BCom 1st Year Environment Industrial Policy and Licensing System Study Material Notes in Hindi

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राष्ट्रीय विनिर्माण नीति, 2011

Table of Contents

(NATIONAL MANUFACTURING POLICY, 2011)

विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए उपायों की देख-रेख हेतु प्रधानमन्त्री समूह को गठित किया गया था, जिसने वर्ष 2008 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में यह सझाव दिया था कि इस क्षेत्र में 12 से 14 प्रतिशत की वृद्धि प्राप्त करने के लिए सुसंरचनाबद्ध विनिर्माण क्षेत्र नीति अपनाई जाए। इस आधार पर 4 नवम्बर, 2011 को केन्द्रीय सरकार ने राष्ट्रीय विनिर्माण नीति जारी की। इस नीति के मुख्य उद्देश्य एव। लक्ष्य निम्न प्रकार है:

(1) विनिर्माण क्षेत्र में मध्यम अवधि में 12 से 14 प्रतिशत तक की वृद्धि।

(2) वर्ष 2022 तक विनिर्माण क्षेत्र को सकल घरेलू उत्पाद का कम-से-कम 25% का योगदान देने के लिए सक्षम करना।

(3) वर्ष 2022 तक विनिर्माण क्षेत्र द्वारा 100 मिलियन अतिरिक्त नौकरियां सृजित करना।

(4) विनिर्माण में आसानी से समायोजन के लिए ग्रामीण प्रवासी और शहरी गरीबों के मध्य उपयुक्त कौशल सैटों का सृजन करना।

(5) विनिर्माण में घरेलू मूल्यवर्धन तथा तकनीकी सम्बन्धी गहनता बढ़ाना।

(6) भारतीय विनिर्माण में वैश्विक प्रतियोगी शक्ति बढ़ाने के उद्देश्यों के साथ मात्रात्मक एवं गुणात्मक परिवर्तन लाना।

राष्ट्रीय विनिर्माण नीति को हित धारकों तथा उद्योग, राज्य सरकारों और विनिर्माण तकनीकी विकास और व्यवसाय पर्यावरण के क्षेत्रों के विशेषज्ञों के साथ व्यापक विचार-विमर्श के पश्चात् अन्तिम रूप दिया गया है। इस नीति में :

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(1) व्यवसाय सम्बन्धी विनियमों के आशय को कम किए बिना उनके सरलीकरण की परिकल्पना की गई है।

(2) देश की अर्थव्यवस्था में लघु और मध्यम उद्योगों को मान्यता प्रदान की गई है।

(3) विनिर्माण उद्योगों के क्षेत्र में जिन हस्तक्षेपों का समावेश किया गया है वे मुख्य रूप से तकनीकी उन्नति, पर्यावरण अनुकूल तकनीक को अपनाने तथा समता पूंजी निर्देशों से सम्बन्धित हैं।

(4) निजी क्षेत्र के लिए राजकीय प्रोत्साहनों तथा सरकारी योजनाओं के द्वारा युवा लोगों को रोजगार योग्य बनाने के लिए कौशल विकास को नीति में प्राथमिकता दी गई है।

(5) उस भूमि के लिए, जो बेकार है और कृषि योग्य नहीं है, राष्ट्रीय निवेश और विनिर्माण क्षेत्र भी उपलब्ध कराए गए हैं। “राष्ट्रीय निवेश और विनिर्माण क्षेत्र” विश्वस्तरीय भौतिक और सामाजिक अवसंरचना सहित एक समेकित (Consolidated) औद्योगिक टाउनशिप के रूप में परिकल्पित किए गए हैं।

राष्ट्रीय विनिर्माण नीति के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए विनिर्माण नीति समीक्षा कार्यप्रणाली संस्थापित की जाएगी राष्ट्रीय विनिर्माण नीति केन्द्रीय मन्त्रालयों तथा राज्य सरकारों के मध्य समन्वय सुनिश्चित करने के लिए उच्च स्तरीय विनिर्माण उद्योग संवर्धन बोर्ड’ गठित करने की व्यवस्था भी करती है।

