BCom 1st year Business Environment Monetary Fiscal Policy Study Material Notes in Hindi

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BCom  1st Year Business Environment Monetary Fiscal Policy Study Material Notes in Hindi

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Monetary Fiscal Policy Study
Monetary Fiscal Policy Study

BCom 1st Year Business Environment Industrial Sickness Study Material Notes in Hindi

मौद्रिक और राजकोषीय नीति

[MONETARY AND FISCAL POLICY]

मौद्रिक और राजकोषीय नीति का अर्थ

(MEANING OF MONETARY AND FISCAL POLICY)

मौद्रिक नीति आर्थिक नीति का वह भाग है जो मुद्रा की पूर्ति या तरलता को प्रभावित करके वांछित आर्थिक उद्देश्यों; जैसे मुद्रास्फीति, भुगतान सन्तुलन, रोजगार और राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर को प्राप्त करने का प्रयास करती है। यह नियन्त्रण एवं नियमन का परोक्ष हथियार है।

मौद्रिक नीति के विपरीत राजकोषीय नीति नियन्त्रण का प्रत्यक्ष यन्त्र है। यह आर्थिक नीति का वह भाग है जहां करारोपण, लोक व्यय तथा लोक ऋण में परिवर्तन के माध्यम से वांछित आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने की कोशिश की जाती है।

Business Environment Monetary Fiscal

भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति

(MONETARY POLICY OF R.B.I.)

परम्परागत रूप से केन्द्रीय बैंक ने मूल्य स्थिरता तथा आर्थिक वृद्धि इन दोहरे उद्देश्यों को आगे बढ़ाया है। इन बुनियादी उद्देश्यों को आगे बढ़ाते हुए केन्द्रीय बैंकों में विदेशी मुद्रा विनिमय दर की स्थिरता तथा वित्तीय स्थिरता की चिन्ता को भी ध्यान में रखा है। अनेक प्रमुख केन्द्रीय बैंक, जैसे—यूरोपीयन केन्द्रीय बैंक, बैंक ऑफ इंग्लैण्ड, बैंक ऑफ जापान, आदि मूल्य स्थिरता को मौद्रिक नीति का एकमात्र उद्देश्य मानते हैं। इनके विपरीत अमरीका का फेडरल रिजर्व बैंक (वहां का केन्द्रीय बैंक) अनेक उद्देश्यों को आगे बढ़ा रहा है, जैसे—(क) अधिकतम रोजगार, (ख) स्थिर मूल्य, और (ग) सन्तुलित दीर्घावधि ब्याज दर। अनेक विकासशील देशों के केन्द्रीय बैंकों ने विदेशी मुद्रा विनिमय दर प्रबन्धन को एक और महत्वपूर्ण नीतिगत उद्देश्य बनाया हुआ है। हाल के वर्षों में, विशेषकर 1990 के दशक के वित्तीय संकट के पश्चात् वित्तीय स्थिरता की चिन्ता केन्द्रीय बैंक की गतिविधियों का आवश्यक भाग बन गया है।’

क्रिया पद्धतिरिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति की विवेचना करने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि मौद्रिक नीति का संचारण यन्त्र (Transmission Instrument) क्या है? मौद्रिक नीति के अल्पकालीन तथा दीर्घकालीन प्रभाव होते हैं। यह अर्थव्यवस्था के वास्तविक क्षेत्र को लम्बे विलम्ब से प्रभावित करता है, किन्त मौद्रिक नीति की क्रियाओं का प्रभाव वित्तीय बाजार पर अल्पकाल में पड़ता है।

मौद्रिक नीति के चार संचारण चैनल (channels) की अक्सर चर्चा होती है। ये हैं :

(1) परिमाणात्मक चैनल (Quantum Channel) यहां मौद्रिक नीति का प्रभाव वास्तविक उत्पत्ति तथा कीमत स्तर पर प्रत्यक्ष रूप से रिजर्व मुद्रा, मुद्रा स्टॉक या समग्र साख में परिवर्तन के माध्यम से पड़ता है।

(2) ब्याज दर चैनल (Interest Rate Channel) यहां मौद्रिक नीति परोक्ष रूप से ब्याज की दर को प्रभावित करके वास्तविक क्रियाओं को प्रभावित करती है।

(3) विनिमय दर चैनल (Exchange Rate Channel)-यहां भी मौद्रिक नीति का प्रभाव परोक्ष रूप से विनिमय दर में परिवर्तन के माध्यम से वास्तविक उत्पत्ति पर पड़ता है। 1 वाई. वी. रेड्डी, मौद्रिक नीति एक रूपरेखा, भारतीय रिजर्व बैंक बुलेटिन, नई 2005, p. 220.

(4) सम्पत्ति की कीमत चैनल (Assets Prices Channel) यहां भी मौद्रिक नीति परोक्ष रूप से सम्पत्ति की कीमतों में परिवर्तनों द्वारा उत्पत्ति को प्रभावित करती है।

मौद्रिक नीति का वस्तुतः कैसा प्रभाव पड़ता है इसकी रूपरेखा तैयार करना मुश्किल होता है, क्योंकि अर्थव्यवस्था पर अनेक प्रकार की अनिश्चितता का असर पड़ता है। जैसे—मौद्रिक नीति में परिवर्तन की क्या । प्रतिक्रिया होगी? मान लें कि मुद्रा की पूर्ति केन्द्रीय बैंक द्वारा बढ़ा दी जाती है। क्या इससे ब्याज दर में कमी आएगी? अनिश्चितता (uncertainty) का दूसरा उदाहरण लें। मुद्रा स्फीति में वृद्धि को देखते हुए क्या माद्रिक अधिकारी के लिए सम्भव है कि वह मद्रा की पूर्ति में कितनी कमी की आवश्यकता होगी उसका सही-सही अनुमान लगाए। विकासशील देशों के लिए ऐसा अनुमान लगाना और भी कठिन है, क्योंकि यहां अर्थव्यवस्था की संरचना में लगातार महत्वपूर्ण परिवर्तन होते रहते हैं जिससे मौद्रिक नीति के संचारण यन्त्र में लगातार विकास होता है।

रिजर्व बैंक1934 में भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना हुई। 1934 के भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम में रिजर्व बैंक के उद्देश्यों को इस प्रकार निर्धारित किया है, “बैंक नोटों के निर्गम को विनियमित करना तथा भारत में मौद्रिक स्थिरता बनाए रखने की दृष्टि से प्रारक्षित निधियां (reserve fund) रखना तथा आम तौर पर देश की मुद्रा और ऋण प्रणाली का परिचालन देश के हित में करना।” रेड्डी (रिजर्व बैंक के गवर्नर) का कहना है कि हालांकि इसमें मूल्य स्थिरता के लिए कोई स्पष्ट आदेश नहीं दिया गया है, परन्तु जैसा कि अनेक देशों में चालू प्रवृत्ति है, भारत में भी मौद्रिक नीति के उद्देश्य मूल्य स्थिरता बनाए रखना तथा अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों को ऋण का पर्याप्त प्रवाह सुनिश्चित करने के रूप में विकसित हुए हैं। सारांश रूप में, मौद्रिक नीति का उद्देश्य मूल्य स्थिरता तथा आर्थिक वृद्धि पर तुलनात्मक बल देना समय विशेष में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर करता है। उसे रिजर्व बैंक की समय-समय पर की गई मौद्रिक नीति सम्बन्धी घोषणाओं में व्यक्त किया जाता है।

1951 से भारत में योजना के माध्यम से आर्थिक विकास की प्रक्रिया शुरू हुई। इसलिए आयोजित विकास की गति एवं पैटर्न के अनुसार मौद्रिक नीति में समायोजन की आवश्यकता हुई। 1952 से मौद्रिक नीति के निम्न दो लक्ष्य रहे हैं :

(1) राष्ट्रीय आय में वृद्धि करने के लिए आर्थिक विकास की दर को तेज करना तथा

(2) स्फीतिक दबाव पर नियन्त्रण।

प्रथम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि आवश्यक है ताकि निवेश की बढ़ती मांग तथा अर्थव्यवस्था के बढ़ते मुद्रीकरण की जरूरत को पूरा किया जा सके। साथ ही, कीमतों को बढ़ने से रोकना भी है। इसलिए रिजर्व बैंक ने ‘नियन्त्रित साख विस्तार’ (Controlled Credit Expansion) की नीति को अपनाया। इसने कोशिश की है कि मुद्रा का उचित विस्तार हो ताकि विकासमान अर्थव्यवस्था की बढ़ती आवश्यकता को पूरा किया जा सके।

