में अन्तर होता है। अर्थात् इस प्रकार के मतदाता अपने मत के सम्बन्ध में व्यक्तियों व सर्वेक्षण करने वालों को निरन्तर भ्रमित करते हैं।

(ii) द्वितीय स्वरूप-इस स्वरूप के अन्तर्गत वे मतदाता आते हैं जो अपने मत के सम्बन्ध में अन्त में निर्णय लेते हैं अर्थात् सर्वेक्षण कर्त्ता के प्रश्नों का उत्तर देना उचित नहीं समझते।

(iii) तृतीय स्वरूप-इस स्वरूप के अन्तर्गत ऐसे मतदाता आते हैं जो अपने मत सम्बन्धी दृष्टिकोण व झुकाव को अन्तिम समय में बदल देते हैं।

परन्तु लेजर्सफेल्ड के अनुसार चुनाव निष्कर्ष सामान्यत: अग्रलिखित दो प्रकार के प्रभावों की सम्भावना को जन्म देते हैं

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सम्पूर्ण संचार/सम्प्रेषण

(Whole Communication)

सम्पूण सचार से अभिप्राय व्यापक, बृहद व विस्तृत संचार से है। एक सामान्य संचार में केवल सन्दश के तथ्यों को ही सम्मिलित किया जाता है जबकि सम्पूर्ण संचार में संचार के सम्पूर्ण तत्त्वों, जैसे सम्प्रेषण की भावनाएँ, मूल्य व विचारों का समावेश होता है। इसमें सम्प्रेषण की शारीरिक भाषा, मुद्रा, आसन, अभिव्यक्ति, नेत्र स्पर्श, देह स्पर्श आदि समस्त बातों पर भी ध्यान दिया जाता है।

अतः सम्पूर्ण संचार से आशय विस्तत सम्प्रेषण से है जिसमें सन्देश के विषय और इससे प्राप्तकत्ता और प्रेषक पर होने वाले सम्भावित भावनात्मक प्रभाव में सन्तलन स्थापित किया जाता है। इसमें न केवल सन्देश के तथ्यों को ध्यान में रखा जाता है बल्कि प्रेषक एवं प्राप्तकर्ता की भावनाओं पर भी ध्यान दिया जाता है।

 हैरी . चौम्बर्ज ने ठीक ही कहा है. “सम्पूर्ण संचार तब होता है जब सन्देश के विषय एवं भावनात्मक प्रभाव के बीच एक सेतु बनाया जाता है, ये सेतु दोनों बातों को जोड़ता है और दोनों तरफ बराबर ध्यान देता है।”

इस सेतु को तैयार करने के लिए ठोस नींव की आवश्यकता होती है। यह ठोस नींव इस बात पर निर्भर करती है कि सूचना कैसे दी जा रही है, सूचना का प्रभाव क्या है, जिसे सूचना देनी है उसकी पहचान करना। सम्पूर्ण संचार सुनिश्चित करने के लिये सन्देश के विषय तथा भावनात्मक प्रभाव के बीच के अन्तर को समाप्त करना होता है।

जब सन्देश प्राप्तकर्ता सन्देश को उसी भाव से समझता है जिसमें प्रेषक समझाना चाहता है तो संचार पूर्ण माना जाता है। पूर्ण संचार में प्रेषक एवं प्राप्तकर्ता की भावनाओं का ध्यान रखा जाता है। पूर्ण संचार के लिये सम्प्रेषक को अग्रिम में निर्णय लेना चाहिये कि उसे क्या कहना है, किससे कहना है और कैसे अर्थात किस भाषा में कहना है। कहने में शब्दों के साथ-साथ ध्वनि पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये तथा शारीरिक हाव-भाव को भी देखा जाना चाहिये। इस प्रकार किये गये संचार को ही पूर्ण संचार कहा जाता है।

एक सामान्य संचार प्रक्रिया में केवल सन्देश के तथ्यों को ही सम्मलित किया जाता है, जबकि व्यापक संचार में संचार के सम्पूर्ण तत्त्वों जैसे संचार की भावनाएँ, मूल्य, विचार इत्यादि होते हैं। सामान्य संचार में शारीरिक भाषा, अभिव्यक्ति, मूल्य और विचार को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है जबकि सम्पूर्ण संचार में ये सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। सामान्य संचार गलत भी हो जाता है क्योंकि संचार करने वाले और देने वाले के विश्वास और मूल्य में अन्तर होता है।

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सम्पूर्ण संचार/सम्प्रेषण के माध्यम

(Channels of Whole Communication)

सम्पूर्ण संचार के माध्यम निम्नलिखित चार प्रकार के होते हैं

(1) तथ्य (Facts) तथ्य से अभिप्राय व्यक्ति के स्वयं के अनुभव पर आधारित घटनाएँ हैं, जिन्हें सत्य माना जाता है।

(2) भावनाएँ (Feelings)-भावनाओं से अभिप्राय एक विशेष समय, स्थिति अथवा दशा में व्यक्ति की मानसिक क्रिया, प्रतिक्रिया तथा अभिव्यक्ति से है।