राष्ट्रीय विनिर्माण नीति देश के विनिर्माण क्षेत्र के लिए प्रथम समर्पित नीतिगत उपाय है। आशा है कि यह नीति बढ़ते हुए पूंजी निर्माण, विश्व स्तर की औद्योगिक अवसंरचना, तकनीक उन्नति, नवीन तथा व्यावसायिक कौशल विकास अवसंरचना सृजन तथा उद्योग, कर्मचारी और पर्यावरण के अनुकूल विनियमों के द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था के विनिर्माण परिदृश्य को ही परिवर्तित कर देगी।

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(II) एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक व्यवहार अधिनियम, 1969

एकाधिकारी जाँच आयोग ने अपनी सिफारिशें अक्टूबर 1965 में सरकार को प्रस्तुत कर दी। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट के साथ प्रस्तावित कानून के लिए एक प्रारूप भी प्रेषित किया था। अतः सरकार ने इस प्रारूप में संशोधन करके एक विधेयक एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक व्यवहार विधेयक’ के नाम से अगस्त 1966 में संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जो 17 दिसम्बर, 1969 को पास हो गया और जिस पर राष्ट्रपति ने 27 दिसम्बर, 1969 को अपनी स्वीकृति दे दी और इस प्रकार एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक व्यवहार अधिनियम, 1969 बनकर तैयार हो गया। इस अधिनियम को 1 जून, 1970 से पुरे देश में लागू कर दिया गया है। इस अधिनियम की मुख्य बातें अग्रलिखित हैं :

(1) एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक व्यवहार आयोग की स्थापना इस अधिनियम में एक आयोग की स्थापना की व्यवस्था की गयी है जिसके सदस्य कम-से-कम 2 व अधिक-से-अधिक 8 हो सकते हैं, लेकिन अध्यक्ष इनसे अतिरिक्त होगा। आयोग के सदस्यों का कार्यकाल 5 वर्ष का होगा, लेकिन उनका कार्यकाल 6 वर्ष और बढ़ाया जा सकता है, लेकिन कोई भी सदस्य 65 वर्ष की उम्र तक ही आयोग का सदस्य बन सकता है। इस आयोग की स्थापना की जा चुकी है। अधिनियम के अन्तर्गत इस आयोग के दो प्रमुख कार्य हैं : (i) एकाधिकार प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक व्यवहारों की जाँच करना तथा नियन्त्रण करना, व (ii) आर्थिक शक्ति के केन्द्रीकरण के मामलों में सरकार द्वारा सलाह माँगने पर अपनी सलाह देना।

(2) एकाधिकारी व्यापारिक प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण–यदि कोई एकाधिकारी व्यापारिक प्रवृत्ति (1) प्रतिस्पर्धा को कम करती है, या (ii) बाजार में वस्तुओं का अभाव पैदा करती है या (iii) वस्तुओं के गुण में गिरावट लाती है या (iv) वस्तुओं के मूल्यों में अभिवृद्धि लाती है तो एकाधिकार आयोग (MRTPC) की सिफारिश पर सरकार इन प्रवृत्तियों पर रोक लगा सकती है।

(3) प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक व्यवहारों सम्बन्धी समझौतों का पंजीकरण-उन समझौतों जो व्यापार की प्रतियोगिता को कम करते हैं, का पंजीकरण कराना अनिवार्य है। यह समझौते, निश्चित मूल्य पर बेचने के लिए बाध्य करने, एक क्षेत्र में केवल एक विक्रेता नियुक्त करने, भिन्न-भिन्न क्रेताओं को भिन्न-भिन्न रूपों में बट्टा देने, विक्रेता को प्रतियोगी वस्तु को दुकानों पर रखने के लिए बाध्य करने, आदि से सम्बन्धित होते हैं।

