BCom 2nd Year Principles Business management Concept Nature Significance Study Material Notes in Hindi

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भारत में प्रबन्ध का पेशाकरण

Table of Contents

(PROFESSIONALIZATION OF MANAGEMENT IN INDIA)

उदारीकरण, निजीकरण, भूमण्डलीकरण (Liberalisation, Privatisation, Globalisation LPG) के इस दौर में पेशेवर प्रबन्ध की अवधारणा भारत में प्रगतिशील, कुशल एवं प्रभावी प्रबन्ध का पर्याय बन चुकी है। प्रत्येक निगमित क्षेत्र की संस्था यह दावा करती है कि उसका प्रबन्ध पेशेवर है। भारत में प्रबन्ध को पेशे के रूप में विकसित करने हेतु अनेक विशिष्ट संस्थानों की स्थापना की गयी है जैसे भारतीय प्रबन्ध संस्थान, अहमदाबाद, बंगलौर, कोलकता, इंदौर, लखनऊ, सेंट जेवियर श्रम सम्बन्ध संस्थान, जमशेदपुर; जमुनालाल बजाज प्रबन्ध संस्थान, मुम्बई; मोतीलाल नेहरू अनसंधान एवं व्यवसाय प्रशासन संस्थान (मोनिरबा), इलाहाबाद विश्वविद्यालय आदि। इसके अतिरिक्त देश के अधिकांश विश्वविद्यालय व विविध संस्थान प्रबन्ध के स्नातक एवं स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम संचालित कर रहे हैं । फिर भी देश के प्रमुख उपक्रमों में  कमी है, लाभार्जन हेतु सामाजिक उत्तरदायित्व पर कम ध्यान दिया जा रहा है. प्रलभकीय संस्थान गुणवत्ता नियंत्रण पर पर्याप्त जोर नहीं दे पा रहे हैं। देश के कछ ही ऐसे निजी एवं सार्वजनिक उद्यमी हैं जो पेशेवर प्रबन्ध को अपना रहे हैं। जे० आर० डी० टाटा के शब्दों में “हमने पेशेवर प्रबन्ध की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया है।” सेल के पूर्व अध्यक्ष श्री एम० ए. वाइद खान के शब्दों में, “भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में पेशेवर प्रबन्धकों का महत्व बढ़ता जा रहा हो । भारत के हिन्दुस्तान लीवर, टिस्को, भेल, ओ.एन.जी.सी., गेल, भारतीय तेल निगम आदि उपक्रमों में पेशेवर प्रबन्ध पर पर्याप्त जोर दिया गया है।

भारतीय प्रबन्ध पेशेवर मानदण्डों व मूल्यों पर संचालित न होकर पारस्परिक और पारिवारिक है। यहां पर नियुक्तियों व पदोन्नतियों में कशलता और योग्यता की जगह पर धर्म, जाति, सम्पर्क आदि को ध्यान दिया जाता है। लोक उद्यमों को भी नौकरशाही तरीके से संचालित किया जा रहा है। भारत में प्रबन्ध के प्रभावी पेशाकरण हेतु निम्न सुझाव दिये जा सकते हैं

(1) उपक्रमों में प्रबन्ध के डिग्रीधारकों की नियुक्ति को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

(2) सरकार को सर्वमान्य आचार-संहिता विकसित करनी चाहिए।

(3) देश में भारतीय प्रबन्ध सेवा (Indian Management Service-IMS) हेतु प्रतियोगी परीक्षा भारतीय प्रशासनिक सेवा की तर्ज पर आयोजित की जानी चाहिएँ।।

(4) उपक्रमों में प्रबन्धकों के उचित नियुक्ति हेत मात्र योग्यता को न कि जाति, रंग, धर्म, परिवार का ध्यान दिया जाना चाहिए।

(5) उद्योगपतियों को प्रबन्धकों के पेशेवर प्रशिक्षण हेतु पर्याप्त व्यय करना चाहिए।

