BCom 1st Year Business Environment Industrial Sickness Study Material Notes in Hindi

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BCom  1st Year Business Environment Industrial Sickness Study Material Notes in Hindi

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Industrial Sickness Study Material
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BCom 1st Year Business Environment Parallel Economy Study Material Notes in hindi

औद्योगिक रुग्णता

[INDUSTRIAL SICKNESS]

औद्योगिक रुग्णता : एक समस्या

(INDUSTRIAL SICKNESS : A PROBLEM)

हाल के कुछ वर्षों में, खासकर 1980 के दशक से, औद्योगिक रुग्णता भारत में एक गहरी समस्या बन गई है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा अनुसूचित वाणिज्य बैंकों से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर दी गई जानकारी के अनुसार 31 मार्च, 2003 को 1,71,376 रुग्ण/कमजोर औद्योगिक इकाइयां थीं। इनमें से 1,67,980 इकाइयां अर्थात कुल रुग्ण इकाइयों का 98 प्रतिशत लघु औद्योगिक इकाइयां थीं। केवल 3,396 इकाइयां गैर-लघ इकाइयां थीं। एक और जानने योग्य बात यह है कि लघु क्षेत्र की बीमार इकाइयों की संख्या घटी है-31 मार्च, 2000 के दिन बीमार लघु इकाइयों की संख्या 3,04,235थी जो 31 मार्च, 2003 में घटकर 1,67,980 इकाइयां हो गई। इसके विपरीत, गैर-लघु बीमार इकाइयों की संख्या इसी अवधि में 3,164 से बढ़कर 3,396 हो गयी। मार्च 2003 के अन्त तक बैंकों द्वारा पहचानी गई रुग्ण औद्योगिक इकाइयों पर 5,706 करोड़र की राशि बकाया थी।

लोक उद्योग विभाग के अनुसार 31 मार्च, 2004 तक देश में केन्द्रीय सरकारी क्षेत्र के 227 उपक्रम प्रचालन कर रहे थे जिनमें से 68 रुग्ण औद्योगिक सी.पी.एस.यू.वी.आई.एफ.आर. के पास पंजीकृत थे।

इस प्रकार यद्यपि संख्या की दृष्टि से बीमार औद्योगिक इकाइयों में लघु इकाइयों की प्रधानता है (98 प्रतिशत के मकाबले मात्र 2 प्रतिशत). तथापि बकाया ऋण राशि के मामले में गैर-लघु इकाइयां ही आगे हैं। लघु इकाइयों पर बकाया ऋण की राशि 31 मार्च, 2003 में 5,706 करोड़ र (16.4%) थी जबकि गैर-लघु इकाइयों पर 29,110 करोड़ र (83.6 प्रतिशत)। इसका कारण यह है कि विशाल एवं मध्यम बीमार इकाइयों में बैंकों की अधिक राशि फंसी हुई है। अतः औद्योगिक रुग्णता बैंकों के लिए भी उतनी ही चिन्ता का विषय है जितनी चिन्ता स्वयं इन बीमार इकाइयों को है। यही कारण है कि पिछले आठ-दस वर्षों से सरकार द्वारा मध्यम तथा विशाल क्षेत्र की बीमार इकाइयों के उपचार एवं पुनरुद्धार पर अधिक ध्यान दिया गया है।

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अतः अब बैंक ऐसी बीमार इकाइयों के पुनर्सस्थापन (reconstruction) पर अधिक ध्यान दे रहे हैं जिनकी जीव्यता (viability) की स्थिति उत्तम है। जीव्यता विहीन (Non-viable) बीमार इकाइयों को समाप्त हो जाने देना ही श्रेयस्कर है क्योंकि ऐसी मृतप्राय इकाइयों को पुनर्जीवन प्रदान करना असम्भव कार्य है और उन पर धन एवं समय लगाना व्यर्थ सिद्ध होगा।

वैसे यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि औद्योगिक रुग्णता कोई नितान्त नयी घटना या खोज नहीं है। पहले भी औद्योगिक इकाइयां आर्थिक संकटों से ग्रस्त होकर अपनी स्वाभाविक मौत मर जाती थी और उनकी ओर किसी का विशेष ध्यान नहीं जाता था। ऐसे अधिकांश मामलों में बैंक एवं अन्य ऋणदाता कुछ समय की उचित प्रतीक्षा के बाद न्यायिक कार्यवाही के आधार पर संकटग्रस्त औद्योगिक इकाइयों पर दबाव डालकर उन्हें अनिवार्य समापन (Compulsory liquidation) की ओर ले जाते थे। अब नवीन सामाजिक-आर्थिक नीतियों के सन्दर्भ में इस समस्या पर जनहित एवं राष्ट्र-हित के दृष्टिकोण से विचार किया जाने लगा है। अतः अब औद्योगिक रुग्णता की घटनाएं सभी पक्षों के लिए चिन्ता का विषय बन गई हैं और वे सब इनके उपचार के लिए सरकार तथा वित्तीय संस्थाओं के मार्गदर्शन की अपेक्षाएं करने लगे हैं। इस प्रकार सामाजिक जागरूकता ने इस दबी हुई समस्या को उभारकर सतह पर ला खड़ा किया है। इसके अतिरिक्त यह बात भी नहीं कि औद्योगिक रुग्णता केवल भारत में ही व्याप्त रही है। अन्य सभी विकासशील एवं विकसित देशों में भी छोटी-बड़ी औद्योगिक इकाइयां रुग्णता का शिकार होती रहती हैं तथा उनके उपचार भी उन देशों में किये जाते हैं।

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औद्योगिक रुग्णता की परिभाषाएं

(DEFINITIONS OF INDUSTRIAL SICKNESS)

रिजर्व बैंक द्वारा दी गयी परिभाषा के अनुसार, “बीमार औयोगिक इकाई वह होगी जिसे वर्तमान वर्ष में नकद-हानि (Cash loss) सहन करनी पड़ी है और आने वाले दो वर्षों में उसकी दशा में निरन्तर ऐसे घाटे की स्पष्ट सम्भावनाएं परिलक्षित होती हैं।” रिजर्व बैंक की ही एक अन्य वैकल्पिक परिभाषा के अनुसार यदि किसी। कम्पनी में चालू अनुपात (Current ratio) तथा ऋण-पूंजी के अनुपात (Debt-equity ratio) इतने अधिक प्रतिकूल हो जायें कि वे उस कम्पनी में आधारभूत संरचनात्मक दोष (Basic Structural Defect) तथाकम्पनी की वित्तीय स्थिति में निरन्तर गिरावट के परिचायक हों, तो ऐसी कम्पनी रुग्णता की शिकार मानी जानी चाहिए। सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यदि किसी कम्पनी की चल सम्पत्तियां उसकी चल देनदारियों से कम रहें तथा विशुद्ध स्वामि-हित (Net Equity Worth) उसकी कुल देनदारियों (Total liabilities) से कम रहे तथा यह स्थिति निरन्तर बनी रहे तो यह समझना चाहिए कि वह कम्पनी औद्योगिक रुग्णता की शिकार है।

यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि औद्योगिक रुग्णता की उपर्युक्त परिभाषाएं किन्हीं वैधानिक व्यवस्थाओं पर आधारित न होकर केवल वित्तीय एवं व्यावसायिक मान्यताओं तथा परम्पराओं पर आधारित हैं। इस प्रकार लाभ के बजाय निरन्तर हानि का होना, चल सम्पत्तियों (current assets), पर चल दायित्व (current liabilities) का निरन्तर आधिक्य बना रहना तथा कुल सम्पत्तियों (total assets) का विशुद्ध मूल्यांकन (net-evaluation) कुल देनदारियों (Total liabilities) से निरन्तर कम रहने की दशा में कोई कम्पनी औद्योगिक रुग्णता की शिकार मान ली जानी चाहिए और उसके उपचार (यदि सम्भव है तो) के लिए एक सुसम्बद्ध एवं सुसमन्वित कार्यक्रम निर्धारित किया जाना चाहिए। उपचार के उपायों पर विचार करने से पहले यह अधिक उपयुक्त होगा कि औद्योगिक रुग्णता के कारणों एवं लक्षणों पर विचार किया जाय। अब बीमार औद्योगिक कम्पनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1986 के अन्तर्गत बीमार औद्योगिक इकाई को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है “बीमार औद्योगिक कम्पनी उसे कहा जायेगा जो कम-से-कम सात वर्षों से रजिस्टर्ड हो तथा जिसमें किसी वित्तीय वर्ष के अन्त में उसकी कुल स्वामि-पूंजी (net-worth) के बराबर या उससे अधिक घाटा संचित (accumulated loss) है और उसे ऐसे वित्तीय वर्ष तथा उसके ठीक पहले के वित्तीय वर्ष में भी नकद घाटा (cash loss) सहन करना पड़ा है।” इस प्रकार इस परिभाषा में तीन बातें विशेष उल्लेखनीय हैं—(i) कम्पनी कम-से-कम सात वर्षों से रजिस्टर्ड हो, (ii) किसी वित्तीय वर्ष के अन्त में उसमें संचित घाटा उसकी सकल खरी पूंजी (entire net-worth) से अधिक हो तथा (iii) उस वित्तीय वर्ष में भी तथा उसके ठीक पहले के वित्तीय वर्ष में भी उसे नकद घाटा (cash loss) सहन करना पड़ा हो।’ उपर्युक्त तीनों बातों के लागू होने पर ही किसी कम्पनी को बीमार कहा जायेगा।

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औद्योगिक रुग्णता के कारण

(CAUSES OF INDUSTRIAL SICKNESS)

() आन्तरिक कारण (Internal Causes)

औद्योगिक रुग्णता अनेक आन्तरिक एवं बाहरी कारणों से उत्पन्न हो सकती है। आन्तरिक कारण उपक्रम की आन्तरिक प्रबन्ध व्यवस्था से जुड़े होते हैं जिनके कारण कुछ उपक्रम रुग्णता के शिकार होकर घाटे में आ जाते हैं, जबकि उसी उद्योग के अन्य उपक्रम, जिनमें आन्तरिक प्रबन्ध व्यवस्था उत्तम होती है पर्याप्त लाभ का उपार्जन कर रहे होते हैं। वैसे व्यवसाय में उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं और यदि अस्थायी रूप से कुछ । समय के लिए कतिपय ऐसे कारणों से कोई संकट उत्पन्न हो जाता है तो वह चिन्ता का विषय नहीं होगा, क्योंकि शीघ्र ही उनका निराकरण करना सम्भव होता है, किन्तु यदि नकद घाटा (cash loss) हो रहा है एवं व्यवसाय की चालू एवं दीर्घकालीन वित्तीय स्थिति (Current and Long-term Financial Position) गिरती जा रही है और आगे भी सुधार की कोई सम्भावनाएं परिलक्षित नहीं हो रही हैं, तो तत्काल इसके लिए नारदायी कारणों का अध्ययन एवं विश्लेषण करना आवश्यक होता है ताकि समय रहते उपचार के उपाय किये जा सकें। आन्तरिक कारण निम्नलिखित हो सकते हैं :

(1) उपक्रम के स्वामियों में स्वार्थपरता एवं तीव्र मतभेद (Selfishness and Acute Dissension among Owners) कई बार बहुत-से उपक्रमों को उनके स्वामियों की स्वार्थपरता एवं तीव्र मतभेदों के कारण भी बीमार होते देखा गया है। प्रत्येक कम्पनी में एक पारिवारिक-समूह का प्रभावी नियन्त्रण होता है तथा यदि उस परिवार के सदस्यों में तीव्र मतभेद उत्पन्न हो जाय अथवा उनमें से कुछ सदस्य अति स्वार्थी हो जायें, तो इसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया व्यवसाय के संचालन पर होना नितान्त स्वाभाविक है। बेईमानी, लेखों या खातों में हेर-फेर, अपव्यय, कोषों का व्यवसाय से अलग उपयोग, आदि के कारण व्यवसाय में हानि होने लगेगी तथा कुछ समय में ही उसकी ख्याति (goodwill) एवं प्रतिभा (image) गिर जायेगी। प्रभावी समूह का प्रत्येक सदस्य व्यवसाय को अपने निजी स्वार्थ के लिए निचोड़ने लगेगा। अन्ततोगत्वा परिणाम यह होगा कि व्यवसाय क्रमशः दुर्बल होकर अपनी पूंजी को ही खाने लगेगा। ऐसे उपक्रम को विघटन से बचाने के लिए अन्य सभी सम्बद्ध पक्ष (जैसे ऋणदाता, कर्मचारी, ग्राहक, श्रमिक, आदि) समाज एवं सरकार से अपील करने लगेंगे। कभी-कभी कुछ उद्यमी नियोजन बद्ध तरीके से किसी अच्छे-भले उपक्रम का निजी स्वार्थपूर्ति के लिए विदोहन (exploitation) करके उसे समाज अथवा सरकार के मत्थे मढ़ देते हैं। ऐसे दोषी व्यक्तियों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की जानी चाहिए, किन्तु वास्तविकता यह है कि अनेक कानूनी पेचीदगियों के कारण ऐसे दोषी व्यक्ति बेदाग निकल जाते हैं।

(2) औयोगिक सम्बन्धों में बिगाड़ (Disturbed Industrial Relations)-कुछ उपक्रमों में मालिकों एवं प्रबन्धकों तथा दूसरी ओर श्रमिकों में सामंजस्य एवं सद्भाव की निरन्तर कमी बनी रहती है। इस स्थिति के अनेक कारण हो सकते हैं। जैसे—कार्मिक प्रवन्ध का निम्न स्तर, वेतन, भत्ते, मजदूरी, बोनस, आदि के प्रश्न, भर्ती, पदोन्नति एवं काम के बंटवारे, आदि में तीव्र मतभेद, आदि। इस स्थिति का प्रतिकूल प्रभाव उत्पादकता के स्तर एवं माल की किस्म दोनों पर पड़ता है एवं उत्पादन लागतें (Production costs) बढ़ जाती हैं, जिसके कारण अन्य उपक्रमों की तुलना में लाभ की मात्रा में क्रमशः गिरावट आने लगती है। यह भी सम्भव है कि उपक्रम अन्ततः ‘न हानि न लाभ के बिन्दु को पार करके हानि के दायरे में आ जाय।

(3) कुप्रबन्ध (Mismanagement)–अनेक उपक्रमों में कुप्रबन्ध के कारण रुग्णता उत्पन्न हो जाती है। व्यावसायिक प्रबन्ध के चार क्षेत्र होते हैं—उत्पादन प्रबन्ध, वित्तीय प्रबन्ध, कार्मिक प्रबन्ध एवं विपणन प्रबन्ध। इनमें से किसी एक क्षेत्र में भी यदि प्रबन्ध कुशलता का स्तर गिर जाता है तो अन्य क्षेत्रों पर भी इसकी तत्काल एवं तीव्र प्रतिक्रिया होती है। मान लीजिए कि वित्तीय प्रबन्ध अपेक्षित स्तर का नहीं है, तो इससे उत्पादन में अनेक कठिनाइयां उत्पन्न हो जायेंगी—कच्चा माल समय पर नहीं मिलेगा, वेतनों एवं अन्य बिलों का भुगतान रुक जायेगा या समय पर नहीं किया जा सकेगा, श्रमिक असन्तोष व्याप्त होगा जिससे उत्पादन की मात्रा एवं किस्म गिर जायेगी, इसका प्रभाव माल की बिक्री पर पड़ेगा जिससे रोकड़ का आगम (Cashinflow) रोकड़ के निर्गम (Cash-outflow) से निरन्तर कम हो जायेगा जो पहले से ही व्याप्त वित्तीय संकट को और अधिक बढ़ा देगा। इस प्रकार एक श्रृंखलाबद्ध प्रक्रिया (Chain reaction) उत्पन्न होकर अच्छ-भल। उपक्रम को ले बैठेगी। ऐसे उपक्रम में नीति निर्धारण अदूरदर्शितापूर्ण ढंग से किया जायेगा तथा अनुकूलतम निर्णय (Optimal decisions) का अभाव हो जायेगा।

