BCom 1st Year Business Environment Meaning & Characteristics Study Material Notes in hindi

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अन्य प्रकार के व्यावसायिक संगठन

Table of Contents

(OTHER FORMS OF BUSINESS ORGANISATIONS)

लोक निगम (Public Corporation)

राष्ट्रीयकृत उद्योगों के परिचालन के लिए लोक निगम की स्थापना की जाती है। इसका स्वामित्व राज्य के हाथ में होता है, लेकिन सामान्यतः इसे राज्य द्वारा गठित प्रायः स्वतंत्र बोर्ड के निदेश (direction) में रखा जाता है। स्वामित्व में अन्तर के बावजूद लोक निगम का संगठन तथा कानूनी हैसियत संयुक्त पूंजी कम्पनी की तरह होता है।

सरकारी या दातव्य संस्थाएं (Government or Charitable Institutions)

फर्म से पृथक एक प्रकार की वे सरकारी या दातव्य संस्थाएं हैं, जो मुफ्त में वस्तु तथा सेवाएं प्रदान करती हैं, जैसे-स्कूल तथा अस्पताल। ये संस्थायें अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, लेकिन इन्हें फर्म के अध्ययन में शामिल नहीं किया जाता है, क्योंकि वे अपने उत्पाद को मुफ्त प्रदान करती हैं और इनकी लागत का वित्त पोषण सामान्य करारोपण द्वारा होता है। इसलिए ये उत्पाद अर्थव्यवस्था के बाजार क्षेत्र के अंग नहीं हैं यद्यपि इनके द्वारा खरीदे गए अनेक इनपुट (input) ऐसे हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां (Multinational Corporations or Transnational Corporation MNCs or TNCs)

वे संयुक्त पूंजी कम्पनियां जिनका परिचालन एक से अधिक देशों में होता है

बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कहलाती हैं। आज इनकी संख्या काफी बढ़ गई है। MNCs या TNCs को MNES (Multinational Enterprises) भी कहा जाता है।

स्वगृह में कुल उत्पादन करके तथा उसे निर्यात करने की अपेक्षा कम्पनी को विदेश में कुल उत्पादन के कुछ भाग को उत्पादित करने के कई कारण हैं, यथा

उत्पाद अधिक परिष्कृत (sophisticated) तथा विशिष्ट (differentiated) हो जाता है; बड़े स्थानीय बाजारों में उत्पादन के अवस्थित होने पर स्वगृह में स्थित होने की तुलना में स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप उत्पाद को ढालने में अधिक लचीलापन आ जाता है।

  • व्यापार प्रतिबन्ध के कारण स्वगृह से विदेशों में निर्यात करने की तुलना में बड़े विदेशी बाजार में उत्पादन करना कम जोखिम भरा होता है।
  • अनेक बहुराष्ट्रीय कम्पनियां विज्ञापन, मार्केटिंग, प्रबन्धन, लेखा विधि तथा वित्त जैसी तेजी से। विकसित हो रही सेवाओं से संबंध रखती हैं जिनमें सेवा के उत्पादन के लिए भौतिक उपस्थिति की आवश्यकता होती है।
  • कम्प्यूटर तथा संचार क्रान्ति के किसी भी उत्पाद के पुर्जी को अनेक देशों में उत्पत्ति करना संभव बना दिया है, प्रत्येक पुजा (component) वहां बनाया जाता है जहां इसकी उत्पादन लागत न्यूनतम होती है।

उत्पादन के भूमंडलीकरण (globalisation) के कारण MNCs के विकास ने विकासशील देशों को। अनेक लाभ पहुंचाये हैं।

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संयुक्तपूंजी कम्पनी के लाभ एवं हानियां (Advantages and Disadvantages of Joint-Stock Companies)

संयुक्त-पूंजी कम्पनी आज औद्योगिक या व्यावसायिक संगठन का प्रमुख ढांचा है। इसे पृथक् वैधानिक पहचान (separate legal entity) प्राप्त है। इसके हिस्सेदार कम्पनी के आंशिक स्वामी होते हैं, लेकिन उन्हें अपने शेयर किसी को और किसी भी समय बेचने का अधिकार है। उसका दायित्व सीमित है अर्थात् उसे केवल शेयर के मूल्य के बराबर ही मुद्रा का नुकसान होता है।

ऐसी कम्पनी का प्रमुख लाभ यह है कि अनेक लोगों की बचत कुछ ही लोगों के पास आ जाने से बड़े पैमाने के संगठन का लाभ प्राप्त हो सकता है। दूसरी बात यह है कि ऐसी कम्पनी कभी मरती नहीं है। (“… the joint-stock company does not die”_Robertson) | इसलिए कम्पनी से संबंधित किसी प्रमुख व्यक्ति की मृत्यु होने पर भी कम्पनी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, जबकि एकाकी व्यवसाय या साझेदारी की स्थिति में एकाकी स्वामी या साझेदार की मृत्यु पर कर तथा कानून की पेचीदगी से गुजरना होता है। तीसरे, पूंजी-विहीन किन्तु, योग्य एवं प्रशिक्षित व्यक्ति को अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का अवसर ऐसी कम्पनी में ही मिलता है प्रबन्धक के रूप में, अन्यथा व्यावसायिक योग्यता के बहुत बड़े भाग का न तो पता ही चलता और विकसित ही होता।

