BCom 1st Year Inflation Accounting Study Material Notes In Hindi

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स्फीती लेखा विधि (inflation Accounting)

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मूल्य-स्तर के परिवर्तनों का वित्तीय विवरणों पर पढ़ने वाले प्रभाव की समस्या के समाधान के लिये वित्तीय लेखपालों द्वारा विकसित की गई लेखा प्रणाली को ही मूल्य-स्तर लेखा-विधि कहते हैं। यह वह तकनीक है जिसके द्वारा सामान्य मूल्य स्तर के परिवर्तनों को प्रदर्शित करने के लिये वित्तीय विवरण पुनर्वर्णित किये जाते हैं ताकि लेखांकन मदों पर मूल्य-स्तर में परिवर्तन के प्रभाव को दूर कर दिया जाये। इसके लिये विभिन्न मदों को आवश्यक समायोजन करके उन्हें उनके चालू मूल्य पर दिखलाया जाता है। ये परिवर्तन स्फीतिकारी (inflationary) हो सकते हैं अथवा अपस्फीतिकारी (deflationary)। किन्तु अधिकतर अर्थव्यवस्थाओं में स्फीतिकारी प्रवृत्ति ही पायी जाती है। अतः स्फीति लेखा-विधि ही मूल्य स्तर लेखा-विधि का पर्याय बन गई है।

अमरीकन इन्स्टीट्यूट आफ सर्टिफाइड पब्लिक एकाउन्टैन्ट्स (AICPA) के अनुसार, “स्फीति लेखा-विधि लेखांकन की एक पद्धति है जिसके अन्तर्गत सभी आर्थिक घटनाओं को उनकी चालू लागत पर रिकार्ड किया जाता है’2 स्फीति लेखा-विधि में चालू लागत का आशय ‘रिपोर्ट देने की तिथि पर प्रचलित लागत’ से होता है।

उद्देश्य (Objective)-मूल्य स्तर लेखा-विधि का प्रमुख उद्देश्य मूल्य-स्तर में परिवर्तनों के कारण वित्तीय विवरणों द्वारा दर्शाये गये परिणामों की विकृति को रोकना होता है जिससे लाभ का सही निर्धारण हो सके तथा संस्था की विनियोजित पूँजी को सही अर्थों में अक्षुण्ण (intact) बनाये रख जा सके। ये दोनों समस्यों एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं। संस्था की विनियोजित पूँजी को अक्षुण्ण रखने के लिये यह आवश्यक है कि क्रय-शक्ति के रूप में सम्पत्तियों के मूल्य समान बने रहें। ऐसा होने पर सही ह्रास ज्ञात किया जा सकता है और लाभ का सही अंक ज्ञात किया जा सकता है। मूल्य-स्तर में वृद्धि की स्थिति में यदि ह्रास की गणना सम्पत्ति की मल लागत पर की जाती है तो लाभ-हानि खाते पर ह्रास का प्रभार कम होने के कारण शुद्ध लाभ की राशि बढ़ जायेगी और यदि इसे लाभांश के रूप में वितरित कर दिया जाता है तो यह वितरण पूँजी में से होगा। अत: स्पष्ट है कि मूल लागत पर ह्रास की गणना से न तो लाभ की सही गणना ही की जा सकती है और न ही विनियोजित पूँजी को अक्षुण्ण बनाये रखा जा सकता है। मूल्य स्तर लेखा-विधि का उद्देश्य वित्तीय लेखा-विधि की इस कमी को दूर करना है।

मूल्य-स्तर लेखाकरण की तकनीकें (Techniques of Price Level Accounting) यद्यपि सभी लेखपाल इस बात से सहमत हैं कि मूल्य-स्तर के परिवर्तनों के आधार पर वित्तीय विवरणों में समुचित समायोजन किये जायें किन्तु इसके लिये अपनायी जाने वाली तकनीक के सम्बन्ध में काफी मतभेद रहे हैं। लेखपालों द्वारा दिये गये सुझावों के आधार पर उनके दृष्टिकोणों को दो वर्गों में रखा जा सकता है

  1. प्रतिस्थापन लागत दृष्टिकोण (Replacement Cost Approach)
  2. क्रय-शक्ति दृष्टिकोण (Purchasing Power Approach)

प्रथम दृष्टिकोण के अनुसार वित्तीय विवरणों की केवल उन मदों को चालू लागत पर दिखलाया जाये जो कि मूल्य-स्तर के परिवर्तनों से बहुत अधिक प्रभावित होते हैं। ये मदें हैं— स्थायी सम्पत्तियाँ, ह्रास और स्कन्ध। इस दृष्टिकोण को आंशिक पुनर्मूल्यन लेखाविधि भी कहते हैं। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार वित्तीय विवरणों में सभी मदों को उनके चालू मूल्य पर दिखलाया जाये और इसके लिये उनमें आवश्यक समायोजन किये जायें। इसे पूर्ण पुनर्मूल्यन लेखा-विधि भी कहते हैं।

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आंशिक पुनर्मूल्यन लेखा-विधि

(Partial Revaluation Accounting)

इस विधि के अन्तर्गत मूल्य-स्तर में वृद्धि के समायोजन के लिये सम्पत्ति के प्रतिस्थापन की अतिरिक्त लागत को पूरा करने के __ लिये वित्तीय विवरणों में विशेष नियोजन (Special Appropriation) किये जाते हैं ताकि संस्था की पूँजी अक्षुण्ण (intact) रहे। इसके लिये इस विधि में मूल्य स्तर के परिवर्तनों से प्रभावित प्रमुख मदों को उनके चालू मूल्यों पर दिखलाने के लिए निम्न प्रक्रिया अपनायी जाती है