विकासशील अर्थव्यवस्था में बचत की निम्न दर तथा निवेश के विस्तृत अवसरों के कारण साख सृजन तथा मौद्रिक विस्तार के लिए हमेशा दबाव रहता है। साथ ही अर्थव्यवस्था का लगातार बढ़ता मुद्रीकरण होता है। इन दोनों समस्याओं को ध्यान में रखते हुए रिजर्व बैंक ने अपनी मौद्रिक नीति का संचालन किया है। जिसमें नियमन (regulatory) के साथ-साथ प्रोत्साहक (promotional) की भूमिका भी निभाई है।

इस भूमिका के निर्वाह के लिए रिजर्व बैंक ने बैंक दर, खुले बाजार की क्रिया, रिजर्व आवश्यकता की दर में परिवर्तन के साथ चयनात्मक साख नियन्त्रण विधि का भी उपयोग किया है। मौद्रिक नीति का प्रभाव। मुद्रा की लागत (ब्याज दर) तथा उपलब्धता (मुद्रा पूर्ति) के माध्यम से पड़ता है।

बैंक दर (Bank Rate) रिजर्व बैंक इसी दर पर बैंकों को बड़ी अवधि के कर्ज प्रदान करता है। यह । केन्द्रीय बैकों की रिफरेन्स दर है। 1934 में रिजर्व बैंक की स्थापना से लेकर नवम्बर 1953 तक बैंक दर को 3 प्रतिशत की निम्न दर पर अपरिवर्तित रखा गया, लेकिन नवम्बर 1953 में इसे बढ़ाकर 3.5 प्रतिशत किया। गया और तब से इसमें अनेक बार परिवर्तन किए गए हैं। जुलाई 1974 में इसे 9 प्रतिशत कर दिया गया। तथा जलाई 1981 में 10 प्रतिशत। इसका कारण यह था कि 1970 के दशक से कीमतों पर दबाव बढ़ने लगा। बैंक दर गति निर्धारक’ (Pace Setter) है इस अर्थ में कि व्याज की अन्य बाजार दरें तथा मुद्रा बाजार दरे बैंक दर में परिवर्तन के अनुसार प्रायः अपने आप बदल जाती हैं।

भारतीय आर्थिक सर्वेक्षण 1997-98) का कहना है कि रिजर्व बैंक ने बैंक दर को नीति यन्त्र (Policy instrument) के रूप में मजबत बनाया है ताकि यह रिजर्व बैंक की मौद्रिक एवं साख नीति के संकेतों का संचारण कर सके। वित्तीय बाजारों की व्याज दरों के लिए यह प्रेषण दर (reference rate) भी है। प्रषण । दर की आवश्यकता इसलिए उठ खड़ी हुई है क्योंकि नीति में एक बदलाव आया है। प्रशासनिक ब्याज दर तथा रिजर्व आवश्यकताओं की प्रत्यक्ष विधियों के स्थान पर खुले बाजार की क्रिया जैसी परोक्ष विधि का उपयोग बढ़ गया है। इसलिए बैंक दर को फिर से क्रियाशील (reactivate) किया गया है ताकि साख नियन्त्रण की परोक्ष विधियों का यह परक हो सके। 15 अप्रैल 1997 से रिजर्व बैंक से प्राप्त सभी अग्रिमों को बैंक दर के साथ जोड़ दिया गया। अप्रैल, जून तथा अक्टूबर 1997 में एक-एक प्रतिशत कमी बैंक दर में की गई। लेकिन जनवरी 1998 में बैंक दर को 9 प्रतिशत से बढ़ाकर 11 प्रतिशत कर दिया गया। अप्रैल 1998 में इसे घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया गया। इसके बाद बैंक दर में और भी कमी की गई। अक्टूबर 2001 में यह मात्र 6.5 प्रतिशत थी। RBI बुलेटिन (मई 2002) के अनुसार बैंक दर मई 2002 में भी इसी स्तर अर्थात् 6.5 प्रतिशत पर स्थिर थी।

2002-03 की मीद्रिक तथा साख नीति का विवरण प्रस्तुत करते हुए रिजर्व बैंक के गवर्नर बिमल जालान का कहना था कि अभी बाजार में अतिरिक्त तरलता है। यदि स्थिति ऐसी ही रही तथा मद्रा स्फीति निम्न स्तर पर बनी रही तो बैंक दर में 0.5 प्रतिशत की कटौती कर इसे 6.0 प्रतिशत पर लाने पर विचार किया जा सकता है (RBI Bulletin, May 2002, Supplement, p. 16)| ध्यान देने योग्य है कि अभी बैंक दर एक उचित संकेत (signal) दर के रूप में उभरी है। 10 जनवरी, 2003 को बैंक दर 6.25 प्रतिशत कर दी गई। 29 अप्रैल, 2003 से बैंक दर को घटाकर 6.0 प्रतिशत कर दिया गया। इसके उपरांत आंशिक उतार चढ़ावों के साथ 2 अगस्त, 2017 से अब तक बैंक दर 6.25% है।

रेपो दर तथा रिवर्स रेपो दर (Repo Rate and Reverse Repo Rate)

भारतीय रिजर्व बैंक साख पर शीघ्र एवं प्रभावी नियन्त्रण हेतु समय-समय पर रेपो एवं रिवर्स रेपो दरों में परिवर्तन करता है।

रिजर्व बैंक द्वारा बैंकों को बेचे जाने वाले सरकारी बाण्डों एवं प्रतिभूतियों (पुनर्खरीद समझौते के अन्तर्गत) पर दी जाने वाली ब्याज की दर रेपो दर कहलाती है। सरल शब्दों में, रेपो दर वह दर है जिस पर भारतीय रिजर्व बैंक बैंकों को अल्पकालिक (कुछ घण्टे से लेकर 15 दिन तक) उधार देता है तथा रिवर्स रेपो दर वह दर है जिस पर भारतीय रिजर्व बैंक बैंकों द्वारा जमा की गई कम अवधि की नकदी पर ब्याज अदा करता है।

रेपो एवं रिवर्स रेपो दरों के बढ़ने या घटने से बैंक से कर्ज लेने की लागत बढ़ अथवा घट जाती है. क्योंकि इससे बैंक सभी तरह के कों को महंगा अथवा सस्ता कर देते हैं, भारतीय रिजर्व बैंक ने इन दरों पर आवश्यकतानुसार परिवर्तन किए हैं। वर्तमान में रेपो दर 6.0% तथा रिवर्स रेपो दर 5.75% है। खुले बाजार की क्रिया (Open Market Operations)

भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार विस्तृत अर्थ में खुले बाजार की क्रिया (OMO) से तात्पर्य केन्द्रीय बैंक द्वारा विविध परिसम्पत्ति; जैसे—विदेशी विनिमय, सोना, सरकारी प्रतिभूतियों तथा कम्पनी शेयर की खरीद तथा बिक्री से है, किन्तु व्यवहार में रिजर्व बैंक के खुले बाजार की क्रिया से तात्पर्य केवल सरकारी प्रतिभतियों की खरीद तथा बिक्री है। इस क्रिया का प्रभाव ब्याज दर पर पड़ता है।

यदि रिजर्व बैंक ब्याज दर में वृद्धि करना चाहता है तो उसे खुले बाजार में प्रतिभूतियां बेचनी चाहिए। इससे लोगों के पास प्रतिभूतियों की मात्रा बढ़ जाएगी तथा नकद मुद्रा कम हो जाएगी। मद्रा की पर्ति के घटने पर ब्याज दर बढ़ जाएगी। इसके विपरीत, प्रतिभूतियों की खरीद से लोगों के पास नकद मुद्रा की मात्रा बढ़ जाएगी, फलतः ब्याज दर घट जाएगी। (स्मरण करें ‘ब्याज दर निर्धारण का तरलता अधिमान सिद्धान्त।’)

रिजर्व बैंक ने OMO का बहुत अधिक उपयोग किया है तथा प्रतिभूतियों की खरीद से बिक्री अधिक रही है। लेकिन OMO का उपयोग मौद्रिक नीति के औजार के रूप में मुद्रास्फीति के नियन्त्रण के लिए कम ही हया है। अधिक उपयोग लोक ऋण (Public debt) नीति के यन्त्र के रूप में हआ है ताकि सरकारी प्रातभूतियों की कीमतें स्थिर रहें। कभी-कभी ही OMO का उपयोग वैकिंग व्यवस्था की अतिरिक्त तरलता का सोखने के लिए किया गया है। इसका उपयोग वाणिज्य बैंकों को सहायता पहुंचाने के लिए भी किया गया है ताकि वे मौसमी कठिनाइयों को दूर कर सकें। रिजर्व बैंक अब प्रतिभूतियों की बिक्री पर अधिक बल। दे रहा है ताकि मुद्रा के प्रसार को रोका जा सके और कीमतें स्थिर रहें।

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परिवर्तनशील रिजर्व आवश्यकताएं (Variable Reserve Requirements)