(6) शैक्षणिक संस्थाओं को प्रबन्ध विज्ञान में शोध पर अधिक ध्यान देना चाहिए जिससे कि अवधारणात्मक अस्पष्टता व भ्रम दूर हो सके।

(7) प्रबन्ध शिक्षा के पाठ्यक्रम में भारतीय उद्योग पुरुषों; जैसे—टाटा, बिडला. बाटा. मोदी आदि की प्रगति कहानियों का समावेश किया जाना चाहिए।

Principles Business management Concept

(IV) प्रबन्ध : कला अथवा विज्ञान अथवा दोनों के रूप में

(MANAGEMENT : AS AN ART OR SCIENCE OR BOTH)

कला और विज्ञान के रूप में प्रबन्ध की प्रकृति को भली प्रकार समझने के लिए यह परम आवश्यक है कि पहले हम ‘कला’ और ‘विज्ञान’ दोनों का अर्थ व लक्षण समझें, तभी यह निर्णय किया जा सकता है कि प्रबन्ध कला है अथवा विज्ञान अथवा दोनों ही।

प्रबन्ध : कला के रूप में v (MANAGEMENT : AS AN ART)

कला का अर्थ एवं लक्षण-कला का अर्थ ज्ञान के व्यावहारिक उपयोग से लिया जाता है। किसी भी कार्य को करने की क्रिया-विधि को कला कहते हैं। दूसरे शब्दों में, किसी भी कार्य को करने की सर्वोत्तम विधि को ही कला कहते हैं। जी० आर० टेरी के मतानुसार, “चातुर्य के प्रयोग से वांछित परिणाम प्राप्त करना ही कला है।” सी० आई० बरनार्ड के अनुसार, “कला का कार्य सही उद्देश्यों की उपलब्धि कराना, परिणामों को प्रभावित करना और ऐसी परिस्थितियों को उत्पन्न करना है जो बिना सुविचारित उपायों के प्राप्त होना सम्भव नहीं है।” संक्षेप में, कला को उपलब्ध ज्ञान के व्यावहारिक प्रयोग की एक विधि के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। कला की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं

(i) कला वांछित परिणामों को प्राप्त करने की विधि बताती है।

(ii) वांछित परिणामों की प्राप्ति कला का प्रयोग करने वाले व्यक्ति के हुनर व ज्ञान के प्रयोग पर निर्भर करती है।

(iii) कला व्यक्तिगत होती है और उसका हस्तांतरण सम्भव नहीं है।

(iv) कला का सम्बन्ध व्यावहारिक पक्ष से होता है जो यह बताता है कि कार्य को कैसे किया जाय।

(v) कला सदैव रचनात्मक होती है।

(vi) कला का संचय सम्भव नहीं है।

(vii) कला वास्तव में लगातार अभ्यास, अनुभव और प्रशिक्षण से आती है।

(viii) कला मानव से सम्बन्धित होती है और इसका दृष्टिकोण परिणामोन्मुखी (Result-Oriented) होता है।

क्या प्रबन्ध कला है?-कला की उपयुक्त विशेषताओं को यदि प्रबन्ध की कसौटी पर कसा जाय, तो यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि प्रबन्ध करना पूर्ण रूप से कला ही है। प्रबन्ध का कला मानने के पीछे निम्न तर्क दिए जाते हैं

(i) प्रबन्ध की प्रक्रिया प्रमुखतया कैसे (How) पर आधारित होती है। जैसे कि नृत्य, चित्रकारी, संगीत, मूर्तिकला, चिकित्सा आदि कलाओं में होती है।

(ii) प्रबन्ध अन्य कला विधाओं की भाँति रचनात्मक (Creative) होती है। प्रबन्धकीय सफलता में रचनात्मकता की प्रमुख भूमिका होती है।