रॉबर्टसन तथा डेनिसन का कहना है कि संयुक्त-पूंजी कम्पनी में यह दोष है कि कम्पनी की उम्र ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है इसका लचीलापन कम होता जाता है, त्वरित समायोजन की क्षमता घटती जाती है, समय के अनकूल अपने को ढालने का योग्यता कम हो जाती है निजी व्यवसाय की तुलना में। बड़े संगठन का दोष आ जाता है, लेकिन सैम्वेलसन तथा नॉरडस का कहना है कि ऐसी कम्पनियों में प्रजातंत्र का अभाव रहता है, इसलिए प्रबन्धक त्वरित निर्णय लेने की क्षमता रखते हैं और लेते हैं, अक्सर ऐसे निर्णय काफी बेरहम (ruthless) होते हैं। सहकारिता

कॉरपोरेशन का ही एक भिन्न रूप सहकारिता (co-operatives) है। यह व्यक्तियों का वह व्यवसाय है, जिसका परिचालन सदस्यों के लाभ के लिए किया जाता है। इस व्यवसाय को प्रारंभ करने का प्रमुख उद्देश्य है उपभोक्ताओं को व्यापारियों, दलालों या मध्यस्थों के शोषण से बचाना। इस व्यवसाय में एक व्यक्ति को एक मत प्राप्त होता है, संयुक्त-पूंजी कम्पनी की तरह शेयरों की संख्या के आधार पर नहीं।

व्यवसाय को अक्सर घरेलू (domestic) तथा अन्तर्राष्ट्रीय (international) में विभाजित किया जाता है। घरेलू व्यवसाय का क्षेत्र देश की सीमा है। इस सीमा के अन्तर्गत यह स्थानीय (local) हो सकता है, क्षेत्रीय (regional) या राष्ट्रीय (national)अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में वे सभी व्यावसायिक लेन-देन शामिल होते हैं। जो दो या अधिक देशों के मध्य होते हैं।

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अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय

(INTERNATIONAL BUSINESS)

आज अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय का अध्ययन काफी महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि विश्व के कुल व्यवसाय का एक बड़ा एवं बढ़ता हुआ भाग यह व्यवसाय है। आज प्रायः सभी कम्पनियां-छोटी एवं बड़ी पर अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं तथा प्रतिस्पर्धा का प्रभाव पड़ता है। इसका कारण यह है कि अधिकांश कम्पनियां अपने उत्पाद को विदेशों में बेचती हैं तथा विदेशों से ही कच्ची सामग्री प्राप्त करती हैं एवं इन्हें विदेशों से आने वाली वस्तुओं तथा सेवाओं के साथ प्रतियोगिता करनी पड़ती है।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यावसायिक क्षेत्र में जो कम्पनियां प्रवेश करती हैं उन्हें निर्यात एवं आयात जैसे भिन्न प्रकार के व्यवसाय को करना पड़ता है। यह घरेलू व्यवसाय से भिन्न प्रकार का व्यवसाय है तथा इसके प्रबन्धकों को पृथक ढंग को समझना होगा। इतना ही नहीं: अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय को घरेलू वातावरण से अत्यधिक भिन्न बाह्य वातावरण में कार्य करना होता है। इस बाह्य वातावरण की भौतिक, सामाजिक तथा स्पर्धात्मक अवस्थाएं। भिन्न होती है।

प्रबन्धक पर प्रत्यक्ष अन्तर्राष्ट्रीय व्यावसायिक दायित्व नहीं रहने पर भी उसके लिए ऐसे व्यवसाय की जटिलताओं की समझ उपयोगी होगी। यह समझ उसे अधिक जानकार निर्णय (informed decision) लेने में सहायता करेगी।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में हाल ही में जो विकास हुआ है उसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं ।

(i) टेक्नोलॉजी में तीव्र वृद्धि एवं विस्तार, विशेषकर सूचना प्रौद्योगिकी (Information technology)

(ii) व्यापार एवं संसाधनों के एक देश से दूसरे देश में आने-जाने के सम्बन्ध में सरकारी नीति का उदार होना (liberalization policy);

(iii) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को सहायता पहुंचाने वाली एवं सुविधाजनक बनाने वाली संस्थाओं का विकास;

(iv) विश्व प्रतियोगिता में वृद्धि। अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय में वृद्धि निम्न प्रमुख उद्देश्यों के कारण हुई है।

(a) बिक्री में वृद्धि करने के लिए;

(b) संसाधनों को प्राप्त करने के लिए:

