BCom 1st Year Business Environment CounterTrade System Preferences General Tariff Study Material Notes in Hindi

//

BCom 1st Year Business Environment Countertrade System Preferences General Tariff Study Material Notes in Hindi

BCom 1st Year Business Environment Countertrade System Preferences General Tariff Study Material Notes in Hindi : Buy Back Agreements Clearing Agreement Switch Transaction General System of Preferences or General System of Tariff Preferences Examination Questions Long Answer Question :

Counter Trade System Preferences
Counter Trade System Preferences

BCom 1st Year Environment Foreign Trade Economic Development Study Material Notes in Hindi

प्रति व्यापार, अधिमान की सामान्य व्यवस्था या टारिफ अधिमान की सामान्य व्यवस्था

[COUNTER TRADE, GENERAL SYSTEM OF PREFERENCES OR GENERAL SYSTEM OF TARIFF PREFERENCES]

प्रति व्यापार से तात्पर्य ऐसे गैर-पारम्परिक अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक व्यवस्था से है जिससे विभिन्न देशों के मध्य करेंसी के उपयोग की आवश्यकता नहीं होती है। यह सरल वस्तु विनिमय (barter) पर आधारित प्रणाली से लेकर जटिल औद्योगिक ऑफसेट व्यवस्था हो सकती है। यह व्यवस्था उन देशों के बीच आयोजित की जाती है जिन्हें हार्ड करेंसी की कमी रहती है। यह प्रबन्ध पूर्व इस्टर्न ब्लाक तथा कम विकसित देशों के बीच 1970 के दशक उत्तरार्द्ध से किया गया था। इस व्यवस्था को अक्सर ढंग से आयोजित किया जाता है ताकि यह व्यापार करने वाले भागीदार देशों की आवश्यकता के अनुकूल हो । खनिज, कृषि उत्पादन तथा समरूप निर्मित वस्तुओं के लिए बार्टर व्यवस्था कायम की गई है। ये ऐसी वस्तुएं हैं जिनकी क्वालिटी तथा मात्रा की आसानी से जांच की जा सकती है। 1980 के दशक से वस्तु विनिमय के स्थान पर प्रति खरीद (counter-purchase) का ही अधिक उपयोग किया जा रहा है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत निर्यातक अपने निर्यात के मूल्य के एक भाग को उसकी वस्तुओं के विदेशी क्रेता से खरीदना स्वीकार करता है। ऐसा भी हो सकता है कि निर्यातक क्रेता द्वारा नामांकित किसी कम्पनी से खरीदे। मूल निर्यातक द्वारा विनिमय में ली गई वस्तुओं का ऐसा होना जरूरी नहीं जो उसकी उत्पादित वस्तुओं की आवश्यकता से जुड़ी हो। निर्यातक को अपने दावा को हस्तान्तरित करने का अधिकार होता है।

प्रति व्यापार के अन्य तकनीक इस प्रकार हैं :

Business Environment Countertrade

(1) बायबैक समझौता (Buy-back Agreements)-इसके अन्तर्गत, उदाहरणार्थ, पूंजी वस्तु का निर्यातक ऐसा स्वीकार करता है कि अन्य देश लगाई इस पूंजी वस्तु से जो उत्पादन होगा वह उसे खरीद लेगा।

(2) औद्योगिक ऑफसेट्सयहां एक देश की कम्पनी जिसे दूसरे देश के एजेण्ट द्वारा कॉण्ट्रेक्ट दिया जाता है, यह सहमति प्रकट करता है वह उस देश के इनपुट का उपयोग करेगा जहां से आर्डर दिया जाता है।

(3) निकासी समझौता (Clearing Agreement) : यहां दो पार्टी, सामान्यतः दो देश, वादा करते हैं कि वे हार्ड करेंसी का उपयोग न करते हुए एक निर्दिष्ट अवधि में एक निश्चित मूल्य की वस्तुओं का विनिमय करेंगे। आयातक अपने देश के केन्द्रीय बैंक को आयात के मूल्य के बराबर स्थानीय करेंसी का भुगतान करेंगे जो निर्यातक के केन्द्रीय बैंक को एक साख निकासी डॉलर में उपलब्ध कराएगा। यह बैंक निर्यातक को स्थानीय करेंसी देगा। सिद्धान्त में, निकासी समझौता सन्तुलित भुगतान की ओर ले जाता है।