(4) आर्थिक सत्ता के केन्द्रीकरण को रोकना यदि कोई उद्योग जिसकी सम्पत्ति 100 करोड़ ₹ या इससे अधिक है या वह संस्था अपने व्यवसाय में 1/3 भाग से अधिक को नियन्त्रित करती है, अपना विस्तार करना चाहती है और विस्तार से उद्योग की सम्पत्ति या उत्पादन क्षमता में 25 प्रतिशत की अभिवृद्धि होती है तो वह अपना विस्तार तब तक नहीं कर सकती है जब तक कि केन्द्रीय सरकार इसके लिए अनुमति न दे दे। ऐसी अनुमति तभी दी जायेगी जबकि विस्तार कार्य के परिणामस्वरूप आर्थिक सत्ता के केन्द्रीकरण का भय नहीं होगा। उदारीकरण के फलस्वरूप अब यह प्रावधान समाप्त कर दिया गया है।

(5) पुनः विक्रयमूल्य अनुरक्षण पर रोक कोई भी व्यक्ति या संस्था ऐसा समझौता अपने थोक या फुटकर विक्रेताओं के साथ नहीं कर सकती है जिसमें न्यूनतम मूल्य पर पुनः बिक्री करने को कहा गया है। ऐसा समझौता व्यर्थ होगा।

सरकार एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक अधिनियम 1969 को समाप्त कर इस अधिनियम के स्थान पर प्रतिस्पर्धा अधिनियम बना लिया है जिससे कि प्रतियोगिता न्यायोचित ढंग से हो सके।

प्रतिस्पर्धा अधिनियम20 दिसम्बर, 2002 को राज्य सभा ने प्रतिस्पर्धी विधेयक को स्वीकृति दे दी है। संसद ने इसे पहले ही पारित कर रखा था। इस प्रकार अब राष्ट्रपति की स्वीकृति से यह विधेयक प्रतिस्पर्धा अधिनियम का स्थान ले चुका है। इस अधिनियम की प्रमुख बातें निम्न प्रकार हैं:

(1) इस कानून का उद्देश्य प्रतिस्पर्धा विरोधी व्यवहारों पर प्रतिबन्ध लगाना है, जिससे कि भारतीय उद्योग जगत में प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहन मिल सके।

(2) प्रतिस्पर्धा अधिनियम के लागू होने की तारीख से एक वर्ष बाद एकाधिकार एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापारिक व्यवहार आयोग समाप्त हो जायेगा।

(3) इस कानून के अन्तर्गत प्रतिस्पर्धा आयोग स्थापित किया जायेगा जिसके 10 सदस्य होंगे जिसमें अर्थशास्त्री, लेखाकार, न्यायाधीश शामिल होंगे। (14 अक्टूबर, 2003 को प्रतिस्पर्धा आयोग की स्थापना हो चुकी है।)

(4) इस प्रतिस्पर्धा आयोग का दर्जा अर्द्ध-न्यायिक निकाय जैसा होगा।

(5) प्रतिस्पर्धा आयोग का कार्य अपनी स्थापना के तीसरे वर्ष से प्रारम्भ होगा। प्रथम वर्ष में यह सलाह का कार्य करेगा। दूसरे वर्ष प्रतिस्पर्धा विरोधी व्यवहारों की छानबीन करेगा। तीसरे वर्ष से इसका कार्य पूर्णरूप से होने लगेगा।

(6) यह कानून केवल उन कम्पनियों पर लागू होगा जिनकी सम्पत्तियां 1,000 करोड़ से अधिक है। या उनकी बिक्री 3.000 करोड़ ₹ से अधिक है तथा जो विलय करने जा रही हैं या अंशों को प्राप्त करने जा रही हैं जिससे कि प्रतिस्पर्धा में कमी आवे या प्रतिस्पर्धा बिल्कुल समाप्त हो जाय।

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(III) विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम एवं विदेशी विनिमय प्रबन्ध अधिनियम

विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम (FERA), 1973 विदेशी विनिमय सौदों के नियन्त्रण के लिए बनाया गया था लेकिन 1991 में आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया अपनाने से यह महसूस किया गया कि इस अधिनियम में आवश्यक संशोधन किए जाएं। अतः पहले 1993 में इसमें संशोधन किए गए, लेकिन बाद में यह विचार आया कि इस अधिनियम को रद्द कर नया कानून बनाया जाए। अतः 4 अगस्त, 1998 को एक विधेयक संसद में प्रस्तुत किया गया जो बाद में स्थायी समिति को सुपुर्द कर दिया गया। इस समिति के सझावों के आधार पर 23 दिसम्बर, 1998 को लोकसभा में एक विधेयक प्रस्तुत किया गया। लेकिन लोकसभा (बारहवीं) समाप्त हो जाने के कारण यह विधेयक भी समाप्त हो गया।

जब तेरहवीं लोकसभा बनी तो केन्द्रीय सरकार ने विदेशी विनिमय प्रबन्ध विधेयक (Foreign Exchange Management Bill) प्रस्तुत कर लोकसभा में पारित कराया और इस प्रकार FERA के स्थान पर फेमा विदेशी विनिमय प्रबन्ध अधिनियम (FEMA), 1999 बन गया। इस अधिनियम की प्रस्तावना में कहा गया है कि “यह अधिनियम विदेशी विनिमय से सम्बन्धित कानून को संघटित और संशोधित करे ताकि विदेशी व्यापार का सरलीकरण हो और भारत का विदेशी विनिमय बाजार ठीक से चले तथा उसका व्यवस्थित विकास हो।” _FEMA सारे देश में लागू होता है। यह भारत के किसी नागरिक के स्वामित्व में या उसके द्वारा नियन्त्रित सभी शाखाओं, कार्यालयों या ऐजेन्सियों पर लागू होता है। जिस व्यक्ति पर यह अधिनियम लागू होता है यदि उसके द्वारा भारत से बाहर इस अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन होता है तो भी यह अधिनियम उस पर लागू होगा।

विदेशी विनिमय प्रबन्ध अधिनियम (FEMA), 1999 की प्रमुख बातें:

विदेशी विनिमय प्रबन्ध अधिनियम, 1999 का अध्ययन निम्न मदों में रखकर कर सकते हैं :

(A) विदेशी विनिमय का नियमन एवं प्रबन्ध, (B) अधिकृत व्यक्ति, (Authorised Person), (C) नियमों का उल्लंघन एवं दण्ड, (D) निर्णय एवं अपील, (E) विविध।

(A) विदेशी विनिमय का नियमन एवं प्रबन्ध-(1) विदेशी विनिमय आदि में व्यवहार करना धारा 3 के अनुसार, कोई भी व्यक्ति बिना रिजर्व बैंक की आज्ञा के या इस अधिनियम के नियमों के विशिष्ट प्रावधानों के अभाव में निम्न कार्य नहीं कर सकता है :

(i) कोई भी व्यक्ति विदेशी विनिमय या विदेशी प्रतिभूति में किसी से न तो व्यवहार कर सकता है और न उसे हस्तान्तरित कर सकता है जब तक कि वह अधिकृत व्यक्ति न हो।

(ii) कोई व्यक्ति किसी भी ढंग से भारत के बाहर के किसी निवासी को न तो धन की अदायगी कर सकता है और न उसके खाते में कोई व्यय डाल सकता है।

(iii) अधिकृत व्यक्ति के माध्यम के अतिरिक्त भारत से बाहर के निवासी के लिए किसी के द्वारा किसी प्रकार से धन प्राप्त नहीं कर सकता है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा धन प्राप्त करता है और उतना ही धन विदेश से भारत में आ जाता है तो यह अदायगी मान्य हो सकती है।

