Bcom 2nd Year Cost Accounting Classification and Departmentalisation Study Material Notes in Hindi

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Bcom 2nd Year Cost Accounting Classification and Departmentalisation Study Material Notes in Hindi

Table of Contents

BCom 2nd Year Cost Accounting Classification and Departmentalisation Study Material Notes in Hindi Meaning and Definition of Overhead, Methods of Codification, Apportionment of Overheads, This Post is very Important For 2nd Year Students in Hindi

Classification and Departmentalisation
Classification and Departmentalisation

BCom 1st Year Financial Accounting notes in Hindi 

उपरिव्यय-वर्गीकरण एवं विभागीयकरण

(आबंटन व अनुभाजन) 

[Overheads : Classification and Departmentalisation

(Allocation and Apportionment)

उपरिव्यय वे अप्रत्यक्ष लागतें हैं जिन्हें प्रत्यक्ष सामग्री एवं प्रत्यक्ष श्रम की भाँति किसी उत्पाद की प्रत्यक्ष लागत में। सम्मिलित नहीं किया जा सकता है क्योंकि उपरिव्यय का उत्पादन की मात्रा से प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं होता है। इस आधार पर इन्हें पूरक लागते (Supplementary Cost) भी कहते हैं। उपरिव्यय प्रत्यक्ष रूप से लागत का अंग नहीं हैं परन्तु यह लागत का आवश्यक भाग हैं क्योंकि किसी वस्तु को विक्रय योग्य बनाने के लिये उपरिव्ययों का होना आवश्यक है।

उपरिव्यय का अर्थ एवं परिभाषा

(Meaning and Definition of Overheads)

Bcom 2nd Year Cost Accounting Classification and Departmentalisation Study Material Notes in Hindi

 

मूल लागत (Prime cost) में सम्मिलित की जाने वाली प्रत्यक्ष सामग्री, प्रत्यक्ष श्रम तथा अन्य प्रत्यक्ष व्ययों के अतिरिक्त किसी वस्तु अथवा सेवा के उत्पादन से सम्बन्धित अन्य सभी व्यय उपरिव्यय कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में, अप्रत्यक्ष सामग्री, अप्रत्यक्ष मजदूरी तथा अप्रत्यक्ष व्ययों का योग उपरिव्यय कहलाता है।

उपरिव्यय की कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं

C.I.M.A. London के अनुसार, “अप्रत्यक्ष सामग्री लागत, अप्रत्यक्ष मजदूरी तथा अप्रत्यक्ष व्ययों के योग को उपरिव्यय कहते हैं।”

ब्लोकर एवं वैल्टमर (Blocker and Weltmer) के अनुसार, “उपरिव्यय लागते व्यवसाय के परिचालन की वे लागतें हैं जो उत्पादन की विशेष इकाई के साथ प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित नहीं की जा सकती।”

व्हेलडन (Wheldon) के अनुसार, “उपरिव्यय अप्रत्यक्ष सामग्री, अप्रत्यक्ष श्रम तथा सेवाओं सहित अन्य ऐसे व्ययों की लागत है जिन्हें विशेष लागत की इकाइयों पर सुविधा से चार्ज नहीं किया जा सकता।

स्पष्ट है कि मूल लागत (Prime Cost) के ऊपर जो व्यय किये जाते हैं, उन्हें उपरिव्यय कहते हैं। यद्यपि उपरिव्यय को अधिव्यय (On cost), भार (Burden or Loading), अनुत्पादक लागत (Non-productive Cost) पूरक लागत भी कहते हैं, परन्तु सही शब्दावली उपरिव्यय ही है।

उपरिव्यय एवं अप्रत्यक्ष व्यय में अन्तर (Difference between Overheads and Indirect Expenses) सामान्य बोलचाल में उपरिव्यय के स्थान पर अप्रत्यक्ष व्यय शब्द का प्रयोग भी किया जाता है परन्तु तकनीकी दृष्टि से दोनों में अन्तर है। उपरिव्यय से आशय अप्रत्यक्ष सामग्री, अप्रत्यक्ष श्रम एवं अप्रत्यक्ष व्ययों के योग से है, अत: अप्रत्यक्ष व्यय उपरिव्यय का एक भाग है। अत: उपरिव्यय से आशय अप्रत्यक्ष लागत से है न कि अप्रत्यक्ष व्यय से।

उपरिव्यय एवं अधिव्यय में अन्तर (Difference between Overheads and Oncosts) उपरिव्यय के स्थान पर अधिव्यय शब्द का भी प्रयोग किया जाता है परन्तु दोनों में अन्तर है। उपरिव्यय से तात्पर्य कुल अप्रत्यक्ष लागत से है जबकि अधिव्यय से तात्पर्य अवशोषित उपरिव्यय से है। अत: उपरिव्यय शब्द अधिक व्यापक है क्योंकि उपरिव्यय शब्द का प्रयोग अवशोषित उपरिव्यय के साथ-साथ वास्तविक उपरिव्यय के लिए भी किया जाता है।

नोट-अप्रत्यक्ष लागतों के लिए अप्रत्यक्ष व्यय अथवा अधिव्यय शब्द का प्रयोग न करके उपरिव्यय शब्द का ही प्रयोग किया जाना उचित है क्योंकि चार्टर्ड इन्स्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेन्ट एकाउन्टेन्ट्स (CIMA) इंग्लैण्ड (लंदन) ने भी अप्रत्यक्ष लागतों के लिए उपरिव्यय शब्द का प्रयोग हीं उचित माना है।

उपरिव्यय लेखांकन एवं नियन्त्रण

(Overheads Accounting and Control)

आधुनिक समय में उत्पादन लागत का एक महत्वपर्ण भाग उपरिव्ययों से सम्बन्धित होता है, अत: लागतों को उचित स्तर पर बनाये रखने तथा उपरिव्ययों में अनावश्यक वद्धि को रोकने के लिए उपरिव्ययों का समुचित नियन्त्रण एव लखाकन आवश्यक हो जाता है।

लागत लेखांकन की दृष्टि से उपरिव्ययों के लेखांकन और नियन्त्रण पर विशेष ध्यान देने हेतु उपरिव्ययों से सम्बन्धित समस्याओं का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है —

(1) उपरिव्ययों का वर्गीकरण, संख्याकन एवं संग्रहण;

(2) उपरिव्ययों का आबंटन, अनुभाजन एवं अवशोषण।

उपरिव्ययों के अवशोषण का वर्णन अगले अध्याय में किया गया है।

उपरिव्ययों का वर्गीकरण

(Classification of Overheads)