तात्कालिक आवश्यकताओं की ताबड़तोड़ में दीर्घकालीन अपेक्षाओं की बलि दी जाती रहेगी। परिप्रेक्ष्य-नियोजन (Perspective) के अभाव में शीघ्रता से घटित होने वाले परिवर्तनों के अनुसार उपक्रम की समायोजन क्षमता गिर जायेगी।

यही नहीं, कुप्रबन्ध अनेक अन्य विषम स्थितियों को जन्म देता है जो आगे चलकर रुग्णता का कारण बनता है जैसे सरक्षित कोषों के निर्माण एवं लाभांशों के वितरण की दोषपूर्ण नीति मशीन, प्लाण्ट एवं अन्य स्थिर सम्पत्तियों के विषय में उपयुक्त देख-रेख, रख-रखाव, मरम्मत एवं प्रतिस्थापना के प्रति उदासीनता की नीति, आधुनिकीकरण एवं विविधीकरण के प्रयासों का अभाव, आदि।

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() बाहरी कारण (External Causes)

इन कारणों में ऐसे अनेक कारण होते हैं जिनके दबाव से उपक्रम रोगग्रस्त हो जाता है। इन कारणों पर प्रबन्धकों का कोई बस नहीं चलता क्योंकि वे इनके नियन्त्रण से बाहर होते हैं। जैसे आर्थिक-राजनीतिक वातावरण में उत्पन्न विपरीत परिस्थितियां एवं अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिकूल दशाएं, आदि। ऐसे बाहरी कारणों का प्रभाव सभी उपक्रमों पर पड़ता है जो किसी उद्योग अथवा किन्हीं उद्योगों के समस्त उपक्रमों को रुग्णता का शिकार बना लेता है। यह दूसरी बात है कि कुछ उपक्रमों पर इनका प्रभाव अधिक एवं अन्यों पर कम हो। ऐसे कारणों । को पर्यावरण सम्बन्धी कारणों (Environment Factors) के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। बाहरी कारण में निम्नलिखित प्रमुख कारणों का उल्लेख किया जा सकता है

1 निरन्तर शक्ति संकट (Perennial Power Shortage) विकासशील देशों में बिजली, कोयला एवं तेल की मांग में औद्योगीकरण के साथ-साथ तीव्रता से वृद्धि हुई है, जबकि इनकी पूर्ति में वृद्धि की दर उस अनुपात में नहीं बढ़ सकी है। कृषि कार्यों को बिजली व पूर्ति में प्राथमिकता दिये जाने की नीति के कारण उद्योगों पर बिजली पूर्ति अनेक प्रकार की कटौतियों के साथ लागू कर दी जाती है। इससे स्थापित क्षमताओं का पूरा उपयोग नहीं हो पाता है, उत्पादन स्तर गिरने लगता है तथा उपक्रम खण्ड-सम-बिन्दु’ (Break-Even Point) अथवा उससे भी नीचे किसी बिन्दु पर घाटे में चला जाता है।

(2) आर्थिक शिथिलता एवं मन्दी (Economic Recession or Depression)-इनकी आशंकाएं ऐसे उद्योगों में अधिक होती हैं जिनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं की मांग लोचपूर्ण (elastic) होती है। जैसे इन्जीनियरिंग उद्योग, इलेक्ट्रॉनिक उद्योग, सूती वस्त्र उद्योग, रासायनिक उद्योग, आदि। इन उद्योगों की मांग एवं पूर्ति के सन्तुलन (Demand-supply balance) में थोड़ी-सी भी गड़बड़ होते ही बिक्री का वक्र (Sales curve) नीचे आने लगता है जो अन्य अनुवर्ती प्रतिकूल परिस्थितियों का प्रमुख कारण होता है। कुटीर उद्योग एवं लघु उद्योग तथा हस्तशिल्प की कलात्मक वस्तुओं का उत्पादन करने वाली औद्योगिक इकाइयों की दशा में भी ऐसी आशंकाएं अधिक रहती हैं।

(3) सरकारी नीतियों में परिवर्तन (Changes in Government Policies) सरकार की आर्थिक नीतियों में समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं। इन नीतियों में अनेक नीतियां सम्मिलित होती हैं। जैसे साख-नीति, मूल्य नीति, कर नीति, व्यापार-नीति, श्रम नीति, आदि। इन नीतियों में किये गये परिवर्तन कभी-कभी उद्योगों में संकट उत्पन्न कर देते हैं। उदाहरण के लिए, किसी वस्तु पर उत्पादन कर में वृद्धि, किसी उद्योग को प्राप्त होने वाले नकद अनुदान (Cash subsidy) में कमी अथवा उसकी समाप्ति, प्रत्यक्ष करों में वृद्धि, निर्यात करों में वृद्धि, आदि ऐसे कारण हो सकते हैं। अनेक वस्तुओं के उत्पादन के मूल्य सरकार द्वारा नियन्त्रित किये गये हैं। यदि नियन्त्रित मूल्य बढ़ती हुई लागतों की तुलना में स्थिर अथवा निम्न बिन्दु पर रखे जाते हैं, तो सम्बन्धित उद्योगों में रुग्णता की सम्भावनाएं अधिक हो जाती हैं। भारत में सीमेण्ट, इस्पात, चीनी उद्योग इन। समस्याओं से ग्रसित रह चुके हैं। अब 1980 के बाद से उनके उत्पादन के मूल्यों में वृद्धि की नीति अपनाकर सरकार द्वारा इस स्थिति के उपचार का प्रयास किया गया है।

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(4) क्रान्तिकारी तकनीकी परिवर्तन (Revolutionary Technological Changes) औद्योगिक क्षेत्रा। में तकनीक का विकास, प्रसार एवं हस्तान्तरण निरन्तर होता रहा है, किन्तु कभी-कभी नवीन आविष्कार अथवा नयी खोज कुछ उत्पादनों को अप्रचलित एवं अनुपयुक्त बना देते हैं जिससे उनसे सम्बन्धित औद्योगिक इकाइयां संकटग्रस्त हो जाती हैं। इसीलिए भावी परिवर्तनों की प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर ही उत्पाद-विविधीकरण (Product-diversification) का परामर्श दिया जाता है।

(5) अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में परिवर्तन (International Market Changes) विश्व के विभिन्न देशों में परस्पर वस्तुओं, सेवाओं एवं विचारों का निरन्तर आदान-प्रदान होता रहता है। यहां तक कि बन्द अर्थव्यवस्थाओं (Closed economies) वाले राष्ट्र भी इनसे अछूते नहीं रह सकते हैं। अतः अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में होने वाले परिवर्तनों के कारण भी औद्योगिक रुग्णता का प्रसार हो सकता है। पिछले वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर अनेक ऐसे परिवर्तन हुए हैं। जैसे—तेल के मूल्यों में अप्रत्याशित वृद्धि, आयात-निर्यातों पर रोक, विकसित देशों द्वारा अपनायी जाने वाली संरक्षण की नीति, पहले से मिलती आ रही विदेशी सहायता में किन्हीं कारणों से यकायक कमी अथवा उस पर पूर्ण रोक, आदि। बहु-राष्ट्रीय निगमों (Multi-national Corporations) द्वारा अपनायी जाने वाली नीतियों के कारण भी किसी देश में उद्योगों के समक्ष संकट उत्पन्न हो सकता है।

औद्योगिक रुग्णता के लक्षण

(SYMPTOMS OF INDUSTRIAL SICKNESS)

औद्योगिक रुग्णता के लक्षणों की पहचान करना अत्यन्त आवश्यक होता है, क्योंकि इनके बिना रोग का निदान असम्भव होता है। लक्षणों के प्रकट होते ही समय रहते उपचार के उपाय भी किये जा सकते हैं। यदि लक्षणों की जानकारी न हो सके अथवा जानकारी होने के बाद भी उनकी अवहेलना की जाये तो बाद में स्थिति लाइलाज हो सकती है। अतः सावधानीपूर्वक इन पर निगाह रखना आवश्यक होता है। किसी लक्षण अथवा किन्हीं लक्षणों की उपस्थिति की प्रकृति साधारण एवं अस्थायी स्थिति की द्योतक हो सकती है। अनेक बार ऐसी स्थिति व्यवसाय संचालन के सिलसिले में स्वतः ही ठीक भी हो जाती है। इसके विपरीत, कुछ अन्य दशाओं में ये लक्षण गहरे होते हैं तथा अपेक्षाकृत कुछ अधिक समय तक चलते रहते हैं। वस्तुतः ऐसे लक्षण ही चिन्ता का विषय बन जाते हैं। इन लक्षणों में निम्नलिखित का उल्लेख किया जाना आवश्यक है :