(iv) भारत से बाहर कोई सम्पत्ति प्राप्त करने, निर्मित करने या हस्तान्तरित करने के उद्देश्य से भारत में कोई व्यक्ति किसी वित्तीय सौदे में शामिल नहीं हो सकता है।

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(2) विदेशी विनिमय आदि को अधिकार में रखना (Holding of Foreign Exchange) धारा 4 के अनुसार, कोई भी व्यक्ति जो भारत का निवासी है, भारत से बाहर स्थित विदेशी विनिमय, विदेशी प्रतिभूति या अचल सम्पत्ति को न प्राप्त करेगा, न धारक होगा, न कब्जे में रखेगा या हस्तान्तरित करेगा।

(3) चालू खाता व्यवहार (Current Account Transactions) धारा 5 के अनुसार, कोई व्यक्ति विदेशी विनिमय अधिकृत व्यक्ति (Authorized Person) को बेच सकता है या उससे प्राप्त कर सकता है, यदि ऐसा विक्रय या प्राप्ति चालू खाता व्यवहार है। लेकिन फिर भी जन-हित में रिजर्व बैंक की राय से केन्द्रीय सरकार चालू खाता व्यवहार में तर्कसंगत प्रतिबन्ध लगा सकती है।

(4) पूंजी खाता व्यवहार (Capital Account Transactions) धारा 6 के अनुसार, पूंजी खाता व्यवहार के लिए कोई भी व्यक्ति विदेशी विनिमय अधिकृत व्यक्ति को बेच सकता है या उससे प्राप्त कर सकता है लेकिन फिर भी रिजर्व बैंक केन्द्रीय सरकार की राय से पूंजी खाता व्यवहार के किसी वर्ग या किन्ही वर्गों को अनुमेय (Permissible) घोषित कर सकता है तथा इसकी सीमा का भी निर्धारण कर सकता है। रिजर्व बैंक सम्बन्धित कार्यवाहियों के सम्बन्ध में इन्हें रोकने, प्रतिवन्धित करने तथा नियमित करने के विषय बना सकता है।

(5) माल एवं सेवाओं का निर्यात (Export of goods and services) धारा 7 के अनुसार माल के प्रत्येक निर्यातक को निम्नलिखित कार्यों को पूरा करना होगा :

(i) वह रिजर्व बैंक या किसी निर्देशित अधिकारी को निर्धारित फार्म पर निर्दिष्ट ढंग से एक घोषणा करेगा जिसमें माल का सच्चा व सही विवरण व मूल्य होगा। यदि मूल्य का सही अनुमान नहीं है तो भारत से बाहर मिलने वाले मूल्य का अनुमान।

(ii) वह रिजर्व बैंक को वे सभी सूचनाएं देगा जिन्हें रिजर्व बैंक चाहेगा।

(6) विदेशी विनिमय की वसूली व उसे स्वदेश लाना (Realisation and Repatriation of Foreign Exchange) धारा 8 के अनुसार, यदि इस अधिनियम में कोई अन्य प्रावधान नहीं है तो रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित समय में व रीति से भारत का निवासी वे सभी उचित कदम उठाएगा जिससे कि विदेशी विनिमय की वसूली हो और उसे भारत में लाया जा सके।

(7) कुछ मामलों में धन की वसूली और भारत भेजने से छूट (Exemption from Realisation and Repatriation in Certain Cases) इस अधिनियम की धारा 4 व 8 निम्न मामलों में लागू नहीं होगी।

(i) रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर किसी व्यक्ति द्वारा विदेशी करेन्सी व मुद्रा का रखना. (ii) रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर किसी व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा विदेशी करेन्सी खाता रखना एवं उसका परिचालन करना, (iii) रिजर्व बैंक की सामान्य या विशेष आज्ञा के अधीन किसी व्यक्ति द्वारा 8 जुलाई, 1947 से पहले विदेशी विनिमय की प्राप्ति या उससे किसी आय का होना, (iv) रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर भारत के किसी निवासी द्वारा विदेशी विनिमय का रखना यदि उसे ऐसा विदेशी विनिमय विरासत में या भेंट में मिला हो, (v) नौकरी, व्यवसाय, व्यापार, पेशा, मानदेय, भेंट, वसीयत व विधिसम्मत साधनों द्वारा प्राप्त विदेशी विनिमय जो रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित सीमा के भीतर हो। (vi) किसी अन्य विदेशी विनिमय की प्राप्ति जो रिजर्व बैंक द्वारा विशेष रूप से स्पष्ट की गई हो।