उपरिव्यय संख्या में इतने अधिक होते हैं कि यह ज्ञात करना कठिन हो जाता है कि प्रत्येक मद पर किसी अवधि में कुल कितना व्यय हुआ है, इसलिए सर्वप्रथम इनका वर्गीकरण किया जाता है। उपरिव्ययों के वर्गीकरण से आशय व्ययों के विशेष समूह की श्रेणी निर्धारित करने की प्रकिया से है। उपरिव्ययों का वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया जा सकता है। यह तो उद्योग एवं संस्था के आकार-प्रकार तथा लागत लेखांकन के उद्देश्य पर निर्भर करता है कि इनका वर्गीकरण किस प्रकार किया जाये। सामान्यत: उपरिव्ययों का वर्गीकरण निम्नलिखित पाँच विधियों से किया जा सकता है —

(1) क्रियानुसार वर्गीकरण,

(2) तत्वानुसार वर्गीकरण,

(3) नियन्त्रणानुसार वर्गीकरण,

(4) परिवर्तनशीलतानुसार वर्गीकरण,

(5) सामान्यतयानुसार वर्गीकरण।

उपरिव्ययों के इस वर्गीकरण को निम्नांकित चार्ट द्वारा भली प्रकार समझा जा सकता है —

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(10 क्रियानुसार वर्गीकरण (Function-wise Classification)-सामान्यत: किसी भी संस्था की प्रमख क्रियाओं में। उत्पादन, प्रशासन, विक्रय एवं वितरण को शामिल किया जाता है। अत: उपरिव्ययों को इन क्रियाओं के अनुसार वर्गीकत करना। ही क्रियानसार वर्गीकरण कहलाता है। इस दृष्टि से उपरिव्ययों को निम्नलिखित चार भागों में बाँटा जा सकता है —

कारखाना उपरिव्यय (Factory overheads) जिसे Works overhead, Production Overhead या Manufacturing overhead भी कहते हैं।

(ii) कार्यालय एवं प्रशासन उपरिव्यय (Office and Administration overhead)-जिसे Establishment या GeneRal overhead भी कहते हैं।

(ii) विक्रय उपरिव्यय (Selling overhead)

(iv) वितरण उपरिव्यय (Distribution overhead)|

उपरिव्ययों का यह वर्गीकरण अत्यन्त लोकप्रिय है और प्रत्येक कारखाने में निर्मित वस्तु की विभिन्न स्तरों पर लागत ज्ञात करने में इनका उपयोग किया जाता है।

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उपर्युक्त चारों प्रकार के उपरिव्ययों की विवेचना अध्याय 3′लागत के तत्त्वके अन्तर्गत कर चुके हैं।

(2) तत्वानुसार वर्गीकरण (Element-wise Classification)-जैसा कि अध्याय 3 के अन्तर्गत स्पष्ट किया जा चुका है कि लागत के प्रमुख तीन तत्व होते हैं-सामग्री, श्रम तथा व्यय।।

सामग्री, श्रम तथा व्ययों की वह रकम जिसे प्रत्यक्ष रूप में बाँटा नहीं जा सकता, उपरिव्ययों के अन्तर्गत आती है। इस प्रकार उपरिव्यय का आशय अप्रत्यक्ष सामग्री, अप्रत्यक्ष श्रम एवं अप्रत्यक्ष व्ययों के योग से है। अत: तत्वानुसार उपरिव्ययों को अप्रत्यक्ष सामग्री, अप्रत्यक्ष श्रम तथा अप्रत्यक्ष व्यय शीर्षकों में विभाजित कर दिया जाता है। इन्हें भी ‘लागत के मूल तत्व एवं उनका वर्गीकरण’ वाले अध्याय में विस्तार से समझा चुके हैं।

(3) नियन्त्रणानुसार वर्गीकरण (Control-wise Classification)-नियन्त्रण के आधार पर उपरिव्ययों को दो भागों में बाँटा जा सकता है__

(i) नियन्त्रणीय उपरिव्यय (Controllable Overheads) —ऐसे उपरिव्यय जिन्हें संस्था के किसी निर्दिष्ट व्यक्ति द्वारा कार्यवाही करके नियन्त्रित किया जा सकता है, नियन्त्रित उपरिव्यय कहलाते हैं। ऐसे व्यय सामान्यत: परिवर्तनशील व्यय होते हैं। उदाहरणार्थ, पैट्रोल व्यय, परिवहन अधिकारी द्वारा वाहनों का उपयोग नियन्त्रित करके कम किया जा सकता है।

(i) अनियन्त्रणीय उपरिव्यय (Uncontrollable Overheads)-ऐसे व्यय जिन्हें अधिकारीगण अपने प्रयासों से नियन्त्रित करके कम नहीं कर सकते, अनियन्त्रणीय उपरिव्यय माने जाते हैं। सामान्यतः स्थायी उपरिव्यय इस प्रकार के उपरिव्ययों की श्रेणी में आते हैं।

(4) परिवर्तनशीलतानुसार वर्गीकरण (Variability-wise Classification)-यदि उपरिव्ययों से सम्बन्धित विभिन्न व्ययों के स्वभाव का गहन विश्लेषण किया जाये तो पता चलता है कि कुछ व्यय तो ऐसे होते हैं जो उत्पादन की मात्रा में होने वाले परिवर्तनों के साथ-साथ घटते-बढ़ते हैं जबकि कुछ स्थिर रहते हैं अर्थात् उत्पादन में वृद्धि होने के फलस्वरुप न तो बढ़ते हैं और न उत्पादन में कमी के फलस्वरुप घटते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ व्यय ऐसे भी होते हैं जो न तो पूर्णत: स्थिर ही होते हैं और न ही पूर्णतः परिवर्तनशील होते हैं। इस प्रकार परिवर्तनशीलता के आधार पर उपरिव्ययों को तीन भागों में बाँटा जा सकता है

(i) स्थिर उपरिव्यय (Fixed Overheads);

(i) परिवर्तनशील उपरिव्यय (Variable Overheads);