(iii) प्रबन्धकीय ज्ञान का हस्तान्तरण सम्भव नहीं है।

(iv) प्रबन्धकीय कुशलता व्यक्ति की कुशलता व व्यावहारिक ज्ञान पर निर्भर करती है।

(v) प्रबन्ध का मुख्य उद्देश्य अन्य व्यक्तियों के साथ काम करते हुए पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करना ही होता है। अतः स्पष्ट है कि प्रबन्धक द्वारा निर्णय लेना कला ही है जो प्रबन्धक के व्यक्तिगत अनुभव, दक्षता, दूरदर्शिता, अभ्यास व चातुर्य पर निर्भर करता है। 19वीं शताब्दी तक तो इसे मात्र कला ही माना जाता था, परन्तु आज 21वीं शताब्दी में इसे कला के साथ विज्ञान भी माना जाता है।

प्रबन्ध : विज्ञान के रूप में

(MANAGEMENT : AS AN SCIENCE)

विज्ञान का अर्थ एवं लक्षण—किसी भी प्रकार का व्यवस्थित ज्ञान जो किन्हीं सिद्धान्तों पर आधारित हो ‘विज्ञान’ कहलाता है। यह ज्ञान का ऐसा स्वरूप है जिसमें अवलोकन एवं प्रयोग द्वारा सिद्धान्त प्रतिपादित किये जाते हैं और कारण एवं परिणाम के मध्य सम्बन्ध स्थापित किये जाते हैं। जी० आर० टेरी के अनसार, “विज्ञान किसी भी विषय, उद्देश्य अथवा अध्ययन का सामान्य सत्यों के सन्दर्भ में संग्रहित तथा स्वीकत व्यवस्थित ज्ञान है।” कीन्स के शब्दों में, “विज्ञान ज्ञान का एक व्यवस्थित संग्रह है जो कारण और परिणाम के मध्य सम्बन्ध स्थापित करता है।” विज्ञान के मख्य लक्षण निम्न हैं

(i) विज्ञान ज्ञान का क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित अध्ययन है।

(ii) विज्ञान के निश्चित नियम व सिद्धान्त होते हैं।

(iii) विज्ञान के सिद्धान्तों में कारण व परिणाम का सम्बन्ध होता है।

(iv) विज्ञान के नियमों में सार्वभौमिक सत्यता पायी जाती है।

(v) विज्ञान रूपी ज्ञान अर्जित किया जा सकता है।

क्या प्रबन्ध विज्ञान है?—प्रबन्ध की तुलना यदि विज्ञान के उपरोक्त लक्षणों के साथ की जाय, तो निश्चयपूर्वक इसे विज्ञान की श्रेणी में रख सकते हैं, क्योंकि

(i) प्रबन्ध शास्त्र भी ज्ञान का व्यवस्थित व क्रमबद्ध अध्ययन है।

(ii) प्रबन्ध में भी कछ नियम व सिद्धान्त होते हैं।

(iii) प्रबन्ध के वर्तमान सिद्धान्त, कारण व परिणाम में सम्बन्ध रखते हैं।

(iv) प्रबन्ध की सार्वभौमिकता दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।

(v) प्रबन्ध ज्ञान को शिक्षण एवं प्रशिक्षण द्वारा अर्जित किया जा सकता है। प्रबन्ध को विज्ञान  के रूप में विकसित करने में अनेकानेक प्रबन्धकर्ताओं, विचारकों, विश्लेषकों व सिद्धान्तशास्त्रियों ने। उल्लेखनीय योगदान दिया है। इसमें फ्रेडरिक विन्सलो टेलर, हेनरी फेयाल, सी० आई० बर्नार्ड, एल० उर्विक, मैक्स वेबर, मेरी पार्कर फोलेट, ओलिवर शेल्डन, पीटर एफ० ड्रकर आदि शामिल हैं।