रिजर्व बैंक परिवर्तनशील रिजर्व आवश्यकता विधि का भी उपयोग साख नियन्त्रण के लिए करता है। वाणिज्य बैंकों को अपने कुल जमा का एक निर्दिष्ट प्रतिशत नकद के रूप में रिजर्व बैंक के पास रखना होता है। इस प्रतिशत में परिवर्तन करके रिजर्व बैंक वाणिज्य बैंकों पर नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयास करता है। रिजर्व आवश्यकता दो प्रकार की है:

(1) नकद रिजर्व अनुपात (Cash Reserve Ratio-CRR)

(2) वैधानिक तरलता अनुपात (Statutory Liquidity Ratio-SLR)

CRR से तात्पर्य वाणिज्य बैंकों की कुल जमा के उस भाग से है जो उन्हें रिजर्व बैंक के पास नकद रिजर्व के रूप में रखना पड़ता है। रिजर्व बैंक को यह अधिकार है कि वह नकद अनुपात को 3 से 15 प्रतिशत के मध्य बदल सके। इस अधिकार का उपयोग रिजर्व बैंक ने कई बार किया है। जून 1973 में इसे 3 प्रतिशत से बढ़ाकर 5 प्रतिशत किया गया। अनेक बार इसमें परिवर्तन करते हुए (बढ़ाकर अथवा घटाकर) जुलाई 1989 में 15 प्रतिशत कर दिया गया।

इसे बढ़ाने का उद्देश्य यह था कि वाणिज्य बैंकों को वाणिज्यिक क्षेत्र को उधार देने से रोका जा सके। यह रिजर्व बैंक की सख्त (tight) मौद्रिक नीति का संकेत है।

1990 के दशक से प्रारम्भ हुए उदारवादी नीति के तहत ब्याज दरों को घटाने का सिलसिला जारी हआ। इसी क्रम में CRR में भी कमी होने लगी। अक्टूबर 2001 में यह घटकर 6.5 प्रतिशत पर आ गया। CRR जो अगस्त 2008 में बढ़कर 9% हो गया था वह उसके बाद घटते हुए अप्रैल 2009 में 5% के स्तर पर आ गया। अप्रैल 2010 में इसे बढ़ाकर 6.0% कर दिया गया। जनवरी 2012 में इसे घटाकर 5.5%, मार्च 2012 में 4.75% तथा क्रमशः घटाते हुए फरवरी 2013 में इसे 4% कर दिया गया। वर्तमान में भी यह दर 4% ही है। इस क्रिया का प्रभाव यह हुआ है कि बड़ी मात्रा में फण्ड उधार देने के लिए वाणिज्य बैंकों को उपलब्ध हो सका है। बैंक दर में परिवर्तन के साथ-साथ CRR में परिवर्तन भी ब्याज दरों में परिवर्तनों के लिए संकेत का काम करता है।

CRR का प्रावधान RBI Act, 1934 में है। बैंकिंग नियमन अधिनियम, 1949 (Banking Regulation Act, 1949) में यह प्रावधान है कि सभी वाणिज्य बैंकों को अपने कुल मांग जमा तथा समय जमा (time deposit) का कम-से-कम 25 प्रतिशत तरल परिसम्पत्ति (liquid assets) नकद, सोना तथा स्वीकृत प्रतिभतियों के रूप में सुरक्षित रखना पड़ेगा। इसे वैधानिक तरलता अनुपात (SLR) कहा जाता है। इसे CRR के अतिरिक्त रखना होता है।

SLR ठोस बैंकिंग (sound banking) का एक बुनियादी सिद्धान्त है। SLR में परिवर्तन करने का अधिकार रिजर्व बैंक को है। नवम्बर 1972 में इसने SLR को 25 प्रतिशत से बढ़ाकर 30 प्रतिशत कर दिया। रिजर्व बैंक को इसे बढ़ाकर 40 प्रतिशत तक करने का अधिकार है। 1990 के दशक के प्रारम्भ में यह 33.75 प्रतिशत तथा फिर 37.5 प्रतिशत कर दिया गया। अगस्त 2012 से अक्टूबर 2013 तक यह 23 प्रतिशत पर रही वर्तमान में यह दर 19.5% है।

SLR में वृद्धि होने पर वाणिज्य बैंकों के साख सृजन की क्षमता घट जाती है तथा इस अनुपात में कमी का अर्थ है साख सृजन की क्षमता का बढ़ जाना।

CRR तथा SLR दोनों का उपयोग रिजर्व बैंक ने अक्सर किया है।

चयनात्मक साख नियन्त्रण (Selective Credit Control)

मक साख नियन्त्रण का अर्थ है विशेष क्षेत्र अर्थात् क्षेत्रों तथा ऋणकर्ता के विशेष वर्ग को दिए। गाव पर नियन्त्रण। बक दर, खुल बाजार की क्रिया तथा परिवर्तनशील रिजर्व अनुपात साख मौदिक नीति की सामान्य (general) विधिया है। इन्हें परिमाणात्मक विधि भी कहा जाता है। इनका का साख का लागत तथा उपलब्धता पर प्रभाव पड़ता है. लेकिन ये उधार लेने वाले विभिन्न लोगों के मध्य काइ भेदभाव नहीं करते। चयनात्मक साख नियन्त्रण ऐसा भेदभाव करता है। यह अवांछित क्षेत्रों या व्यक्तियों का चार नहा प्रदान करता है। इसका दसरा उद्देश्य है उपभोक्ता को टिकाऊ वस्तुओं के लिए अत्यधिक साख प्रदान नहीं करना तथा स्टॉक बाजार का नियमन करना।।

भारत में चयनात्मक साख नियन्त्रण का प्रमुख उद्देश्य खाद्यान्न तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं का सट्टेबाजी के लिए संचय को रोकना है। इस क्रिया से कीमतों को भी बढ़ने से रोका जा सकता है। इस विधि का प्रभाव काफी बढ़ जाता है जब इसे साख नियन्त्रण की सामान्य विधियों के साथ उपयोग में लाया जाता है। चयनात्मक साख नियन्त्रण की निम्न विधियां हैं:

(i) विशेष प्रतिभूतियों पर उधार देने के लिए न्यूनतम अन्तर तय करना;

(ii) विशेष उद्देश्यों के लिए दी जाने वाली साख की उच्चतम सीमा का निर्धारण करना;

(iii) कुछ तरह के अग्रिमों पर विभेदात्मक व्याज की दर तय करना। चयनात्मक साख नियन्त्रण का उपयोग निम्न वस्तुओं के लिए किया गया है :

  • खाद्यान्न:
  • रुई एवं कपास
  • तिलहन तथा तेल, वनस्पति;
  • चीनी, खांडसारी तथा गुड़,
  • सूती वस्त्र तथा धागे।

नैतिक दबाव (Moral Suasion) साख-नियन्त्रण के उपर्युक्त वर्णित प्रत्यक्ष एवं परोक्ष उपायों के अतिरिक्त भारतीय रिजर्व बैंक ने समय-समय पर नैतिक दबाव डालकर तथा बैंकों को समझा-बुझाकर भी साख नियन्त्रण का कार्य किया है। सितम्बर 1949 में भारतीय रुपए के अवमूल्यन के पश्चात भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर ने देश के प्रमुख बैंकों के प्रतिनिधियों की एक बैठक बुलाई थी जिसमें उन्होंने अनुसूचित बैंकों को सट्टा तथा मटका क्रियाओं के लिए उधार नहीं देने का अनुरोध किया था। इसके अतिरिक्त जून 1957 में रिजर्व बैंक के गवर्नर ने देश के सभी वाणिज्य बैंकों की गश्ती चिट्ठी भेजकर अपने अग्रिमों में कमी करने का सुझाव दिया था। 15 जून, 1959 व 8 मई, 1960 तथा दिसम्बर, 1961 को गश्तीपत्रों के माध्यम से रिजर्व बैंक के गवर्नर ने अनुसूचित बैंकों से साख मुद्रा में कमी करने की आवश्यकता पर बल दिया था तथा उनसे रिजर्व बैंक के साथ बैंक साख को कम करने के कठिन काम में सहयोग देने का अनुरोध किया था।

भारतीय रिजर्व बैंक ने विगत वर्षों में बैंकों को समय-समय पर यही सलाह दी है कि वे अपने अग्रिमों में कमी करें और साख का अधिक विस्तार न करें, परन्तु कृषि लघु उद्योग तथा अन्य प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों को उदारतापूर्वक ऋण प्रदान करें। रिजर्व बैंक ने बैंकों को यह भी सलाह दी कि वे सरकारी प्रतिभूतियों में अपने विनियोग को बढ़ाएं।