(iii)अर्ध-परिवर्तनशील उपरिव्यय (Semi-Variable Overheads)।

(i) स्थिर उपरिव्यय (Fixed Overheads) स्थिर उपरिव्ययों से अभिप्राय ऐसे व्ययों से है जिन पर उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात् चाहे उत्पादन कम किया जाये अथवा अधिक या बिल्कुल भी न किया जाये इस प्रकार के व्यय प्रत्येक स्थिति में एकसमान अर्थात् अपरिवर्तित रहते हैं। परन्तु ऐसे व्यय उत्पादन के एक निश्चित स्तर तक ही स्थिर रहते हैं, उस स्तर के पश्चात् उत्पादन का विस्तार करने पर अतिरिक्त उपरिव्यय करने पड़ सकते हैं। भवन का किराया, भवन पर ह्रास, सम्पत्तियों का बीमा व्यय, प्रबन्धकों का वेतन, आदि स्थिर उपरिव्ययों के प्रमुख उदाहरण हैं।

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स्थिर उपरिव्ययों के सम्बन्ध में एक बात अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि इनकी कुल रकम तो उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन के साथ अपरिवर्तित रहती है परन्तु प्रति इकाई स्थिर व्यय परिवर्तित होते रहते हैं। चूँकि इनका सम्बन्ध उत्पादन की मात्रा से न होकर उत्पादन की अवधि से होता है, अतः इन्हें अवधि व्ययभी कहते हैं।

(ii) परिवर्तनशील उपरिव्यय (Variable Overheads) परिवर्तनशील उपरिव्ययों से आशय ऐसे व्ययों से है जिनक सीधा सम्बन्ध उत्पादित वस्तु की मात्रा से होता है अर्थात् ये ऐसे व्यय होते हैं जो उत्पादन की मात्रा बढ़ने पर उसी अनुपात में है बढ़ जाते हैं जिस अनुपात में उत्पादन में वद्धि हुई है और उत्पादन कम हान पर उसा में उत्पादन में कमी हुई है। इस प्रकार के व्ययों की प्रमुख पहच इकाई रकम एक समान रहती है जबकि कल रकम परिवर्तित होती रहती है। प्रत्यक्ष सामग्रा, म प्रकार के व्ययों के प्रमुख उदाहरण हैं।

स्थायी और परिवर्तनशील उपरिव्ययों में अन्तर

Difference Between Fixed and Variable Overheads)

(1) स्थायी उपरिव्ययों का सम्बन्ध समय के साथ रहता है, जबकि परिवर्तनशील उपरिव्ययों का सम्बन्ध उत्पादन क साथ रहता है

(ii) साधारणतया स्थायी उपरिव्ययों पर नियन्त्रण सम्भव नहीं है, जबकि परिवर्तनशील उपरिव्ययों को नियंत्रित किया जा सकता है;

(II) कारखान का निधारित क्षमता तक उत्पादन में वृद्धि या कमी का स्थायी उपरिव्यय पर प्रभाव नहीं पड़ता है, जबकि उत्पादन के बढ़ने पर परिवर्तनशील व्ययों में वृद्धि हो जाती है और उत्पादन में कमी होने पर उन व्ययों में कमी हो जाती है। ।

स्थायी व परिवर्तनशील व्ययों में अन्तर होते हए भी यह नहीं कहा जा सकता कि कोई विशिष्ट व्यय हमेशा स्थायी ही होगा और कोई विशिष्ट व्यय हमेशा परिवर्तनशील ही होगा। परिस्थितियाँ बदलने पर स्थायी स्वभाव का व्यय परिवर्तनशील हो। सकता है और परिवर्तनशील स्वभाव का व्यय स्थायी हो सकता है। 

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(iii) अर्ध-परिवर्तनशील उपरिव्यय (Semi-variable Overheads) कुछ व्यय ऐसे होते हैं जो न तो पूर्णत: स्थिर ही रहते हैं और न ही पूर्णत: परिवर्तनशील होते हैं। ऐसे व्ययों का एक निश्चित भाग स्थिर होता है और दूसरा भाग परिवर्तनशील होता है। अधिक उत्पादन की स्थिति में वृद्धि तथा कम उत्पादन की स्थिति में इनमें कमी हो जाती है। परन्तु इनमें होने वाली वृद्धि या कमी उत्पादन में हई वृद्धि या कमी के अनुपात में नहीं होती। उदाहरणार्थ, यदि उत्पादन को दो गुना कर दिया जाता है तो अर्ध-परिवर्तनशील स्वभाव के खर्चों में वृद्धि तो अवश्य होगी लेकिन यह वद्धि दो गुणा नहीं होगी कम होगी। ऐसा ही। उत्पादन में कमी होने पर होगा।

उपरिव्ययों के वर्गीकरण का यह आधार अत्यन्त उपयोगी है। इस प्रकार के वर्गीकरण से अनुकूलतम उत्पादन स्तर (Optimum production level) के निर्धारण में काफी सहायता मिलती है। सीमान्त लागत लेखांकन तकनीक (Marginal costing technique) का आधार भी यहीं वर्गीकरण है। अर्ध-परिवर्तनशील उपरिव्ययों का पृथक्करण (Segregation of Semi-variable Overheads) ,

जैसा कि ऊपर स्पष्ट कर चुके हैं कि अर्ध-परिवर्तनशील व्ययों में कुछ भाग स्थिर होता है एवं कुछ परिवर्तनशील। समस्या यह है कि किसी अर्ध-परिवर्तनशील व्यय की कुल रकम में कितना भाग स्थिर है एवं कितना भाग परिवर्तनशील, इस बात का पता कैसे लगाया जाये। वस्तुत: अर्ध-परिवर्तनशील व्यय की कुल रकम में स्थायी एवं परिवर्तनशील अंश को अलग-अलग करने की प्रक्रिया को ही पृथक्करण कहते हैं। अर्ध-परिवर्तनशील व्ययों के स्थिर एवं परिवर्तनशील भाग को पृथक् करने हेतु मुख्यत: निम्नलिखित रीतियों का प्रयोग किया जा सकता है

1) ( क्रियाशीलता द्वारा तुलना विधि (Comparison by Level of Activity Method) इस विधि के अन्तर्गत किन्हीं दो अवधियों के उत्पादन स्तर के अनुरूप लागत स्तरों की तुलना करके स्थिर एवं परिवर्तनशील व्ययों का पता लगाया जाता है। उत्पादन की वृद्धि या कमी के फलस्वरूप कुल लागत में जो वृद्धि या कमी होती है, वे परिवर्तनशील उपरिव्यय ही होते हैं। प्रति इकाई परिवर्तनशील उपरिव्यय ज्ञात करने के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है

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Variable overheads per unit = Change in Amount/Change in output

प्रति इकाई परिवर्तनशील उपरिव्यय ज्ञात करने के पश्चात् कुल लागत में से परिवर्तनशील उपरिव्ययों की कुल रकम को घटाकर स्थायी उपरिव्ययों की रकम ज्ञात कर ली जाती है।