परन्तु यह ध्यान रहे कि प्रबन्ध एक विज्ञान होते हुए भी न तो इतना व्यापक है और न इतना यथार्थ, शुद्ध व निश्चित कि इसे भौतिक शास्त्र व रसायन शास्त्र जैसे प्राकृतिक विज्ञानों की श्रेणी में रखा जाय। प्रबन्ध के अध्ययन का विषय-वस्त मानव होता है जिसका व्यवहार परिवर्तनशील होता है। प्रबन्ध प्राकृतिक विज्ञान न हो करके एक सामाजिक विज्ञान है। इसे समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र की तरह सामाजिक विज्ञान माना जाता है और सामाजिक विज्ञानों में इसका एक प्रतिष्ठित स्थान है। विज्ञान के रूप में इसका विकास विशेष रूप से 20वीं व 21वीं सदी में हुआ है, अत: यह एक नया, परन्तु विकासशील विज्ञान है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने इसे विज्ञान के रूप में स्थापित करने में विशेष योगदान दिया है।

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प्रबन्ध कला एवं विज्ञान दोनों है

(MANAGEMENT IS BOTH ART AND SCIENCE)

निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि प्रबन्ध कला भी है और विज्ञान भी। प्रबन्ध जहाँ विज्ञान के रूप में सिद्धान्तों एवं नियमों का प्रतिपादन करता है वहाँ कला हमें इन सिद्धान्तों एवं नियमों को व्यावहारिक रूप में प्रयोग करना बताती है। एक कुशल प्रबन्धक के लिए दोनों ही पक्ष (विज्ञान एवं कला) उसी प्रकार आवश्यक हैं जिस प्रकार एक चिकित्सक के लिए सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों पक्षों का ज्ञान आवश्यक होता है। कला और विज्ञान दोनों ही प्रबन्ध को पूर्णता देने का कार्य करते हैं और एक-दूसरे के पूरक माने जाते हैं। स्टेनले टेली के अनुसार, “वर्तमान में प्रबन्ध 10 प्रतिशत विज्ञान तथा 90 प्रतिशत कला है। आधनिक युग में विज्ञान दिन-प्रतिदिन विकास पर है। प्रबन्ध में अगली पीढ़ी तक विज्ञान 20 प्रतिशत और कला 80 प्रतिशत ही रह जायेगी।” राबर्ट एन० हिलकर्ट के अनुसार, “प्रबन्ध क्षेत्र में कला एवं विज्ञान दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं।” इस तरह व्यवहार रूप में प्रबन्ध एक कला है और इस व्यवहार को समुन्नत बनाने के लिए संगठित व तर्कसंगत ज्ञान को आधार बनाना विज्ञान का परिचायक है। प्रबन्ध एक प्राचीनतम कला और नवीनतम विज्ञान है।

(V) प्रबन्ध : सामाजिक उत्तरदायित्व के रूप में

(MANAGEMENT : AS A SOCIAL RESPONSIBILITY)

अब से कुछ समय पहले तक लोग यही समझते थे कि व्यावसायिक प्रबन्धकों का केवल एक ही दायित्व है—कम्पनी और उसके स्वामी अंशधारियों के लिए अधिकाधिक लाभ कमाना। लेकिन यह बात अधूरी और अर्द्ध सत्य ही है। यद्यपि यह ठीक है कि व्यवसाय का मूल उद्देश्य लाभ कमाना है, लेकिन लाभ कमाना ही सब कुछ नहीं है। लाभ कमाने के साथ-साथ एक व्यावसायिक फर्म को कछ सामाजिक उद्देश्यों एवं उत्तरदायित्वों की पूर्ति भी करनी पड़ती हैं आजकल व्यावसायिक उत्तरदायित्व के बारे में एक सामाजिक क्रान्ति सी आ गई है। ज्यों-ज्यों प्रबन्ध एक स्वतन्त्र पेशे के रूप में परिवर्तित हो रहा है, उसको सामाजिक उत्तरदायित्व के रूप में स्वीकार करने की बात बलवती होती जा रही है।