साख नियन्त्रण के उपयुक्त उपकरणों के अतिरिक्त बैंकिंग नियमन अधिनियम, 1949 के अन्तर्गत रिजर्व बैंक को व्यापक प्रशासकीय तथा बैंकों के खातों का निरीक्षण करने, बैंकों को अनुज्ञापत्रों को प्रदान करने व उन्हें रद्द करने, बैंकों को एकीकरण का आदेश देने तथा कमजोर बैंकों को बन्द करने का आदेश देने की नियमन शक्तियां प्राप्त हैं। इन अधिकारों का प्रयोग करके रिजर्व बैंक देश की बैंकिंग व्यवस्था को सही दिशा में चलने के लिए मजबूर कर सकता है।

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मौद्रिक नीति का मूल्यांकन (Evaluation of Monetary Policy)

भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति का उद्देश्य अर्थव्यवस्था के विकास के साथ-साथ स्फीतिकारी दबावों पर नियन्त्रण रखना रहा है। अन्य शब्दों में, रिजर्व बैंक द्वारा अपनाई गई ‘नियन्त्रित साख-विस्तार नीति’ में साख-विस्तार’ उतना ही महत्वपूर्ण रहा है जितना कि इसका नियन्त्रण। आर्थिक विकास की निरन्तरता तथा स्थिरता को बनाए रखना एक जटिल कार्य है।

रिजर्व बैंक द्वारा अपनाई गई नीति अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं के अनुरूप समय-समय पर बदलती। रहा है तथा इसे व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करने का निरन्तर प्रयास किया जाता रहा है, परन्तु वास्तविकता यह रही कि अर्थव्यवस्था में स्फीतिजनक प्रभाव बने ही रहे। इसका कारण यह है कि रिजर्व बैंक के उपायों तथा अधिकारों का कार्यक्षेत्र अनसचित बैंकों तक ही समिति है। जिस सीमा तक स्फीतिकारी दबाव बैंक-वित्त का परिणाम होते हैं. रिजर्व बैंक के सामान्य एवं चयनात्मक नियन्त्रण अवश्य प्रभाव डालते हैं, परन्तु यदि स्फीतिकारी दबावों का कारण हीनार्थ प्रबन्धन तथा वस्तुओं की कमी है तो रिजर्व बैंक के उपाय किसी भी प्रकार से कारगर नहीं हो सकते हैं। हाल ही के वर्षों में यही स्थिति भारत में विद्यमान थी। इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है कि रिजर्व बैंक का गैर-बैकिंग संस्थाओं और देशी बैंकरों पर कोई नियन्त्रण नहीं है। जबकि वे देश के उद्योग एवं व्यापार के वित्तीयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।।

देश के विकास में मौद्रिक नीति को कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता। यह बात स्वीकार की जाती है कि अर्थव्यवस्था को स्वयं स्फूर्त विकास की अवस्था में लाने का मुख्य दायित्व सरकार पर है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए रिजर्व बैंक पर बहुत कम दायित्व सौंपा गया है। रिजर्व बैंक को यह विश्वास दिलाना होगा कि बैंक उधार के अभाव के कारण विकास प्रक्रिया को मन्द नहीं होने दिया जाएगा। ।

मौद्रिक नियन्त्रण उपाय व्यवस्थित व सुसंगठित अर्थव्यवस्था में अधिक कारगर सिद्ध होते हैं न कि भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में जहां कि सुसंगठित मुद्रा बाजार का अभाव पाया जाता है।

अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने तथा मुद्रास्फीति पर प्रभावी नियन्त्रण बनाए रखने में अकेली मौद्रिक नीति प्रभावी नहीं हो पाती है। यह तभी प्रभावी हो सकती है जब इसे सरकार की राजकोषीय नीति का भी सहयोग प्राप्त हो। क्रयशक्ति में वृद्धि के साथ-साथ उत्पादन में भी आनुपातिक वृद्धि होनी चाहिए। जब देश में उत्पादक एवं गैर-उत्पादक व्यय में निरन्तर वृद्धि हो रही हो तथा साधनों की कमी घाटे की वित्त व्यवस्था (Deficit Financing) द्वारा पूरी की जा रही हो, देश में गुप्त व कालाधन बहुत अधिक मात्रा में हो, विनियोग में वृद्धि के साथ-साथ उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि न हो रही हो. तो अकेले मद्रानीति कारगर नहीं हो सकती है।

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उपर्युक्त सीमाओं के बावजूद यह कहा जा सकता है कि भारतीय रिजर्व बैंक अपनी मुद्रा एवं साख नीति को देश की आवश्यकताओं के अनुरूप कारगर एवं प्रभावी बनाने में सतत प्रयासरत है। विगत कुछ वर्षों के दौरान देश की मौद्रिक नीति में पर्याप्त बदलाव आया है। मौद्रिक नीति के प्रत्यक्ष साधनों से अप्रत्यक्ष साधनों में अन्तरण हुआ है। बैंक दर, नकदी प्रारक्षित अनुपात और रेपो दरें ब्याज दर में परिवर्तनों का संकेत देते तथा नकदी पर प्रभाव डालते हुए महत्वपूर्ण साधनों के रूप में उभरी हैं। खुले बाजार की क्रियाओं के साथ संयोजित नकदी समायोजन सुविधा अर्थव्यवस्था में नकदी प्रबन्ध के एक मुख्य साधन के रूप में उभरी है। अप्रत्यक्ष साधनों की ओर अन्तरण ने मौद्रिक प्राधिकारियों को मौद्रिक नीति के संचालन में अधिक लचीलापन प्रदान किया है। अप्रत्यक्ष साधनों ने भारतीय रिजर्व बैंक की नीति में कोई बड़ा परिवर्तन किए बिना उभरती हुई स्थितियों का तत्काल प्रत्युत्तर देने में समर्थ बनाया है। इस तरह भारतीय रिजर्व बैंक की वर्तमान मौद्रिक एवं ऋण नीति मूल्यस्तर में घट-बढ़ पर चौकसी रखते हुए अर्थव्यवस्था में ऋण वृद्धि को पूरा करने तथा निवेश सम्बन्धी मांग को समर्थन देने के लिए पर्याप्त नकदी की व्यवस्था करना है जिसके लिए उदार शर्तों की ब्याज दरों को अधिक लचीला बनाया गया है।

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राजकोषीय नीति

(FISCAL POLICY)

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व भारतीय राजकोषीय नीति ब्रिटिश सरकार की औपनिवेशिक नीति से संचालित होती थी, किन्तु, 1950 के दशक से आयोजित आर्थिक विकास के सन्दर्भ में राजकोषीय नीति के निम्नांकित प्रमुख उद्देश्य रहे हैं:

(1) वित्तीय संसाधनों का संग्रह तथा बचत को प्रोत्साहन (Mobilisation of Financial Resources And Promotion of Savings)

(2) मुद्रास्फीति का नियन्त्रण (Control of Inflation)

(3) सामाजिक न्याय (Social Justice)

(1) वित्तीय संसाधनों का संग्रह तथा बचत को प्रोत्साहन योजनाओं के अन्तर्गत अपनाए गए कार्यक्रमों  के कारण निवेश में बहुत वृद्धि हुई। इसकी वित्त व्यवस्था का एक तरीका था सार्वजनिक बचत जो कर तथा गैर-कर तथा चालू लोक-व्यय का अन्तर होता है। 1950-51 से लेकर 1981-82 तक केन्द्र तथा राज्य सरकारों ने अपने राजस्व बजट में बचत प्राप्त होती रही। इस राजस्व बचत (revenue surplus) का उपयोग योजना व्यय की वित्त व्यवस्था के लिए किया गया. किन्त 1982-83 से राजस्व बचत के स्थान पर राजस्व घाटा (revenue deficit) होने लगा। 1975-76 में राजस्व बचत GDP का 2.5 प्रतिशत था, जबकि 1990-91 में राजस्व घाटा GDP का 3.6 प्रतिशत हो गया। इसी अवधि में राजकोषीय घाटा (लोक राजस्व – कुल लोक व्यय) 6.0 प्रतिशत से बढ़कर 12.0 प्रतिशत हो गया।

इस परिवर्तन के कारण ऋण-रहित (non-debt) वित्त व्यवस्था अब बढ़ते हुए आन्तरिक ऋण का स्रोत बन गई। इसका यह अर्थ है कि सरकार के राजस्व बजट में जो अतिरेक (surplus) होता था उससे पूजा। व्यय के एक भाग की वित्त व्यवस्था होती थी। लेकिन अब पंजी बजट की प्राप्ति के एक बढ़ते हुए भाग का उपयोग राजस्व व्यय की वित्त व्यवस्था पर होता है। इस कारण लोक ऋण, जो पूंजी बजट की प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत है, की मात्रा बढ़ती गई और साथ ही बढ़ी है ऋण पर ब्याज के भुगतान की मात्रा। वस्तुतः व्याज का भुगतान लोक व्यय का आज सबसे बड़ा मद हो गया है। इससे उत्तरोत्तर बढ़ती एक निम्न कुण्डला (Spiral) बन गई