(4) स्विच लेनदेन (Switch Transactions) निकासी समझौता वास्तव में सन्तुलित भुगतान नहीं है और इसलिए यह स्विच लेनदेन की ओर ले जाता है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत यदि देश A देश B से पाता है, तो देश A इस पावना का उपयोग देश C से किए जाने वाले आयात के भुगतान के लिए करेगा। यदि देश C देश B की वस्तु की मांग नहीं करता है तो वह इस पावना के अधिकार को डिस्काउण्ट पर किसी अन्य देश को बेच सकता है, जो B से वस्तुएं खरीदने के लिए तैयार हैं। इस परवर्ती लेनदेन को स्विच व्यापार कहा जाता है।

प्रति व्यापार के अन्तर्गत ऐसे सभी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार आ जाते हैं जहां वस्तुओं का स्वैप (swap) वस्तुओं के लिए होता है। अनेक विकासशील देश इस पर जोर देते हैं कि जो देश अपनी वस्तुओं को बेचना चाहता है उसे खरीदने वाले, देश की वस्तुओं को खरीदना होगा। इस प्रकार प्रति व्यापार भुगतान शेष के संकट की समस्या को सुलझाने का एक तरीका है।

भारत में प्रति व्यापार—भारत सरकार जिसके निम्न कार्य हैं:

व्यावसायिक पर्यावरण व्यापार–भारत सरकार ने वाणिज्य मन्त्रालय के अन्तर्गत एक सेल की स्थापना की है।

(1) प्रति व्यापार के विकास को मोनिटर करना;

(1) प्रति व्यापार के समचित नीति को विकसित करना; तथा

(1) प्रति व्यापार के माध्यम से भारत के निर्यात को बढ़ाने के अवसरों की तलाश करना। सय व्यापार निगम (State Trading Corporation) तथा खनिज एवं धातु व्यापार निगम (Minerals Metal Trading Corporation MMTC) दो ऐसी महत्वपूर्ण एजेन्सी हैं तो प्रति व्यापार का कार्य करता ह| EXIM बैंक तथा ECGC भी ऐसे व्यापार में संलग्न हैं। भारत का प्रति व्यापार मुख्य रूप से लटिन अमरीका, अफ्रीका तथा मध्य पूर्व के देशों के साथ होता है। अधिकांश प्रति व्यापार समझौते गेहूं तथा चावल से सम्बन्धित रखते हैं।

Business Environment Countertrade

अधिमान की सामान्य व्यवस्था या टारिफ अधिमान की सामान्य व्यवस्था

(GENERAL SYSTEM OF PREFERENCES OR GENERAL SYSTEM OF TARIFF PREFERENCES)

अधिमान की सामान्य व्यवस्था (GSP) जो वस्तुतः टारिफ अधिमान की सामान्य व्यवस्था (GSTP) है, का प्रस्ताव 1964 में आयोजित UNCTAD की प्रथम बैठक में आया। इसे 1968 में UNCTAD की द्वितीय बैठक में औपचारिक रूप दिया गया। इस व्यवस्था के अन्तर्गत औद्योगिक देशों ने विकासशील देशों के निर्यात पर आयात शुल्क नहीं लगाना स्वीकार किया जबकि अन्य औद्योगिक देशों के इन्हीं निर्यातों पर आयात शुल्क बना रहेगा। GSP का प्रस्ताव इस सिद्धान्त पर आधारित है कि विकासशील देशों को अधिमान्य टारिफ (preferential tariff) की आवश्यकता है बदले में किसी अधिमान्य टारिफ के बिना (without reciprocation)

अधिमान्य टारिफ की मांग विकासशील देशों द्वारा होने का कारण है उनकी औद्योगीकरण की इच्छा। 1950 के दशक में मान्यता प्राप्त सिद्धान्त यह था कि आर्थिक विकास की गति को तेज करने के लिए अन्तमुखी आयात-प्रतिस्थापन (import-substitution) द्वारा औद्योगीकरण किया जाए। भारत ने भी विकास की इसी रणनीति को अपनाया, लेकिन 1960 के दशक के प्रारम्भ में ही इस रणनीति की कठिनाइयां सामने आने लगीं तथा इस विचार को अधिक मान्यता प्राप्त होने लगी कि बहिर्मुखी (outward-looking) औद्योगीकरण की रणनीति आवश्यक है। इसका अर्थ है निर्यात को प्रोत्साहन (export promotion), विशेषकर औद्योगिक वस्तुओं (industrial products) के निर्यात को।