सामाजिक उत्तरदायित्व का अर्थ है समाज की आकांक्षा को समझना एवं उनकी पूर्ति में सहयोग देना। सभी प्रकार के संगठनों के प्रबन्धकों को अपने संगठनों को चलाने व उनका प्रबन्ध करने के लिए समाज से ही अनुमति मिलती है। वे इसके लिए समाज से ही अधिकार प्राप्त करते हैं। ऐसे में उनका समाज के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व उत्पन्न हो जाता है। पीटर एफ० डकर के शब्दों में. “प्रबन्ध का सामाजिक उत्तरदायित्व उपक्रम जिसका कि वह अंग हैं और समाज जिसका कि उपक्रम अंग है, दोनों के प्रति है।”

संक्षेप में, समाज के विभिन्न वर्गों के प्रति प्रबन्ध के सामाजिक उत्तरदायित्व को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है

प्रबन्ध : अवधारणा, प्रकृति एवं महत्त्व

1 स्वामियों के प्रति (Towards ownera_स्वामियों के प्रति प्रबन्ध के निम्नलिखित उत्तरदायित्व हैं

(1) वानयाजित पूंजी की सुरक्षा करना; ii) विनियोजित पँजी का सही कार्यों में प्रयोग करना; (iii) विनियोजित पूँजी पर उचित लाभांश देना: (iv) स्वामियों को व्यवसाय के सम्बन्ध में पूर्ण जानकारी देना।

2. कर्मचारियों के प्रति (Towards Employees)-कर्मचारियों के प्रति प्रबन्ध के निम्नलिखित उत्तरदायित्व हैं

(i) कर्मचारियों की न्यायपूर्ण नियुक्ति एवं उनकी रुचि व योग्यता के अनुसार उन्हें कार्य सौंपना, (ii) कर्मचारियों के लिए आवश्यकतानुसार प्रशिक्षण की व्यवस्था करना; (iii) कर्मचारियों का कार्य के अनुकूल वातावरण प्रदान करना; (iv) कर्मचारियों के पदोन्नति के अवसर प्रदान करना; (v) कर्मचारियों को उचित पारिश्रमिक प्रदान करना एवं उसके अतिरिक्त अन्य लाभ एवं सुविधाएँ प्रदान करना, आदि।

3. ग्राहकों या उपभोक्ताओं के प्रति (Towards Customers or Consumers)-ग्राहकों या उपभोक्ताओं के प्रति प्रबन्ध के निम्नलिखित उत्तरदायित्व हैं

(i) उपभोक्ताओं को वस्तु की किस्म एवं गुण के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जानकारी देना, (ii) ग्राहकों को कम मूल्य पर श्रेष्ठ एवं प्रमाणित वस्तुएँ प्रदान करना, (iii) समाज के सभी वर्गों की रुचि एवं आवश्यकता के अनुसार वस्तुओं का उत्पादन करना, (iv) उपभोक्ताओं की शिकायतों एवं परामर्श को ध्यान में रखकर उत्पादन कार्य में सुधार करना, (v) अच्छी किस्म की वस्तुएँ ग्राहकों को कम मूल्य पर उपलब्ध कराना, (vi) ग्राहकों को माल वापसी की सुविधाएँ प्रदान करना।

4. पूर्तिकर्ताओं के प्रति (Towards Suppliers)-इनके प्रति प्रबन्ध के निम्नलिखित उत्तरदायित्व हैं

(i) उनके द्वारा भेजी गई वस्तुओं का उचित मूल्य सही समय पर चुकाना, (ii) ग्राहकों की रुचि एवं फैशन आदि के सम्बन्ध में होने वाले परिवर्तनों के सम्बन्ध में सूचना देना, (iii) दूसरे पूर्तिकर्ताओं को भी माल की पूर्ति करने का अवसर प्रदान करना।

5. समाज के प्रति (Towards Society)-समाज के प्रति प्रबन्ध के निम्नलिखित उत्तरदायित्व