बढ़ता हुआ घाटा → बढ़ता हुआ ऋण → ऋण भार में उत्तरोत्तर वृद्धि → घाटे में और वृद्धि → ऋण में और वृद्धि →…

बजट से बचत नहीं होने के कारण पिछले दो दशकों से सार्वजनिक बचत वित्तीय व्यवस्था का स्रोत नहीं रह गया है। इसलिए राजकोषीय नीति अपने दूसरे उद्देश्य को पूरा करने में असफल रही है। सरकार कर तथा गैर-कर राजस्व में वृद्धि करने में सफल रही है, किन्तु लोक व्यय को नियन्त्रित करके बचत में वृद्धि करने में सफलता नहीं मिली है।

(2) मुद्रास्फीति का नियन्त्रणभारत में मुद्रास्फीति का प्रारम्भ द्वितीय योजनाकाल से हुआ। शुरू में स्फीतिक कीमत वृद्धि साधारण थी, लेकिन चौथी तथा छठी योजनाओं में कीमत वृद्धि की वार्षिक दर दो अंकों में चली गई। सरकारी बजट में मुद्रास्फीति को तेज करने की क्षमता है। अतः यह इसे नियन्त्रण में भी रखने की क्षमता रखता है। कीमतों में वृद्धि लाने वाले बजटीय तत्व घाटे की वित्त व्यवस्था, बैंकों से ऋण, परोक्ष करों की दरों में वृद्धि तथा राजस्व व्यय में वृद्धि हैं। द्वितीय योजनाकाल से ये सभी कारक मौजूद रहे हैं। 1980 के दशक से राजस्व व्यय में बड़ी तेजी से वृद्धि हुई है। इसलिए इस दशक में कीमत वृद्धि की दर भी तेज हो गई।

मुद्रास्फीति के प्रति सरकार शुरू से ही सजग रही है। विभिन्न बजटों में वित्त मन्त्री ने इस समस्या की गम्भीरता तथा इसके गम्भीर परिणाम के सम्बन्ध में चेतावनी दी है। सभी योजनाओं में कीमत स्थिरता के साथ विकास के उद्देश्य को दोहराया गया है। फिर भी शुरू में स्फीतिक कीमत वृद्धि के नियन्त्रण को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया गया क्योंकि इस वृद्धि की दर तेज नहीं थी और न ही इसके विरुद्ध कोई जन-आन्दोलन था। भारतीय रिजर्व बैंक पर स्फीति नियन्त्रण का भार छोड़ दिया अर्थात् मौद्रिक नीति के सुपुर्द कर दिया गया।

चौथी योजना से मुद्रास्फीति को रोकने के लिए निम्न राजकोषीय उपाय किए गए हैं :

  • उपभोक्ता की व्यव-योग्य आय को सीमित करना
  • अनिवार्य बचत योजना
  • मजदूरी की वृद्धि पर रोक
  • महंगाई भत्ता की नकद अदायगी पर रोक
  • परोक्ष करों की दरों में कटौती आदि।

(3) राजकोषीय नीति एवं सामाजिक न्याय विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में सम्पत्ति एवं आय का वितरण अधिक असमान है। योजना के प्रारम्भ से ही बजट नीति का एक उद्देश्य इस असमानता को घटाना रहा है। फिर भी राजकोषीय नीति इस उद्देश्य को पूरा करने में अधिक सफल नहीं रही है। कारण यह है कि निर्धन देशों में केवल प्रगतिशील कर व्यवस्था ही आय के वितरण की असमानता को कम करने के लिए पर्याप्त नहीं है। कारण यह है कि हमारा आय-कर जनसाधारण पर नहीं लगा हुआ है, बल्कि कुछ। ही वर्गों पर (It is a class tax, not a mass tax.)/ व्य य पक्ष से ही असमानता को कम करने की अधिक सम्भावना है ।

1990 के दशक से राजकोषीय नीति (Fiscal Policy since the 1990s) केन्द्र एवं राज्यों के वित्त की स्थिति 1980 के दशक से अत्यन्त बिगड़ गई। 1982-83 से भारतीय केन्द्र तथा राज्यों के राजस्व बजट में घाटा होने लगा। 1975-76 में राजस्व अतिरेक (revenue surplus) अर्थात् राजस्व व्यय तथा लोक राजस्व का अन्तर GDP का 2.5 प्रतिशत था। 1990-91 में राजस्व घाटा (revenue expenditure total revenue tax + non-tax) GDP का लगभग 3.6 प्रतिशत हो गया। इस परिवर्तन का परिणाम यह हुआ जो पहले। ऋण सृजन करने वाली वित्त व्यवस्था नहीं थी। वह अब बढ़ते हुए आन्तरिक ऋण का कारण बन गई। इस स्थिति के पूर्व (अर्थात् 1982-83 से पहले) राजस्व प्राप्ति द्वारा राजस्व व्यय की वित्त व्यवस्था के पश्चात् भी पूंजी व्यय के वित्त पोषण के लिए कुछ राशि बच जाती थी, लेकिन राजस्व घाटा की स्थिति पूंजी प्राप्ति के एक भाग का उपयोग राजस्व व्यय के वित्त पोषण के लिए किया जाने लगा। इसका यह अर्थ है कि लोक ऋण का उपयोग चालू व्यय की वित्त व्यवस्था के लिए किया जाने लगा। इससे आन्तरिक ऋण (internal debt) में भारी वृद्धि हुई, जिसने ब्याज अदायगी का बोझ बढ़ा दिया।

सम्पूर्ण 1980 के दशक में राजकोषीय स्थिति दबाव में थी। 1991-92 के प्रारम्भ में इसने संकट (crisis) का रूप धारण कर लिया। इसलिए 1991 के मध्य में राजकोषीय सुधार (Fiscal correction) तथा राजकोषीय सुदृढ़ीकरण (Fiscal consolidation) को उच्च प्राथमिकता दी गई। राजकोषीय सुधारों के साथ-साथ आर्थिक सुधारों के अन्य आयामों के एक पैकेज की घोषणा की गई।

राजकोषीय नीति में सुधार के अन्तर्गत राजकोषीय घाटा (कुल लोक व्यय-राजस्व प्राप्ति) को कम करके राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की नीति को अंजाम देने का प्रयास किया। इसके लिए व्यय पक्ष में लोक व्यय को कम करने तथा कर एवं गैर-राजस्व में वृद्धि के प्रयास किए गए। प्रत्यक्ष करों में सुधार लाए गए जैसे, कर की ऊंची दरों में कटौती, परोक्ष करों में प्रशासन को अधिक कारगर बनाने तथा उन्हें विश्व स्तर में लाने के प्रयास किए गए। VAT को व्यापक स्तर पर लागू करने का प्रयास किया गया। प्रशासनिक कीमत व्यवस्था को समाप्त करने के भी प्रयास किए गए। आर्थिक सर्वेक्षण 2004-05 का कहना है कि राजकोषीय सुदृढ़ीकरण जो राजकोषीय सुधार का प्रमुख घटक था अधूरा (incomplete) ही रह गया। राजकोषीय घाटा जो 1990-91 में GDP का 6.6 प्रतिशत था 1996-97 में कम होकर 4.1 प्रतिशत हो गया। उसके बाद वह 5 से 6 प्रतिशत के इर्द गिर्द चक्कर काट रहा था। वर्ष 2014-15 में केन्द्रीय सरकार का राजकोषीय घाटा GDP का 4.1% था जो क्रमशः घटते हुए 2017-18 में 3.5% हो गया। 2018-19 (ब.अ.) में इसके 3.3% रहने का अनुमान

केन्द्र सरकार की सकल कर प्राप्तियां जो 2010-11 में सकल घरेलू उत्पाद का 10.3% थी वह बढ़कर 2017-18 में स.घ.उ. का 11.6% तथा 2018-19(ब.अ.) में स.घ.उ. का 12.1% हो गयी।

सकल कर राजस्व में प्रत्यक्ष करों का भाग वर्ष 2017-18 में स.घ.उ. का 6.0% तथा अप्रत्यक्ष करों का भाग स.घ.उ. का 5.6% रहा। वर्ष 2018-19 में इनका भाग 6.1% तथा 6.0% रहने का अनुमान है। इस तरह कुल राजस्व में प्रत्यक्ष करों के हिस्से में पर्याप्त वृद्धि परिलक्षित होती है।

केन्द्र सरकार की तुलना में राज्य सरकारों ने राजकोषीय सुधारों को लागू करने की कम कोशिश की

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भारत की वर्तमान राजकोषीय नीति

(PRESENT FISCAL POLICY OF INDIA)

