BCom 1st Year International Trading Environment Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year International Trading Environment Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year International Trading Environment Study Material Notes in Hindi: Meaning of International trade  Advantages of International Trade Necessity of International Trade Importance of International Trade  Disadvantages of International Trade Effects of International Trade  Competition in International Trade Future of International Trade in Service Remittances  Examination Questions Long Answer Question Short Answer Questions :

International Trading Environment
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BCom 1st Year Economic Planning India Objectives Strategy Study Material Notes In Hindi

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार परिदृश्य 

[INTERNATIONAL TRADING ENVIRONMENT]

प्राचीन युग में मनुष्य की आवश्यकताएं इतनी सीमित थीं कि मनुष्य एक प्रकार से स्वावलम्बी था अर्थात् वह स्वयं अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर लेता था, किन्तु जैसे-जैसे मनुष्य की आवश्यकताएं बढ़ती गयीं, उसके लिए यह कठिन हो गया कि वह स्वयं के उत्पादन से अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। अब उसका ध्यान विशिष्टीकरण की ओर गया और उसने अनुभव किया कि यदि वह किसी एक ही वस्तु का उत्पादन करे तो अधिक उत्पादन कर सकता है, लेकिन प्रश्न यह था कि फिर वह अपनी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे करेगा? मनुष्य ने इसका हल भी खोज लिया कि वह स्वयं निर्मित वस्तु का अन्य आवश्यक वस्तुओं से विनिमय करेगा और इस प्रकार अदल-बदल (Barter) की प्रथा का सूत्रपात हुआ जो व्यापार का प्रारम्भिक चरण था। प्रारम्भ में केवल वस्तुओं का ही विनिमय किया जाता था तथा मुद्रा का प्रयोग नहीं होता था, किन्तु जैसे ही मुद्रा का प्रयोग प्रारम्भ हुआ, वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय प्रत्यक्ष न होकर मुद्रा के माध्यम से होने लगा। यही कारण है कि वर्तमान अर्थव्यवस्था को मौद्रिक अर्थव्यवस्था (Money Economy) कहते हैं। इस व्यवस्था ने व्यापार को बहुत सरल तथा सुविधाजनक बना दिया है। पहले व्यापार एक देश की सीमा के भीतर ही होता था जो कालान्तर में देश की सीमाओं को पार कर विदेशी व्यापार में परिवर्तित हो गया।

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अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का अर्थ

(MEANING OF INTERNATIONAL TRADE)

यदि हम व्यापार का अर्थ समझ लें तो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के अर्थ को सरलता से समझ सकते हैं। साधारण तौर पर लोगों के बीच होने वाले वस्तुओं और माल के विनिमय को व्यापार कहते हैं, जो लाभ के उद्देश्य से किया जाता है। यदि विस्तृत अर्थ में देखा जाय तो व्यापार के अन्तर्गत उन सभी आर्थिक क्रियाओं का समावेश हो जाता है जिनका सम्बन्ध उत्पादित वस्तुओं के वितरण से होता है। वस्तुओं का वितरण इसलिए किया जाता है कि उपभोग के लिए इनकी मांग की जाती है।

व्यापार को निम्नलिखित दो भागों में बांटा जा सकता है :

(1) आन्तरिक अथवा अन्तक्षेत्रीय व्यापार (Internal or Inter-regional Trade)

(2) अन्तर्राष्ट्रीय अथवा विदेशी व्यापार (International or Foreign Trade)

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(1) आन्तरिक व्यापारआन्तरिक व्यापार से तात्पर्य उस व्यापार से है, जो किसी एक देश की सीमा के भीतर विभिन्न स्थानों अथवा क्षेत्रों के बीच किया जाता है। जैसे यदि कोई मध्य प्रदेश का व्यापारी गुजरात के व्यापारी के साथ व्यापार करता है अथवा इन्दौर का व्यापारी जबलपुर के व्यापारी के साथ व्यापार करता है तो इसे आन्तरिक व्यापार कहेंगे। इसे गृह व्यापार (Home Trade) अथवा अन्तक्षेत्रीय व्यापार (Inter-regional Trade) भी कहते हैं। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैबरलर के अनुसार, “गह-व्यापार अथवा अन्तक्षेत्रीय व्यापार का अर्थ साधारण तौर पर उस क्षेत्र के भीतर व्यापार है जिसकी समृद्धि में सम्बन्धित सरकार की अभिरुचि रहती है अथवा वह क्षेत्र उस सरकार की सीमा में आता है।”

(2) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का अर्थ उस व्यापार से है जिसके अन्तर्गत दो या दो से अधिक राष्ट्रों के बीच वस्तओं और सेवाओं का विनिमय किया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि भारत का व्यापार ब्रिटेन अथवा अमरीका के साथ किया जाता है तो यह अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार होगा। इसे बाह्य व्यापार (External Trade) अथवा विदेशी व्यापार (Foreign Trade) भी कहते हैं।

आन्तरिक और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भेद करते हुए हैबरलर कहते हैं कि ‘गृह व्यापार और विदेशी व्यापार की विभाजन रेखा एक देश की सीमा होती है। उस सीमा के भीतर होने वाला व्यापार गृह व्यापार होता है तथा सीमा के बाहर विभिन्न देशों के साथ किया जाने वाला व्यापार विदेशी व्यापार कहलाता है।”

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अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की आवश्यकता

(NECESSITY OF INTERNATIONAL TRADE)

वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार देशों के लिए आवश्यक हो गया है। उसका प्रमुख कारण यह है कि प्रायः सब देशों ने भौगोलिक विशिष्टीकरण को अपना लिया है, क्योंकि तकनीकी विकास और वैज्ञानिक आविष्कार के कारण विशिष्टीकरण का क्षेत्र काफी व्यापक हो गया है। इसके अनुसार प्रत्येक राष्ट्र केवल उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन कर रहा है जिनमें वह सर्वाधिक कुशल है और जिनकी तुलनात्मक लागत कम है अर्थात वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करना चाहता है तो उसे अपनी वस्तुओं का निर्यात करना होगा तथा विदेशों से आवश्यक वस्तुओं का आयात करना होगा। एल्सवर्थ का तो यहां तक कहना है कि बहुत-से देशों के लिए तो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार जीवन अथवा मृत्यु का प्रश्न बन गया है। वर्तमान समय में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की आवश्यकता को प्रदर्शित करने वाले बिन्दुओं में प्रमुख हैं :

(1) श्रमविभाजन देशों में बढ़ते हुए श्रम-विभाजन के कारण विदेशी व्यापार आवश्यक हो गया है। क्योंकि जो देश कुछ विशेष वस्तुओं का उत्पादन करता है, वह उनका निर्यात करना चाहता है तथा उसके बदले अपने लिए आवश्यक वस्तुओं को विदेशों से आयात करना चाहता है। यह विदेशी व्यापार के माध्यम से ही सम्भव है।

(2) कच्चे माल की उपलब्धि कुछ देशों के पास मशीनें और तकनीकी ज्ञान तो उपलब्ध होता है, किन्तु औद्योगिक उत्पादन करने के लिए पर्याप्त कच्चा माल नहीं होता। यदि वे उत्पादन करना चाहते हैं तो विदेशों से कच्चा माल आयात करना आवश्यक है, जो विदेशी व्यापार से ही सम्भव है। ब्रिटेन ने विदेशी व्यापार की सहायता से ही विदेशों से पर्याप्त मात्रा में कच्चा माल आयात कर औद्योगिक उत्पादन का नेतृत्व किया

(3) प्राकृतिक साधनों का पूर्ण प्रयोग विदेशी व्यापार इसलिए भी आवश्यक है कि देश के प्राकृतिक साधनों का उचित प्रयोग किया जा सके। इन साधनों का श्रेष्ठतम प्रयोग तभी सम्भव है जब अधिकतम उत्पादन हो तथा अधिकतम उत्पादन का औचित्य उसी समय है जब अतिरिक्त माल का निर्यात किया जा सके। विदेशी व्यापार के माध्यम से प्रचुर प्राकृतिक साधनों का निर्यात करना सम्भव होता है तथा देश में सीमित पूर्ति वाले प्राकृतिक एवं अन्य उत्पत्ति साधनों का आयात करना आसान हो जाता है।

(4) विदेशी प्रतियोगिता के लिए विदेशी व्यापार इसलिए भी आवश्यक है कि देश के उद्योग विदेशी उद्योगों से प्रतिस्पर्धा कर सकें। प्रतियोगिता के अभाव में यह सम्भव है कि देश के उद्योगों में एकाधिकार की प्रवत्ति पनपने लगे जो कि देश के लिए घातक है। यह विवादास्पद है कि आर्थिक विकास की किस अवस्था में देश के उद्योगों को विदेशी उद्योगों से प्रतियोगिता करने देना चाहिए। फ्रेडरिक लिस्ट के अनुसार जब तक देश के उद्योग पूर्णरूप से विकसित नहीं हो जाते, उन्हें विदेशों से प्रतियोगिता नहीं करने देना चाहिए।

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(5) उपभोक्ताओं के लिए वस्तुओं की उपलब्धि—अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार इसलिए भी आवश्यक है कि उपभोक्ताओं को विश्व के बाजार से आवश्यक वस्तुएं सस्ते दामों पर उपलब्ध हो सकें। विदेशी व्यापार ने उपभोक्ताओं की रुचियों को विविध एवं सम्पन्न बना दिया है।