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(B) अधिकृत व्यक्ति (Authorised Person) धारा 2 के अनुसार, अधिकृत व्यक्ति से आशय है। अधिकृत व्यवसायी, मुद्रा परिवर्तनकर्ता, समुद्री किनारे की बैंकिंग इकाई या अन्य कोई ऐसा व्यक्ति जो उस समय के लिए विदेशी मुद्रा या विदेशी प्रतिभूतियों में व्यवहार करने के लिए अधिकृत किया गया हो।

ऐसे अधिकृत व्यक्ति के कर्तव्य हैं (i) रिजर्व बैंक निर्देशों का पालन करना (ii) अधिकृतीकरण की शर्तो के विरुद्ध कार्य न करना।

यदि अधिकृत व्यक्ति रिजर्व बैंक के निर्देशों का पालन नहीं करता है तो उसे स्पष्टीकरण का अवसर देने के बाद, 10,000 ₹ तक का अर्थ दण्ड लगाया जा सकता है। यदि उसकी ओर से अवहेलना जारी रही तो अतिरिक्त दण्ड 2,000 र प्रतिदिन के हिसाब से लगाया जा सकता है।

रिजर्व बैंक को अधिकृत व्यक्ति के व्यवसाय की जांच करने का अधिकार है।

(C) नियमों का उल्लंघन एवं दण्डधारा 13 के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति इस अधिनियम, किसी नियम, आदेश या निर्देश का उल्लंघन करता है तो उसे, ऐसे उल्लंघन से जितना धन प्राप्त होता है, उससे तीन गुना धन दण्ड के रूप में लगाया जा सकता है। यदि ऐसे धन का निर्धारण सम्भव न हो तो 2 लाख र तक दण्ड लगाया जा सकता है। यदि ऐसा उल्लंघन जारी रहता है तो प्रति दिन 5,000 ₹ तक का दण्ड और लगाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त ऐसे उल्लंघन से सम्बन्धित कोई करेन्सी, प्रतिभूति, कोई और धन या सम्पत्ति केन्द्रीय सरकार जब्त कर सकती है। ऐसे व्यक्ति की विदेशी सम्पत्ति या धन या तो भारत लाया जाएगा या निर्देशानुसार विदेश में रोक लिया जाएगा।

यदि निर्णयकर्ता अधिकारी (Adjudicating Authority) के आदेश का पालन नहीं किया जाता है तो धारा 14 के अनुसार ऐसे व्यक्ति को नागरिक कैद हो सकती है। यदि दण्ड की मांग 1 करोड़ रसे अधिक है तो दोषी व्यक्ति तीन वर्ष तक नागरिक कैद में रह सकता है। अन्य मामलों में वह व्यक्ति छ: माह तक की कैद में रखा जा सकता है।

धारा 15 के अनुसार दोषी व्यक्ति एक आवेदन पत्र दे सकता है। ऐसा आवेदन पत्र पाने के 180 दिन के भीतर केन्द्र सरकार द्वारा निर्देशित डाइरेक्टर एनफोर्समेन्ट और रिजर्व बैंक के अन्य अधिकारी सन्तुष्ट होने पर मामले को समाप्त कर सकते हैं।

(D) निर्णय एवं अपीलधारा 16 के अनुसार किसी भी व्यक्ति द्वारा उल्लंघन होने पर केन्द्रीय सरकार अपने अधिकारियों में से जितने वह उचित समझे, मामले की जांच के लिए निर्णयकर्ता अधिकारी (Adjudicating Authority) नियुक्त कर सकती है। केन्द्रीय सरकार नियुक्त अधिकारियों के क्षेत्र का भी निधारण कर सकती है। जांच लिखित शिकायत के बिना नहीं की जा सकती है।