राजकोषीय नीति का सम्बन्ध सरकार की उस नीति से है जहां कर, लोक व्यय तथा लोक ऋण में परिवर्तन करके आर्थिक उद्देश्यों को पूरा करने का प्रयास किया जाता है।

योजनाकरण के प्रारम्भ से ही भारत में केन्द्रीय तथा राज्यीय वित्त के सन्तुलन में ह्रास हुआ है। 1980 के दशक में असन्तुलन की स्थिति अत्यन्त बिगड़ गई। इस कारण जहां केन्द्रीय सरकार के राजस्व बजट में । अतिरेक होता था, उसमें 1982-83 से घाटा होने लगा। राज्यों का राजस्व बजट भी 1986-87 से घाटे में चला गया। यह घाटा क्रमशः बढ़ता ही चला गया।

राजकोषीय स्थिति जो सम्पूर्ण अस्सी के दशक में दबाव में थी, 1991-92 के वित्तीय वर्ष में संकट की स्थिति में आ गई। 1990 के खाडी संकट ने स्थिति को और बिगाड़ दिया। इसलिए जून 1991 में नई सरकार ने स्थिति से निपटने के लिए तेजी से कारगर कदम उठाए जिसमें राजकोषीय सुधारों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था।1980 के दशक में चार पूर्वी एशियाई देशों—कोरिया, इण्डोनेशिया, मलेशिया तथा थाईलण्ड ने राजकोषीय नीति पर विशेष बल देते हुए ऐसे आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया आरम्भ की जिससे ये देश निर्धन देशों के स्थान पर एशियाई शेर (Asian Tigers) कहलाने लगेतथा इनकी अर्थव्यवस्थाको शेर अर्थव्यवस्था (Tiger Economy) के नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। इन देशों ने समायोजन (adjustment) तथा संरचनात्मक सुधारा। (Structural reformes) की नीति को अपनाया जिसका केन्द्रीय स्तम्भ (Central pillar) राजकोषीय दृढ़ीकरण (Fiscal Consolidation) को राजकोषीय नीति के साथ-साथ व्यापार उदारीकरण, विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए आर्थिक उदारवाद, तथा घरेलू वित्तीय क्षेत्र में उदारीकरण की नीति को अपनाया गया। राजकोषीय नीति में सुधार के अन्तर्गत इन चारों देशों में आयकर तथा निगम कर की संरचना को सरल बनाने की कोशिश की गई, छूट तथा कटौतियों को विवेकपूर्ण बनाया गया तथा कर की दरों की कम किया गया। साथ ही, विस्तृत आधार वाले उपयोग करों (जैसे वैट) को लगाया गया। इनके अतिरिक्त कर प्रशासन में। सधार के लिए कड़े कदम उठाए गए। परिणामतः इन देशों के घरेल निवेश में तत्काल वृद्धि हुई। निजी निवेश के नेतृत्व में पूर्वी एशियाई देशों के अनुभव बताते हैं कि निजी क्षेत्र ही विकास का इंजिन होता है तथा सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका है इस प्रक्रिया को सरल बनाने में सहायता पहुंचाना। इनके अनुभव से शिक्षा यह मिलती है कि व्यावहारिक नीति निर्धारण तथा उस नीति को त्याग देने की तत्परता जो प्रभावकारी नहीं रह जाती है ही पूर्वी एशियाई शेरों (East Asia Tigers) की सहायता का प्रमुख कारण रहा है।

1991 के अभूतपूर्व आर्थिक संकट से निपटने के लिए बड़े सुधारों की जरूरत थी तथा सरकार ने राजकोषीय सुधारों पर आधारित समष्टि आर्थिक स्थिरीकरण के कार्यक्रम को अपनाया तथा औद्योगिक क्षेत्र को स्पर्धात्मक बनाने के लिए व्यापार, औद्योगिक तथा सार्वजनिक क्षेत्रों में संरचनात्मक सुधारों के कार्यक्रम अपनाए। 1991 में ही नई औद्योगिक नीति की घोषणा की गई जिसके माध्यम से व्यापार नीति में सुधार किए गए, नई विदेशी निवेश नीति को अपनाया गया, पूंजी बाजार में सुधार लाए गए, बैंकिंग क्षेत्र में सुधार किया गया, बीमा क्षेत्र में सुधार किया गया तथा कर क्षेत्र की विवेकपूर्ण रचना की गई।

कर सुधार या नई कर नीति (Tax Reforms or New Tax Policy)

चेल्याह समिति (कर सुधार समिति) की सिफारिशों के आलोक में 1992 में प्रस्तुत 1992-93 के केन्द्रीय बजट में केन्द्रीय करों की रचना में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। अगले वर्षों में भी इस प्रक्रिया को जारी रखा गया।

प्रत्यक्ष कर प्रणाली में सुधार

प्रत्यक्ष कर प्रणाली में सुधार का प्रमुख लक्ष्य रहा है कर राजस्व तथा राष्ट्रीय उत्पाद में प्रत्यक्ष कर राजस्व क हिस्से में वृद्धि करना। इसके लिए कर के आधार को विस्तृत बनाने के साथ-साथ कर की दर में कमी की गई तथा आय पट्टी की संख्या को घटाया गया। कर प्रणाली में सुधार के अन्य उद्देश्य रहे हैं विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को प्रेरणा प्रदान करना तथा निर्यातकों को निर्यात में वृद्धि करने के लिए प्रेरित करना। उदारीकरण तथा निजी क्षेत्र को बढ़ती भूमिका की पृष्ठभूमि में उद्योगों तथा इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए राजकोषीय प्ररणाएं (fiscal incentives) प्रदान करना भी प्रत्यक्ष कर प्रणाली में सुधार के उद्देश्य रहे हैं।

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आयकर (Income Tax)

भारत में आयकर सर्वप्रथम 1860 में लगाया गया था। यह कर व्यक्ति, हिन्दू अविभाजित परिवार तथा अपंजीकृत फर्म तथा व्यक्तियों की अन्य संस्थाओं पर लगाया जाता है। 1955 में दीर्घकालीन राजकोषीय नीति म आयकर की निम्न दो समस्याओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया, यथा,

  • आयकर के नियमों की अत्यधिक जटिलता; तथा
  • आयकर की बड़े पैमाने पर चोरी।

फलतः केन्द्रीय सरकार के समग्र कर राजस्व में आयकर का हिस्सा घटता गया। इन बातों को ध्यान में रखते हए 1985-86 के बजट में आयकर की रचना में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए जैसे-छूट की सीमा में वृद्धि, सर्वोच्च कर की दर (जो 1970 के दशक में 97.75 प्रतिशत पर पहुंच गई थी) में कमी. आयकर अधिभार (surcharge) की समाप्ति, अनिवार्य जमा योजना का अन्त, आदि। इन परिवर्तनों के निम्न उद्देश्य थे।

(1) कर अपवंचन तथा काले धन की समस्या के समाधान हेतु आयकर की दरों को विवेकपूर्ण बनाना तथा कर प्रशासन एवं कर अनुपालन को सरल करना।

(2) स्वैच्छिक कर अनुपालन को प्रोत्साहित करना। 1985-86 में एक छोटा कदम उठाया गया। इस प्रक्रिया में 1992 से तेजी आई तथा सुधार की प्रक्रिया को अगले वर्षों में जारी रखा गया है तथा आयकर की जटिलताओं को समाप्त करके उसे अधिक विवेकपूर्ण तथा सरल बना दिया गया है।

भारत में व्यक्तिगत आय कर की वर्तमान स्थितिभारत में वैयक्तिक आय कर की सामान्य छूट सीमा 2.5 लाख र है। यह छूट सीमा वरिष्ठ (60 वर्ष से ऊपर परन्तु 80 वर्ष से कम) नागरिकों के लिए 3.0 लाख रुपए तथा अतिवरिष्ठ नागरिकों (80 वर्ष से अधिक) के लिए 5 लाख तक है।

आयकर की वर्तमान दरें निम्नवत हैं :

आय की पट्टी कर की दर
1. 2.5 लाख तक शून्य
2. 2.5 लाख से अधिक तथा 5.0 लाख तक 10%
3. 5 लाख से अधिक तथा 10 लाख र तक 20%
4. 10 लाख से अधिक तथा 1 करोड़ ₹ तक 30%
5. 1 करोड़ से अधिक 30% + 10% सरचार्ज

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वर्ष 2018-19 के बजट में वैयक्तिक आयकर के सम्बन्ध में विभिन्न आय स्लैब के लिए कर की दरों में कोई परिवर्तन नहीं किया गया जिससे वित्तीय वर्ष 2018-19 (करनिर्धारण वर्ष 2019-20) में विभिन्न आय स्लैब के लिए कर की दरें वही रहेंगी जो 2017-18 (करनिर्धारण वर्ष 2018-19) के लिए प्रभावी थीं।