इसके अतिरिक्त और भी अनेक कारण हैं जिससे विदेशी व्यापार आवश्यक हो गया है। इनकी विस्तार से चर्चा विदेशी व्यापार के लाभ के अन्तर्गत की जायेगी, क्योंकि इनका सम्बन्ध लाभों से अधिक है। हैरोड के विचार में “जिस प्रकार श्रम-विभाजन के लिए विनिमय आवश्यक होता है, उसी प्रकार जब श्रम-विभाजन देश की सामा को लांघ जाता है तो विदेशी व्यापार आवश्यक हो जाता है। यह अन्तर्राष्ट्रीय श्रम-विभाजन का आवश्यक परिणाम है।

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अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का महत्व

(IMPORTANCE OF INTERNATIONAL TRADE)

अन्तराष्ट्रीय व्यापार का महत्व दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है तथा इसी कारण देशों में आपसी सहयोग भी बढ़ रहा है। यह नहीं कहा जा सकता कि प्रत्येक देश के लिए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का समान महत्व होता है क्योंकि जिस देश में कुल उत्पादन में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का भाग अधिक होता है उसके लिए विदेशी व्यापार का महत्व अधिक होता है तथा जहां विदेशी व्यापार का भाग कम होता है, वहां उसका महत्व कम होता है। फिर भी कुछ न कुछ महत्व तो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रत्येक देश के लिए होता ही है।

किसी देश के लिए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आर्थिक महत्व, आन्तरिक व्यापार के समान ही है अर्थात् जीवन-स्तर में वृद्धि करना। सत्य तो यह है कि विदेशी व्यापार के अभाव में न तो अधिक लोग इतनी प्रसन्नता से जीवनयापन कर सकते थे, न इतनी अधिक विविध आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते थे और न इतना उच्च जीवन-स्तर बिता सकते थे जितना कि आज सम्भव हो सका है। यदि विदेशी व्यापार न होता तो संयुक्त राज्य अमरीका के लोगों को अनेक वस्तुओं जैसे—चाय, कॉफी, चाकलेट, केला, इत्यादि के उपभोग से वंचित रहना पड़ता। विदेशी व्यापार का स्पष्ट महत्व तो यह है कि इसके माध्यम से विदेशों से ऐसी वस्तुओं का आयात किया जा सकता है जिन्हें देश में पैदा नहीं किया जा सकता अथवा जिन वस्तुओं का उत्पादन देश में ऊंची लागत पर किया जा सकता है, उन्हें कम लागत पर विदेशों से आयात कर सकते हैं। प्रो. एल्सवर्थ के शब्दों में, “अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार अधिक लोगों के रहने, अधिक विविध आवश्यकताओं की पूर्ति करने एवं उच्च जीवनस्तर को सम्भव बनाता है जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के अभाव में सम्भव नहीं होता।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का महत्व केवल सस्ती और विविध वस्तुओं को उपलब्ध कराने तक ही सीमित नहीं है वरन् देश में आर्थिक विकास को गतिशील बनाने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। बहुत-से अर्थशास्त्री इस बात को स्वीकार करते हैं कि बीसवीं सदी का आर्थिक विकास मुख्यतः अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के कारण सम्भव हो सका है। यदि यूरोप में विदेशी व्यापार के माध्यम से विदेशों से खाद्यान्न और कच्चे माल का आयात सम्भव न हुआ होता तो वहां जो औद्योगिक क्रान्ति हुई, वह या तो होती ही नहीं या बहुत ही सीमित रही होती। प्रो. मियर (Meier J. M.) के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार ने ऐसे अनेक देशों के विकास को आगे बढ़ाने का कार्य किया है जो आज विश्व के सर्वाधिक समृद्ध देश समझे जाते हैं। ब्रिटेन का आर्थिक विकास ऊनी तथा सूती कपड़ों के निर्यात के कारण, स्वीडन का लकड़ी के व्यापार से, डेनमार्क का डेयरी के निर्यात द्वारा तथा जापान का रेशम के व्यापार से हुआ है……..प्राथमिक वस्तुओं का उत्पादन करने वाले देशों में भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का महत्व स्पष्ट रूप से सिद्ध हो जाता है।” इसी सन्दर्भ में पश्चिमी यूरोप का उदाहरण देते हुए एल्सवर्थ कहते हैं कि “मलाया के रबर तथा मध्यपूर्व के पेट्रोल के बिना, पश्चिमी यूरोप के देशों की कारें तथा यात्री बसें गतिहीन हो जातीं।”

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अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभ

(ADVANTAGES OF INTERNATIONAL TRADE)

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से होने वाले लाभों का अध्ययन निम्न दो उपशीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है :

(1) आर्थिक लाभ, तथा

(II) गैर-आर्थिक लाभ।

(1) आर्थिक लाभ इसके अन्तर्गत निम्नलिखित लाभों का विवेचन किया जाता है :

(1) श्रम विभाजन और विशिष्टीकरण के लाभ-जिस प्रकार एक देश के भीतर उत्पादकों में श्रम-विभाजन के कारण उत्पादन कशलतापूर्वक एवं अधिकतम मात्रा में किया जा सकता है उसी प्रकार अन्तराष्ट्राय स्तर पर भौगोलिक अथवा क्षेत्रीय श्रम-विभाजन से कुल उत्पादन अधिकतम किया जा सकता है। यह क्षेत्रीय विशिष्टीकरण का परिणाम है कि हम जिन वस्तुओं का बहुत महंगी लागत पर देश में उत्पादन कर पाते, उन्हें हम कम कीमत पर विदेशों से आयात कर सकते हैं। श्रम-विभाजन के कारण ही विभिन्न देश उन वस्तुओं का उत्पादन करते हैं जिनमें उनकी लागत न्यूनतम होती है एवं उन्हें सर्वाधिक लाभ प्राप्त होता है। एल्सवर्थ (Ells worth) के शब्दों में, “अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार देश की सीमा के बाहर का एक विस्तार मात्र है। यह विशिष्टीकरण और उससे उपलब्ध होने वाले लाभों के क्षेत्र को अधिक विस्तृत बना देता है।”

(2) उपभोक्ताओं को सस्ती कीमत पर अनेक वस्तुओं की उपलब्धि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के कारण एक देश के उपभोक्ता न केवल ऐसी वस्तुओं का उपभोग कर सकते हैं जिनका उत्पादन उनके देश में सम्भव नहीं है, वरन् ऐसी वस्तुओं को विश्व-बाजार से सस्ती कीमतों में प्राप्त किया जा सकता है। विदेशों से वस्तुओं का आयात इस बात का सूचक है कि ये वस्तुएं हमें अपेक्षाकृत सस्ती कीमतों में उपलब्ध हो रही हैं।

(3) प्राकृतिक साधनों का समुचित प्रयोगअन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के अन्तर्गत देश में ऐसे उद्योग विकसित किये जाते है जिनके लिए दशाएं सर्वाधिक अनकल रहती हैं। स्वाभाविक है कि देश में जो प्राकतिक साधन विपुल मात्रा में होंगे, उनसे ही सम्बन्धित उद्योग स्थापित किये जायेंगे। इससे उन उपलब्ध प्राकृतिक साधनों का समुचित प्रयोग किया जा सकता है। बेस्टेबल के अनुसार, “देश में उत्पादन शक्तियां देश के प्राकृतिक साधनों का स्वतन्त्रतापूर्वक उपयोग करती है जिससे अधिकतम लाभ की सम्भावना रहती है।

(4) अकाल संकट के समय सहायता देश में अकाल एवं खाद्यान्न के अभाव की स्थिति में विदेशी व्यापार द्वारा खाद्यान्न का आयात विदेशों से किया जा सकता है जिससे न केवल लोगों के जीवन की रक्षा की जा सकती है वरन उनके जीवन-स्तर को भी कायम रखा जा सकता है। विदेशी व्यापार के अभाव में, अकाल की स्थिति में लाखों लोगों को अपने प्राणों को गंवाना पड़ता है जैसा कि 1943 में बंगाल में हुआ जब युद्ध के कारण वहां बमां से चावल का आयात नहीं किया जा सका।

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(5) औद्योगिक विकासजिन देशों के पास उद्योगों के लिए कच्चे माल का अभाव होता है, वह उसे विदेशी व्यापार के माध्यम से आयात कर सकते हैं। इससे औद्योगिक विकास किया जा सकता है। आज अर्द्ध-विकसित देशों में जो औद्योगीकरण हो रहा है, उसका महत्वपूर्ण कारण विदेशी व्यापार है। जॉन स्टुअर्ट मिल के अनुसार, “विदेशी व्यापार …..एक ऐसे देश में जिसके संसाधन अविकसित अवस्था में हों, कभी-कभी

औद्योगिक क्रान्ति का कारण बन जाता है। भारत में जो औद्योगिक विकास हुआ है, उसके पीछे विदेशी मशीनों और तकनीक के आयात का महत्वपूर्ण हाथ है जो विदेशी व्यापार के कारण ही सम्भव हुआ।

(6) विदेशी प्रतियोगिता से लाभ विदेशी व्यापार के अन्तर्गत देश की फर्मों को विदेशी माल से प्रतियोगिता करनी पड़ती है, अतः देश की फर्मे अपनी उत्पादन व्यवस्था को आधुनिकतम एवं दुरुस्त रखती हैं। इसका एक लाभ यह भी होता है कि इन फर्मों में एकाधिकार की भावना नहीं पनपने पाती जिससे कीमतें कम रहती हैं तथा उपभोक्ताओं को लाभ होता है।