उदाहरणार्थ-किसी माह में उत्पादन 2,000 इकाइयाँ है और उनकी अर्ध-परिवर्तनशील लागत 8,000 ₹ है एवं उससे अगले माह का उत्पादन 3,000 इकाइयाँ तथा उनकी अर्ध-परिवर्तनशील लागत 9,500 ₹ है तो स्थिर एवं परिवर्तनशील लागत निम्न प्रकार होगी

(2) उच्च एवं निम्न रीति (High and Low Methods यह विधि भी लगभग उपरोक्त विधि के समान ही है। अन्तर केवल इतना है कि इस विधि में परिवर्तनशील व्ययों की गणना विस्तार की दो चरम सीमाओं अधिकतम एवं न्यूनतम मात्रा एव व्ययों के आधार पर की जाती है, इसीलिए इसे विस्तार विधि (Range method) भी कहते है

परिवर्तनशीलता  की विधि (Degree of Variability Method) इस विधि के अन्तर्गत प्रत्येक व्यय की परिवर्तनशीलता की सीमा ज्ञात कर ली जाती है एवं तत्पश्चात उसी के आधार पर अध-परिवतनशाल उपारव्यय का कुल में से परिवर्तनशील उपरिव्ययों का भाग ज्ञात कर लेते हैं। इस विधि का प्रयोग तो सरल है परन्तु विभिन्न मदा का परिवर्तनशीलता का पता लगाना कठिन है।

(4) विक्षेप रेखाचित्र विधि (Scatter Graph Method) यह सहसम्बन्ध पर आधारित एक सांख्यिकीय विधि है। जिसके अन्तर्गत प्रदत्त समंकों को ग्राफ पर प्रांकित करके एक सर्वाधिक उपयुक्त रेखा (Line of best fit) खीच ला जाता ह।। बाद में इस रेखा के आधार पर स्थिर एवं परिवर्तनशील व्ययों का हिस्सा निश्चित कर लिया जाता है।

(5) न्यूनतम वर्ग रीति (Least Squares Method) यद्यपि यह पद्धति भी सर्वाधिक उपयुक्त रेखा पर ही आधारित है परन्तु ग्राफ न बनाकर एक रेखीय समीकरण का प्रयोग किया जाता है। (v=a + bx) तथा इस समीकरण में विभिन्न मूल्यों को प्रतिस्थापित करके सर्वोत्तम उपयुक्त रेखा प्राप्त कर ली जाती है। इसके अन्तर्गत उत्पादित इकाइयों को (x) तथा व्ययों को (y) मानकर निम्नलिखित दो युगपत् समीकरणों को हल करके तथा b के मान ज्ञात कर लिये जाते हैं। जिसमें a स्थिर उपरिव्यय प्रति इकाई व्यक्त करता है तथा b प्रति इकाई परिवर्तनशील व्यय को दर्शाता है। युगपत् समीकरण निम्न प्रकार हैं

उपरिव्ययों को स्थायी तथा परिवर्तनशील व्ययों में वर्गीकृत करने से लाभ

(1) इस प्रकार के वर्गीकरण से उपरिव्ययों के नियन्त्रण में सुविधा रहती है। स्थिर व्यय अधिकांशत: अनियन्त्रणीय होते हैं जबकि परिवर्तनशील व्ययों को नियन्त्रित किया जा सकता है।

(2) इस प्रकार के वर्गीकरण से लोचदार बजट बनाने में सहायता मिलती है। लोचदार बजट के अन्तर्गत उत्पादन के विभिन्न स्तरों पर लागतों का अनुमान लगाया जाता है जो स्थिर एवं परिवर्तनशील व्ययों के वर्गीकरण द्वारा ही सम्भव है।

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(3) यह सीमान्त लागत लेखांकन का आधार प्रस्तुत करता है चूँकि सीमान्त लागत विधि मुख्यतः स्थिर एवं परिवर्तनशील व्ययों के अन्तर पर ही आधारित है।

(4) इनके आधार पर ही समविच्छेद चार्टी का निर्माण सम्भव होता है।

(5) कुछ महत्वपूर्ण प्रबन्धकीय निर्णयों का आधार भी स्थिर एवं परिवर्तनशील व्यय ही होते हैं।

(6) उपरिव्ययों के अवशोषण में सुविधा रहती है।

(7) उत्पादन की इकाई लागत का विश्लेषण आसानी से हो जाता है

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Illustration 1.

एक वस्तु की 400 इकाइयाँ बनाने की उपरिव्यय लागत 1,600 ₹ है परन्तु यदि इस वस्तु की 600 इकाइयाँ बनायी जाये तो उपरिव्यय लागत 2,000 ₹ आती है। स्थिर एवं परिवर्तनशील उपरिव्यय लागत अलग-अलग ज्ञात करें।

The overhead cost of manufacturing 400 units of an article is₹ 1,600 but when 600 units of the same article is produced, the overhead cost is * 2,000. Segregate the fixed and variable part of overhead cost.

Solution :

Illustration 2.

1,000 इकाइयों की उत्पादन लागत इस प्रकार है- सामग्री 8.000₹. श्रम 6.000₹, उपरिव्यय (स्थिर व परिवर्तनशील) 4,000  कम्पनी 5,000 इकाइयाँ उत्पादित करती है तथा 20₹ प्रति इकाई की दर से विक्रय कर 20,000र का लाभ आजत करती है। स्थिर उपरिव्यय की राशि एवं प्रति इकाई परिवर्तनशील उपारण्यराशि एवं प्रति इकाई परिवर्तनशील उपरिव्यय ज्ञात कीजिये।

The cost of producing 1.000 units of a commodity is : material 8,000rs Wages 6,000rs overhead ( Fixed and variable )4,000. The company produces 5,000 units and sells it at 20rs each and makes a profit of 20,000 Find out  the amount of fixed overhead and variable overhead per unit.