अब देयकर सरचार्ज की राशि पर 4% स्वास्थ्य एवं शिक्षा उपकर (cess) अतिरिक्त देय होगा। 50 लाख ₹ से 1 करोड़ र तक की आय के मामले में देयकर का 10% सरचार्ज अतिरिक्त। 1 करोड़ से अधिक वार्षिक आय के मामले में यह 15% होगा।

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निगम कर (Corporation Tax)

कम्पनी के लाभ पर आयकर तथा सुधार कर लगाए जाते थे। सुपर कर को अब निगम कर कहा जाता है। यह कर सर्वप्रथम 1917-18 में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान संकटकालीन उपाय के रूप में लगाया था जिसने स्थायी रूप ले लिया। 1925 की भारतीय कर जांच समिति ने कम्पनियों के लाभ पर लगाए गए कर को निगम लाभ कर (Corporation profit tax) कहा। 1956 में काल्डर ने इस कर के जटिल प्रावधानों की कड़ी आलोचना की। 1958-59 तक कम्पनियों पर लगे कर निम्न प्रकार के थे :

(i) आयकर एवं निगम कर;

(ii) अतिरिक्त लाभांश के वितरण पर कर जबकि अवितरित लाभांश की दी गई रियायत को समाप्त कर दिया गया

(iii) जारी किए गए बोनस पर कर;

(iv) पूंजी लाभ कर;

(v) कम्पनियों पर धन कर; तथा

(vi) अनिवार्य बचत योजना।

1959-60 में काल्डर की सिफारिशों के आलोक में कम्पनियों पर लगे सम्पत्ति कर तथा अतिरिक्त लाभांश कर को समाप्त कर दिया गया। इस वैधानिक प्रावधान को समाप्त कर दिया गया कि कम्पनी द्वारा भुगतान किए गए आयकर को अंशधारियों द्वारा भुगतान किया गया आयकर मान लिया जाए। अब निगम कर का निगमा तथा व्यावसायिक कम्पनियों पर लगाया गया कर मान लिया गया जिसे कम्पनी अदा करती है तथा आयकर से भिन्न है। लाभांश पर अंशधारियों द्वारा भुगतान किया गया कर आयकर है।

चेल्याह समिति ने यह सिफारिश की कि 1992-93 से 1994-95 तक निगम कर की दर को घटाकर 40 प्रतिशत कर देना चाहिए। 1994-95 के बजट में सभी घरेलू कम्पनियों पर 40 प्रतिशत की दर से समान निगम कर लगाया गया। विदेशी कम्पनियों पर इस कर की दर को 55 प्रतिशत कर दिया गया। दीघकालान। पूंजी लाभ पर कर की दर को घरेलू कम्पनियों पर 30 प्रतिशत किया गया।

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1996-97 के बजट में शून्य कर कम्पनियों की समस्या का भी समाधान किया गया। अनेक शून्य कर कम्पनियों को पर्याप्त खाता लाभ प्राप्त होता है। ऐसी कम्पनियों को न्यूनतम वैकल्पिक कर (Minimum Alternate Tax-MAT) के अन्तर्गत लाया गया। यदि किसी कम्पनी का खाता लाभ (book profit) आयकर अधिनियम के अन्तर्गत सभी छुटों के बाद 30 प्रतिशत से कम है तो वह MAT के अन्तर्गत आ जाता है तथा उसके लाभ को 30 प्रतिशत मानकर 12 प्रतिशत की दर से MAT लगाया जाएगा। ऊर्जा तथा सरचना। क्षेत्र की कम्पनियों, बीमार कम्पनियों या पिछड़े क्षेत्र में स्थित कम्पनियों को MAT से बाहर रखा गया।

दीर्घकालीन पूंजी लाभ पर लगे पूंजी कर को 30 प्रतिशत से घटाकर 20 प्रतिशत कर दिया गया।

वर्ष 2016-17 के बजट में 50 करोड़ र से कम वार्षिक टर्नओवर वाली कम्पनियों के लिए निगमकर की दर 30 प्रतिशत से घटा कर 25 प्रतिशत की गई थी। बजट 2018-19 में 25 करोड़ रसे कम सालाना टर्नओवर वाली कम्पनियों के लिए निगम कर की दर 30 प्रतिशत से घटा कर 25% कर दी गयी है। इससे छोटी मध्यम कम्पनियों को लाभ होगा।

वर्ष 2016-17 में निगमकर से कुल प्राप्तियां 4,84,924 करोड़ र थीं। वह बढ़कर 2018-19(ब.अ.) में 6,21,000 करोड़ ₹ हो गयी।

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परोक्ष कर प्रणाली

(INDIRECT TAX SYSTEM)

केन्द्रीय उत्पाद कर

भारत में उत्पाद कर का इतिहास अति प्राचीन है। आधुनिक उत्पाद कर 1894 से शुरू हुआ। योजना काल में संघीय उत्पाद कर देश में निर्मित या उत्पादित सभी वस्तुओं पर लगाया जाता है। उत्पाद कर की रचना में निम्न शामिल थे:

(1) मूल उत्पाद शुल्क (Basic Excise Duty);

(2) बिक्री कर के बदले में अतिरिक्त उत्पाद कर केवल तीन वस्तु तम्बाकू, कपड़े तथा चीनी पर

(Additional Excise Duty in lien of Sales Tax):

(3) विशेष वस्तुओं पर सेस (Cesses on Specified Commodities);

(4) कपड़े पर अतिरिक्त उत्पाद शुल्क (Additional Duties of Excise on Taxtiles).

केन्द्रीय उत्पाद कर उपभोक्ता की अन्तिम वस्तुओं के साथ-साथ कच्ची सामग्री तथा मध्यवर्ती वस्तुओं पर लगाया गया जिसका प्रपाती प्रभाव (Cascading Effect) पड़ा। इस प्रभाव के कारण कर का अन्तिम वस्तुओं (final goods) पर भार अनियन्त्रित हो जाता है। साधनों के सापेक्ष मूल्यों में अवांछित परिवर्तन हो जाते हैं तथा निर्यात पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

इन अनुचित परिणामों से बचने के लिए 1986 में MODVAT लागू किया गया। इस कारण केन्द्रीय उत्पाद शुल्क के दो भाग हो गए।

(a) कुछ क्षेत्रों में बिना किसी छूट के साथ सकल मूल्य के आधार पर उत्पाद शुल्क (Excise on gross value basis with no set off in some sectors); तथा

(b) संशोधित मूल्य संवर्धन कर (Modified VAT-MODVAT)

चेल्याह समिति ने ऐसा विचार व्यक्त किया कि अन्ततः केन्द्रीय उत्पाद शुल्क की जगह पर एक पूर्ण विकसित VAT को लागू करना चाहिए केन्द्रीय स्तर पर। 1994-95 के बजट में केन्द्रीय उत्पाद शुल्क की सरचना को अभूतपूर्व रूप से सरल बनाया गया। अगले वर्षों में केन्द्रीय उत्पाद शुल्क में सुधार की प्रमुख पशा रही कर की दरों प्रक्रिया, नियम तथा नियमन को विवेकपूर्ण तथा सरल बनाना। 2000-01 में 16 प्रतिशत की दर पर मूल केन्द्रीय मूल्य संवर्धन कर (Central Value Added Tax-CENVAT) लगाया। गया। 2005-06 के बजट में वित्त मन्त्री ने घोषणा की कि सरकार 16 प्रतिशत CENVAT के अन्तर्गत अधिकाधिक वस्तुओं को लाएगी| CENVAT के साथ-साथ केन्द्रीय उत्पाद शुल्क भी जारी है 8 प्रतिशत. 16 प्रतिशत तथा 24 प्रतिशत की दर पर।

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सीमा शुल्क (Customs Duties)

सीमा शुल्क का आधुनिक इतिहास 1859 से शुरू होता है। 1950 में आयात शल्कों की सामान्य दर 30 प्रतिशत थी। विकास की वस्तुओं पर शुल्क की दर ऊंची थी। 1958 में सीमा शल्क पनर्गठन समिति (Custom Re-organisation Committee) ने शुल्कों की दरों की बहुलता की बात कही। 1965 में विदेशी विनिमय की संकटपूर्ण स्थिति को देखते हुए अगस्त 1965 में आयात कर का वैज्ञानिक पुनर्गठन किया गया। इसके परिणामस्वरूप तीन दरें कायम हुई, यथा, 40 प्रतिशत, 60 प्रतिशत तथा 100 प्रतिशत मूल्यानुसार। जून 1966 में रुपए के अवमूल्यन के कारण दरों की संरचना में परिवर्तन किए गए। 1963 से सरकार ने सभी शुल्कों पर नियामक शुल्क (regulatory duty) लगा दिया।