(7) बाजार का विस्तार विदेशी व्यापार का एक लाभ यह भी होता है कि देश के बाजार में वृद्धि होती है। यदि बाजार देश की सीमा के भीतर तक ही सीमित रहता है तो मांग कम होती है तथा विक्रय भी कम होता है, जबकि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार होने से मांग भी व्यापक हो जाती है तथा उत्पादन का क्षेत्र विस्तृत हो जाता है। विदेशी व्यापार के कारण ही भारत की चाय का उपभोग विदेशों में व्यापक पैमाने पर किया जाता है।

(8) राष्ट्रों का आर्थिक विकासवर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पिछड़े देशों के आर्थिक विकास का महत्वपर्ण कारण बन गया है। मार्शल के अनुसार, “राष्ट्रों की आर्थिक प्रगति का निर्धारण करने वाले कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के अध्ययन के अन्तर्गत आते हैं।” इसका अध्ययन एक अलग अध्याय के अन्तर्गत किया जायेगा।

(9) रोजगार में वृद्धि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से क्षेत्रीय श्रम-विभाजन सम्भव होता है जिससे उत्पादन की मात्रा और रोजगार में वृद्धि होती है। विदेशी व्यापार से नियात उद्योगों (Export Industries) में उत्पादन बढ़ता है जहां श्रमिकों को अधिक रोजगार मिलता है। प्रतिष्ठित अर्थशात्रियों का विश्वास था कि विदेशी व्यापार से ही अधिकतम रोजगार सम्भव है। प्रारम्भ में प्रो. कीन्स का भा यहा मत था कि स्वतन्त्र व्यापार से ही पूर्ण।  सम्भव हा राजगार में वृद्धि इसलिए सम्भव होती है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था पर विदेशी व्यापार का गुणक प्रभाव पड़ता है जिससे उत्पादन और रोजगार में वृद्धि होती है।

(10) मूल्यों में समता जिस प्रकार एक देश में विभिन्न क्षेत्रों में वस्तओं को भेजकर मूल्यों में समानता स्थापित की जा सकती है, उसी प्रकार विभिन्न देशों में भी आयात-निर्यात के द्वारा वस्तुओं के मूल्यों में समता स्थापित की जा सकती है। इससे मूल्यों में भारी अन्तर को रोका जा सकता है। मांग और पूर्ति में सामंजस्य स्थापित कर यह समानता स्थापित की जा सकती है।

(II) गैरआर्थिक लाभअन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से जो गैर-आर्थिक लाभ होते हैं, वे इस प्रकार हैं :

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(1) सभ्यता का विकासअन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से विभिन्न देशों में आपसी सम्पर्क स्थापित हुआ है, अर्द्ध-विकसित देश, विकसित देशों के सम्पर्क में आये हैं जिससे वहां नयी सभ्यता और विकसित अभिरुचियों का सूत्रपात हुआ है। एडम स्मिथ का कथन है कि विश्व में सभ्यता और संस्कृति विदेशी व्यापार के माध्यम से ही सम्भव हो सकी है। यही कारण है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को सभ्यता की बड़ी एजेन्सी कहा जाता है।

(2) शिक्षाप्रद महत्वविकसित देशों से सम्पर्क स्थापित होने का अवसर मिलने से विदेशी व्यापार कई शिक्षात्मक लाभ प्रदान करता है जो भौतिक वस्तुओं के प्रत्यक्ष आयात से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि विदेशी व्यापार ज्ञान को भी स्थानान्तरित करता है। विकास की प्रक्रिया में ज्ञान की कमी अन्य किसी भी घटक की कमी से अधिक व्यापक रुकावट है। प्रो. मियर के अनुसार, “विदेशी व्यापार चूंकि निर्धन देशों को अपने से अधिक समृद्ध देशों की सफलताओं एवं असफलताओं से सीख लेने का अवसर प्रदान करता है अतएव विदेशी व्यापार उनके विकास की गति बढ़ाने में बहुत अधिक सहायता प्रदान कर सकता है।” जे. एस. मिल के अनुसार, “विदेशी व्यापार एक देश के निवासियों में नवीन विचारों को जाग्रत कर तथा उनकी आदतों को बदलकर उनमें नवीन इच्छाओं, बड़ी आकांक्षाओं एवं दूरदर्शिता को जन्म देता है।”

(3) देशों में पारस्परिक सहयोगअन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से देशों में पारस्परिक सहयोग और मैत्री भावना का विकास होता है जिससे विश्वशान्ति की स्थापना में सहायता मिलती है। बहुत से देशों में बढ़ते हुए आर्थिक सम्बन्धों ने राजनीतिक सम्बन्धों को भी सुदृढ़ बनाया है। किंडलबर्गर के अनुसार, “बढ़ते हुए राष्ट्रवाद, बढ़ते हुए अन्तर्राष्ट्रीयवाद अथवा दोनों की बढ़ती हुई दुनिया में, अन्तर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्र ज्ञान और समझौतों का महत्वपूर्ण साधन है।”

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभों का उल्लेख करते हुए बर्टिल ओहलिन ने अपने विचार प्रस्तुत किए है। उनके अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से व्यापारी देशों में आर्थिक जीवन के मूल तत्व बदल जाते हैं…..इसके बारे में परोक्ष प्रभाव बहुत अधिक दीर्घकालीन होते हैं। यह सबसे अच्छी तरह तब हो सकता है जबकि हम इस बात पर विचार करें कि यदि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार न हुआ होता तो विश्व के लोगों की क्या दशा होती, पूंजी उपकरणों का क्या होता तथा वह अपनी वर्तमान स्थिति से कितने भिन्न होते।

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अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से हानियां

(DISADVANTAGES OF INTERNATIONAL TRADE)

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से केवल लाभ ही नहीं होते वरन् कुछ हानियां भी होने की आशंका रहती है जो निम्नलिखित हैं :

(1) विदेशों पर निर्भरताविदेशी व्यापार के कारण विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्था विदेशों पर निर्भर करती है क्योंकि वह कुछ विशेष वस्तुओं के आयात के लिए विदेशों पर ही निर्भर करने लगते हैं, किन्तु यदि युद्ध या अन्य ऐसी ही परिस्थितियों के कारण विदेशी व्यापार अवरुद्ध हो जाता है तो देश की अर्थव्यवस्था पंगु हो जाती और उस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विदेशों में होने वाली मन्दी का प्रभाव उन देशों पर भी पड़ता है जिनके आपस में व्यापारिक सम्बन्ध होते हैं। सन् 1929-32 में जो महान मन्दी आयी थी वह  इसलिए विश्वव्यापी हो गयी क्योंकि विश्व में स्वतन्त्र व्यापार की नीति प्रचलन में होने के कारण देशों के आपस में व्यापारिक सम्बन्ध थे।

(2) खनिज पदार्थों की समाप्ति विदेशी व्यापार के अन्तर्गत अपने निर्यातों को बढ़ाने के लिए बहुत से अर्द्ध-विकसित देशों द्वारा उन बहुमूल्य खनिज पदार्थों का निर्यात कर दिया जाता है जिनको पुनस्थापित नहीं किया जा सकता, किन्तु यदि इन्हें बचाकर रखा जाय तो भविष्य में अधिक लाभ के लिए उन्हें प्रयुक्त किया जा सकता है। भारत से कच्चा मैंगनीज, अभ्रक, खनिज, लोहा आदि निरन्तर निर्यात किये जाते रहे हैं। इनका प्रयोग देश में करने से औद्योगिक विकास को बल मिल सकता है।

(3) विदेशी प्रतियोगिता से हानिविदेशी व्यापार के कारण देश की औद्योगिक इकाइयों को विदेशी उद्योगों से प्रतियोगिता करना पड़ती है, किन्तु विदेशी प्रतियोगिता के सामने ये उद्योग टिक नहीं पाते और इनका ह्रास होने लगता है। इसका कारण यह है कि विकसित देशों की वस्तुएं उन्नत तकनीक के कारण अधिक सस्ती और टिकाऊ होती हैं। उन्नीसवीं सदी में विदेशी प्रतियोगिता के कारण भारतीय लघु और कुटीर उद्योगों को भारी आघात लगा जिससे कृषि पर जनसंख्या का भार बढ़ा और हमारी अर्थव्यवस्था का सन्तुलन बिगड़ गया।

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(4) राशिपातन (Dumping) से हानि–राशिपातन के अन्तर्गत एक देश अपने देश में वस्तु की कीमत से भी कम मूल्य पर वस्तुओं को विदेशी बाजारों में बेचता है। इसका उद्देश्य विदेशी बाजारों पर कब्जा करना होता है। अनेक बार इस नीति द्वारा देशी उद्योगों को हानि पहुंचने की आशंका रहती है।

(5) उपभोग की आदतों पर प्रतिकूल प्रभाव-विदेशी व्यापार के अन्तर्गत एक देश में ऐसी वस्तुओं का आयात किया जा सकता है जो हानिकारक हों तथा जिनका उपभोक्ताओं की शारीरिक और मानसिक स्थिति पर बुरा प्रभाव पड़ता है। चीन में यद्यपि अफीम पैदा नहीं होती, किन्तु वहां अफीम का आयात किया गया जिससे चीन के लोग अफीम के प्रयोग के आदी हो गये जिससे उस देश के सामाजिक ढांचे पर अत्यन्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