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(5) सामान्यतयानुसार वर्गीकरण (Normalcy-wise Classification)-सामान्यतया के आधार पर उपरिव्ययों को दो भागों में बाँटा जा सकता है

(i) सामान्य उपरिव्यय (Normal Overheads)

(ii) असामान्य उपरिव्यय (Abnormal Overheads)| |

सामान्य उपरिव्यय (Normal Overheads) सामान्य दशाओं में सामान्य उत्पादन पर होने वाले व्ययों को सामान्य व्यय कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, ऐसे व्यय जिन्हें सामान्य परिस्थितियों में एक निश्चित उत्पादन प्राप्त करने के लिए अनिवार्य रूप से करना पड़ता है, सामान्य व्यय कहलाते हैं। इन्हीं व्ययों को वस्तु की उत्पादन लागत में सम्मिलित करना चाहिए।

असामान्य उपरिव्यय (Abnormal Overheads) यह व्यय अप्रत्याशित तथा आकस्मिक होता है। दूसरे शब्दों में, ऐसे व्यय जो विशेष परिस्थितियों तथा हानियों के कारण असाधारण रूप से बढ़ जाते हैं, असामान्य उपरिव्यय कहलाते हैं। उदाहरणार्थ, आग लगने, चोरी होने, मशीन खराब हो जाने, पावर सप्लाई ofoबन्द हो जाने, हड़ताल व तालाबन्दी, आदि के कारण होने वाले व्यय असामान्य उपरिव्यय के प्रमुख मद हैं। इस प्रकार के बढ़े हुए असाधारण व्ययों को उत्पादित वस्तु की उत्पादन लागत में न जोड़कर लाभ-हानि खाते में ले जाना चाहिए।

(II) उपरिव्ययों का सांकेतिक लिपिकरण/संकेतांक/संख्यांकन

(Codification of Overheads)

 उपरिव्ययों के संग्रहण में सरलता एवं वर्गीकरण में समानता व शुद्धता लाने के लिए उपरिव्ययों का संख्यांकन आवश्यक है। प्रत्येक उपरिव्यय की मद का उचित रूप से विश्लेषण करके उसको अपने शीर्षक में लिख दिया जाता है तथा उसे एक संख्या प्रदान की जाती है। संक्षेप में, उपरिव्यय का प्रत्येक मद का एक सांकेतिक नाम अक्षर या नम्बर देने की पदति को सांकेतिक लिपिकरण/संकेतांक/संख्यांकन कहते है। इससे लागत लख रखना सरल हो जाता है और लागत लेखों में गोपनीयता बनी रहती है क्योंकि यदि किसी व्यक्ति को प्रत्येक प्रकार के व्यय का सकताक मालूम न हो तो वह लागत सम्बन्धी पर्ण जानकारी प्राप्त नहीं कर सकता है। संकेतांक अग्रलिखित दो प्रकार के होते हैं

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(अ) स्थायी आदेश सख्याएँ (Standing Order Numbers)-कारखाना उपरिव्यय की मदों को दिये जाने वाले। संकेत चिन्ह स्थायी आदेश संख्या (Standing order Numbers) कहलाते हैं।

(ब) लागत लेखा संख्याएँ (Cost Account Numbers) प्रशासन एवं विक्रय और वितरण उपरिव्ययों को दिए जाने वाले संकेत चिन्ह लागत लेखा संख्या (CostAccount Numbers) कहलाते हैं ।

संकेतांक निर्धारित करते समय मख्य रूप से निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए

(i) समान प्रकार के खर्चों के लिए एक ही शीर्षक होना चाहिए।

(ii) शीर्षकों की स्थिति एवं क्षेत्र स्पष्ट होना चाहिए।

(iii) शीर्षकों की संख्या उचित होनी चाहिए अर्थात् न तो कम हो और न ही ज्यादा।।

(iv) शीर्षकों को आसानी से पहचानने के लिए संकेत दे देने चाहिये।।

खर्चों के ये सांकेतिक नम्बर जिस क्रमांक में दिये जाते हैं ये क्रमांक स्थाई रहते हैं और इनको रिकार्ड करने के लिए एक छोटी पुस्तक या रजिस्टर बनाया जाता है जिसे Manual कहते हैं। इससे इन कोड नम्बर को स्थाई तौर पर दिन प्रतिदिन के प्रयोग के लिए लिखा जाता है।

सांकेतिक लिपिकरण की विधियाँ

(Methods of Codification

(iv) चिन्ह (Symbols)—यह पद्धति उन संस्थाओं में प्रयुक्त होती है जहाँ पर लागत खातों का मशीनीकरण या कम्प्यूटरीकरण हुआ है, और जहाँ पर पंच कार्डो (सुराख वाले कार्ड) का प्रयोग होता है। इन 9 अंकों वाले पंच कार्डों को चार भागों में विभाजित किया जाता है

पहले दो अंक उपरिव्यय के वर्ग को बताते हैं (जैसे—स्थिर या परिवर्तनशील) तीन अंकों का दूसरा भाग मुख्य उपरिव्यय को दर्शाता है (जैसे व्यर्थ समय Idle Time) दो अंकों का तीसरा भाग खर्चे का विश्लेषण करता है (जैसे सामग्री का इन्तजार Waiting for Material) दो अंकों का चौथा भाग लागत केन्द्र के बारे में दर्शाता है (जैसे जोड़ने वाली दुकान Assembly Shop)

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(III) उपरिव्ययों का संग्रहण

(Collection of Overheads)

जैसा कि पूर्व में बताया जा चुका है कि उपरिव्ययों का संग्रहण विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया जाता है । संग्रहण के लिए शीर्षक चुनते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए ─

(1) समान प्रकृति के खर्चों के लिए एक ही शीर्षक होना चाहिए।

(2) शाषको की स्थिति एवं क्षेत्र (Area) स्पष्ट रूप से परिभाषित होना चाहिए। मिलते-जुलते शीर्षक नहीं रखने चाहिए,

चों को भिन्न-भिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत एकत्रित होने का भय रहता है।

(3)शीर्षकों की सख्या इतनी कम नहीं होनी चाहिए कि विभिन्न प्रकति के सौदों को भी एक शीर्षक में सम्मिलित करना पड़।

(4) शीर्षकों की संख्या इतनी अधिक नहीं होनी चाहिए कि संग्रह का कार्य जटिल हो जाये।

(5) शीर्षकों को आसानी से पहचानने योग्य बनाने के लिए संकेत संख्या दे देनी चाहिए।

(6) संकेत संख्या दो दशमलव बिन्दओं में दी जानी चाहिए ताकि भविष्य में शीर्षकों के बढ़ने पर संकेत संख्या में आसानी से वृद्धि की जा सके।

उपरिव्ययों का संग्रहण निम्नलिखित प्रपत्रों की सहायता से किया जाता है

(1) सामग्री मांग-पत्र (Stores Requisition Slip) इसकी सहायता से अप्रत्यक्ष सामग्री की मदों का संग्रहण किया जाता है।