(1) कार्यशील पूंजी प्रबन्ध के स्तर में गिरावट (Deterioration in the quality of Working Capital Management)—व्यवसाय के चालू अनुपातों’ (Current-ratios), शीघ्र-अनुपात’ (Quick-ratios) में शनैः-शनैः निरन्तर गिरावट, प्राप्तियों (Receivables) में वृद्धि तथा दोषपूर्ण काल-क्रम सूची’ (Ageing Schedule), इनवेण्टी-आवर्ती (Inventory Turnover) में निरन्तर कमी, जिसके कारण माल के स्टॉक (विशेषतः तैयार माल) में वृद्धि।

(2) रोकड़ प्रबन्ध की कठिनाइयां (Difficulties in Cash Management) रोकड़-निर्गमों (cash outflows) में स्थिरता, किन्तु रोकड़-आगमों (cash-inflows) में निरन्तर गिरावट। फलस्वरूप रोकड़ का स्तर अनुकूलतम-बिन्दु (Optimum point) से नीचे रहना तथा यदाकदा रोकडहीनता (Out of Cash) की स्थिति हो जाना।

(3) वैधानिक दायित्वों की पूर्ति में त्रुटि (Default in payment of Statutory Liabilities) निर्बल। रोकड़ स्थिति के कारण विभिन्न प्रकार के करों (Taxes), भविष्य निधि एवं ग्रेच्युइटी की कटौतियों, कर्मचारी राज्य बीमा की कटौतियों, घोषित लाभांशों एवं ऋणों पर देय मूल एवं ब्याज की किस्तों की अदायगी में असामान्य विलम्ब एवं त्रुटि।

(4) बैंक ग्राहक सम्बन्धों में गिरावट (Deterioration in Bank-customer Relationship) – अधिविकर्षों (overdrafts) पर अधिक निर्भरता, रोकड़ साख के भुगतान में अनियमितताएं, वित्तीय स्थिति के बारे में आवश्यक विवरणों के प्रेषण में त्रुटि तथा बैंक द्वारा अधिक मार्जिन एवं उत्तम जमानत के लिए निरन्तर आग्रह, आदि।

(5) बिक्री में क्रमशः कमी (Gradual fall in Sales) बीमार उपक्रम द्वारा रोकड़-डिस्काउण्ट तथा व्यापारिक-डिस्काउण्ट में वृद्धि करके विक्रय बढ़ाने के असफल प्रयास, उदार उधार नीति (Liberal Credit Policy) तथा शिथिल वसूली (Slow Collections), शनैः-शनैः पुराने ग्राहकों से टकराव एवं कानूनी उलझनें, आदि।

(6) सम्पत्तिढांचे के दोष (Defective Assets Structure)—स्थायी सम्पत्तियों के उचित रख-रखाव, देख-रेख, मरम्मत, प्रतिस्थापन आदि की अवहेलना, दोषपूर्ण ह्रास नीति, सम्पत्तियों के लेख-मूल्यों (Book-values) की तुलना में उनके वास्तविक-मूल्यों (Real values) में निरन्तर कमी, कुछ कम आवश्यक स्थिर सम्पत्तियों की बिक्री, आदि।

(7) पूंजी ढांचे के दोष (Defects in Capital Structure) बाजार की नजरों में उपक्रम के विशुद्ध मूल्यांकन (Net worth) में गिरावट, स्टॉक एक्सचेन्ज में शेयरों के मूल्यों में कमी तथा इस प्रकार अति-पूंजीकरण (Over-capitalization) की दिशा की ओर व्यवसाय की अवनति ।

(8) अन्य लक्षण (Other Symptoms) इनमें अनेक प्रकार के लक्षण हो सकते हैं। जैसे अंशों के स्वामित्व के ढांचे में परिवर्तन, व्यवसाय की प्रबन्ध व्यवस्था में अचानक परिवर्तन, आदि।

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औद्योगिक रुग्णता के प्रभाव

(CONSEQUENCES OF INDUSTRIAL SICKNESS)

औद्योगिक रुग्णता का अर्थव्यवस्था के विभिन्न पक्षों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में जहां श्रम की अधिकता तथा पूंजी की कमी होती है, वहां इस समस्या का अधिक गंभीर परिणाम हो सकता है, औद्योगिक रुग्णता के अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले कुछ प्रभाव इस प्रकार हैं :

1 संसाधनों का दुरुपयोगसंसाधनों की कमी वाली अर्थव्यवस्थाओं में यदि औद्योगिक इकाइयां रुग्ण होकर बंद हो जाती हैं तो उसमें लगे हुए संसाधन बेकार हो जाते हैं जिससे एक राष्ट्रीय क्षति होती है। यदि रुग्ण होने वाली इकाई वृहद् आकार की हो तो समस्या और भी जटिल तथा गंभीर हो जाती है, क्योंकि उसमें भारी मात्रा में पूंजी निवेश हुआ रहता है।

2. औद्योगिक शांतिजब किसी बड़ी औद्योगिक इकाई में औद्योगिक रुग्णता उत्पन्न होती है और औद्योगिक इकाई बंद होने की स्थिति में पहुंच जाती है तब बडी संख्या में नियोजित श्रमिकों के बेरोजगार होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में श्रमिक संघ इसका विरोध करते हैं और अंततः औद्योगिक अशांति उत्पन्न होती है। अन्य उद्योगों के श्रमिक संगठन भी हड़ताल में शामिल हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप अन्य इकाइयों के उत्पादन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।

3. रोजगार पर विपरीत प्रभावऐसी औद्योगिक इकाइयां जहां बड़ी संख्या में श्रमिक नियोजित होते हैं, रुग्ण होकर बंद हो जाती हैं तो बड़ी संख्या में श्रमिक बेरोजगार हो जाएंगे। इस तरह, औधोगिक रुग्णता रोजगार पर विपरीत प्रभाव डालती है।

4. वित्तीय संस्थाओं पर बरा प्रभाव औद्योगिक इकाइयों के रुग्ण हो जाने पर बैंकों एवं वित्तीय संस्थाआ से प्राप्त ऋण की बकाया राशि वापस होना संदिग्ध हो जाता है जिससे बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं का बहुत नुकसान उठाना पड़ता है।

5. सरकार पर वित्तीय भार एवं राजस्व घाटा जहां रुग्ण औद्योगिक इकाइयों को पुनर्जीवन प्रदान करने के लिए केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारें बहुत बड़ी मात्रा में वित्तीय भार उठाती हैं, वहीं दूसरी ओर यदि रुग्ण औद्योगिक इकाई अच्छी स्थिति में होती और लाभ अर्जित करती तो सरकार को कर एवं शुल्क के रूप में राजस्व प्राप्त होता। इस प्रकार सरकार को दोहरी हानि उठानी पड़ती है।

6. निवेशकों एवं उद्यमियों पर प्रभाव जब औद्योगिक इकाई रुग्ण हो जाती है तथा बंद होने की स्थिति में पहुंच जाती है तो स्कंध बाजार में उस इकाई के शेयरों की दर गिरने लगती है और शेयर धारकों में निराशा एवं असंतोष उत्पन्न होने लगता है। इसके अतिरिक्त उन अन्य उद्यमियों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है जो उस उद्योग में सहायक औद्योगिक इकाई स्थापित किए रहते हैं।

7. परस्पर निर्भरता वाली एवं इकाइयों पर विपरीत प्रभाव यदि कोई बड़ी औद्योगिक इकाई रुग्ण हो जाती है तो उसका प्रभाव दो दिशाओं में पड़ता है। एक तो उन इकाइयों पर जिनसे वे अपनी आवश्यकता की पूर्ति करती हैं अथवा कच्चा माल आदि प्राप्त करती हैं। दूसरे उन इकाइयों पर पड़ता है जो कि रुग्ण। इकाई के उत्पादन पर निर्भर होती हैं, जैसे—लोहा एवं इस्पात उद्योग के रुग्ण होने का प्रभाव जहां कच्चा लोहा, कोयला एवं खनन उद्योग पर पड़ेगा वहीं वह परिवहन इंजीनियरिंग एवं भारी मशीन निर्माण उद्योग को भी प्रभावित करेगा जिसके फलस्वरूप देश का सम्पूर्ण औद्योगिक विकास प्रभावित होगा।