(6) अर्थव्यवस्था का असन्तुलित विकास–विदेशी व्यापार में तुलनात्मक लागतों के अन्तर्गत एक देश कुछ विशेष वस्तुओं के उत्पादनों में विशिष्टीकरण प्राप्त करता है जिससे देश में सीमित उद्योग-धन्धों का ही विकास हो पाता है और लोगों के विभिन्न व्यवसायों में जाने के अवसर बहुत ही सीमित हो जाते हैं। इससे न केवल देश के आर्थिक जीवन में अस्थिरता आती है वरन् देश का सन्तुलित विकास भी नहीं हो पाता। अर्द्ध-विकसित देशों को इससे भारी हानि होती है। ऐसे देशों में विदेशों से व्यापार होने से दोहरी अर्थव्यवस्था (Dual Economies) का निर्माण होता है। कुछेक क्षेत्र तो विकास के द्वीप बन जाते हैं, किन्तु शेष अर्थव्यवस्था में कोई विकास नहीं हो पाता अर्थात् निर्यातक क्षेत्र ऐसी व्यवस्था से घिरा रहता है जो पिछड़ी और निर्वाह की स्थिति (Subsistence Economy) के समीप होती है।

(7) प्रदर्शन प्रभावजनित हानिप्रदर्शन प्रभाव (Demonstration effect) तो आन्तरिक हो सकता है अथवा अन्तर्राष्ट्रीय। जब एक देश में उपभोक्ता अपने से ऊंचे आय-वर्ग के लोगों के उपभोग-स्तर को अपनाते हैं तो यह आन्तरिक प्रदर्शन प्रभाव है और जब विदेशों के सम्पर्क में आकर पिछड़े देशों के उपभोक्ता, विदेशी उच्च-उपभोग के स्तर की नकल करते हैं, तो इसे अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शन प्रभाव कहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि एक ओर तो उपभोक्ता विदेशी आयातों पर निर्भर हो जाते हैं दूसरी ओर उपभोग-प्रवृत्ति बढ़ जाने से देश में बचत की मात्रा घट जाती है।

(8) अन्तर्राष्ट्रीय वैमनस्यअन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में बढ़ती हुई प्रतियोगिता के कारण प्रत्येक देश अपने निर्यातों को बढ़ाना चाहता है अतः इसके लिए नये-नये बाजारों की खोज करता है और उन्हें हथियाना चाहता है जिसके फलस्वरूप देशों के बीच प्रायः भीषण प्रतिस्पर्धा होने लगती है जो कभी-कभी द्वेष और वैमनस्य में बदल जाती है। बाजारों के साथ ही साथ कच्चे माल को प्राप्त करने के लिए भी प्रतियोगिता होती है जिससे युद्धों का जन्म होता है और उपनिवेशों की स्थापना होती है।

(9) पिछड़े देशों का शोषण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के विपक्ष में एक शक्तिशाली तर्क यह भी दिया जाता। है कि इससे विकसित देशों द्वारा, पिछड़े देशों का लगातार शोषण होता है। इस मत का समर्थन प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. मिर्डल, मिन्ट, आर्थर लुईस एवं सिंगर द्वारा किया गया है। इनका कहना है कि अर्द्ध-विकसित देशों का विकसित देशों के साथ व्यापार होने से विश्व अर्थव्यवस्था में ऐसा असन्तुलन पैदा करने वाली शक्तियां पैदा हुई जिनसे विदेशी व्यापार का लाभ केवल विकसित देशों को ही मिला है।

(10) राजनीतिक दासता का प्रसार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का यह दुष्प्रभाव भी हुआ कि इससे साम्राज्यवाद का प्रसार हुआ। बहुत-से विकसित देशों ने विदेशी व्यापार के माध्यम से छोटे और पिछड़े देशों में राजनीतिक प्रभुत्व का स्थापना की तथा उनकी राजनीतिक स्वतन्त्रता का हनन किया। इसके साथ ही ऐसे पिछड़े देशा पर उन्होंने अपनी आर्थिक और राजनीतिक नीतियों को आरोपित भी किया।

इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से बहत-सी हानियां भी हैं। इसका मूल कारण है कि जब ऐसे दो दशा में व्यापार होता है जो आर्थिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में रहते हैं तब पिछड़े देश को हानि होती हा हां, यदि दोनों देश विकास के समान स्तर पर हों तो दोनों प्रायः समान रूप से लाभान्वित हो सकते हो।

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अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के प्रभाव

(EFFECTS OF INTERNATIONAL TRADE)

विश्व की अर्थव्यवस्था पर व्यापार के विभिन्न प्रभाव होते हैं। यद्यपि कुछ प्रभावों का अध्ययन हम विदेशी व्यापार के लाभों के अन्तर्गत कर चुके हैं, किन्तु इसके कुछ प्रभाव ऐसे हैं जिनका पृथक् रूप से अध्ययन किया जाना चाहिए। मुख्य प्रभाव निम्न प्रकार है :

(1) उत्पत्ति के साधनों की कीमतों में समानता (Equalization of Factor Prices) जब विदेशी व्यापार होता है तब विभिन्न देशों में उत्पत्ति के साधनों की कीमतों में समानता की प्रवृत्ति को लेकर अर्थशास्त्रियों की विचारधाराओं में अन्तर है। कुछ अर्थशास्त्री उत्पत्ति के साधनों की कीमतों में पूर्ण समानता की प्रवृत्ति को व्यक्त करते हैं तो कुछ आंशिक समानता की प्रवृत्ति को। प्रो. ओहलिन का मत है कि स्वतन्त्र व्यापार से साधनों की कीमतों में पूर्ण समानता स्थापित नहीं होती। इसके विपरीत, सैम्युअलसन का मत है कि कुछ विशेष मान्यताओं के अन्तर्गत व्यापार करने वाले दोनों देशों में वास्तविक साधनों की कीमत बिल्कुल समान होने की प्रवृत्ति रहती है। ये मान्यताएं इस प्रकार हैं :

(i) केवल दो देश हैं तथा प्रत्येक देश केवल दो वस्तुओं का उत्पादन कर रहा है।

(ii) प्रत्येक वस्तु का उत्पादन दो साधनों की सहायता से किया जा रहा है तथा प्रत्येक वस्तु का उत्पादन फलन उत्पत्ति समता नियम के अन्तर्गत है।

(iii) यदि केवल किसी एक साधन में वृद्धि की जाती है, तो उसकी सीमान्त उत्पादकता गिरती है।

(iv) दोनों देशों में दोनों साधन गुणों में समान हैं।

(v) दोनों देशों में वस्तओं की पूर्ण गतिशीलता है, और

(vi) प्रत्येक देश दोनों वस्तुओं की कुछ न कुछ मात्रा का उत्पादन करता है।

इन मान्यताओं के आधार पर साधनों की कीमतों में समानता को एक उदाहरण से समझाया जा सकता है—दो देश हैं A और B तथा दो साधन हैं श्रम और भूमि। देश A के पास श्रम की मात्रा ज्यादा है तथा देश B के पास भूमि ज्यादा है। दोनों देशों में व्यापार होने के पहले देश A में श्रम की कीमत तुलनात्मक रूप से कम होगी तथा भूमि की कीमत अधिक होगी। देश B में ठीक इसके विपरीत स्थिति होगी। अब दोनों देशों में व्यापार होने से देश A में उस वस्तु के उत्पादन का विशिष्टीकरण होगा जिसमें अधिक श्रम और कम भूमि की मांग होगी (जैसे कपड़ा) तथा देश B में उस वस्तु का उत्पादन होगा जिसमें अधिक भूमि तथा कम श्रम की मांग होगी (जैसे गेहूं)। देश A में कपड़े के उत्पादन का विशिष्टीकरण होगा तथा गेहूं के उत्पादन में लगे साधनों को कपडे के उत्पादन की ओर प्रवाहित किया जायेगा। A में कम भूमि तथा अधिक श्रम की मांग होगी इसके अन्तर्गत देश A को उस अनुपात में सामंजस्य (Readjustment) करना होगा जिसमें दोनों उद्योगों में श्रम और भमि विनियोजित है ताकि दोनों साधनों के उपयोग को अधिकतम किया जा सके। सन्तुलन की स्थिति में दोनों उद्योगों में श्रम और भूमि की सीमान्त उत्पादकता का अनुपात तथा उनकी कीमतें समान रहनी चाहिए तथा कपड़े और गेहूं की कीमतों के अनुपात के बराबर होनी चाहिए। विदेशी व्यापार की स्थिति दोनों उद्योगों में सन्तुलन की स्थिति पैदा कर देती है। यही प्रक्रिया देश B में भी होती है जिसके फलस्वरूप दोनों देशों में श्रम और भूमि की कीमतों का अनुपात एकसमान हो जाता है।

यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि उक्त उत्पत्ति के साधनों की कीमतों में दो देशों में समानता सदैव स्थापित नहीं हो पाती क्योंकि ऐसी स्थिति में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आधार ही समाप्त होने लगता है।