(c) बिक्री एवं संसाधनों की आपूर्ति के स्रोतों में विविधता लाने के लिए; तथा

(d) प्रतिस्पर्धात्मक जोखिम को न्यूनतम करने के लिए।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय का परिचालन (Operation of International Business)

अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय अनेक तरह से परिचालित होता है। कुछ प्रमुख रूप (modes) नीचे दिए गए

(1) आयात एवं निर्यात

(2) पर्यटन एवं परिवहन

(3) लाइसेन्सिंग एवं फ्रेन्चाइजिंग;

(4) टर्नकी परिचालन

(5) प्रबन्धन करार;

(6) निवेश इनकी संक्षिप्त विवेचना नीचे की जाती है :

(1) आयात एवं निर्यात (Importing and Exporting) इस वर्ग के अन्तर्गत माल के आयात एवं निर्यात (Merchandise imports and exports) तथा सेवाओं के आयात एवं निर्यात (Service imports and exports) शामिल हैं। दोनों प्रकार के आयात एवं निर्यात सम्बन्धी आंकड़े भुगतान शेष लेखे (Balance of Payments Accounts) में शामिल किए जाते हैं। माल के आयात एवं निर्यात को दृश्य आयात तथा निर्यात (Visible imports and exports) भी कहा जाता है। सेवाएं चूंकि मूर्त (Material or physical) वस्तुएं नहीं हैं, इसलिए इन्हें अदृश्य (Invisible) आयात एवं निर्यात कहा जाता है। अधिकांश अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनियां आयात तथा निर्यात का ही व्यवसाय करती हैं। यह बात छोटी कम्पनियों के लिए अधिक सही है। बड़ी कम्पनियां आयात तथा निर्यात के अतिरिक्त अन्य विदेशी क्रियाओं में अधिक रुचि रखती हैं।।

(2) पर्यटन एवं परिवहन (Tourism and Transportation) यह सेवा आयात एवं निर्यात का ही। एक रूप है। अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटन एवं परिवहन हवाई एवं जहाजरानी कम्पनियों, ट्रेवल एजेन्सियों तथा होटल की आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।

सेवाओं का निष्पादन कई तरह से होता है; जैसे—बैंकिंग, बीमा, किराया, इन्जीनियरिंग तथा प्रबन्धन सेवाएं प्रदान करके जिनके बदले में फीस मिलती है।

(3) लाइसेन्सिंग तथा फ्रेन्चाइजिंग (Licensing and Franchising) ट्रेडमार्क, पैटेन्टस (Patents). कॉपीराइट, करार के अन्तर्गत सुविज्ञता (expertise) सेवा, आदि परिसम्पत्तियों (assets) का उपयोग लाइसेन्सिंग समझौता (Licensing Agreements) कहलाता है। इससे प्राप्त आय को रॉयल्टी (royalty), कहा जाता है।

फ्रेन्चाइजिंग व्यवसाय की वह व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत एक पार्टी (franchisor) दसरी पार्टी (franchisee) को अपने ट्रेडमार्क के उपयोग की अनुमति देती है और यही ट्रेडमार्क इस दूसरी पार्टी की मूलभूत परिसम्पत्ति (asset) हो जाती है। पहली पार्टी दूसरी पार्टी को व्यवसाय के परिचालन के लिए पुजे, प्रबन्धन सेवा तथा तकनीकी उपलब्ध कराके लगातार मदद करती है।

(4) टर्नकी परिचालन (Turnkey Operations) इस परिचालन के अन्तर्गत सुविधाओं का निर्माण करार के अन्तर्गत किया जाता है। जब यह कार्य पूरा हो जाता है, इसे इसके स्वामी को स्थानान्तरित कर दिया जाता है। ऐसा विशेषकर इन्जीनियरिंग सेवाओं के सम्बन्ध में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होता है और इस सेवा के बदले में फीस ली जाती है।

(5) प्रबन्धन करार (Management Contract)—फीस प्रबन्धन सेवा के लिए भी दी जाती है। ऐसी प्रबन्धन संवा (Management services) अक्सर प्रबन्धन करार (Management Contracts) का परिणाम होती है। यह करार एक ऐसी व्यवस्था है जिसके तहत एक कम्पनी दूसरी कम्पनी को सामान्य या विशिष्ट प्रबन्धन क्रिया के परिचालन के लिए कार्मिक (personnel) उपलब्ध कराती है।

(6) निवेश (Investments) विदेशी निवेश में विदेशी सम्पत्ति का स्वामित्व सम्मिलित है जिसके बदले में वित्तीय प्रतिफल प्राप्त होता है। विदेशी निवेश दो प्रकार के होते हैं :

  • विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (Foreign Direct Investment); तथा
  • पोर्टफोलियो निवेश (Portfolio Investment)|