प्रत्येक निर्णयकर्ता अधिकारी को नागरिक न्यायालय (Civil Court) का अधिकार प्राप्त होगा। ऐसा निर्णयकर्ता अधिकारी एक वर्ष में मामले को निपटाएगा। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता है तो समय-समय पर ऐसा न कर पाने के कारणों का उल्लेख करेगा।

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निर्णयकर्ता अधिकारी के निर्णण के विरुद्ध अपील विशेष डाइरेक्टर (अपील) के यहां 45 दिन के भीतर कर सकता है। विशेष डाइरेक्टर (अपील) समय सीमा के बाद भी अपील स्वीकार कर सकता है यदि वह देरी के कारणों से सन्तुष्ट है। ऐसे विशेष डाईरेक्टर (अपील) को नागरिक न्यायालय के समान अधिकार प्राप्त है।

निर्णयकर्ता अधिकारी विशेष डाइरेक्टर (अपील) के निर्णयों के विरुद्ध अपील अपील न्यायाधिकरण (Appellate Tribunal) में निर्णय प्राप्त होने के 45 दिन में की जा सकती है। इस न्यायाधिकरण को जैसा वह चाहे निर्णय देने का अधिकार है। यह निर्णय अपील प्राप्त होने के 180 दिन में दिया जाएगा। यदि ऐसा नहीं हो सकता तो न्यायाधिकरण को इसके लिए कारणों का उल्लेख करना होगा।

न्यायाधिकरण के लिए अध्यक्ष वही व्यक्ति हो सकता है जो उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की योग्यता रखता हो। सदस्य के लिए जिला जज की योग्यता होनी चाहिए। विशेष डाइरेक्टर (अपील) के लिए भारतीय कानून सेवा (Indian Legal Service) का व्यक्ति होना चाहिए वह भी प्रथम श्रेणी का या फिर भारतीय आगम सेवा (Indian Revenue Services) का व्यक्ति होना चाहिए और जो कम-से-कम 15 वर्ष तक संयुक्त सचिव रहा हो।

(E) विविध केन्द्रीय सरकार रिजर्व बैंक को अधिनियम के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समय-समय पर निर्देश दे सकती है। यदि निर्देश या आदेश की अवहेलना किसी कम्पनी ने की है तो ऐसा व्यक्ति जो उल्लंघन के समय व्यवसाय चलाने के लिए जिम्मेदार था, दोषी माना जाएगा। यदि उल्लंघन के दोषी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है या वह दिवालिया हो जाता है तो मामला समाप्त नहीं होगा बल्कि मुकदमा उसके कानूनी प्रतिनिधि पर चलाया जाएगा।

केन्द्रीय सरकार को FEMA के प्रावधानों को ठीक प्रकार से लागू करने के लिए विषय बनाने का अधिकार है जो संसद से ही पारित किया जाना चाहिए।

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फेरा और फेमा में अन्तर

विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम (FERA), 1973 व विदेशी विनिमय प्रबन्ध अधिनियम (FEMA) 1999, में निम्न अन्तर पाया जाता है :

(1) प्रस्तावना—’फेराअधिनियम का उद्देश्य विदेशी विनिमय को सुरक्षित रखना और उसका उचित प्रयोग करना था। लेकिन ‘फेमा’ का उद्देश्य विदेशी व्यापार, धन की अदायगी प्रथा तथा भारत में विदेशी विनिमय बाजार को सुविधाजनक बनाना तथा उसका व्यवस्थित विकास करना है।

(2) धाराएंफेराअधिनियम में 81 धाराएं थीं लेकिन अब ‘फेमा’ अधिनियम में केवल 49 धाराएं हैं।