(3) मूल्य (Values)-मूल्य से आभ समाज के बारे में तथा संस्कृति व सभ्य

(4) मत (Opinion)-मत से आम गए दृष्टिकोण से है।

एक सामान्य सम्प्रेषण प्रक्रिया में सम्मिलित तत्त्वों के अतिरिक्त उक्त चार महत्त्वपूर्ण तत्त्वों का सामान्य सम्प्रेषण को सम्पूर्ण सम्प्रेषण में बदल देता है। यद्यपि विभिन्न तत्त्वों का सम्प्रेषण गा, माध्यमों व स्तरों पर किया जाता है, अतः यह सम्भावना भी होती है कि सम्प्रेषण में । या अशुद्धियाँ उत्पन्न हो जाएँ। व्यक्तिगत विश्वास, मूल्य तथा सन्दर्भ संदेश भेजने एवं प्राप्त करने के माध्यमों को प्रभावित करते है।

इन अशुद्धियों को दूर करने के लिए यह समझना आवश्यक है कि संदेश केवल तथ्यों से ही नहीं बना होता हे अपित इसमें प्रेषक की भावनाएँ, मूल्य तथा विचार भी होते हैं। हमें एक प्रभावी संचारक बनने के लिये इन सभी का अर्थ समझना आवश्यक है। प्रतिक्रिया तथा प्रभावी श्रवण क्रिया के द्वारा हम सही तथा स्पष्ट संदेश प्राप्त कर सकते हैं तथा समझ सकते हैं।

वास्वत में, हमारे लिए इस बात की आवश्यकता है कि सम्पूर्ण समाचार अर्थात् प्रेषक द्वारा व्यक्त किए गए तथ्यों, उसकी भावनाओं, मूल्यों और विचारों को सक्रिय रूप से सुनें। हम संचार का 75% भाग समझने के लिए अपनी दृश्य सम्बन्धी इन्द्रियों का प्रयोग करते हैं। शब्द केवल 20% अर्थ को प्रकट करते हैं। हम संदेश सुनते समय उसकी प्रतिक्रिया के बारे में सोचने में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि हम सन्देश भी प्रभावी तौर पर नहीं सुन पाते। अत: यह आवश्यक है कि हम अपनी श्रवण प्रक्रिया को भी प्रभावी बनायें।

निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि सम्पूर्ण संचार वह प्रक्रिया है जिसमें सन्देश प्राप्तकर्ता सभी माध्यमों द्वारा भेजे गए सन्देश प्राप्त करता है।

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परीक्षा हेतु सम्भावित महत्त्वपूर्ण प्रश्न

(Expected Important Questions for Examination)

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Questions)

1 स्व-विकास से आप क्या समझते हैं ? इसके उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। स्व-विकास तथा संचार एक-दूसरे पर कैसे निर्भर हैं ?

What do you mean by Self-development? Explain its objectives. How are the self-development and communication inter-dependents?

2. स्व-विकास की धारणा की चर्चा कीजिए। प्रभावी संचार में स्व-विकास किस प्रकार योगदान देता है?

Explain the concept of self-development. How does self-development contribute to effective communication?

3. स्व-विकास तथा संचार में क्या सम्बन्ध है ? क्या संचार द्वारा स्व-विकास सम्भव है ?

What is the relation between self-development and communication? Is it possible to be self-developed through communication?

4. सम्प्रेषण किस प्रकार आत्म विकास करता है ? विश्लेषण कीजिए।

How communication makes self-development ? Explain.

5. सकारात्मक व्यक्तिगत दृष्टिकोण क्या है? सकारात्मक व्यक्तिगत दृष्टिकोण के विकास को समझाइए।

What is Positive Personal Attitudes? Explain development of positive personal attitude.

6. स्वॉट विश्लेषण क्या है? इसके मुख्य अंगों को विस्तार से समझाइए।

What is SWOT Analysis? Explain in detail its main components.

7. पारस्परिक निर्भरता से आप क्या समझते हैं? पारस्परिक निर्भरता का मॉडल भी दीजिए।

What do you mean by Interdependence? Also give the model of Interdependence.

8. स्वॉट विश्लेषण से आप क्या समझते हैं? स्वॉट विश्लेषण की विधि तथा महत्त्व को विवचना कीजिये।

What do you understand by SWOT Analysis? Describe its methods and Importance.

9. स्वॉट विश्लेषण क्या है? किसी व्यक्ति का संचार स्थिति में स्वॉट विश्लेषण कीजिये।

What is SWOT analysis? Make SWOT analysis of an individual SWOT analysis of an individual communication situation.

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लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Questions)

1. सम्प्रेषण द्वारा आत्म-विकास कैसे सम्भव है?

How self-development is possible through communication?

2. स्व-विकास के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।

Explain the objectives of self-development.

3. स्व-विकास तथा सम्प्रेषण में क्या सम्बन्ध है?

What is the relation between self-development and communication?

4. सकारात्मक व्यक्तिगत दृष्टिकोण क्या है?

What is a positive personal attitude?

5. स्वॉट विश्लेषण को समझाइए।

Explain SWOT analysis.

6. व्यवसाय में स्वॉट विश्लेषण का क्या महत्त्व है?

What is the importance of SWOT analysis in business?

7. स्वॉट विश्लेषण के अंग बताइये।

Explain the components of SWOT analysis.

8. स्वॉट विश्लेषण एवं सम्प्रेषण पर टिप्पणी लिखिये।

Write a note on SWOT analysis and communication.

9. पारस्परिक निर्भरता मॉडल को समझाइए।

Explain inter-dependence model.

10. परस्पर निर्भरता में क्या अवरोध हैं?

What are the barriers to Interdependence?

11. मतों का पारस्परिक निर्भरता सिद्धान्त क्या है?

What is the vote’s model of Interdependence?

12. समग्र / सम्पूर्ण सम्प्रेषण क्या है?

What is whole communication?

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chetansati

Admin

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