विदेशी प्रत्यक्ष निवेश वह है जो निवेशक को विदेशी कम्पनी का नियन्त्रण प्रदान करता है। नियन्त्रण का 100 प्रतिशत होना जरूरी नहीं है: यह 50 प्रतिशत भी हो सकता है। जब दो या अधिक कम्पनियां FDI के स्वामित्व में हिस्सा बंटाती हैं, उसे संयुक्त उद्यम (Joint Venture) कहा जाता है। संयुक्त उद्यम का एक वह रूप है जिसे मिश्रित उद्यम (Mixed Venture) कहा जाता है। ऐसे उद्यम के FDI में सरकार किसी कम्पनी के साथ मिल जाती है।

पोर्टफोलियो निवेश में कम्पनी का नियन्त्रण निवेशक के हाथ में नहीं होता है। पोर्टफोलियो निवेश सामान्यतः दो प्रकार का होता है:

  • कम्पनी के शेयर की खरीद: या
  • कम्पनी या देश को उधार निवेशक द्वारा बाण्ड, बिल या नोट की खरीद के द्वारा।

सहयोगी व्यवस्था (Collaborative Arrangements) एक विस्तृत अर्थवाला शब्द है जिसके अन्तर्गत टर्नकी परिचालन, प्रबन्धन करार, लाइसेन्सिंग, फ्रेन्चाइजिंग आदि आ जाते हैं। स्ट्राटेजिक सहयोग (Strategic Alliance) शब्द का उपयोग संकीर्ण अर्थ में होता है। यह एक ऐसा समझौता है, जो एक या अधिक भागीदार की स्पर्धात्मक सक्षमता (Competitive viability) के सम्बन्ध में अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है।

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व्यवसाय के लक्ष्य या उद्देश्य

(GOALS OR OBJECTIVE OF BUSINESS)

व्यवसाय की परिभाषा करते हुए ऊपर बताया गया कि इसमें लाभ उपार्जन करने वाली सभी क्रियाएं तथा उद्यम शामिल हैं जो अर्थव्यवस्था के जरूरत की वस्तुओं तथा सेवाओं को प्रदान करते हैं। इस व्याख्या से यह बात स्पष्ट होती है कि व्यवसाय का उद्देश्य लाभ प्राप्त करना है। व्यवसाय के अन्य लक्ष्यों में से यह केवल एक, किन्तु प्रमुख, उद्देश्य है। लाभ के अतिरिक्त अन्य उद्देश्य है विकास (growth), शक्ति (power), कर्मचारियों का सन्तोष एवं विकास (employee satisfaction and development), ऊंची क्वालिटी की वस्तु एवं सेवा (High quality products and services), बाजार नेतृत्व (market leadership), सृजन का आनन्द (Joy of creation), आदि।

पारम्परिक उद्देश्य : अधिकतम लाभ

आर्थिक सिद्धान्तों की विवेचना में व्यवसाय का पारम्परिक सिद्धान्त इस मान्यता पर आधारित है कि। सभी प्रकार के व्यवसाय-एकाकी स्वामित्व, साझेदारी या संयुक्त पूंजी कम्पनी (कॉरपोरेशन) का लक्ष्य अधिकतम लाभ (maximum profit) प्राप्त करना होता है। यह लाभ उस समय प्राप्त होता है जब सीमान्त लागत उसके सीमान्त राजस्व के बराबर हो जाती है (Marginal Cost = Marginal Revenues अधिकतम लाभ का यह सिद्धान्त निम्न मान्यताओं पर आधारित है:

  • उद्यमी (entrepreneur) फर्म का स्वामी है।
  • केवल एक ही उद्देश्य से उद्यमी प्रेरित होता है और वह है—अधिकतम लाभ का लक्ष्य।।
  • उद्यमी निश्चितता (certainty) की अवस्था में क्रिया करता है। उसे भूत, वर्तमान तथा भविष्य कीपूरी जानकारी रहती है। उसे लागत एवं राजस्व की निश्चित जानकारी रहती है।
  • फर्म के प्रवेश एवं बाहर जाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं रहता है।

इस सिद्धान्त पर दो-तरफा प्रहार किया गया। फर्म अधिकतम लाभ प्राप्त नहीं कर सकती, क्योंकि लागत एवं राजस्व के सम्बन्ध में व्यवसायी को पूरी जानकारी नहीं रहती है। अतः उसे अनिश्चितता (uncertainty) का सामना करना पड़ता है। दूसरे, आज की फर्मों का स्वामित्व नियन्त्रण से पृथक् हैं। इस कारण व्यवसाय सिर्फ एक उद्देश्य की प्राप्ति से प्रेरित नहीं होता है। फर्म निम्न उद्देश्यों से प्रेरित हो सकती है।

(1) प्रबन्धकीय (Managerial) स्वामित्व (ownership) तथा नियन्त्रण (control) के अलग-अलग होने के कारण व्यवसाय के प्रबन्धकों को लक्ष्यों को निर्धारित करने में कुछ स्वतन्त्रता रहती है।