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औद्योगिक रुग्णता के उपचार के उपाय

(REMEDIAL MEASURES FOR INDUSTRIAL SICKNESS)

किसी बीमार औद्योगिक इकाई का उपचार उतना ही कठिन होता है जितनी कि किसी जीर्ण व्याधि से ग्रसित किसी रोगी का उपचार होता है। यदि यह कहा जाय कि यह उपचार उससे भी कठिन होता है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी, क्योंकि किसी रोगी व्यक्ति की दशा में उस व्यक्ति की स्वयं की इच्छा शक्ति तथा जीवन के प्रति उसकी युयुत्सा निरोग होने में सहायता करती है, जबकि एक बीमार व्यावसायिक उपक्रम अनेक व्यक्तियों का एक कृत्रिम संगठन होता है जिससे अनेक व्यक्तियों तथा व्यक्तियों के समूहों (संस्थाओं) के हित जुड़े होते हैं तथा उपचारकर्ता को उन सबसे सहयोग की अपेक्षा करनी होती है। वैसे तो औद्योगिक रुग्णता के अनेक उपाय हो सकते हैं, किन्तु व्यवहार में निम्न चार उपाय सामान्यतः अपनाये जाते हैं :

(1) पनर्सस्थापन (Rehabilitation) किसी बीमार उपक्रम का विघटन अथवा समापन सामान्यतः कोई नहीं चाहता है, जब तक कि उसकी व्याधि इतनी अधिक जटिल न हो कि उसका उपचार करना ही असम्भव हो जाय। अन्य दशाओं में रुग्ण उपक्रम के पुनसंस्थापन में केवल अंशधारी (Shareholders) ही नहीं बल्कि ऋणदाता (Creditors) भी रुचि रखते हैं। ऐसे ऋणदाताओं में अनेक पक्ष हो सकते हैं जैसे राष्ट्रीयकत एवं अन्य बैंक, वित्तीय निगम, बीमा निगम, यूनिट ट्रस्ट, आदि। इसके अतिरिक्त, बीमार उपक्रम का पनसंस्थापन उसके कर्मचारियों के लिए भी ‘डूबते को तिनके के सहारे’ के समान होता है।

पुनर्मस्थापन से पर्व सम्बद्ध पक्षों में सामान्य सहमति एवं सहयोग होना आवश्यक है। साथ ही उपक्रम के लिए समर्थताअध्ययन (viability study) तथा तकनीकी-आर्थिक अध्ययन (Techno-Economic Study) किया जाना आवश्यक है, ताकि रुग्णता के कारणों का पता लगाया जा सके तथा उपचार के लिए उपयुक्त उपायों का सझाव दिया जा सके। इस कार्य को सम्पन्न करने में परामर्शदाता विशेषज्ञों (Consultancy Experts) की सेवाएं ली जा सकती है। इन रिपोर्टों का अध्ययन सभी सम्बद्ध पक्षों द्वारा किया जाना चाहिए तथा उसके बाद ही पुनर्सस्थापना का कार्यक्रम निर्धारित किया जाना चाहिए। सामान्यतः ऐसे कार्यक्रमों में निम्न उपायों का समावेश होता है—प्रबन्धको का सहमति से एक परामर्श समिति का गठन जिसमें सब पक्षों का प्रतिनिधित्व हो. ब्याज एवं मूल की बकाया किस्ता की अवधि में वृद्धि, कार्यशील पंजी के लिए साख देते। समय कम मार्जिन का निर्धारण, ब्याज की दरों में कमी तथा वसूलियों का पूनः अनसचीकरण (Rescheduling)| यदि व्याधि जीर्ण प्रकृति की है, तो फिर कुछ आर ठोस उपाय करने होते हैं जैसे अग्रिम राशियों (Advances) का अवधि-ऋणों में परिवर्तन तथा अवधि-ऋणों (Term-Loans) का इक्विटी-अंशों (Equity shares) में परिवर्तन, आदि। यदि आवश्यक हो तो पुनः पूंजीकरण’ (Recapitalisation) का सहारा भी लिया जा सकता है।

यदि रुग्णता बाहरी कारणों से समस्त उद्योग में व्याप्त है तो फिर बैंकों, वित्तीय निगमों के अतिरिक्त अन्य सभी सम्बद्ध पक्षों जैसे कर्मचारियों एवं श्रम-संघों के प्रतिनिधि, केन्द्रीय सरकार एवं राज्य सरकार को संयुक्त प्रयास करना होगा तथा उपचार के लिए एक पैकेज प्रोग्राम (Package Programme) निर्धारित करना होगा जिसके अन्तर्गत अनेक उपाय होंगे: जैसे वित्तीय निगमों द्वारा पुनः अदायगी में छूट, केन्द्रीय सरकार द्वारा आय-करों एवं उत्पादन करों में कमी या छूट, राज्य सरकारों द्वारा बिक्री-कर एवं विद्युत् शुल्क में कमी या छूट तथा भविष्य निधि, ग्रेच्युइटी, कर्मचारी राज्य बीमा की कटौतियों की किस्तों की जमा करने की अवधि में वृद्धि, आदि।

(2) संविलयन एवं एकीकरण (Mergers and Amalgamation) बीमार उपक्रम का किसी अन्य उपक्रम में संविलयन तथा दो बीमार उपक्रमों का एकीकरण भी इस समस्या का निदान हो सकता है। इस विषय में सरकार की नीति यह रही है कि जहां तक सम्भव हो उसी औद्योगिक समूह (Industrial Group) के अन्तर्गत किसी अन्य सुदृढ़ उपक्रम में बीमार उपक्रम के संविलयन को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। इसके लिए भारत सरकार द्वारा आय-कर कानून की धारा 72(A) में संशोधन करके संविलयन की प्रक्रिया को सरल बनाया गया है ताकि ऐसे संविलयनों को प्रोत्साहन मिल सके।

संविलयन के द्वारा बीमार इकाई को सुदृढ़ इकाई से सम्बल प्राप्त हो जाता है तथा इसके समर्थन एवं मार्गदर्शन में यह क्रमशः लाभदायक इकाई में परिवर्तित हो जाती है।

(3) सरकार द्वारा प्रबन्ध का अधिग्रहण (Government take-over of Management) उद्योग (विकास एवं नियमन) अधिनियम के अन्तर्गत सरकार जांच परिणामों के बाद अथवा बिना जांच के ही ऐसा करने के औचित्य से सन्तुष्ट होने पर अस्थायी रूप से किसी कुप्रबन्धित उत्पादन इकाई के प्रबन्ध का अधिग्रहण कर सकती है। पिछले पचास वर्षों में निजी क्षेत्र की ऐसी अनेक इकाइयों के प्रबन्ध का अधिग्रहण सरकार द्वारा किया जा चुका है। ऐसी अधिगृहीत इकाई का प्रबन्ध किसी सरकारी निगम अथवा संगठन को सौंप दिया जाता है। सरकार को यह अधिकार प्राप्त है कि वह लोकसभा के अनुमोदन से ऐसे अस्थायी अधिग्रहणों की अवधि में वृद्धि करती रहे, अथवा उचित समझे जाने पर अधिनियम पास करके इन अधिगृहीत इकाइयों का राष्ट्रीयकरण कर दे।