(2) उपकार्य पत्रक (Job Card)-उपकार्य पत्रकों का विश्लेषण करके अप्रत्यक्ष मजदूरी की मदों को एकत्रित किया जाता है।

(3) रोकड़ बहीं (Cash Book) रोकड़ बहीं का विश्लेषण करके कुछ फुटकर व्ययों को समुचित शीर्षकों के अन्तर्गत संग्रहीत किया जा सकता है।

(4) अन्य रजिस्टर तथा प्रतिवेदन (Other Registers and Reports) अप्रत्यक्ष व्ययों की कुछ मदों की राशि जैसे,ह्रास, दूषित कार्य , कार्यहीन समय, आदि की सूचनाएँ सम्बन्धित प्रतिवेदनों से एकत्रित की जाती हैं।

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उपरिव्ययों की विभिन्न मदों के वर्गीकरण, संख्यांकन तथा संग्रहण के पश्चात् उपरिव्ययों को उत्पादित वस्तुओं, उपकार्यों अथवा विभिन्न विभागों पर वितरित किया जाता है. जिससे प्रत्येक वस्त, उपकार्य या विभाग की कुल लागत का सहीं निर्धारण हो सके। उपरिव्ययों को विभिन्न लागत केन्द्रों पर प्रभारित एवं वितरित करने की प्रक्रिया निम्नलिखित दो चरणों में पूरी होती है

(1) उपरिव्ययों का विभागीयकरण (Departmentalisation of Overheads)

(2) उपरिव्ययों का अवशोषण (Absorption of Overheads)

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उपरिव्ययों  का विभागीयकरण

(Departmentalisation of Overheads)

 इसके अन्तर्गत कुल उपरिव्ययों का उत्पादन विभाग व सेवा विभाग में आबंटन (वितरण) तथा अनुभाजन (Allocation and Apportionment) किया जाता है। विभागों को लागत केन्द्रों के नाम से भी जाना जाता है। उत्पादन केन्द्र में वस्तु का उत्पादन कार्य सम्पन्न होता है जबकि सेवा केन्द्र उत्पादन केन्द्रों को उत्पादन करने में सहायक सेवाएँ देते हैं। कारखाने में एक ही लागत केन्द्र होने पर उपरिव्ययों को अनुभाजित करने की आवश्यकता नहीं होती जबकि एक से अधिक लागत केन्द्रों की दशा में कुल उपरिव्ययों को किसी उचित आधार पर विभिन्न लागत केन्द्रों में अनुभाजित करना पड़ता है। सेवा केन्द्रों के उपरिव्ययों को भी उत्पादन केन्द्रों को दी गई सेवाओं के आधार पर पुनः विभिन्न उत्पादन केन्द्रों में अनुभाजित किया जाता है। ताकि प्रत्येक उत्पादन विभाग के कुल उपरिव्ययों की रकम ज्ञात हो सके। संक्षेप में, उपरिव्ययों के विभागीयकरण की प्रक्रिया को निम्नलिखित तीन चरणों में विभक्त किया जा सकता है ।

(अ) उपरिव्ययों का आबंटन (वितरण) (Allocation of Overheads);

(ब) उपरिव्ययों का अनुभाजन (Apportionment of Overheads);

(स) सेवा विभाग के उपरिव्ययों का पुन: अभिभाजन (Re-apportionment of overheads of Service Department)

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(अ) उपरिव्ययों का आबंटन (वितरण)

(Allocation of Overheads)

ऐसे उपरिव्यय जिन्हें स्पष्ट रूप से किसी विभाग या लागत केन्द्र से सम्बन्धित किया जा सकता है उन्हें उसी विभाग या लागत केन्द्र पर डालना अथवा चार्ज करना उपरिव्ययों का आबंटन कहलाता है। दूसरे शब्दों में, उपरिव्ययों के आबंटन का अभिप्राय ऐसे व्ययों से है जो प्रत्यक्ष रूप से किसी केन्द्र अथवा विशिष्ट विभाग के लिए किये गये हो अथवा जिनको सही राशि उस विभाग के लिए ज्ञात हो सके, जैसे, विक्रय विभाग के टेलीफोन का बिल विक्रय उपरिव्यय में डाला जायेगा; बिजली एवं शक्ति व्यय जहाँ प्रत्येक विभाग में अलग-अलग मीटर हो। जिन व्ययों का प्रत्यक्ष रूप से आबंटन किया जा सकता है उनका अनुभाजन नहीं किया जाता है।

उपरिव्ययों के वर्गीकरण एवं आबंटन में अन्तर

(Difference between Classification and Allocation of Overheads)

उपरिव्ययों के वर्गीकरण का उद्देश्य संस्था के कार्यों, व्ययों की प्रकृति अथवा उनके आचरण के अनु अलग-अलग वर्ग या समूह निर्धारित करना है जबकि उपरिव्ययों के आबंटन का उद्देश्य उपरिव्यय के किसी मद की सम्पूर्ण अथवा आंशिक राशि को विशिष्ट विभाग अथवा विशिष्ट लागत केन्द्र को प्रभारित करना है।

Bcom 2nd Year Cost Accounting Classification and Departmentalisation Study Material Notes in Hindi

(ब) उपरिव्ययों का अनुभाजन

(Apportionment of Overheads)

कुछ उपरिव्यय किसी एक विभाग या लागत केन्द्र से सम्बन्धित न होकर अनेक लागत केन्द्रों या विभागों से सम्बन्धित होते हैं। ऐसे उपरिव्ययों को किसी उचित आधार पर सम्बन्धित विभागों या लागत केन्द्रों में बॉटना आवश्यक हो जाता है ताकि प्रत्येक विभाग अथवा लागत केन्द्र से सम्बन्धित उपरिव्यय ज्ञात हो सकें। इसे ही उपरिव्ययों का अनुभाजन कहते हैं। सरल शब्दों में, उपरिव्यय अभिभाजन विभिन्न लागत केन्द्रों तथा लागत विभागों में कुल उपरिव्यय का आनुपातिक वितरण है। उदाहरणार्थ, कारखाने का किराया सभी विभागों से सम्बन्धित होता है, कैण्टीन सभी विभागों के कर्मचारियों की सेवा करती है, प्रबन्धक सभी विभागों का प्रबन्ध करता है, अत: उक्त उपरिव्ययों को किसी उचित आधार पर विभिन्न लागत केन्द्रों अथवा विभागों में बाँटना हीं अभिभाजन या अनभाजन की प्रक्रिया है।