एल. के. झा समिति की जांच के समय आयात शुल्कों की संरचना का आयात शुल्क सिद्धान्तों के साथ मेल नहीं था। विदेशी विनिमय की कठिन स्थिति के कारण आयात शुल्कों की रचना तथा दर विवेकपूर्ण नहीं रह गई थी। झा समिति ने सिफारिश की कि आयात शुल्कों की ऊंची दर को धीरे-धीरे नीचे लाना चाहिए। साथ ही आयात नियन्त्रण का संरक्षण के लिए उपयोग के साथ टारिफ नीति का समन्वय होना चाहिए। 1993 में चेल्याह समिति ने आयात शुल्कों की पूनर्सरचना तथा वैज्ञानिक पुनर्गठन की निम्न सिफारिशें की:

  • मूल कच्ची सामग्री की तुलना में निर्मित वस्तुओं पर आयात शुल्कों की दर ऊंची होनी चाहिए। संघटकों तथा मशीनरों पर शुल्क की दर इन दोनों के मध्य में रहनी चाहिए।
  • कृषि आयात पर कुछ आयात शुल्क लगाना चाहिए आवश्यक कृषि वस्तुओं पर शून्य से लेकर गैर-जरूरी कृषि वस्तुएं, जैसे बादाम एवं काजू पर 50 प्रतिशत तक। शून्य तथा 50 प्रतिशत के मध्य 10 प्रतिशत, 15 प्रतिशत, 20 प्रतिशत, 25 प्रतिशत तथा 30 प्रतिशत दर की बात कही गई। 1997-98 तक इन दरों को लागू करना चाहिए।

2005-06 के बजट में भारतीय सीमा शुल्क की बनावट को पूर्वी एशियाई पड़ोसी देशों की आयात कर संरचना के समान करने का प्रयास किया गया। इसलिए गैर-कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क की सर्वोच्च दर को 20 प्रतिशत से घटाकर 15 प्रतिशत कर दिया गया। निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए चुनी गई पूंजी वस्तुओं और उनके पुजों पर आयात शुल्कों को 10 प्रतिशत तथा 5 प्रतिशत कर दिया गया। 1 अप्रैल, 2005 से अधिकांश राज्यों द्वारा VAT को अपनाने के कारण उनके अनुरूप घरेलू वस्तुओं पर 4 प्रतिशत की दर पर काउण्टरवेलिंग शुल्क (Countervailing duty-CVD) लगाया गया।

सेवा कर (Service Tax)

सेवा कर को 1994-95 के बजट के प्रथम बार लगाया गया। इसके लगाने के पीछे तर्क यह था कि मूल्य संवर्धन को कर का आधार बनाना चाहिए, चाहे यह निर्मित वस्तुओं के माध्यम से हो या सेवा के द्वारा। सेवा कर की दर को 1994-95 में 5 प्रतिशत रखा गया। 14 मई, 2003 इस कर की दर को बढ़ाकर 8 प्रतिशत कर दिया गया। 2005-06 में सेवा कर की दर जिसे 2004-05 में बढ़ाकर 10% कर दिया था उसी 10 प्रतिशत पर छोड़ दिया, किन्तु 21 नई सेवाओं को इस सेवा में शामिल कर दिया।

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अप्रत्यक्ष कर प्रणाली में सुधारजी.एस.टी

स्वतंत्रता के पश्चात् सबसे बड़े कर सुधार के रूप में भारत में एक नए युग का शुभारम्भ 1 जुलाई, 2017 से उस समय हुआ जब वस्तुओं एवं सेवाओं पर विभिन्न प्रकार के करों के स्थान पर एकल ‘गुड्स एण्ड सर्विस टैक्स’ (GST) लागू हो गया। इससे पूरा देश एकल कर व्यवस्था के अधीन आ गया तथा अलग-अलग राज्यों में करों की दरों का अन्तर समाप्त हो गया। ।

जी.एस.टी. एक अप्रत्यक्ष कर है, जो देश भर में वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति पर विनिर्माता से उपभोक्ताओं तक एकल कर है जिससे पूरा देश एक एकीकृत साझा व्यापार के रूप में परिवर्तित हो गया है। उत्पादन के प्रत्येक चरण में भुगतान किए गए इनपुट करों का लाभ मूल्य संवर्धन के बाद के चरण में। उपलब्ध होगा। इस प्रकार उत्पादन के प्रत्येक स्तर पर केवल वैल्यू एडीशन पर ही यह कर देय होगा।

जी.एस.टी. की संरचना दोहरी किस्म की है, केन्द्र सरकार द्वारा लगाया व वसूला जाने वाला कर (CGST) तथा राज्य सरकारों द्वारा लगाया व वसूला जाने वाला कर SGST वैल्यू एडीशन के प्रत्येक चरण पर सी.जी.एस.टी. एस.जी.एस.टी. एक साथ वसूले जाएंगे।

जी.एस.टी. के लागू होने से केन्द्रीय करों में से केन्द्रीय उत्पाद शुल्क, अतिरिक्त उत्पाद शुल्क, सेवाकर, एडिशनल कस्टम ड्यूटी, विशेष एवं अतिरिक्त कस्टम ड्यूटी तथा वस्तुओं एवं सेवाओं पर लगने वाले सारे सरचार्ज व सस जहां समाप्त होंगे, वहीं राज्यों के करों में वैट, मनोरंजन कर, केन्द्रीय बिक्री कर चुंगी व प्रवेश कर, खरीद कर, विलासिता कर, लॉटरी, सट्टे व जए पर लगने वाले कर तथा सरचार्ज व सैस इसम समाहित हो जाएंगे।

इस प्रकार केन्द्र, राज्यों व स्थानीय निकायों द्वारा वसूले जाने वाले विभिन्न अप्रत्यक्ष करों के स्थान पर एकीकृत जी.एस.टी. वसूला जाएगा तथा पूरा देश एक समरूप बाजार के रूप में विकसित हो सकेगा।

जी.एस.टी. के अन्तर्गत कर की कुल चार दरें 15%, 12%, 18% व 28% निर्धारित की गई हैं। अनेक आवश्यक वस्तुओं को कर से मुक्त (शून्य प्रतिशत) की श्रेणी में रखा गया है।

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जी.एस.टी. के मामले में विभिन्न निर्णयों के लिए जी.एस.टी. परिषद (GST Council) का गठन किया गया है। केन्द्रीय वित्त मंत्री की अध्यक्षता वाली जी.एस.टी. परिषद में सभी राज्य सरकारें सदस्य हैं। इस तरह यह एक शक्तिशाली सांविधिक निकाय है।

जी.एस.टी. के लागू होने से वस्तुओं एवं सेवाओं की लागत कम होगी। इससे भारतीय निर्यात को बढ़ावा मिलेगा।

जी.एस.टी. के परिणामस्वरूप राज्यों को होने वाली राजस्व हानि की भरपाई पांच वर्षों तक केन्द्र द्वारा की जाएगी।

जी.एस.टी. का करारोपण शुरू से अन्त तक सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित होने के कारण इसका अनुपालन सरल होगा तथा कर वंचना नहीं हो सकेगी। इससे कर संग्रह में वृद्धि होगी जबकि कर संग्रहण की लागत कम होगी।

जी.एस.टी. से वर्ष 2017-18 में कुल 4,44,631 करोड़ की राजस्व प्राप्ति हुई जबकि 2018-19(ब.अ.) में 7,43,900 करोड़ ₹ की राजस्व प्राप्ति का अनुमान है।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 मौद्रिक नीति का क्या तात्पर्य है ? राजकोषीय नीति से यह किस प्रकार भिन्न है ?

2. मौद्रिक नीति और राजकोषीय नीति के अन्तर पर प्रकाश डालिए। समष्टि आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में कौन-सी नीति अधिक प्रभावी होती है?

3. “समष्टि आर्थिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए मौद्रिक तथा राजकोषीय नीतियों के मिश्रण की आवश्यकता है।” इस कथन की विवेचना करें।

4. भारतीय मौद्रिक नीति की विवेचना करें।

5. भारतीय राजकोषीय नीति की विवेचना करें।

6. 1990 के दशक से राजकोषीय नीति में होने वाले परिवर्तनों की विवेचना करें।

7. अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संकट के प्रभाव से छुटकारा पाने के लिए राजकोषीय नीति के अन्तर्गत उठाए गए कदमों की विवेचना करें।

Business Environment Monetary Fiscal

लघु उत्तरीय प्रश्न

1 राजकोषीय दृढ़ीकरण में भारत को कितनी सफलता मिली है?

2. चयनात्मक साख नियन्त्रण पर प्रकाश डालें।

3. बैंक दर के महत्व की विवेचना करें।

4. CRR तथा SLR के महत्व की व्याख्या करें।

5. GST की संकल्पना को समझाइए।

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chetansati

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