(3) शब्दों का प्रयोग—’फेरा’ अधिनियम में नियमों के उल्लंघन को अपराध (offence) कहा गया है जबकि ‘फेमा’ के नियम तोड़ने पर उल्लंघन (Contravention) कहा गया है।।

(4) त्रुटि की प्रवृत्ति—’फेरा के अन्तर्गत अपराध (offence) आपराधिक प्रवृत्ति को प्रकट करता है। जबकि ‘फेमा’ में उल्लंघन (Contravention) एक भूल या त्रुटि माना जाता है।

(5) गिरफ्तारीफेरा अधिनियम का पालन न करने पर किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है, परन्तु ‘फेमा’ में नागरिक को जेल में रोका जा सकता है।

(6) उल्लंघन के दोष को समाप्त करने का अधिकार—’फेरा’ में उल्लंघन समाप्त करने का अधिकार नहीं था, परन्तु ‘फेमा’ में ऐसा करने का अधिकार है।

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(7) अर्थ दण्ड— ‘फेरा अधिनियम में यह व्यवस्था थी कि यदि किसी नियम का उल्लंघन होने पर प्रभावित धन का पांच गुना या 5,000 ₹ जो भी अधिक हो, दण्ड दिया जा सकता है। लेकिन ‘फेमा’ में इस प्रकार प्रभावित धन का तीन गुना दण्ड तक ही दिया जा सकता है या ऐसा निश्चित न किए जाने की दशा में 2 लाख ₹। साथ ही यदि ऐसा उल्लंघन जारी रहता है तो 5,000 ₹ प्रति दिन के हिसाब से अर्थ दण्ड और दिया जा सकता है।

(8) निवास की स्थिति—’फेरा’ में भारत के निवासी से अर्थ भारत के नागरिक से है, जबकि ‘फेमा’ में नागरिकता का कोई प्रश्न ही नहीं है। इसमें नागरिक से अर्थ भारत में रहने वाले से है।

(9) नवीन परिभाषाएं—’फेमा’ में कुछ नवीन परिभाषाएं जोड़ी गई हैं जैसे ‘पूंजी खाता व्यवहार’, ‘चालू खाता व्यवहार’, ‘निर्यात सेवाएं’ आदि। यह परिभाषाएं ‘फेरा’ में नहीं थीं।

(10) अभियोग से मुक्ति का अधिकार—’फेरा’ में यह व्यवस्था की कि यदि पूर्ण व सत्य विवरण प्रस्तुत किया जाता है तो सन्तुष्ट होने पर केन्द्रीय सरकार अभियोग चलाने एवं अर्थदण्ड से मुक्ति दे सकती है, लेकिन ‘फेमा’ में इस प्रकार का अधिकार नहीं है।

(11) पीढ़ी का अन्तर‘फेरा’ विदेशी सौदों के नियन्त्रण के लिए पहला अधिनियम था, लेकिन देश में वित्तीय एवं आर्थिक सुधारों के होने से ‘फेमा’ पिछले अधिनियम ‘फेरा’ का विकसित रूप है, इसीलिए इसे अगली पीढ़ी का माना जाता है।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 भारत की वर्तमान औद्योगिक नीति 1991 की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।

2. भारत की औद्योगिक नीति का मूल्यांकन कीजिए।

3. औद्योगिक लाइसेंसिंग नीति से आप क्या समझते हैं ? इस सम्बन्ध में एम.आर.टी.पी. अधिनियम के बारे में बताइए।

4. फेमा अधिनियम के प्रावधानों को समझाइए तथा ‘फेमा’ व ‘फेरा’ के अन्तरों की व्याख्या कीजिए।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

1 औद्योगिक नीति के अर्थ को स्पष्ट कीजिए।

2. औद्योगिक नीति का महत्व बताइए।

3. फेरा तथा फेमा में अंतर स्पष्ट कीजिए।

4. राष्ट्रीय विनिर्माण नीति का उद्देश्य बताइए।

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chetansati

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