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उपरिव्ययों के आबंटन व अनुभाजन में अन्तर

(Difference between Allocation and Apportionment of Overheads)

सामान्यत: उपरिव्ययों के आबंटन एवं अनुभाजन को एक-दूसरे के पर्यायवाची के रूप में प्रयोग किया जाता है परन्तु दोनों के उपरोक्त वर्णित अर्थ के आधार पर निम्न अन्तर स्पष्ट होते हैं

(1) जब उपरिव्यय किसी विशेष विभाग या लागत केन्द्र से ही सम्बन्धित हों तो उपरिव्ययों का आबंटन किया जाता है जबकि अनेक लागत केन्द्रों या विभागों से सम्बन्धित होने पर अनुभाजन करते हैं।

(2) आबंटन के लिए किसी उचित आधार की आवश्यकता नहीं होती जबकि अभिभाजन (अनुभाजन) के लिए उचित व न्यायसंगत आधार का होना परम आवश्यक है।

उपरिव्ययों के अनुभाजन सम्बन्धी सिद्धान्त (Principles of Overheads Apportionment)

उपरिव्ययों के अनुभाजन के लिए उचित आधार का चुनाव करने में उपरिव्ययों के अनुभाजन सम्बन्धी सिद्धान्त बहुत ही उपयोगी होते हैं। सामान्यत: उपरिव्ययों के अनुभाजन हेतु अनेक आधारों का प्रयोग किया जाता है। वस्तुत: किसी व्यावसायिक संस्था के व्ययों की प्रकृति एवं आचरण को ध्यान में रखकर ही अनुभाजन हेतु उपयुक्त आधार का चुनाव करना चाहिए। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित सिद्धान्तों को विशेष रूप से ध्यान में रखना चाहिए─

(1) सेवा या उपयोग विधि (Service or Use Method) इस सिद्धान्त के अनुसार उपरिव्ययों का अनुभाजन प्रत्येक विभाग द्वारा प्राप्त सेवा या उपयोग के अनुसार होना चाहिए। यदि सेवा या उपयोग किसी विशेष विभाग द्वारा ही प्राप्त की गई है तो किये गये व्यय की पूर्ण राशि उसी विभाग पर चार्ज की जानी चाहिए। दूसरी ओर यदि सेवा विभिन्न विभागों द्वारा प्राप्त की गई है तो उस व्यय की राशि को किसी उचित आधार पर उपयोग या सेवा प्राप्त करने वाले सभी विभागों पर वितरित कर देना चाहिए। उदाहरणार्थ, भवन का किराया प्रत्येक विभाग द्वारा घेरे गये क्षेत्रफल के आधार पर व श्रम कल्याण व्ययों को कर्मचारियों की संख्या के आधार पर अनुभाजित किया जा सकता है। इस प्रकार विभिन्न व्ययों को बाँटने हेतु विभिन्न आधार अपनाये जा सकते हैं जिनमें से कुछ प्रमुख आधारों का वर्णन इस प्रकार है

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(i) सम्पत्ति मूल्यांकन का आधार-यह आधार विशेष रूप से उन उपरिव्ययों के अनुभाजन के लिए अपनाया जाता है जिनका सम्बन्ध सम्पत्ति के मूल्य से है या जिनकी गणना सम्पत्ति के मूल्यों के आधार पर की गई है। उदाहरणार्थ, सम्पत्तियों के बीमा प्रीमियम, सम्पत्तियों के ह्रास, आदि को विभिन्न विभागों द्वारा प्रयुक्त सम्पत्तियों के पूँजी मूल्यों के आधार पर अभिभाजित किया जा सकता है।

(ii) घेरे गए क्षेत्रफल का अनुपात-इस आधार के अन्तर्गत उपरिव्ययों को विभिन्न विभागों द्वारा घेरे गये क्षेत्रफल के अनुपात में बाँटा जाता है। यह आधार ऐसे व्ययों के लिए अधिक उपयुक्त है जो क्षेत्रफल से अधिक प्रभावित होते है जैसे। भवन का किराया, भवन की मरम्मत बिजली व्यय (यदि प्रत्येक विभाग में अलग-अलग मीटर न हो)

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(1) कर्मचारियों की संख्या का आधार-ऐसे व्यय जो श्रमिकों की संख्यानसार घटते या बढ़ते हैं, विभिन्न विभागों में का सख्या के आधार पर विभाजित किये जा सकते हैं। उदाहरणार्थ, श्रम कल्याण के व्यय, मनीरजन व्यय, कण्टीना व्यय, औषधालय, आदि के व्यय।

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V) प्रत्यक्ष श्रम घण्टों का आधार-ऐसे व्यय जो श्रमिकों की देख-रेख से सम्बन्धित होते हैं या श्रम घोंसत होता है, प्रत्यक्ष श्रम घण्टों के अनपात के आधार पर वितरित किये जा सकते हैं। उदाहरणार्थ, कारखाने के प्रबन्धको का पारामक, पर्यवेक्षण व्यय, प्रयोग व अनसन्धान सम्बन्धी व्यय। यदि प्रश्न में प्रत्यक्ष श्रम घण्ट सम्बन्धी सूचना न दी हो। तो ऐसे व्ययों को श्रमिकों की संख्या के आधार पर वितरित किया जा सकता है।

(v) मशीन उत्पादन घण्टों का आधार-जहाँ उत्पादन के लिए मशीनों का प्रयोग अधिक किया जाता है तो ऐसे उपारव्यय जो कि मशीनों के संचालन से सम्बन्धित होते हैं. का विभाजन विभागीय मशीन घण्टा के अनुपात म करना चाहिए। उदाहरणार्थ, शक्ति व्यय, मशीनों की मरम्मत व अनुरक्षण का व्यय तथा मशीनों के हास, आदि का अभिभाजन विभागीय मशीन घण्टों के आधार पर किया जा सकता है।

(vi) विभागीय मजदरी का आधार-जहाँ व्यय मजदरी की राशि के अनुसार घटते-बढ़ते हैं, उन्हें विभागीय मजदरी के। अनुपात में विभाजित करना चाहिए। उदाहरणार्थ, श्रमिकों को देय क्षतिपूर्ति की राशि, भविष्य निधि में नियोक्ता का अंशदान, बीमा प्रीमियम तथा कारखाना प्रबन्ध व्यय, आदि।