(2) वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में समानता (Equalization of the Prices of Commodities and Services) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रभाव यह भी होता है कि विभिन्न देशों में वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में समानता स्थापित होने की प्रवृत्ति पायी जाती है। यह उसी समय सम्भव है जब अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में पूर्ण प्रतियोगिता हो तथा आयात-निर्यात में कोई परिवहन लागत न लगती हो, किन्तु वास्तविका जगत में विभिन्न देशों के बीच में वस्तुओं का आवागमन विना लागत के सम्भव नहीं होता। परिवहन व्यय के साथ बीमा शुल्क और तट कर भी लगता है और फिर विभिन्न देशों में अपूर्ण प्रतियोगिता की दशाएं विद्यमान रहती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि दो देशों के बीच स्थायी तौर पर वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों में समानता स्थापित नहीं हो पाती। उनमें उतना अन्तर तो होता ही है जितना व्यय परिवहन लागत. सीमाकर और बीमा शुल्क, इत्यादि में होता है।

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(3) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का साधन मांगपूर्ति पर प्रभाव (Effect of Trade on Factor’s Demand and Supply) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के कारण प्रत्येक देश उन उद्योगों में विशिष्टीकरण प्राप्त करता है जिसमें देश में उपलब्ध प्रचुर साधनों का प्रयोग किया जाता है। अतः जो साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं, उनकी मांग बढ़ जाती है एवं सीमित साधनों की मांग घटने लगती है। फलस्वरूप प्रचुर साधनों की कीमतें बढ़ने लगती हैं और सीमित साधनों की कीमतें घटने लगती हैं। कीमतों में वृद्धि होने से प्रचुर साधनों की पूर्ति बढ़ने लगती है तथा कीमतें घटने से सीमित साधनों की पूर्ति घटती है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रभाव यह होता है कि प्रचुर साधनों की मांग बढ़ती है, और सीमित साधनों की मांग घटती है जिससे इन दोनों साधनों के बीच का अन्तर और बढ़ता है तथा इसी प्रकृति के व्यापार को प्रोत्साहन मिलता है। उत्पत्ति के साधनों की पूर्ति की लोच जितनी अधिक होती है, विभिन्न देशों में उत्पत्ति के साधनों की कीमतों में समानता की प्रवृत्ति का उतना ही अभाव रहता है। इससे व्यापार एवं उसकी मात्रा को प्रोत्साहन मिलता है।

(4) श्रम और पूंजी में गुणात्मक सुधार (Qualitative Improvement in Labour and Capital) विदेशी व्यापार में विशिष्टीकरण होता है तथा विशिष्टीकरण से श्रम और पूंजी में गुणात्मक सुधार होता है जो पुनः विशिष्टीकरण को प्रोत्साहन देता है। प्रो. ओहलिन के अनुसार, “व्यापार लोगों के गुणों में परिवर्तन ला देता है, उन्हें नयी वस्तुओं के उपभोग और पुरानी वस्तुओं को नये तरीके से प्रयोग करने की शिक्षा देता है। तकनीकी ज्ञान मुख्य रूप से विशिष्टीकरण का परिणाम है जिसे व्यापार ने सम्भव बनाया है। व्यापार से न केवल तकनीकी श्रम का वरन् कुशल और अकुशल श्रम का स्तर भी बदलता है। इस प्रकार व्यापार से श्रम और पूंजी के प्रयोग के तरीकों में परिवर्तन होता है जिससे इनकी कुशलता में वृद्धि होती है।

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(5) कुल उत्पादन में वृद्धि (Increase in the Total Production) विदेशी व्यापार का यह प्रभाव भी होता है कि कुल उत्पादन में वृद्धि हो जाती है। एक निश्चित समय में उत्पत्ति के साधनों का कुल मूल्य उन वस्तुओं और सेवाओं के बराबर रहता है जो उन साधनों द्वारा पैदा की जाती हैं। जब अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार प्रारम्भ होता है तो विशिष्टीकरण के कारण उपलब्ध साधनों का अधिक मितव्ययता के साथ प्रयोग किया जाता है जिससे उत्पादन में कुशलता की वृद्धि होती है अतः उन्हीं उत्पत्ति के साधनों द्वारा अब पहले से अधिक मात्रा में उत्पादन किया जाता है। अन्य शब्दों में, अधिक उत्पादन के सन्दर्भ में अब साधनों का मूल्य बढ़ जाता है।

(6) विश्व मांग पर प्रभाव (Effect on World Demand) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का वस्तुओं और सेवाओं की मांग पर दो तरह से प्रभाव होता है। एक तो व्यापार के कारण लोगों की आय में वृद्धि होती है जिससे वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़ती है। दूसरे, लोगों की मांग के स्वरूप में भी परिवर्तन होता है। तथा लोग नयी वस्तुओं की मांग करने लगते हैं, क्योंकि उनकी रुचि तथा इच्छाओं में परिवर्तन होता है। कुल मिलाकर देश की वस्तुओं की मांग पर भी इसका प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार विदेशी व्यापार विभिन्न देशों में वस्तुओं और सेवाओं की मांग को काफी प्रभावित करता है ।

(7) रोजगार पर प्रभाव (Effect on Employment) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के अन्तर्गत रोजगार की तात्कालिक प्रवृत्ति तो यह होती है कि उसकी मात्रा घटने लगती है, क्योंकि व्यापार से केवल निर्यात उद्योगों  को ही प्रोत्साहन मिलता है तथा देश के अन्य उद्योगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने से वहां रोजगार का मात्रा पटने लगती है। यद्यपि निर्यात उद्योगों में रोजगार की मात्रा बढ़ती है, किन्तु उसकी तुलना में अन्य उधागा में बेरोजगारी अधिक फलती है। किसी भी पिछड़े हुए देश में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रारम्भिक प्रभाव यहा। होता है, किन्तु जैसे-जैसे निर्यात उद्योगों का विकास होता है रोजगार की मात्रा में भी वृद्धि होने लगती है।।

उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का देश के साधनों, वस्तुओं के उत्पादन, मांग की मात्रा और रोजगार, इत्यादि पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।

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अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रतियोगिता

(COMPETITION IN INTERNATIONAL TRADE)

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार तुलनात्मक लागत पर आधारित है जिसके अनुसार एक राष्ट्र उन्हीं वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टीकरण करता है जिनमें उसे सापेक्षिक लाभ अधिकतम होता है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक देश का उत्पादन क्षेत्र अलग होगा। अतः विशिष्टीकरण के फलस्वरूप देशों में सहयोग की भावना उत्पन्न होनी चाहिए, किन्तु वास्तविक स्थिति यह है कि देशों में प्रतियोगिता होती है एवं उनके हितों में संघर्ष होता है। इससे देशों के बीच कटू वैमनस्य की भावना फैलती है जिससे कभी कभी युद्ध की स्थिति भी आ जाता है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रतियोगिता उत्पन्न होने के निम्न कारण हैं :

(1) विशिष्टीकरण प्रक्रिया का अवरुद्ध होना अनेक देशों में ऐसे बहुत-से कारण उपस्थित होते हैं जिससे विशिष्टीकरण का सिद्धान्त पूर्णरूप से कार्यान्वित नहीं हो पाता। विशिष्टीकरण उसी समय सम्भव है जब पूर्णरूप से स्वतन्त्र व्यापार हो, किन्तु ऐसा हो नहीं पाता। आर्थिक राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित होकर बहुत-से राष्ट्र ऐसे उपायों का सहारा लेते हैं जिनसे स्वतन्त्र अन्तर्राष्ट्रीय विनिमय में कठिनाइयां एवं बाधाएं उपस्थित होती हैं, जैसे आयात कर, कोटा प्रणाली, विनिमय नियन्त्रण, इत्यादि। इस कारण व्यवहार में विशिष्टीकरण नहीं हो पाता तथा विभिन्न देशों में प्रतियोगिता होने लगती है।

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(2) समान वस्तुओं का उत्पादनअन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से जो तुलनात्मक लाभ होता है, उसे सब देश महत्व नहीं देते और न ही कोई देश इस बात का दावा कर सकता है कि किसी विशेष वस्तु के उत्पादन में उसने अन्य सब देशों की तुलना में श्रेष्ठता प्राप्त कर ली है। वास्तविक स्थिति तो यह है कि प्रत्येक देश ऐसे उपायों की खोज में लगा रहता है जिससे उसके निर्यातों में अधिकतम वृद्धि हो सके। आज बहुत-से देश प्रायः समान वस्तुओं का उत्पादन कर रहे हैं अतः अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में उनके बीच कड़ी प्रतियोगिता बनी रहती है।

(3) व्यापार में बाधाएं अनेक बार कुछेक देशों में ऐसी बाधाएं खड़ी कर दी जाती हैं जिनसे प्रतियोगिता का जन्म होता है, जैसे तट-कर की बाधाएं, परिवहन व्यय, आदि, ये भी सब देशों में समान भी नहीं होती जिससे प्रतियोगिता होती है। यदि एक देश तट-कर बढ़ाता है तो दूसरा भी प्रतिक्रिया में वैसा ही करता है। यदि उपर्युक्त बाधाएं नहीं होतीं तो प्रतियोगिता भी नहीं होती।

(4) उत्पादन ह्रास नियम क्रियाशील होनाउत्पादन में उत्पत्ति ह्रास नियम लागू होने से तुलनात्मक लागत का क्षेत्र सीमित हो जाता है तथा उत्पादन में कमी होने लगती है अतः ऐसे देशों को आंशिक रूप से वस्तुओं का आयात करना होता है जिससे प्रतियोगिता को प्रोत्साहन मिलता है। इसके विपरीत यदि उत्पादन में वृद्धि नियम लागू होता तो उक्त प्रतियोगिता नहीं हो पाती।