(2) व्यवहारवाद (Behaviourism)—चूंकि वास्तविक जगत् में अनिश्चितता पाई जाती है तथा सही सूचना का अभाव रहता है, अतः प्रबन्धक कई भिन्न उद्देश्यों से प्रेरित हो सकता है। (आगे इन उद्देश्यों की विवेचना की गई है।)

(3) व्यवसाय में टिका रहना तथा बाजार हिस्सा (Survival and Market Share) व्यवसायी की प्रमुख रुचि इस बात में है कि वह दीर्घकाल तक बाजार में बना रहे। इसके लिए कुल बाजार मांग में अपने हिस्से को कायम रखने तथा बढ़ाने की कोशिश करता है।

(4) प्रवेश को रोकना तथा जोखिम से बचना (Entry Prevention and Risk Avoidance) व्यवसायी का यह उद्देश्य हो सकता है कि वह नयी फर्मों को व्यवसाय में प्रवेश करने से रोके। इसके लिए वह अपनी वस्तु की ऐसी कीमत रख सकता है जो नयी फर्मों को आकृष्ट ही न करे। इसे लिमिट प्राइसिंग (Limit Pricing) कहा जाता है। ऐसी कीमत का निर्धारण फर्म की अपनी वित्तीय स्थिति पर निर्भर करता है।

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आज का व्यवसाय एवं इसके उद्देश्य (Today’s Business and its Objectives)

आज का व्यवसाय प्रबन्धकों, श्रमिकों, अंशधारियों, पूर्तिकर्ताओं, क्रेताओं, वित्तीय संस्थाओं, आदि का सहमिलन (Coalition) है। इस सहमिलन के सदस्यों के उद्देश्य पृथक्-पृथक् होते हैं। कम्पनी के जीवित रहने के लिए यह आवश्यक है कि भिन्न-भिन्न उद्देश्यों में सामंजस्य स्थापित किया जाए। इस सामंजस्य की स्थापना शीर्ष प्रबन्धकों (top management) द्वारा नाना विधियों द्वारा की जाती है। इसका कारण यह है कि ऐसे प्रबन्धक ही सहमिलन के सर्वाधिक महत्वपूर्ण सदस्य हैं। शीर्ष प्रबन्धकों का महत्व निम्न विषयों पर उनके निर्णय लेने की शक्ति से जाना जा सकता है :

  • लक्ष्यों का निर्धारण (goal-setting);
  • निवेश एवं विस्तार के सम्बन्ध में मूल निर्णय (basic decisions on investment and expansion);
  • महत्वपूर्ण कर्मचारियों की नियुक्ति एवं प्रोन्नति (appointments and promotions of key personnel);
  • सूचना की जानकारी (access to information)|

आधुनिक कम्पनी की प्रमुख विशेषता स्वामित्व का प्रबन्धन से पृथक् होना (divorce of ownership from management) है। अंशधारी (shareholders) व्यवसाय के स्वामी होते हैं। वे ही निदेशक मण्डल (Board of Directors) की नियुक्ति करते हैं और यह बोर्ड शीर्ष प्रबन्धकों को नियुक्त करता है, जैसा नीचे दिया गया है :

स्वामी अंशधारी → निदेशक मण्डलले  शीर्ष प्रबन्धक

अंशधारी वस्तुतः उतने शक्तिशाली नहीं होते हैं जैसा ऊपर की स्कीम से प्रतीत होता है। इसका कारण यह है कि अंशधारियों की संख्या बहत अधिक होती है और वे एक बड़े क्षेत्र में फैले होते हैं तथा आम बठकम शायद ही हिस्सा लेते हैं। अतः निदेशक मण्डल का चुनाव मौजूदा बोर्ड द्वारा प्रतिपत्री मतदान (proxy voting) द्वारा किया जाता है जिसमें शीर्ष प्रबन्धकों द्वारा काफी चालबाजी की जाती है। इन प्रबन्धकों का उद्देश्य होता है। व्यवसाय में अपने को बनाए रखना और इसके लिए वे निम्न लक्ष्यों को अपने सामने रखते है ।।

  • लाभ को एक ऐसे स्तर पर ले जाना जो अधिकांश अंशधारियों को स्वीकृत (acceptable) हा;
  • अन्य फर्मा की तुलना में अपनी फर्म की विकास दर को एक उचित स्तर पर ले जाना।
  • इतना लाभांश वितरित करना जो अंशधारकों को खुश रखे;
  • अंश की कीमतों को गिरने से रोकना; तथा
  • फर्म को ऐसा आकर्षक बनाना कि लोग इसे अधिकार में करने के इच्छुक दिखें।।

उपर्युक्त दिशा में व्यवसाय के विकास के कारण प्रबन्धक आज काफी शक्तिशाली हो गए है तथा वे। उद्देश्यों के निर्धारण में अपेक्षाकृत अधिक स्वतन्त्र हैं। प्रबन्धक अधिकतम लाभ के स्थान पर निम्न उद्देश्यों से प्ररित। हो सकते हैं:

  • सन्तोषप्रद आचरण (Satisficing Behaviours) सायर्ट एवं मार्च (Cyert and March) व्यवसाय के लक्ष्यों को उसकी आकांक्षाओं (aspiration) के रूप में देखते हैं, अधिकतम करने के रूप में नहीं। उत्पादन, भण्डारण (inventory), बिक्री, बाजार-अंश (Market-share) तथा लाभ जैसे पांच लक्ष्यों से प्रबन्धक प्रभावित होते हैं। इन्हीं लक्ष्यों को ध्यान में रखकर वे सन्तोषप्रद स्थिति की प्राप्ति की कोशिश करते हैं। शीर्ष प्रबन्धन द्वारा ही अन्ततः लक्ष्यों का निर्धारण किया जाता है तथा निदेशक मण्डल से स्वीकृति प्राप्त की जाती है। यदि ये लक्ष्य प्राप्त हो जाते हैं, व्यवसाय का निष्पादन सन्तोषजनक माना जाएगा।
  • अधिकतम बिक्री का लक्ष्य (Goal of Sales Maximization) बामोल ( J. Baumol) के दृष्टिकोण में फर्म अपने आकार को वृहत्तम करने का प्रयास करती है और आकार की माप बिक्री से प्राप्त राजस्व है। इसका कारण यह है कि प्रबन्धक के सन्तोष एवं पुरस्कार आकार पर अधिक तथा लाभ पर कम निर्भर करते हैं। यही बिक्री अधिकतम मॉडल है। यहां प्रबन्धक का लक्ष्य बिक्री को अधिकतम करना होता है, लाभ को अधिकतम करना नहीं, क्योंकि वे सन्तोषजनक लाभ से ही सन्तुष्ट होते हैं। अधिकतम बिक्री एक तर्कसंगत नीति है। वेतन, शक्ति तथा प्रतिष्ठा सभी व्यवसाय के आकार तथा लाभ के साथ बढ़ते हैं।

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व्यवसाय का सामाजिक दायित्व

(SOCIAL RESPONSIBILITY OF BUSINESS)

व्यवसाय एक ऐसा उद्यम है जो वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन करके समाज के उन सदस्यों को प्रदान करता है जिन्हें इनकी आवश्यकता है तथा जो इनके लिए कीमत का भुगतान कर सकते हैं। इन क्रियाओं के पीछे व्यवसायी का प्रमुख उद्देश्य लाभ प्राप्त करना होता है। व्यवसाय समाज के साथ अन्तक्रिया करता है। उसे उत्पादन के साधन समाज से प्राप्त होते हैं तथा उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं को समाज को ही बेचना पड़ता है। समाज से अलग व्यवसाय का अस्तित्व ही नहीं हो सकता है। समाज पर इस निर्भरता का अर्थ यह है कि लाभ प्राप्त करने के साथ-साथ उसकी जिम्मेवारी समाज के प्रति भी है। इसका यह तात्पर्य है कि व्यवसायी को ऐसे कार्य भी करने हैं जिनसे समाज के कल्याण में वृद्धि हो।

व्यवसाय का सामाजिक दायित्व कोई नई धारणा नहीं है। प्राचीन काल तथा आज भी व्यवसायी द्वारा गर्मी के मौसम में प्याऊ खोलना जहां प्यासे को मुफ्त पेयजल प्रदान करना, गोशाला बनवाना, धर्मशाला का निर्माण, कआं खुदवाना, अकाल के समय गोदाम से मुफ्त अनाज बांटना, गुरुकूल, विश्वविद्यालयों, विद्यालयों आदि को आर्थिक सहायता देना, मेधावी एवं निर्धन छात्रों को वित्तीय सहायता देना, आदि इसी सामाजिक दायित्व के प्रकाशन (manifestation) है।

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सामाजिक दायित्व की धारणा का विकास

व्यवसाय के सामाजिक दायित्व की धारणा काफी पुरानी है। क्लासिकल अर्थशास्त्रियों का कहना था कि व्यवसायी अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह करता है यदि वह उपलब्ध साधनों का उपयोग कशल रूप में (efficiently) करता है तो इस स्थिति में वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन न्यूनतम लागत पर होता है तथा उपभोक्ताओं को न्यूनतम कीमत पर वस्तुएं प्राप्त होती हैं। ।

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत साधनों का कुशलतम उपयोग अदृश्य हाथ (invisible| hand) अर्थात् बाजार यन्त्र (market mechanism) द्वारा होता है। निजी हित तथा सार्वजनिक हित के मध्य मेल (harmony) की विवेचना एडम स्मिथ ने निम्न पंक्तियों में की है :