इस विचार के पक्ष में दो प्रमुख तर्क दिए गए कि निर्मित वस्तुओं का निर्यात अधिकांश विकासशील देशों के आर्थिक विकास में अहम भूमिका निभा सकता है।

(1) अधिकांश देशों के लिए औद्योगीकरण ही आर्थिक विकास का स्वाभाविक माध्यम (natural medium) है। इसलिए आर्थिक विकास तथा औद्योगीकरण का उपयोग पर्यायवाची शब्दों के रूप में होता था।

(2) विकास प्रयत्न तभी सफल हो सकते हैं जब विकासशील देश अपने निर्यात में वृद्धि करें तथा विकास को प्रोत्साहित करने वाला सर्वाधिक लाभदायक निर्यात औद्योगिक वस्तुओं का निर्यात है, लेकिन इन देशों को विकसित देशों के आयात बाजार में पैर जमाना मुश्किल होता है। अनेक लोगों का विश्वास है कि टारिफ अधिमान्य (Tariff preferences) द्वारा ही निर्यात में वृद्धि सम्भव है।

उपर्युक्त विचारधारा को मुख्य रूप से रॉल प्रेविश (Raul Prebisch), जो उस समय UNCTAD के महासचिव थे, ने विकसित किया। उसने व्यापार करने वाले देशों के मध्य पारम्परिक (conventional) तथा वास्तविक (real) पारस्परिकता (reciprocity) में अन्तर किया। पारम्परिक पारस्परिकता वह है जिसके अन्तर्गत एक औद्योगिक देश तथा एक अल्प-विकसित देश एक-दूसरे को रियायत (concessions) देते हैं तथा जिसके परिणामस्वरूप अल्प-विकसित देश एक पुराने व्यापार पैटर्न पर निर्भर हो जाता है तथा कृषि वस्तुओं का निर्यात करता रहता है। यह औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था है।

वास्तविक पारस्परिकता तो वह है जिसके अन्तर्गत विकसित देश अल्प-विकसित देशों (LDCs) को एकतरफा (unilateral) टारिफ रियायत प्रदान करते हैं। इससे LDCs की निर्यात क्षमता में वद्धि होती है, औद्योगिक देशों से इनके आयात की मांग बढ़ती है तथा विश्व व्यापार का विस्तार होता है।

UNCTAD की प्रथम बैठक में टारिफ अधिमान के लिए जो तर्क दिए गए वे अधिकांशतः शिशु उद्योग गंगक्षण पर आधारित थे। इसलिए एक सीमित अवधि के लिए शिशु उद्योगों को टारिफ में अधिमान देने की ग की गई। इससे इन उद्योगों को विस्तृत बाजार में प्रवेश मिलगा और वे विकास कर सकेंगे। यह मांग प्रति व्यापार अधिमान की सामान्य व्यवस्था या टारिफ अधिमान की सामान्य व्यवस्था साधारण शिशु उद्योग संरक्षण की मांग से भिन्न थी, क्योंकि साधारणतः आयात शुल्क में वद्धि के द्वारा घरेल। उद्योग को संरक्षण दिया जाता है। टारिफ अधिमान की सामान्य व्यवस्था (GSTP) में विकसित देश अपने आयात शुल्क में कमी करके विकासशील देशों के निर्यात को प्रोत्साहन प्रदान करते हैं।

GSP वस्तुतः MFN (most-favoured nation) के अन्तर्गत की जाने वाली टारिफ कटौती से भिन्न है। MFN टारिफ कटौती में भिन्न-भिन्न स्रोतों के निर्यातों में भेदभाव नहीं किया जाता है। फिर भी LDCs द्वारा किए जाने वाले निर्मित वस्तुओं के निर्यातों को ऊंचे टारिफ का सामना करना पड़ता था। औद्योगिक देशों के ऐसे निर्यातों की तुलना में।

1964-71 की अवधि में GSP व्यवस्था के लिए बातचील चलती रही। 1971 में यूरोपियन कम्यूनिटी (European Community-EC) ने प्रथम व्यवस्था को लागू किया। इसके पश्चात जापान ने इसको लाग किया। अमेरिका ने इसे जनवरी 1976 में ही लागू किया। GSP व्यवस्था के अन्तर्गत अनेक अल्प-विकसित देशों के अधिकांश निर्मित एंव अर्द्ध-निर्मित वस्तुओं को विकसित देशों में बिना आयात शुल्क के ही प्रवेश मिलता है, लेकिन कुछ महत्वपूर्ण सीमाएं भी हैं :