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अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और राष्ट्रीय हितों में संघर्ष

(INTERNATIONAL TRADE AND CONFLICTS IN NATIONAL INTERESTS)

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रतियोगिता से जुड़ा हुआ दूसरा प्रश्न यह है कि जब अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार इतना लाभदायक है तो उसके साथ राष्ट्रीय हितों का संघर्ष क्यों होता है अर्थात् राष्ट्रीय हितों की तुलना में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभों को तिलांजलि क्यों दे दी जाती है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का राष्ट्रीय हितों के साथ संघर्ष होने के प्रमुख कारण हैं :

(1) रोजगार का प्रश्नप्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की यह धारणा रही है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से देश में उत्पादन, रोजगार और आय के स्तर को अधिकतम किया जा सकता है। उनकी व्याख्या यह थी कि जिस प्रकार देश में घरेलू विनियोग से उत्पादन और रोजगार बढ़ता है, उसी प्रकार निर्यात से होने वाली आय का प्रभाव भी ‘विदेशी व्यापार गुणक’ के माध्यम से देश के उत्पादन और रोजगार पर पड़ता है अर्थात् निर्यात में होने वाली वृद्धि का कई गुना प्रभाव देश में होता है।

उपर्युक्त तर्क सही नहीं है क्योंकि उसका आधार यह है कि समस्त देशों के निर्यात में सतत् वृद्धि हो। यह तभी सम्भव है जब विभिन्न देश आयात भी करें, किन्तु जब प्रत्येक देश अपने निर्यात को बढ़ाना चाहता। है तो आयात कौन करेगा? एक देश का निर्यात किसी-न-किसी देश का आयात होता है। एक देश के आयातों पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रभाव यह होगा कि अन्य देश भी ऐसा ही करेंगे जिससे निर्यातों में वृद्धि नहीं हो पायेगी। अतः रोजगार की मात्रा में वृद्धि करने के लिए विभिन्न देश अपने राष्ट्रीय साधनों एवं गृह उद्योगों को विकसित करने की अधिक चिन्ता करते हैं।

(2) श्रमिकों का आवागमन अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का एक प्रभाव यह होता है कि उत्पत्ति के साधनों की कीमतों में समानता आती है। आज विश्व के विभिन्न देशों में, मजदूरी की दरों में भिन्नता है अतः यह वांछनीय है कि स्वतन्त्रतापूर्वक अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार हो जिससे मजदूरी की दरों में समानता हो, किन्तु जिन देशों में ऊंची मजदूरी है, वहां के मजदूर ऐसे देशों से वस्तुओं के आयात को हतोत्साहित करते हैं अथवा श्रमिकों के आवागमन का विरोध करते हैं। जहां मजदूरी सस्ती है, क्योंकि ऊंची मजदूरी वाले देशों को यह भय रहता है कि इससे उनकी मजदूरी कम हो जाएगी। यही कारण है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभों के विपरीत राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दी जाती है।

उपर्युक्त तर्क भी दोषपूर्ण है क्योंकि मुख्य प्रश्न नकद मजदूरी की भिन्नता का नहीं बल्कि मजदूरों की कार्यक्षमता की भिन्नता का है।

(3) एकाधिकार की स्थिति अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से सभी देश उसी समय लाभान्वित हो सकते हैं जब विश्व बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति हो, किन्तु कभी-कभी ऐसी स्थिति आती है कि एक राष्ट्र वस्तओं की पूर्ति को नियन्त्रित करके एकाधिकार की स्थिति बना लेता है। जिस प्रकार एक देश के भीतर एकाधिकार से अन्य उद्योगपतियों एवं उपभोक्ताओं को हानि होती है उसी प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में एकाधिकार से अनेक देशों को हानि होती है अतः उस स्थिति में अन्तराष्ट्रीय व्यापार की तुलना में राष्ट्रीय हितों पर अधिक ध्यान दिया जाता है।

(4) अर्द्धविकसित देशों की स्थितिजब दो समान रूप से विकसित राष्ट्रों में व्यापार होता है तो राष्ट्रीय हितों में कोई संघर्ष की स्थिति नहीं आती, किन्तु जब एक अर्द्ध विकसित देश विकसित राष्ट्र के साथ व्यापार करता है तो वह अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लाभों को समानता के साथ प्राप्त नहीं कर सकता तथा उसके राष्ट्रीय हितों का शोषण होता है। अतः वह अर्द्ध-विकसित राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देता है।

यह एक वास्तविक स्थिति है जो यह स्पष्ट करती है कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और राष्ट्रीय हितों में संघर्ष क्यों होता है।

(5) युद्ध की स्थितिआर्थिक आधार पर विभिन्न आवश्यकताओं के लिए तो विभिन्न देशों में विदेशी व्यापार के अन्तर्गत सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं, किन्तु जहां युद्ध की स्थिति आती है, तो प्रत्येक राष्ट्र आत्म-निर्भर होना चाहता है तथा राष्ट्रीय हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है। यदि कोई राष्ट्र रक्षा सामग्री के लिए भी विदेशी व्यापार पर निर्भर रहता है, तो वह अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को खतरे में डालता है।

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अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का भविष्य

(FUTURE OF INTERNATIONAL TRADE)

अन्त में, अब हम इस बात पर विचार करेंगे कि राष्ट्रीय हितों और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में संघर्ष के बावजद क्या अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार चलता रहेगा अथवा इसका अन्त हो जाएगा। यह स्पष्ट किया जा चुका है। कि विदेशी व्यापार दो तरह से अर्थ-व्यवस्था को प्रोत्साहित करता है। एक तो साधनों की उपलब्धि (Factor endowments) के अन्तर को तीव्र करके और द्वितीय, साधनों के गुणों में अन्तर को तीव्र करके। वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के पीछे मुख्य कारण क्षेत्रीय विशिष्टीकरण तो है ही, किन्तु दूसरा कारण भी महत्वपूर्ण है जो है तकनीक और पूंजी की मात्रा में अन्तर। विभिन्न देशों में तकनीक और पूंजी में भारी अन्तर है। विकसित देशों को आज जो निर्माण उद्योगों में तुलनात्मक रूप से अधिक लाभ है, उसका कारण अनकूल । प्राकतिक साधन नहीं है वरन यह है कि इन देशों के पास श्रेष्ठ उत्पादन तकनीक और बड़ी मात्रा में पूंजी है। यदि अर्द्ध-विकसित देशों के पास यह तकनीक और पूंजी उपलब्ध हो तो वे अधिक सस्ते में निर्माण उद्योगों का वस्तुओं को तैयार कर सकते हैं। इससे स्पष्ट है कि विकसित देशों को जो तुलनात्मक लाभ प्राप्त हा रहा है, वह प्राकृतिक न होकर, प्राप्त किया हुआ है जिसमें तकनीक और पूंजी का प्रमुख हाथ है।

अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से अर्द्ध-विकसित देश भी मशीनें और तकनीकी ज्ञान का आयात कर अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ा सकते हैं। इस प्रकार विकसित और अर्द्ध-विकसित देशों में प्राप्त तकनीकी स्तर का अन्तर कम किया जा सकता है। इससे क्रमशः एक ऐसी स्थिति भी आ सकती है, जब अर्द्ध-विकसित देश तुलनात्मक रूप से कम लागत पर निर्माण उद्योगों की वस्तुएं एवं पूंजीगत वस्तुएं तैयार कर सकते है। इस प्रकार दोनों प्रकार के देशों का तकनीकी और पूंजी का अन्तर समाप्त होने पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अन्तराष्ट्रीय व्यापार समाप्त हो जायेगा, किन्त अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समाप्त नहीं होगा क्याकि विभिन्न देशों के बीच प्राकृतिक साधनों का अन्तर विद्यमान रहेगा। हां, इसके पहले तकनीकी और पूंजी के प्राप्त अन्तर के आधार पर जो व्यापार हो रहा है उसका स्थान वह व्यापार ले लेगा जो प्राकृतिक साधना क अन्तर के कारण होगा। जब तक प्राकृतिक संसाधनों में अन्तर रहेगा, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए क्षेत्र खुला रहेगा। यहां तक कि समान प्राकृतिक साधनों के होने पर भी विशिष्टीकरण और बड़े पैमाने की बचतों के कारण विदेशी व्यापार होता रहेगा। इसके साथ ही राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संस्थाओं के कारण भी तुलनात्मक लागत में अन्तर बना रहेगा जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को प्रोत्साहित करेगा।

यद्यपि पिछले वर्षों में अर्द्ध-विकसित देशों में औद्योगीकरण के कारण उनकी राष्ट्रीय आय में वृद्धि हुई है तथा इन देशों ने उन वस्तुओं का उत्पादन भी प्रारम्भ कर दिया है जिनका पहले आयात किया जाता था, किन्तु फिर भी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समाप्त नहीं हुआ है। ऐसे देशों में अब अधिक उच्च उपभोग की वस्तुओं की मांग उत्पन्न हुई है और उनका आयात किया जा रहा है। जहां तक विभिन्न देशों में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की स्थिति का प्रश्न है, आंकड़ों से स्पष्ट है कि विकसित देशों के बीच में अधिक पैमाने पर व्यापार किया जाने लगा है। इसकी तुलना में विकसित तथा अर्द्ध-विकसित और आपस में अर्द्ध-विकसित देशों के बीच व्यापार की मात्रा कम है।