सन् 1968 में राष्ट्रीय टेक्सटाइल निगम की स्थापना करके 103 बीमार सूती मिलों के प्रबन्ध को अधिगृहीत करके इसे सौंप दिया गया। इसके बाद 22 सूती मिलों का प्रबन्ध इसे और सौंपा जा चुका है। सन् 1972 में इस्को (IISCO) के प्रबन्ध का अधिग्रहण कर लिया गया जिसे दो-दो वर्ष के लिए बढ़ाया जाता रहा और अन्त तक 1976 में इसे राष्ट्रीयकृत कर दिया गया। अब यह सेल (SAIL) की एक सहायक कम्पनी है। सन् 1978 में स्वदेशी कॉटन मिल समूह (जयपुरियाज) की छह मिलों के प्रबन्ध को अधिगृहीत करना पड़ा क्योंकि पारिवारिक झगड़ों के कारण ये मिलें कुप्रबन्धित थीं तथा इनमें श्रमिक अशान्ति बढ़ रही थी। सन् 1980 में। लगभग 13 बीमार इकाइयों के प्रबन्ध को सरकार द्वारा अपने हाथों में लिया गया। इनमें हिन्द साइकिल लिमिटेड, सैन-रैले लिमिटेड एवं मारुति कम्पनी लिमिटेड के नाम उल्लेखनीय हैं। सरकार द्वारा ऐसे अधिग्रहण जनहित एवं राष्ट्रीय हित को देखते हुए किये गये हैं। मार्च 1989 तक 8 औद्योगिक उपक्रमों का प्रबन्ध सरकार द्वारा उद्योग (विकास एवं नियमन) अधिनियम, 1951 के अन्तर्गत किया जा रहा था। सन 1988 के बाद से । सरकार द्वारा इस अधिनियम के अधीन किसी नये उपक्रम के प्रबन्ध का अधिग्रहण नहीं किया गया है।

(4) राष्ट्रीयकरण (Nationalisation) संसद में अधिनियम पारित करके सरकार निजी क्षेत्र के किसा उद्योग अथवा उद्योग की किसी इकाई का राष्टीयकरण कर सकती है। जिन कुप्रबन्धित उद्योगों के प्रवन्ध का अधिग्रहण सरकार द्वारा अस्थायी रूप से कर लिया गया है उन्हें भी सरकार इसी व्यवस्था के अन्तर्गत राष्ट्रायकृत कर सकता है। याद आधानयम पास करना तत्काल सम्भव न हो तो भी राष्ट्रपति द्वारा विशेष रूप से जारा किये गये अध्यादेश के द्वारा ऐसा किया जा सकता है, जिसे बाद में अधिनियम पास करके संसद से अनुमादित। करा लिया जाता है। पिछले वर्षों में केन्द्रीय सरकार द्वारा निजी क्षेत्र के अनेक उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया। गया है। केवल सन् 1980 में केन्द्रीय सरकार द्वारा तेरह ऐसे उपक्रमों का राष्ट्रीयकरण किया गया जिनक। प्रबन्ध का अधिग्रहण सरकार द्वारा उद्योग (विकास एवं नियमन) अधिनियम के अन्तर्गत पहले ही किया जा चका था। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि राष्ट्रीयकरण औद्योगिक रुग्णता का कोई निदान अथवा उपचार। नहीं है। राष्ट्रीयकरण के बाद किसी उपक्रम की रूग्णता स्वतः ही समाप्त नहीं हो जाती है। सर्वविदित है कि सार्वजनिक क्षेत्र के राष्ट्रीयकृत अनेक उपक्रम स्वयं रोगग्रस्त हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि राष्ट्रीयकरण के बाद किसी बीमार। उपक्रम के उपचार का दायित्व सरकार पर जाता है।

जुलाई 1980 में घोषित नीति में यह उल्लेख किया गया कि उद्योग (विकास एवं नियमन) अधिनियम के अन्तर्गत बीमार इकाइयों के प्रबन्ध का अधिग्रहण अपवादस्वरूप केवल ऐसी दशाओं में ही किया जायेगा जबकि अन्य कोई विकल्प न रहे। अन्यथा सामान्यतः ऐसी इकाइयों के अन्य इकाइयों में संविलयन एवं एकीकरण को प्रोत्साहित किया जायेगा तथा इसके लिए सरकार बैंकों, वित्तीय निगमों एवं अन्य समस्त पक्षों का सहयोग लेगी। अतः छठी योजना में सरकार द्वारा प्रबन्ध अधिग्रहण के मामलों की संख्या में कमी हुई है। सन 1985 के दौरान केवल तीन औद्योगिक उपक्रमों का ही राष्ट्रीयकरण सम्बन्धित राज्य सरकारों द्वारा किया। गया जबकि सन् 1986 में नौ औद्योगिक कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण किया गया। इसके बाद से विचारधारा में क्रमशः निरन्तर बदलाव आया है। राष्ट्रीयकरण (Nationalisation) के प्रति रुझान का स्थान अब निजीकरण (Privatisation) के प्रति झुकाव ने ले लिया है। क्यों न अब सार्वजनिक क्षेत्र के घाटे (loss) में चलने वाले कुछ उपक्रमों का निजीकरण (Privatisation) कर दिया जाय? अब यह एक प्रमुख विचारणीय प्रश्न बन गया है यद्यपि अभी तक यह एक विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है (कम से कम भारत के सन्दर्भ में)।

रिजर्व बैंक द्वारा एक विशेष प्रकोष्ठ (Special Cell) की स्थापना की गयी है जो बीमार इकाइयों के उपचार के लिए बैंकों द्वारा किये जाने वाले प्रयासों की समीक्षा करता है। रिजर्व बैंक द्वारा अन्य बैंकों को निर्देश दिये गये हैं कि वे प्रारम्भिक अवस्था में ही रुग्णता का पता लगावें, बीमार इकाइयों से पेनल ब्याज (Penal Interest) वसूल न करें तथा यदि उपचार कार्य उनकी क्षमता के बाहर हो तो वे इसके लिए औद्योगिक विकास बैंक (IDBI) का सहयोग प्राप्त करें।

औद्योगिक विकास बैंक (IDBI) के पुनसंस्थापन एवं वित्त विभाग में भी एक विशेष प्रकोष्ठ की स्थापना की गयी है जिनमें बैंकों द्वारा बीमार इकाइयों के प्रेषित मामलों पर विचार किया जाता है, रुग्णता के कारणों का अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाता है तथा उपयुक्त पुनसंस्थापन कार्यक्रम (Rehabilitation Programme) निर्धारित किया जाता है।

केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्यों के स्तर पर अन्तरसंस्था समन्वय समितियां (Inter-institutional Co-ordination Committees) की स्थापना की गयी है। इन समितियों ने अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया है। इन समितियों में सम्बद्ध राज्य सरकार का उद्योग-सचिव अध्यक्ष तथा रिजर्व बैंक का प्रादेशिक अधिकारी संयोजक के रूप में कार्य करते हैं। इन समितियों के सुझाव पर बीमार इकाइयों के लिए मार्जिन-मनी योजना (Margin-money Scheme) प्रायोगिक तौर पर पांच वर्ष के लिए लागू की गयी है जिसके अन्तर्गत आसान शर्तों पर ऐसी इकाइयों को कुछ न्यूनतम कोषों की प्राप्ति हो जायेगी।

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औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्संगठन बोर्ड

(BOARD FOR INDUSTRIAL AND FINANCIAL RECONSTRUCTION)

इस बोर्ड का गठन 12 जनवरी, 1987 को बीमार औद्योगिक कम्पनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम के अन्तर्गत किया गया। बोर्ड में अध्यक्ष के अतिरिक्त 2 से लगाकर 14 तक सदस्य होंगे जो सभी भारत सरकार। द्वारा मनोनीत होंगे। इस बोर्ड का प्रमुख उद्देश्य बीमार (Sick) तथा सम्भावित बीमार (Potentially Sick)  कम्पनियों के पुनरुत्थान, सुधार, उपचार, पुनसंगठन, पुनसंस्थापन, आदि के लिए उचित व्यवस्थाएं करनी होगी। यह बोर्ड विशाल एवं मध्यम’ क्षेत्र की बीमार एवं सम्भावित बीमार औद्योगिक इकाइयों के उपचार हेतु आवश्यका उपायों को क्रियान्वित करेगा। बीमार औद्योगिक कम्पनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम [Sick Industrial Companies (Special Provisions) Act] भारत सरकार द्वारा सन् 1985 में पास किया गया।