(i) स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को जन्म देना, (ii) एकाधिकारी की भावना को समाप्त करना, (ii) __ अधिक से अधिक व्यक्तियों को रोजगार प्रदान करना, तथा (iv) सामाजिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए प्रयास करना, आदि।

6. सरकार के प्रति (Towards Government)-सरकार के प्रति प्रबन्ध के निम्नलिखित उत्तरदायित्व हैं

(i) सरकार के साथ सहयोग करना, (ii) वस्तुओं में मिलावट को रोकना, (iii) करों का नियमित भुगतान करना. (iv) सरकार द्वारा निर्धारित नीतियों एवं नियमन (Regulations) का पालन करना, (v) देश के आर्थिक विकास में सहयोग प्रदान करना।

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प्रबन्ध के स्तर

(LEVELS OF MANAGEMENT)

प्रबन्ध के स्तर से आशय व्यवसायिक उपक्रम का प्रबन्ध करने वाले विभिन्न पदाधिकारियों के वर्गीकरण से है। यह प्रबन्धकीय कलेवर की रूपरेखा होती है जिसमें पदों के मध्य रेखा खींचकर एक पद को दूसरे पद से अलग किया जाता है। सामान्यतया प्रबन्ध के तीन स्तर होते हैं

(i) शीर्ष प्रबन्ध (Top or Apex Management), (ii) मध्य प्रबन्ध (Middle Management), एव (iii) निम्न प्रबन्ध (Lower Management)|

(i) शीर्ष प्रबन्ध (Top or Apex Management)-किसी कम्पनी प्रबन्ध के शीर्ष स्तर की संरचना में अध्यक्ष, निर्देशक मण्डल, मुख्य अधिशासी और उपाध्यक्ष सम्मिलित होते हैं। शीर्ष प्रबन्ध अन्ततोगत्वा समस्त अधिकारों का स्रोत और समस्त दायित्वों का वाहक होता है। यह संगठन के उदेश्यों और नीतियों का निर्धारण करता है और मध्य प्रबन्ध द्वारा सम्प्रेषित प्रतिवेदनों की समीक्षा करता है।

(ii) मध्य प्रबन्ध (Middle Management)-प्रबन्ध के इस स्तर पर संभागीय प्रबन्धक, विभागीय प्रबन्धक, अनुभागीय प्रबन्धक, कारखाना प्रबन्धक, अधीक्षक आदि शामिल होते हैं। प्रबन्ध के इस स्तर पर शीर्ष प्रबन्ध द्वारा निर्धारित उद्देश्यों और नीतियों की सीमाओं में व्यापक कार्यक्रम और दिशा-निर्देश तैयार किये जाते हैं और निम्न प्रबन्ध के कार्यों व निष्पादनों की समीक्षा की जाती है। ये अपने विशिष्ट विभाग की कमान सँभालते हैं और समस्त विभागीय कार्यों के लिए उत्तरदायी ठहराए। जाते हैं।

(iii ) निम्न प्रबन्ध (Lower Management)-प्रबन्ध के इस स्तर को प्रथम रखाय प्रबन्ध (First Line Management) अथवा पर्यवेक्षकीय प्रबन्ध (Supervisory Management) भी कहा जाता है। वे मध्य प्रबन्ध और कर्मचारियों के बीच सम्बद्ध कड़ी का कार्य करते हैं। इनमें फोरमैन, पर्यवेक्षक, वित्त एवं लेखाधिकारी, प्रमुख लिपिक व स्टोर कीपर आदि आते हैं। ये मध्य प्रबन्ध कार्यक्रमों व दिशा-निर्देशों के अनुसार श्रमिकों व कामगारों से क्रियाओं का निष्पादन कराने हेतु पर्यवेक्षण व सतत् देख-रेख करते हैं। इनमें पर्यवेक्षण के गुण कूट-कूट कर भरे होने चाहिएँ। डेल योडर ने बहुत सुन्दर उपमाएँ दी हैं, “उनमें धैर्यवान व्यक्ति जैसा धैर्य, गैंडे जैसी खाल, लोमड़ी जैसी चतुराई, सिंह जैसा साहस, चिमगादड़ जैसा अन्धापन एवं रहस्यमयी व्यक्ति जैसी चुप्पी होनी चाहिए।”