  • GSP के अन्तर्गत कृषि तथा मत्स्य क्षेत्र के उत्पादों को शामिल नहीं किया गया है। कपड़ा को अमेरिका तथा जापान ने GSP से बाहर रखा है। EC टारिफ अधिमान प्रदान करता है केवल उन्हीं को जो स्वैच्छिक निर्यात प्रतिबन्ध का पालन करते हैं।
  • GSP के अन्तर्गत आयात पर मूल्य सम्बन्धी प्रतिबन्ध भी हैं। प्रारम्भ में इसे केवल 10 वर्षों के लिए लागू किया गया जो अनेक LDCs के लिए तुलनात्मक लाभ प्राप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं था।

GSP से प्राप्त लाभ के जो आकलन हुए हैं, उनमें काफी भिन्नता पाई जाती है, किन्तु सभी में एक बात कॉमन है लाभ बहुत ही कम मिला है। इसका एक कारण यह है कि GSP लाभ LDCs के कुल। निर्यात के केवल 20 प्रतिशत भाग को ही मिलता है। दूसरे, GSP आयात का लगभग 80 प्रतिशत सात नए औद्योगिक देशों-ब्राजील, हांगकांग, इजराइल, कोरिया, मैक्सिको, सिंगापुर तथा ताइवान से ही आता है। तीसरे, LDCs के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तुओं, जैसे—कपड़ा को GSP से बाहर ही रखा गया है। चौथे.GSP के अन्तर्गत बच निकलने अर्थात रियायत को वापस लेने के अनेक प्रावधान है।।

GSP की आलोचना का एक आधार यह है कि विकसित देशों द्वारा आयात पर जो टारिफ लगाया जाता है वह बहुत ही कम दर पर 0-10 से 15 प्रतिशत तक। यदि इसमें 50 प्रतिशत की भी कमी की जाए तो LDCs को लाभ 5 से 7 प्रतिशत तक ही होगा। कीमत में इतने कम लाभ का निर्णायक प्रभाव विकासशील देशों के निर्यात पर नहीं पड़ सकता है।

1980 में GSP स्कीम से अधिक उन्नत विकासशील देशों को सीमित लाभ पहुंचा जबकि अन्य को कोई भी लाभ नहीं मिला।

GSP की नई व्यवस्था एवं भारत

GSP योजना के अन्तर्गत जनवरी, 2002 से दिसम्बर, 2004 की अवधि के लिए यूरोपीय संघ (European Union) ने पूर्व में चल रही प्रतिशत कटौती (Percentage Reduction) व्यवस्था के स्थान पर कामन कस्टम टारिफ (CCT) के लिए 3.5% की एक समान वरीयता मार्जिन वाली दर (Flat rate of preferential margin of 3.5%) लागू की है। वरीयता मार्जिन वाली इस दर में अधिकांश वस्तुओं के लिए वरीयता मार्जिन दर पुरानी व्यवस्था में दी जा रही प्रतिशत कटौती से यद्यपि कम है, किन्तु LDCs को इस व्यवस्था में हानि की सम्भावना है। इस नई व्यवस्था से भारतीय निर्यातों पर पड़ने वाले सम्भावित प्रतिकूल प्रभावों को निष्प्रभावी करने के उद्देश्य से GSP की नई योजना में एक ‘ठहराव धारा’ (stand still clause) का समावेश किया गया है जिसके अन्तर्गत इस गारण्टी की व्यवस्था है कि नई 3.5% के वरीयता मार्जिन के परिणामस्वरूप यदि पूर्व प्रचलित प्रतिशत कटौती की तुलना में कम लाभ प्राप्त होता है तो भारत कम से कम पूर्व प्राप्त बाजार सहायता (Market Access) स्तर पर बना रहेगा और पूर्ववत् लाभ प्राप्त करता रहेगा। इस प्रकार भारत का नई GSP व्यवस्था की सम्भावित हानि से बचाव सुनिश्चित कर दिया गया है।

प्रश्न

1 प्रति व्यापार से आप क्या समझते हैं ? इसका क्या महत्व है?

2. प्रति व्यापार के तकनीक का विवरण दें। भारत में इसका क्या महत्व है ?

Business Environment Countertrade

chetansati

Admin

https://gurujionlinestudy.com

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Previous Story

BCom 1st Year Environment Foreign Trade Economic Development Study Material Notes in Hindi

Next Story

BCom 1st Year Business Environment House Effect Global Warming Study Material Notes in Hindi

Latest from BCom 1st year Business Environment Notes