विश्व में तेजी से बढ़ रहे भू-मण्डलीकरण (Globalisation) के दौर में विभिन्न देश उदारीकरण प्रक्रिया को अपनाकर अपनी देश की सीमाएं दूसरे देशों की वस्तुओं के लिए खोल रहे हैं। भारत में अपनाई गई आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया भी इसका एक उदाहरण है। इस दिशा में GATT (जो 1995 में समाप्त हो गया) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वर्तमान में GATT के स्थान पर गठित विश्व व्यापार संगठन (WTO) एक सजग प्रहरी के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को सबल बनाने की भूमिका निभा रहा है। विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों पर सभी राष्ट्रों की निर्भरता के कारण अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का भविष्य उज्ज्वल है।

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हाल के वैश्विक आर्थिक संकट का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर प्रभाव

(IMPACT OF RECENT GLOBAL ECONOMIC CRISIS ON INTERNATIONAL TRADE)

विश्व में हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ते भूमण्डलीकरण के कारण 2007 के वैश्विक वित्तीय संकट का प्रभाव 2008 में सम्पूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था पर पड़ा और 1930 की महान आर्थिक मन्दी के पश्चात की यह दूसरी भयावह मन्दी शुरू हो गई। पहले विकसित देश इसकी चपेट में आए और उसके बाद इसका प्रभाव विकासशील एवं उदीयमान देशों पर पड़ा।

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पिछले लगभग 25 वर्षों में विश्व व्यापार की वार्षिक वृद्धि दर औसतन 6 प्रतिशत थी। यह दर विश्व उत्पत्ति (World Output) की वृद्धि दर के लगभग दुगनी थी। इसलिए विश्व GDP में विश्व व्यापार का हिस्सा बढ़ गया तथा 2008 में यह 53 प्रतिशत था। यह वृद्धि केवल व्यापार के उदारीकरण का ही परिणाम नहीं थी। इस पर वित्तीय बाजार में तेजी से होने वाले विकास का भी प्रभाव पड़ा जिसने विश्व व्यापार के वित्त पोषण को सुविधाजनक बना दिया। लेकिन इसी विकास ने वैश्विक संकट को फैलाने में सहायता भी पहुंचाई। उदाहरणार्थ, विश्व व्यापार का वित्तीय प्रबन्ध अब व्यापार वित्त से अधिक मात्रा में होता है। वित्तीय बाजार के ध्वस्त होने पर यह व्यापार वित्त बुरी तरह प्रभावित हो गया। ।

विश्व व्यापार में पिछले 25 वर्षों में जो वृद्धि हुई (6.0 प्रतिशत की औसत वार्षिक दर पर), वह विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में समान रूप से नहीं हुई। एशियाई निर्यात की औसत वार्षिक वृद्धि दर 10 प्रतिशत से अधिक थी. तो लैटिन अमरीका तथा कैरिबियन की वृद्धि दर लगभग 7 प्रतिशत थी। इन देशों का खुलापन (= नियात + आयात/GDP) बढ़ता गया। भारत के खुलेपन का अनुपात जो 2001 में 21.5 प्रतिशत था,

2008 में बढ़कर 41.7 प्रतिशत हो गया। इसी अवधि में चीन के खुलेपन का अनुपात 37.6 प्रतिशत से बढ़कर 58.0 प्रतिशत, ब्राजील का 20.5 प्रतिशत से बढ़कर 23.6 प्रतिशत, ऑस्ट्रेलिया का 34.1 प्रतिशत से 37.9 प्रतिशत तथा अमरीका का 18.2 प्रतिशत से बढ़कर 23.5 प्रतिशत हो गया।

भारत विश्व बैंक कारोबार सुगमता सूचकांक, 2018 में 100वां रैंक प्राप्त किया है जब कि यह रैंक 2017 में 130, 2016 में 131, 2015 में 130. 2014 में 142 तथा 2013 में 134 थी।

करोबारी माहौल में सुधार की दृष्टिकोण से भारत विश्व का 5वां सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाला देश बन गया।

कारोबार सुगमता सूचकांक न्यूजीलैण्ड पहले, सिंगापुर दूसरे तथा डेनमार्क तीसरे स्थान पर है। दक्षिण। कोरिया चौथे, यू.एस.ए. छठे तथा यू.के. सातवें स्थान पर है।

विकासशील देशों की उत्पत्ति में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का हिस्सा जो 1980 में 35 प्रतिशत था. 2007 में 57 प्रतिशत हो गया। व्यापार में तेजी से वृद्धि ने न केवल विकासशील देशों में उत्पादन-कर्ताओं के लिए नए बाजार का सृजन किया, बल्कि उपभोक्ताओं के लिए वस्तुओं की कीमतों को भी कम कर दिया विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का वैशिक अर्थव्यवस्था के साथ बढ़ते एकीकरण तथा यहां के फर्म तथा उपभोक्ताओं के अन्तर्राष्ट्रीय वित्त में बढ़ते महत्व के कारण काफी आर्थिक एवं वित्तीय लाभ प्राप्त हुए हैं। लेकिन, व्यापार के एकीकरण में वृद्धि से उन स्रोतों (Channels) में भी वृद्धि हुई जिनके माध्यम से विकसित अर्थव्यवस्था की आर्थिक क्रियाओं का प्रभाव विकासशील देशों में पहुंच सकता है।

हाल के वित्तीय संकट का प्रभाव अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से फैल गया। उदारीकरण की तगड़ी लहर जो कुछ वर्ष पहले चारों ओर फैल रही थी, 2008 में हठात सिकुड़ गई। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुमान के अनुसार 2008 में 2.8 प्रतिशत की धीमी वृद्धि के पश्चात् 2009 में विश्व व्यापार (वस्तु + सेवा) में 10.7 प्रतिशत का ह्रास हुआ। विश्व व्यापार 2001 में 0.2 प्रतिशत, 1982 में 2.0 प्रतिशत तथा 1975 में 7.0 प्रतिशत घटा था, लेकिन कभी भी यह कमी 2009 के बराबर नहीं हुई थी। विश्व व्यापार में 2009 में इतनी बड़ी मात्रा में ह्रास का प्रमुख कारण था अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देशों के मध्य एकीकरण। WTO के अनुसार 70 वर्षों में विश्व व्यापार में सर्वाधिक कमी 2009 में ही हुई जो 12.2 प्रतिशत के बराबर थी। 2010 में विश्व व्यापार में सुधार देखा गया-9.5 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई।

वर्ष 2012 में विश्व व्यापार परिमाण (वस्तुएं व सेवाएं) की वृद्धि दर 2.8%थी जो क्रमशः सुधर कर वर्ष 2013 में 3.0% तथा 2014 में 4.3% हो गयी। यह वृद्धि दर 2017 में 4.2% तथा 2018 में 4.0% रही। इस तरह धीरे-धीरे विश्व व्यापार में बहाली हो रही है, परन्तु इसकी गति पूर्व वैश्विक संकट से अपेक्षाकृत धीमी है। उल्लेखनीय है कि उदीयमान एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में विदेश व्यापार की वृद्धि दर उन्नत अर्थव्यवस्थाओं की अपेक्षा अधिक है।

अक्टूबर 2008 से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में हास के लिए निम्न कारण प्रमुख रूप से उत्तरदायी थे:

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(1) अमरीकी सबप्राइम (Sub-prime) संकट के कारण परिसम्पत्ति के मूल्य में होने वाले हास ने तरलता के अभाव का सृजन कर दिया। सम्पत्ति के मूल्य ह्रास की वजह से अमरीका तथा यूरोपीय देशों में उपभोक्ता ने अपने उपभोग में कटौती कर दी उपभोग तकनिक देश में कमी के कारण विकसित देशों ने अपने आयात में कमी कर दी। इससे विकासशील देशों के निर्यात पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

(2) अक्टूबर 2008 में विदेशी व्यापार की केवल मात्रा में कमी नहीं हुई, अपित मांग में कमी होने के कारण निर्यातित वस्तुओं की कीमतें भी तेजी से घटी।

(3) आज किसी वस्तु के सभी पुों का उत्पादन एक देश में नहीं होता है, बल्कि अनेक देशों में। अतः उत्पादन की प्रक्रिया में किसी वस्तु के पुजों को कई देशों की सीमाओं से गुजरना पड़ता है। इससे व्यापार की मात्रा घट जाती है।

(4) तरलता में ह्रास के कारण व्यापार-सम्बन्धी वित्त का अभाव हो गया।

(5) आर्थिक संकट के समय संरक्षण (Protection) की नीति को अधिक मात्रा में अपनाया जाता है। लेकिन इसके स्पष्ट प्रमाण अभी तक नहीं मिले हैं।

(6) विकसित देशों द्वारा उपभोक्ता की टिकाऊ वस्तुओं पर खर्च बहुत कम कर दिया गया जिसके कारण नए उदीयमान देशो का मोटरगाड़ियों तथा सूचना प्रौद्योगिका सम्बन्धी वस्तुओं का निर्यात काफी घटा गया।