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प्रबन्ध का महत्त्व

(IMPORTANCE OR SIGNIFICANCE OF MANAGEMENT)

आधुनिक औद्योगिक युम में प्रबन्ध का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। आज प्रत्येक उद्योग एवं व्यवसाय में अनेक जटिलताएँ उत्पन्न होती जा रही हैं, जिनका समाधान कुशल प्रबन्ध द्वारा ही सम्भव है। कुण्टज एवं ओ’डोनेल के शब्दों में, “प्रबन्ध से अधिक महत्वपूर्ण मानवीय क्रिया का अन्य कोई भी क्षेत्र नहीं है।” वास्तव में, यदि प्रबन्ध को औद्योगिक शरीर का मस्तिष्क कहा जाय, तो यह कोई अतिशयोक्ति न होगी, क्योंकि जिस प्रकार बिना प्राण एवं मस्तिष्क के मानवीय शरीर अस्थियों एवं माँस का एक पुतला मात्र होता है ठीक उसी प्रकार बिना कुशल प्रबन्ध और संगठन के औद्योगिक शरीर भी भूमि, श्रम और पूँजी का एक निष्क्रिय समूह मात्र ही है। जिस प्रकार मस्तिष्क मानवीय शरीर के विभिन्न अंगों में एकता और समन्वय स्थापित करके उनके कुशल संचालन और निर्देशन का कार्य करता है ठीक उसी प्रकार कुशल प्रबन्ध औद्योगिक इकाई के सभी साधनों एवं अंगों को एकत्रित एवं समन्वित करके उनके संचालन तथा निर्देशन का कार्य करता है। कुशल प्रबन्ध की सहायता से ही विभिन्न औद्योगिक समस्याओं का समाधान, उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि एवं सम्पूर्ण उद्योग में श्रमिकों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध सम्भव हैं। प्रबन्ध के फलस्वरूप संस्था के उपलब्ध साधनों का अधिकतम तथा मितव्ययी उपयोग सम्भव होता है और साधनों का अधिकतम एवं मितव्ययी उपयोग ही आर्थिक विकास की कुंजी है। आज विश्व के सभी विकसित राष्ट्रों की प्रगति और समृद्धि का प्रमुख रहस्य उनके उपलब्ध साधनों का सर्वोत्तम उपयोग है जिसका मूल प्रबन्ध में निहित है।

प्रोफेसर एडविन एम० रॉबिन्सन ने प्रबन्ध की महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा __ “कोई भी व्यवसाय स्वयं नहीं चल सकता, चाहे वह संवेग (Momentum) की स्थिति में ही क्यों न हो उसके लिए इसे नियमित उद्दीपन (Repeated Stimulus) की आवश्यकता पड़ती है।” व्यवसाय को यह नियमित उद्दीपन इसके मस्तिष्क अर्थात् प्रबन्ध से ही मिलता है। इसी सट प्रसिद्ध प्रबन्ध विद्वान श्री पीटर एफ० ड्रकर के अनुसार, “प्रबन्धक प्रत्येक व्यवसाय का गया तथा जीवन प्रदायनी अवयव (Dynamic and Life-giving Element) है; इसके नेतृत्व के अभाव में उत्पत्ति के साधन केवल साधन मात्र रह जाते हैं, कभी भी उत्पादन नहीं बन पाते।” अतःव्यवसाय के कुशल संचालन तथा उत्पत्ति के भौतिक एवं मानवीय साधनों के सर्वोत्तम उपयोग के