बीमार कम्पनी (Sick Company) वह कही जायेगी जो (i) कम-से-कम सात वर्षों से रजिस्टर्ड हो. जिसमें संचित घाटा (accumulated loss) किसी वर्ष में स्वामि-पूंजी (चकता ईक्विटी अंश पंजी + संचित कोष) के बराबर या उससे अधिक हो गया हो तथा (ii) जिसे उस वर्ष और उससे ठीक पहले के वर्ष में भी नकद-घाटा (Cash-loss) सहन करना पड़ा है। कमजोर कम्पनी (Weak Company) उसे कहा जायेगा यदि किसी लेखा वर्ष के अन्त में उसका संचित घाटा (accumulated loss) तत्काल पहले के पांच वर्षों की सर्वाधिक खरी पूंजी (Peak Net Worth in the immediately preceding 5 years) के 50 प्रतिशत के बराबर या उसमें अधिक हो जाय।’

निर्बल कमजोर कम्पनी के लिए यह आवश्यक होगा कि वह अपने उपचार के लिए अपनाये जाने वाले उपायों के विषय में इस बोर्ड के समक्ष अपना मामला पेश करे। साथ ही यह भी आवश्यक होगा कि उसके अंशधारियों की एक सभा आयोजित करके उसमें कम्पनी के प्रबन्ध के विषय में नवीनादेश (Fresh Mandate) प्राप्त किया जाय।

बीमार कम्पनी के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी स्थिति के बारे में बोर्ड को सूचित करे। ऐसी सूचना बीमार कम्पनी के अतिरिक्त अन्य पक्ष भी कर सकते हैं। जैसे—केन्द्रीय अथवा राज्य सरकारें, रिजर्व बैंक, व्यापारिक बैंक, वित्तीय निगम, आदि। यह बोर्ड स्वयं भी आश्वस्त होने पर किसी बीमार कम्पनी के बारे में उचित कार्यवाही कर सकता है या किये जाने की व्यवस्था कर सकता है।

बीमार कम्पनी के निदेशक मण्डल के लिए यह एक वैधानिक अनिवार्यता है कि वह अंकेक्षित लेखों को अन्तिम रूप दिये जाने के 60 दिन के अन्दर बोर्ड (BIFR) को इसकी सूचना देवे। मामला सन्दर्भित हो जाने के बाद बीमार कम्पनी के विषय में आगे उचित कदम उठाने का दायित्व बोर्ड का हो जाता है। बोर्ड के सामने दो मार्ग होते हैं। प्रथम, यदि कम्पनी viable प्रतीत होती है तो वह बीमार कम्पनी के उपचार के लिए एक पुनर्वास योजना (Rehabilitation Package) बनाने का दायित्व किसी Operating agency को सौंप सकता है तथा द्वितीय, यदि कम्पनी non-viable प्रतीत होती हो, तो वह ऐसी कम्पनी को समापित किये जाने की संस्तुति उच्च न्यायालय को कर सकता है।

बोर्ड के कर्तव्य (Duties of the Board) किसी बीमार कम्पनी की रिपोर्ट प्राप्त होने पर यह बोर्ड (BIER) उस कम्पनी को एक निश्चित समय देगा जिससे कि कम्पनी यदि सम्भव हो तो अपनी स्वामि-पूंजी को ऋणात्मक (negative) से धनात्मक (positive) बना ले, अन्यथा बोर्ड निम्नलिखित उपायों में से किसी या किन्हीं उपायों को लागू करने की कार्यवाही कर सकता है या किये जाने की व्यवस्था कर सकता है:

(1) बीमार औद्योगिक कम्पनी के पुनर्गठन (restructuring), पुनरुत्थान (revival) एवं पुनर्संस्थापन (rehabilitation) के सम्बन्ध में उचित उपाय:

(2) बीमार कम्पनी के प्रबन्ध में परिवर्तन अथवा उसके प्रबन्ध के अधिग्रहण (take-over of management) की व्यवस्था:

(3) बीमार कम्पनी का किसी अन्य स्वस्थ कम्पनी में एकीकरण (amalgamation);

(4) बीमार कम्पनी के सम्पूर्ण अथवा किसी भाग की बिक्री (Sale) अथवा लीज (Lease);

(5) अन्य उचित सुधारात्मक (ameliorative), निरोधक (preventive) तथा उपचारात्मक (remedial) उपाय:

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(6) उपर्युक्त उपायों के क्रियान्वयन के सिलसिले में अन्य प्रासंगिक (incidental) उपाय अधिनियम के अन्तर्गत एक अपील प्राधिकरण (Appellate-authority) की रचना की गयी है जहा। बोर्ड (BIFR) के निर्णय के विरुद्ध अपील की जा सकेगी। यदि किसी कम्पनी की दशा इतनी गिर गया ह। कि उपर्युक्त उपायों से उसे उठाना असम्भव प्रतीत होता हो, तो ऐसी दशा में यह बोर्ड उस बीमार कम्पनी के समापन (Winding-up) के लिए उच्च न्यायालय को संस्तुति प्रेषित कर सकेगा, जिससे कि ऐसी कम्पनी को न्यायालय के आदेश से समाप्त किया जा सके।

अपनी स्थापना (मई 1987) से लेकर अगस्त, 2004 तक औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड (BIFR) के समक्ष 6,457 मामले सन्दर्भित (refer) किये गये जिनमें 285 मामले केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों से सम्बन्धित थे। सन्दर्भित मामलों में से 5,029 मामले पंजीकृत किये गये, 1,345 मामलों को खारिज कर दिया गया, 635 मामलों में पुनर्निर्माण के लिए योजनाएं स्वीकृत की गयीं, 1,278 मामलो। में सम्बद्ध कम्पनियों को समापित (wind-up) किये जाने की सिफारिश की गयी, तथा 367 मामले ऐसे थ। जो अब बीमार नहीं घोषित कर दिये गये, क्योंकि उनकी खरी स्वामि-पूंजी (Net worth) अब धनात्मक (positive) हो चुकी थी। शेष मामले विचाराधीन थे या उनके विषय में जांच-पड़ताल चल रही थी अथवा न्यायालय ने कुछ विषयों में स्थगन आदेश (Stay order) दिया हुआ था।

जहां तक सार्वजनिक क्षेत्र के सन्दर्भो का प्रश्न था, 286 सन्दर्भित मामलों में से 203 मामलों को पंजीकृत किया गया। 43 मामलों के लिए पुनर्निर्माण की योजनाएं स्वीकृत की गयीं। 71 उपक्रमों को समापित (wind-up) किये जाने की सिफारिश की गयी। 16 मामले अब बीमार नहीं घोषित कर दिये गये तथा 40 मामलों को खारिज कर दिया गया।

अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों से भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा संकलित सूचना के अनुसार वर्तमान में 1,71,376 रुग्ण/कमजोर इकाइयां हैं जिसमें से लघु उद्योग क्षेत्र की 1,67,980 इकाइयां तथा गैर-लघु उद्योग क्षेत्र की 3,396 इकाइयां हैं। रुग्ण इकाइयों में कुल अवरुद्ध बैंक ऋण 34,816.23 करोड़ ₹ हैं। लघु उद्योग क्षेत्र की इकाइयों में 5,706.34 करोड़ ₹ (16%) अवरुद्ध है, जबकि गैर-लघु उद्योग क्षेत्र में यह 29,109.89 करोड़ ₹ (84%) है।

कार्य की अधिकता को देखते हुए BIFR की बेंचों की संख्या 3 से बढ़ाकर 4 कर दी गयी है। परिचालन एजेन्सी (Operating Agencies) की सूची का भी विस्तार किया गया है और अब इस सूची में 4 केन्द्रीय वित्तीय संस्थाएं और 8 एकीकृत व्यापारिक बैंक सम्मिलित हैं। घोषित बीमार कम्पनी के उपचार एवं पुनर्संस्थापन के लिए पैकेज योजना तैयार करने के लिए BIFR इस सूची में से किसी भी एजेन्सी को नामांकित कर सकता है। बड़ी बीमार कम्पनियों की दशा में उनके उपचार के लिए पैकेज योजना बनाने का कार्य एक से अधिक एजेन्सियों को भी सौंपा जा सकता है।