(2) सर्वक्षण या विश्लेषण विधि (Survey or Analysis Method)-कुछ दशाओं में विभिन्न विभागों द्वारा प्राप्त की जाने वाला सेवा या उपयोगिता का सहीं माप ज्ञात करना सम्भव नहीं होता है। ऐसी स्थिति में सर्वेक्षण अथवा विश्लेषण द्वारा उपारव्यया का विभिन्न विभागों में प्रभाव व उनके योगदान को ज्ञात किया जाता है व इसी आधार पर उपरिव्ययों का अनभाजन। कर दिया जाता है।

(3) भुगतान करने की क्षमता विधि (Ability to Pay Method) इस रीति के अन्तर्गत उपरिव्ययों का अनुभाजन विभिन्न विभागों की भुगतान करने की क्षमता के आधार पर किया जाता है। भुगतान क्षमता का आकलन विभिन्न विभागों की बिक्री या लाभ के आधार पर किया जाता है। इस विधि का सबसे बड़ा दोष यह है कि उपरिव्ययों का विभाजन वास्तविकता के आधार पर नहीं किया जाता है। यदि किसी विभाग के लाभ ज्यादा हैं परन्तु वास्तविक व्यय कम हैं तो भी उस विभाग को अधिक व्यय ही वहन करने होंगे क्योंकि उसके लाभ ज्यादा हैं। इस कमी के कारण ही इस विधि का बहुत कम प्रयोग होता है।

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि एक ही व्यय को विभिन्न विभागों में बाँटने के लिए कई आधार उपलब्ध हो सकते हैं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि विभिन्न विभागों में किसी व्यय का वितरण करने के लिए उचित रीति एवं आधार का ही उपयोग किया जाये, जिससे लागत इकाइयों पर उपरिव्ययों का उचित अंश ही चार्ज किया जा सके और उत्पादित वस्तु या उपकार्य की सहीं लागत ज्ञात की जा सके।

(स) सेवा विभाग के उपरिव्ययों का पुन : अनुभाजन

(Re-Apportionment of Service Department overheads)

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सेवा विभाग स्वयं विक्रय हेतु कोई उत्पादन नहीं करते, वरन् यह विभाग उत्पादन विभाग को उत्पादन प्रक्रिया में अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं। दूसरे शब्दों में, सेवा विभाग दूसरे विभागों के विक्रय योग्य उत्पादन में सहायता प्रदान करते हैं। इस प्रकार सेवा विभाग से सम्बन्धित उपरिव्ययों की राशि को विभिन्न उत्पादन विभागों में विभाजित करने की समस्या सामने आती है। अत: जो उत्पादन विभाग जिस-जिस सेवा विभाग की सेवाओं का उपयोग करता है उस सेवा की प्रकृति एवं मात्रा के आधार पर सेवा विभागों के उपरिव्ययों का अनुभाजन विभिन्न उत्पादन विभागों पर आवश्यक हो जाता है ताकि प्रत्येक उत्पादन विभाग के कुल उपरिव्ययों की राशि ज्ञात हो सके। सेवा विभाग के उपरिव्ययों को विभिन्न उत्पादन विभागों में पुनः अभिभाजित करने के लिए निम्नलिखित आधारों का अनुसरण किया जा सकता है

(1) सेवा के घण्टों के आधार पर-जिन सेवा विभागों में निर्माण सम्बन्धी किसी सेवा की व्यवस्था की जाती है, जैसे, इन्जीनियरिंग उद्योग में खराद (Lathe) का कार्य, ड्रिलिंग (Drilling) का कार्य, इलेक्ट्रोप्लेटिंग का कार्य, आदि। ऐसे सेवा विभागों के निश्चित अवधि के कुल व्यय को इनके द्वारा लगाये गये कुल कार्य के घण्टों से भाग देकर सेवा विभाग की सेवा घण्टा दर निर्धारित कर ली जाती है और जो-जो उत्पादन विभाग इनकी सेवाओं का जितने घण्टे उपयोग करता है उतने घण्टे । का निश्चित दर से व्यय आगणित कर लिया जाता है। ।

(2) सेवा इकाई के आधार पर- जिन सेवा विभागों की सेवा का माप इकाइयों में किया जाता है, जैसे विद्युत सप्लाई, जल पूर्ति आदि, उन विभागों में प्रति सेवा इकाई दर ज्ञात कर ली जाती है। निश्चित अवधि के कुल व्यय को उस अवधि में निर्मित सेवा इकाइयों से भाग करके यह दर ज्ञात की जाती है। जो उत्पादन विभाग जितनी सेवा इकाइयों का उपयोग करता है. उसी के आधार पर सेवा विभाग के व्ययों का अनुभाजन कर दिया जाता है।

(3) सामग्री की इकाइयों के आधार पर-कुछ सेवा विभाग ऐसे होते हैं जिनकी सेवा उत्पादन विभागों में उपयोग की गई। सामग्री पर निर्भर करती है। इन सेवा विभागों में स्टोर सेवा, आन्तरिक यातायात, क्रय विभाग, आदि सम्मिलित किये जा सकते हैं। इन विभागों के कल व्यय का विभाजन उत्पादन विभागों में उनके द्वारा उपयोग की गई सामग्री की इकाइयों अथवा सामग्री के वजन के अनुपात में किया जाता है।

4) संयन्त्रों के मूल्य के आधार पर-औजार सेवा, मरम्मत एवं नवीनीकरण, वर्कशॉप सेवा, आदि ऐसे विभाग हैं जो उत्पादन विभागों के संयन्त्रों को चाल रखने में सहायता प्रदान करते हैं। ऐसे सेवा विभागों के कल व्यय को जब सेवा के घण्टों के आधार पर बाँटना सम्भव नहीं होता तो उन्हें विभिन्न उत्पादन विभागों के संयन्त्रों के मूल्य के अनुपात में विभाजित कर दिया जाता है।

(5) कर्मचारियों की संख्या के आधार पर-चिकित्सा, मनोरंजन एवं कैण्टीन सम्बन्धी सेवा विभागों के कुल व्ययों को। विभिन्न उत्पादन विभागों में, उत्पादन विभागों के कर्मचारियों की संख्या के आधार पर विभाजित किया जाता है क्योंकि ये सेवा। विभाग के कर्मचारियों से प्रत्यक्ष रूप में सम्बन्ध रखते हैं।

(6) उत्पादित इकाइयों के आधार पर-अनुसन्धान, योजना, डिजाइन, पैकिंग, आदि विभागों के कल व्ययों को विभिन्न उत्पादन विभागों में उत्पादित इकाइयों की संख्या के अनुपात में वितरित किया जाता है।

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chetansati

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