प्रबन्ध : अवधारणा, प्रकृति एवं महत्त्व लिए स्वस्थ प्रबन्ध अति आवश्यक है। प्रबन्ध व्यवसाय के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए एक सनियाजित योजना बनाकर संगठन के प्रयासों का निर्देशन नियन्त्रण एवं समन्वय करता है।

कार्यात्मक विचारधारा (Functional Concept के दष्टिकोण से प्रबन्ध की आवश्यकता एव महत्ता शैक्षिक, धार्मिक, दान, पुण्यार्थ एवं अन्य गैर-व्यावसायिक संस्थाओं के लिए भी उतनी ही है जितनी व्यावसायिक संस्थाओं के लिए है। इसके अतिरिक्त सरकार के लिए भी, जो कि सामाजिक संगठनों में सबसे अधिक विस्तृत और व्यापक संगठन है, कुशल प्रबन्ध की आवश्यकता होती है, क्योंकि अच्छे प्रशासन के अभाव में सरकार एकदम टूट जाती है। इस सन्दर्भ में अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति श्री रूजवेल्ट का यह मत अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि “अच्छे प्रबन्ध के बिना एक सरकार रेत पर बने मकान के समान है।” प्रसिद्ध विद्वान हेनरी फेयोल ने भी प्रबन्ध की महत्ता को स्वीकार करते हए कहा है कि “प्रतिष्ठानों के शासन में प्रबन्ध महत्वपूर्ण भाग अदा करता है। इसकी आवश्यकता बड़े या छोटे, औद्योगिक, व्यावसायिक, धार्मिक या अन्य सभी प्रतिष्ठानों में है।”

व्यावसायिक क्षेत्रों में प्रबन्ध अपने कुशल नियोजन, संगठन, नियन्त्रण, समन्वय, अभिप्रेरण तथा गतिशील नेतृत्व के द्वारा संस्था के साधनों का अधिकतम व मितव्ययी उपयोग करने में समर्थ होता है। इसमें संस्था और प्रबन्ध दोनों की ही सफलता निहित है। व्यावसायिक क्षेत्रों में प्रबन्ध का महत्त्व वास्तव में इसकी रचनात्मक शक्ति (Creative Force) के कारण है। रचनात्मक शक्ति से आशय कम प्रयत्नों के द्वारा अधिकतम परिणाम प्राप्त करने से है। प्रबन्ध के द्वारा कार्य करने वाले समूह में कार्य करने के लिए प्रेरणाएँ दी जाती हैं एवं उनके प्रयासों को इस प्रकार समन्वित किया जाता है जिससे कि ज्यादा अच्छे परिणामों की प्राप्ति हो सके। इसके द्वारा शक्तिशाली केन्द्रों पर अधिक ध्यान दिया जाता है, कमजोर कड़ियों को मजबूत किया जाता है एवं समस्याओं और कठिनाइयों को दूर करके सामूहिक भावना जागृत की जाती है। इस प्रकार प्रबन्ध उपलब्ध साधनों के अधिकतम एवं मितव्ययी प्रयोग से अधिकतम परिणाम प्राप्त करने के लिए भरसक प्रयत्न करता है। इसी सन्दर्भ में उर्विक एवं बीच ने कहा है कि “कोई भी दर्शनवाद या राजनैतिक सिद्धान्त मानवीय एवं भौतिक साधनों के सम्मिश्रण से न्यूनतम प्रयास के द्वारा अधिकतम उत्पादन सम्भव नहीं बना सकता. यह केवल योग्य प्रबन्ध के द्वारा ही सम्भव है और इस अधिकतम उत्पादन के आधार पर ही सभी के लिए उच्च जीवन स्तर, अधिक आराम एवं अधिक सुख-सुविधाओं की व्यवस्था की जा सकती है।

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प्रबन्ध के बढ़ते महत्त्व के कारण

(INCREASING IMPORTANCE OF MANAGEMENT)

वर्तमान समय में प्रबन्ध का महत्त्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं

chetansati

Admin

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