प्रत्येक व्यक्ति अपनी पूंजी इस प्रकार नियुक्त करने की कोशिश करता है ताकि उत्पत्ति अधिकतम मूल्य की हो सके। वह सामान्यतः तो सार्वजनिक हित को प्रोन्नत करने की इच्छा रखता है और ही जानता है कि कितने सार्वजनिक हित की प्रोन्नति हो रही है। वह सिर्फ अपनी सुरक्षा, अपने लाभ की इच्छा रखता है। ऐसा करने में वह एक अदृश्य शक्ति द्वारा एक ऐसे उद्देश्य को प्रोन्नत करता है जो उसकी इच्छा का कोई हिस्सा नहीं था। अपने हित को प्रोन्नत करने की क्रिया में वह लोकहित की प्रोन्नति अधिक कुशलता से करता है उस स्थिति की तुलना में जब वह वस्तुतः ऐसा करने की इच्छा रखता हो।”

एडम स्मिथ के इस कथन के प्रति सहमति प्रकट की गई है और आलोचना भी हुई। हम जानते हैं कि अदृश्य शक्ति अर्थात् बाजार यन्त्र कभी-कभी सही परिणाम नहीं देता, बाजार असफल भी होता है तथा बाजार यन्त्र द्वारा साधनों का सदा कुशल (efficient) आबण्टन नहीं होता, परिणाम हमेशा सर्वोत्तम (optimum) नहीं होते। एकाधिकार तथा अपूर्ण प्रतियोगिता की परिस्थिति में बाजार असफल हो जाता है। बाह्यताओं अर्थात् बाह्य प्रभाव के कारण भी अदृश्य हाथ असफल हो जाता है। कठिनाई तब भी उठती है जब आय का वितरण राजनीतिक या नैतिक दृष्टिकोण से अस्वीकार्य होता है।

उन्नीसवीं सदी के अन्त की ओर तथा बीसवीं सदी में कई कारणों से व्यवसायियों को अपने ही हित में सामाजिक समस्याओं की ओर ध्यान देना पड़ा। संयुक्त पूंजी कम्पनी के गठन तथा बहुत बड़े पैमाने पर उत्पादन के कारण कम्पनी के स्वामित्व तथा प्रबन्धन पृथक् हो गए। प्रबन्धकों को व्यवसाय के प्रबन्ध में अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त हो गई। इस कारण व्यवसायियों ने अधिक सामाजिक दायित्व ग्रहण करना शुरू किया।

1920 के दशक में तीन परस्पर-सम्बद्ध विषय का उदय हुआ जिसने विस्तृत व्यावसायिक सामाजिक दायित्व को उचित ठहराया।

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(1) प्रबन्धकों को न्यासी (trustees) के रूप में अर्थात् कम्पनियों के एजेण्ट के रूप में देखा जाने लगा। वे अति शक्तिशाली हो गए। अतः वे न केवल अंशधारियों (shareholders) के कल्याण में वृद्धि करने के विषय में सोचने लगे बल्कि ग्राहकों, श्रमिकों तथा कर्मचारियों एवं समाज के विषय में भी।

(2) प्रबन्धकों ने सोचना शुरू किया कि उन्हें इन समूहों के हितों के मध्य सन्तुलन कायम करना है। वस्तुतः उनकी भूमिका समन्वयकारी है।

(3) अनेक प्रबन्धकों ने सेवा सिद्धान्त (Service principle) को अपनाया। व्यवसायी को अपने आर्थिक लाभ के अतिरिक्त सामाजिक अन्याय, निर्धनता तथा अन्य बुराइयों को मिटाने की दिशा में भी कार्य करना चाहिए।

पिछले चालीस-पचास वर्षों में व्यवसायी के सामाजिक दायित्व का और विकास एवं विस्तार हुआ है। आज सामाजिक दायित्व के अन्तर्गत शिक्षा, लोक स्वास्थ्य, कर्मचारी कल्याण, आवास, नगरीय विकास, पर्यावरण की सुरक्षा, संसाधन संरक्षण, आदि को शामिल किया जा रहा है। सामाजिक दायित्व के दायरे में विकास का कारण यह है कि औद्योगिक क्रियाओं में लगातार वृद्धि का प्रभाव समाज पर पड़ता है। आवश्यकता इस बात को समझने की है कि स्वस्थ व्यवसाय तभी सम्भव है जब समाज भी स्वस्थ हो। पीटर ड्रकर (Peter Drucker) का कहना है। कि “स्वस्थ व्यवसाय तथा बीमार समाज साथ-साथ नहीं चल सकते हैं।” (A healthy business and sick society are hardly compatible.) उत्पादकता में वृद्धि के लिए अन्य बातों के अतिरिक्त स्वस्थ श्रमशक्ति की आवश्यकता है। इसके लिए जरूरी है कि श्रमिकों के आवास, स्वास्थ्य, बच्चों की शिक्षा, आदि का प्रबन्ध व्यवसाय द्वारा किया जाए, चाहे वह निजी कम्पनी हो या लोक उद्यम।

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सामाजिक दायित्व का क्षेत्र (Scope of Social Responsibility)