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विभिन्न क्षेत्रों पर प्रभाव

कुल विदेशी व्यापार में हास का प्रभाव सभी क्षेत्रों (regions) पर समान रूप से नहीं पड़ा। कुल नियात में विनिमाण (manufacturing) निर्यात के हिस्से के अनुसार असर अलग-अलग पड़ा। विकसित देशों में जर्मनी तथा जापान पर ज्यादा प्रभाव पड़ा क्योंकि इनका विनिर्माण निर्यात अधिक मात्रा में घटा। इस वैश्विक आर्थिक मन्दी ने निवेश तथा उपभोक्ता की टिकाऊ वस्तुओं को अधिक प्रभावित किया। इसके दो कारण थेः

  • खाद्यान्न एवं मूल सेवाओं की तुलना में टिकाऊ वस्तुओं के उपभोग को कुछ समय के लिए टालना अधिक आसान है; तथा
  • टिकाऊ वस्तुओं को प्राप्त करने में साख की अधिक भूमिका रहती है और इस साख को बैका का प्राप्त करना अधिक कठिन होने के साथ-साथ अधिक महंगा भी हो गया।

अतः जिन देशों की कुल उत्पत्ति में निवेश तथा उपभोक्ता की टिकाऊ वस्तुओं का हिस्सा अधिक था। उन देशों के औद्योगिक उत्पादन तथा GDP की वृद्धि दर में ज्यादा कमी आई।

कुछ ऐस देश भी थे, जैसे, ऑस्ट्रेलिया तथा कनाडा, जहां वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि का अधिक बुरा प्रभाव पड़ा। यूं तो लैटिन अमरीका के सभी देश मन्दी की चपेट में आ गए, मैक्सिको पर अधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ा, क्योंकि यह देश अमरीका को विनिर्माण का निर्यात अधिक मात्रा में करता है।

विकसित देशों में मन्दी के प्रभाव का असर एशिया के विकासशील देशों पर भी पड़ा। इसका कारण था विनिर्माण के क्षेत्र में विकासशील देशों का विकसित देशों के साथ अधिक वैश्विक एकीकरण (increased global integration) तथा विशिष्टीकरण (Specialization)| चीन, भारत तथा इण्डोनेशिया विनिर्माण निर्यात से कम प्रभावित हुए, क्योंकि इनका घरेलू बाजार अब भी विस्तृत हो रहा है।

वैश्विक अर्थव्यवस्था अब मन्दी से उबरने का प्रयास कर रही है। यह प्रयास उदीयमान एशिया (Emerging Asia) के नेतृत्व में हो रहा है। इन देशों में राजकोषीय एवं अन्य नीतियों में परिवर्तनों के माध्यम से समग्र मांग (निजी तथा सार्वजनिक) में वृद्धि करने की प्रेरणा दी गई। इनके कारण निर्यात में कमी की तुलना में घरेलू मांग में अधिक वृद्धि हुई। चूंकि निकट भविष्य में विश्व निर्यात में तेजी से वृद्धि की कोई सम्भावना नहीं है, अतः वर्तमान मन्दी से ऊपर उठने में निम्न तत्व ही कारगर होंगे :

  • इन्फ्रास्ट्रक्चर तथा वित्तीय विकास में लगातार वृद्धि के द्वारा;
  • कॉरपोरेट प्रेरणाओं (Corporate Incentives) में सुधार के द्वारा; तथा
  • सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था तथा स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के द्वारा विकासशील में घरेलू उपभोग में वृद्धि के द्वारा। उपर्युक्त उपायों पर अधिक ध्यान देना होगा। निर्यात में वृद्धि की सम्भावना अधिक नहीं है।

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सेवाओं का व्यापार (Trade in Services)

वैश्विक वित्तीय एवं आर्थिक संकट का प्रभाव सेवाओं के व्यापार पर भी पड़ा। परिवहन, यात्रा तथा अन्य वाणिज्यिक सेवाओं का निर्यात जो 2007 में 20 प्रतिशत बढ़ा, 2008 में केवल 12 प्रतिशत बढ़ा। वर्ष 2009 में विश्व सेवा निर्यात की वृद्धि दर कम होकर नकारात्मक 9.4% पर आ गई। वर्ष 2010 में यह पुनः तेजी से बढ़कर 9.8% और 2011 में 12.2% पर पहुंच गयी, परन्तु 2012 में घटकर 2.2% रह गया। यह वर्ष 2013 में पुनः बढ़कर 5.5% हो गयी। भारत में सेवा निर्यात की वृद्धि दर वर्ष 2012-13 में 5.4% थी, जो बढ़कर 2013-14 में 4.0% तथा 2014-15 में पुनः 3.7% हो गयी।

सेवाओं में, पर्यवटन पर संकट का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। 2008 के प्रथम अर्द्ध में उदीयमान देशों में पर्यटकों के आगमन में 6 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, जबकि 2008 के द्वितीय अर्द्ध में इसमें 2 प्रतिशत की गिरावट आई। सभी क्षेत्रों में ऋणात्मक वृद्धि हुई, केवल अफ्रीका, केन्द्रीय तथा दक्षिणी अमेरिका को छोड़कर। सर्वाधिक हास पश्चिमी एशिया, दक्षिणी एशिया तथा यूरोप में हुआ क्रमशः 282 प्रतिशत, 14.6 प्रतिशत तथा 8.4 प्रतिशत 2008 में। 2009 में अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटकों के आगमन में 4 प्रतिशत का ह्रास हुआ।

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धनप्रेषण (Remittances)

पिछले एक दशक में धनप्रेषण वित्तीय संसाधनों के अन्तर्राष्ट्रीय प्रवाह के सबसे बड़े स्रोतों में से एक रहा है। ऐसे प्रेषित धन प्राप्त करने वाले विकासशील देशों में अनेक ऐसे हैं जिन्हें विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI), पोर्टफोलियो निवेश (Portfolio Investment) तथा सरकारी विकास सहायता से भी अधिक अधिक रकम प्राप्त होती है। कुछ देशों को धनप्रेषण के माध्यम से आयात का एक बड़ा भाग तथा GDP का एक महत्वपूर्ण हिस्सा प्राप्त होता है। धनप्रेषण की कल मात्रा बहुत बड़ी है, इसलिए इसके माध्यम से व्यक्तिगत परिवहन, कल्याण, घरेलू उपयोग की वृद्धि, निवेश को सहायता पहुंचाने तथा भुगतान सन्तुलन को सन्तुलित करने में मदद मिल सकती है।

पिछले कुछ वर्षों में धनप्रेषण में की मात्रा में बहत वृद्धि हुई है, विशेषकर एशिया तथा लातिनी अमरीकी देशों में। इन देशों में भी भारत, मैक्सिको तथा फिलीपीन्स श्रमिकों द्वारा प्रेषित धन में सबसे अधिक रकम प्राप्त होती है। धन का यह प्रेषित प्रवाह बहुत स्थिर रहा है। इस कारण इसका उपयोग धन प्राप्तकर्ता देशों ने आर्थिक मन्दी की रोकथाम करने में किया है। 2008 में धनप्रेषण की मात्रा काफी घट गई जब वे देश आर्थिक मन्दी के चपेट में आ गए जहां प्रवासी श्रमिक काम करते थे।

1980 के दशक के पश्चात् पहली बार 2009 में विकासशील देशों में प्रवासियों द्वारा प्रेषित धनप्रवाह में 6 प्रतिशत का ह्रास हुआ—2008 में 338 बिलियन डॉलर की तुलना में 2009 में 317 बिलियन डॉलर इस ह्रास का सर्वाधिक प्रभाव यूरोप तथा केन्द्रीय एशिया पर पड़ा (15 प्रतिशत), उसके बाद लैटिन अमेरिका तथा कैरीबियन प्रभावित हुआ (10 प्रतिशत) दक्षिणी एशिया तथा पूर्वी एशिया तथा प्रशान्त (Pacific) क्षेत्र सबसे कम प्रभावित हुआ।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को परिभाषित करते हुए उसकी आवश्यकता समझाइए आन्तरिक व्यापार और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में क्या भेद है?

2. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से होने वाले लाभ-हानियों की विवेचना कीजिए। क्या पूर्णरूप से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का समर्थन किया जा सकता है?

[संकेत—पहले अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का अर्थ स्पष्ट कीजिए। फिर उससे होने वाले लाभ एवं हानियों की विवेचना विभिन्न शीर्षकों में कीजिए। अन्त में वताइए कि अर्द्ध-विकसित देशों के लिए पूर्णरूप से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का समर्थन नहीं किया जा सकता क्योंकि ये विकसित देशों से प्रतियोगिता नहीं कर सकते।]

3. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के प्रभावों की विवेचना करते हुए समझाइए कि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार प्रतियोगिता क्यों होती

4. जब अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से विनिमय करने वाले दोनों देशों को लाभ होता है तो उसका राष्ट्रीय हितों के साथ संघर्ष क्यों होता है? स्पष्ट कीजिए।

[संकेतइस प्रश्न के उत्तर में यह स्पष्ट करना है कि वर्तमान में विभिन्न देश केवल तुलनात्मक लाभ के आधार पर ही व्यापार नहीं करते हैं वरन् सबसे पहले राष्ट्रीय हितों को महत्व देते हैं, अतः विदेशी व्यापार और राष्ट्रीय हितों में संघर्ष होता है।

5. देशों के विकसित होने का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर क्या प्रभाव पड़ता है? क्या आप समझते हैं कि भविष्य में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार समाप्त हो जायेगा?

लघु उत्तरीय प्रश्न

1 वर्तमान वैश्विक आर्थिक संकट का विदेशी व्यापार पर पड़ने वाले प्रभावों का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।

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chetansati

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