(i) स्थायी सम्पत्तियों का किसी समुचित पद्धति से पुनर्मूल्यन करके उन्हें उनके चालू मूल्य पर दिखलाना।

(ii) सम्पत्तियों के प्रतिस्थापन की अतिरिक्त लागत को पूरा करने के लिये समुचित ह्रास व्यवस्था करना।

(iii) सामग्री को उसके चालू प्रतिस्थापन मूल्य के अधिकतम निकट मूल्य पर निर्गमित करके दिखलाना।

(i) स्थायी सम्पत्तियों का चालू मूल्य पर परिवर्तन

(Conversion of Fixed Assets to Current Values)

लेखा-विधि की परम्परागत रीति के अनुसार स्थायी सम्पत्तियों को उनकी मूल लागत पर दिखलाया जाता है किन्तु मूल्य-स्तर में परिवर्तनों के फलस्वरूप स्थायी सम्पत्तियों की क्रय-शक्ति में आये परिवर्तनों के समायोजन के लिए इन सम्पत्तियों की मूल लागत को चालू मूल्य (Current value) में परिवर्तित करना होता है। इसकी निम्नलिखित तीन वैकल्पिक विधियाँ हैं_

(अ) बाजार मूल्य पर (Market Price) इस विधि के अनुसार विभिन्न स्थायी सम्पत्तियों का बाजार मूल्य करके उन्हें लेखा-पुस्तकों में इसकी मूल्य पर दिखलाया जाता है। किन्तु इस विधि की सफलता बाजार मूल्य के सही आगणन पर निर्भर करती है। सामान्यतया नई मशीनों, संयंत्रों व भवनों के मूल्य तो बाजार में ज्ञात किये जा सकते हैं किन्तु पुरानी सम्पत्तियों के मूल्य ज्ञात करना बहत कठिन है। सम्पत्तियों के डिजाइन, तकनीकी आदि में परिवर्तन आ जाने से अनेक पुरानी सम्पत्तियाँ बाजार से अप्रचलित होकर अप्राप्त हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में तो पुरानी सम्पत्तियों के बाजार मूल्य का ज्ञात करना और भी अधिक कठिन हो जाता हैं ।

(ब) मूल्य ठहराना (Appraisal)-इस विधि के अनुसार प्रत्येक लेखावधि के अन्त में सम्पत्तियों का मूल्य ठहराया जाता है । तथा उन्हें उस मूल्य पर दिखाया जाता है जिस पर उनका प्रतिस्थापन किया जा सके। यह मूल्य ठहराव पेशेवर मूल्यांककों द्वारा किया जाता है।

इस विधि के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं

(a) मूल्य ठहराव का कार्य काफी जटिल, श्रम साध्य व खर्चीला होता है।

(b) इस मूल्यांकन पर मूल्यांककों के व्यक्तिगत निर्णय व विचारों का भी प्रभाव पड़ सकता है। अतः एक मूल्यांकक द्वारा __ मूल्य-ठहराव दूसरे मूल्यांकक से भिन्न भी हो सकता है। कभी-कभी एक ही मूल्यांकक भिन्न-भिन्न राय रख सकता है। अतः इस विधि द्वारा क्रय शक्ति का निरपेक्ष माप सम्भव नहीं है।

(c) सम्पत्ति का मूल्य उसकी अर्जन-शक्ति में निहित होता है, न कि उसके प्राप्य मूल्य या विक्रय योग्य राशि में। इसीलिये बहुत से लेखपाल इस विधि का प्रयोग उचित नहीं मानते।

(स) निर्देशांकों द्वारा (Index Numbers)-इस विधि के अन्तर्गत सम्पत्तियों के चालू मूल्य की गणना के लिये मूल्य | निर्देशांक का प्रयोग किया जाता है। इस गणना के लिये निम्न सूत्र का प्रयोग किया जाता है ।

यह विधि विशेष रूप से तब अधिक उपयोगी रहती है जबकि व्यवसाय में स्थायी सम्पत्तियों का क्रय विभिन्न तिथियों पर किया | गया होता है। किन्तु इस विधि के प्रयोग में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं। स्थायी सम्पत्तियों के मूल्य निर्देशांकों का मिलना कठिन | है। इसलिये इस गणना के लिये सामान्य मूल्य निर्देशांकों का ही प्रयोग करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त निर्देशांक भी अनेक प्रकार के होते हैं और उनकी रचना विभिन्न संस्थाओं द्वारा की जाती है तथा उनमें अन्तर पाये जाते हैं। ऐसी स्थिति में यह समस्या रहती है कि इस कार्य के लिये किस निर्देशांक का प्रयोग किया जाये।

नोंट – मुद्रा स्फीती के समय स्थायी सम्पत्तियों के समय स्थायी सम्पत्तियों के चालू मूल्य बढ़ जाते हैं। अतः उपर्युक्त तीनों में से किसी भी विधि द्वारा ज्ञात वृद्धि के लेखा-पुस्तकों में अभिलेखन के लिये वृद्धि की राशि से सम्बन्धित सम्पत्ति खाना डेबिट किया जायेगा तथा प्रतिस्थापन संचिति खाता (Replacement Reserve Account) क्रेडिट किया जायेगा।

chetansati

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