व्यवसाय के सफल संचालन में समाज के अनेक वर्गों का योगदान होता है, जैसे ऋणदाता, निवेशकता, कर्मचारी, ग्राहक, पूर्तिकर्ता, पेशेवर संस्थाओं, स्थानीय संस्था, सरकार तथा स्वयं से लेकर विश्व समाज तक व्यवसायी का प्रथम दायित्व व्यवसाय का कुशलतापूर्वक संचालन करना है। यह उसका स्वयं के प्रति दायित्व है। अपने प्रति दायित्व को पूरा किए बिना वह समाज के अन्य वर्गों के प्रति दायित्व को पूरा नहीं कर सकता।। विशालकाय संयुक्त पूंजी कम्पनियों में स्वामित्व एवं प्रबन्धन में पथकता पायी जाती है। अतः प्रबन्धको का यह। दायित्व है कि वे कम्पनी के स्वामियों अर्थात अंशधारियों के हित की रक्षा करें तथा व्यवसाय का संचालन इस प्रकार करें कि स्वामियों को अधिकतम नहीं तो कम-से-कम सन्तोषजनक लाभ प्राप्त हो।।

आधुनिक व्यवसाय बाजारोन्मुखी है। अतः ग्राहकों की रुचि के अनकल वस्तुओं का उत्पादन कर उन्हें । उचित कीमतों पर बेचना चाहिए। नई-नई वस्तुओं का उत्पादन करके ग्राहकों का सुजन भी प्रबन्धको के दायित्व। के अन्दर आता है।

व्यवसायी किसी भी वस्तु के उत्पादन के लिए विभिन्न स्रोतों से कच्ची सामग्री, उपकरण, यन्त्र, स्टेशनरी, आदि प्राप्त करता है। ऐसे आपूर्तिकर्ताओं के प्रति उसका यह दायित्व है कि उन्हें उचित कीमत दी जाए, उचित समय पर दी जाए तथा उत्तम किस्म के माल की पूर्ति करने के लिए प्रोत्साहित करे।।

आज व्यवसाय का प्रबन्ध एवं संचालन पेशेवर विशेषज्ञों; जैसे चार्टर्ड एकाउण्टैण्ट्स, प्रबन्धन संस्थानो, आदि की सेवाओं के आधार पर होता है। अतः इन पेशेवर संस्थानों का सदस्य बनकर इनके द्वारा प्रदत्त सभी सेवाओं का लाभ उठाएं।

सरकार के प्रति व्यवसाय का यह दायित्व है कि वह समस्त करों का समय पर भुगतान करे, राज्य के द्वारा पारित अधिनियमों का पालन करे, आदि।

आज की बहुराष्ट्रीय कम्पनियां किसी एक देश की सीमाओं के अन्दर कार्य न करके, कई देशों में कार्य करती हैं। इस स्थिति में व्यवसायी को कई देशों के हितों की रक्षा करनी होती है, नियमों का पालन करना होता है।

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व्यवसाय का सामाजिक दायित्व : दोतरफा रास्ता

व्यवसाय का सामाजिक उत्तरदायित्व एक अत्यन्त ही जटिल विषय-वस्तु होने के साथ-साथ बहुआयामी भी है। यह दायित्व स्वयं से लेकर विश्व तक फैला हुआ है। इस सम्बन्ध में एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यह एकतरफा नहीं है, बल्कि दोतरफा है अर्थात् व्यवसाय का समाज के प्रति उत्तरदायित्व होने के साथ-साथ समाज का भी व्यवसाय के प्रति उत्तरदायित्व है।

व्यवसाय के सुचारु संचालन के लिए प्रथम आवश्यकता यह है कि समाज में शान्ति एवं सुव्यवस्था कायम करे, कानून का राज्य (rule of law) हो। जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली हालत न हो। व्यवसाय सम्बन्धी कानूनों को लागू करने में कोई भेदभाव न किया जाए। सरकार की स्थिरता बनी रहे। आधारभूत संरचना उपलब्ध करायी जाए। यदि व्यवसाय से हम उम्मीद करें कि वह अपने दायित्व का पालन करे, तो यह भी अपेक्षा की जाती है कि समाज अपने उन दायित्वों को पूरा करे जो व्यवसाय के सुचारु संचालन के लिए जरूरी है।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 व्यवसाय से आप क्या समझते हैं? व्यवसाय की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

2. व्यावसायिक संगठन के विभिन्न स्वरूपों की विवेचना करें।

3. व्यवसाय के उद्देश्यों की विवेचना करें।

4. व्यवसाय के सामाजिक दायित्व की विवेचना करें।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

1. व्यवसाय से आप क्या समझते हैं?

2. व्यवसाय के स्वरूप के क्रमिक विकास पर संक्षिप्त प्रकाश डालें।।

3. घरेलू तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में अन्तर करें।

4. विभिन्न प्रकार के अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय पर प्रकाश डालें।

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chetansati

Admin

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