यदि बोर्ड (BIFR) इस बात से सन्तुष्ट हो कि कोई बीमार कम्पनी उचित समय के अन्दर वित्तीय सक्षमता (Solvency) की स्थिति प्राप्त कर सकती है, तो वह कम्पनी को ऐसा करने की अनुमति दे सकता है। अन्यथा बोर्ड द्वारा अधिकृत परिचालन एजेन्सी (Operating Agency) को अन्य विकल्पों पर विचार करने के लिए कहा जा सकता है, जैसे संविलयन, एकीकरण, समझौता (compromise), अंशों का हस्तान्तरण, प्रबन्ध आदि। इसके द्वारा बनायी गयी, पुनर्वास योजना (Rehabilitation Scheme) को क्रियान्वित करने के लिए अतिरिक्त वित्त तथा अनेक प्रकार की राहतों एवं रियायतों (reliefs and concessions) की अपेक्षा हो सकती है। यदि पुनर्वास योजना सफल नहीं हो पाती है तो फिर बोर्ड (BIFR) सम्बद्ध उच्च न्यायालय को कम्पनी के समापन (winding-up) के लिए संस्तुति कर सकता है।

गोस्वामी समिति के प्रतिवेदन में कहा गया है कि बोर्ड द्वारा बीमार कम्पनियों के मामलों के निपटारे में अनावश्यक विलम्ब होता रहा है। निपटारे की औसत अवधि दो वर्ष से कछ अधिक ही रही है। इतनी लम्बी अनिश्चितता की स्थिति बीमार कम्पनी के सुरक्षित लेनदारों (Secured Creditors) और कम्पनी के कर्मचारियृं एवं श्रमिकों के लिए अत्यन्त दुखदायी रही है, यद्यपि बीमार कम्पनी के प्रवर्तक (Promoters) ऐसी लटकी हुई स्थिति से आनन्दित ही हुए हैं। वसूली कार्यवाही के स्थान और बोर्ड द्वारा निपटारे के लिए कोई समयावधि (time-limit) का इस अधिनियम में प्रावधान न होने से प्रवर्तकों एवं मालिकों को राहत ही मिलती रही है, क्योंकि अनेक मामलों में कम्पनी का विदोहन तो वे पहले ही कर चुके होते हैं तथा जानबूझकर. अथवा अनजाने कुप्रबन्ध एवं कम्पनी को बीमार बनाने का दायित्व तो उन्हीं पर होता है।

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गोस्वामी समिति की रिपोर्ट (Report of Goswami Committee)

मई 1993 में भारत सरकार द्वारा, कम्पनियों के पुनर्गठन एवं औद्योगिक रुग्णता के लिए समिति (Committee on Corporate Restructuring and Industrial Sickness) की नियुक्ति की गयी जिसे गोस्वामी समिति के नाम से जाना जाता है। समिति द्वारा बीमार कम्पनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1985 का भली प्रकार अध्ययन एवं पुनरावलोकन करके अपनी रिपोर्ट जुलाई 1993 में दी गयी। इसके द्वारा दिये गये प्रमुख सुझाव निम्नलिखित हैं :

1 बोर्ड (BIFR) की भूमिका एक शीघ्र राहतकर्ता (Fast track Facilitator) की होनी चाहिए न कि एक निर्णायक (arbitrator) की। अब तक बोर्ड का अधिक ध्यान पुनर्वास (rehabilitation) पर ही रहा है।

2. बीमार कम्पनी की परिभाषा वित्तीय आधार पर की जानी चाहिए। कोई कम्पनी बीमार उस हालत में मानी जानी चाहिए जबकि वह देय किस्त एवं/अथवा व्याज (instalment and/or interest) का भुगतान करने में निरन्तर 180 दिन तक असफल रही हो। वर्तमान में कम्पनी बीमार उस दशा में मानी जाती है, जबकि (i) उसकी आयु (age) सात वर्ष (अब संशोधन के बाद पांच वर्ष) हो, (ii) उसकी स्वामि-पूंजी (Net worth) पूर्णतः नष्ट हो चुकी हो तथा (iii) उसे लगातार पिछले दो वर्षों में नकद घाटा (cash losses) हुआ हो (अब 1993 के संशोधन के बाद यह तीसरी शर्त हटा ली गयी है)

3. बीमार कम्पनी के लिए यह स्वैच्छिक (voluntary) होना चाहिए कि यदि वह चाहे तो अपना मामला बोर्ड (BIFR) को सन्दर्भित (refer) करे अथवा न करे। अभी ऐसा करना उसकी एक वैधानिक अनिवार्यता (mandatory) है।

4. समिति ने बोर्ड (BIFR) द्वारा निपटारे के लिए समयावधि (time-limit) निर्धारित करने का सुझाव दिया है। सर्वप्रथम बोर्ड कम्पनी के प्रवर्तकों प्रबन्धकों को 90 दिन के अन्दर एक ऐसी योजना (plan) तैयार करने के लिए आदेश देगा, जो कम्पनी के तीन-चौथाई सुरक्षित लेनदारों (Secured Creditors) को सन्तुष्ट कर सके। यदि इस योजना से 3/4 सुरिक्षत लेनदार सन्तुष्ट हैं, तो इसे ही बोर्ड (BIFR) की अनुमोदित योजना मान लिया जाना चाहिए। यदि नहीं तो बोर्ड पुनः 60 दिन के अन्दर एक वैकल्पिक योजना तैयार करने का अन्तिम प्रयास करने के लिए प्रबन्धको प्रवर्तकों को निर्देश देगा। यदि इस द्वितीय योजना से भी कम्पनी के 3/4 सुरक्षित लेनदार सन्तुष्ट नहीं होते हैं तो फिर बोर्ड यह मामला वसूली ट्रिब्यूनल (Recovery Tribunal) को प्रेषित कर सकता है, अथवा समापन (winding-up) के लिए सम्बद्ध उच्च न्यायालय को संस्तुति कर सकता है।

5. पुनर्वास (rehabilitation) उन्हीं मामलों में न्यायोचित माना जाना चाहिए जबकि भावी रोकड़ आगमों (future cash inflows) की निर्धारित कटौती दर (discount rate) शुद्ध वर्तमान मूल्य (net present value) कोषों के नये निगमों (fresh outflows of funds) से अधिक हो। किसी बीमार कम्पनी की जीव्यता (viability) ज्ञात करने का यह एक अधिक कठोर परीक्षण होगा जिस पर खरा उतरने के बाद ही ऐसी बीमार कम्पनी के लिए पुनर्वास योजना तैयार की जानी चाहिए।

6. छंटनी (retrenchment) के लिए क्षतिपूर्ति सम्पूर्ण सेवा-काल के कुछ वर्षों को आधार मानते हुए सेवा के प्रत्येक वर्ष के लिए एक माह के वेतन के बराबर दी जानी चाहिए।

7. बोर्ड के सदस्यमण्डल में पेशेवर व्यवसायियों (Professionals) की संख्या बढ़ायी जानी चाहिए।

8. बीमार कम्पनियों के पास फालतू पड़ी जमीन की बिक्री से उनके उपचार के लिए पर्याप्त वित्तीय साधन उपलब्ध हो सकते हैं। अतः ऐसी भूमि के विक्रय के लिए ‘Urban Land Ceiling Act’ की व्यवस्थाओं से छूट देने के लिए कहा जाना चाहिए।

9. समापन ट्रिब्यूनलों (Winding-up Tribunals) की स्थापना की जानी चाहिए जिससे कि समापन शीघ्रता से निपटाया जा सके। वर्तमान में उच्च न्यायालय की देखरेख में समापन का कार्य अत्यन्त विलम्बकारी है।

10. औद्योगिक संघर्ष अधिनियम में संशोधन करके कार्य से हटाने (lay-off), छंटनी करने अथवा स्थायी रूप में व्यवसाय बन्द करने (permanent closure) के लिए सरकार की पूर्व अनुमति लेने की अनिवार्यता हटायी जानी चाहिए।

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गोस्वामी समिति द्वारा दिये गये उपर्युक्त सुझाव निश्चय ही अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं उपयोगी हैं। इन सुझावों में तीन विशेष रूप से विचारणीय हैं :

प्रथम, वित्तीय आधार पर बीमार कम्पनी की नयी परिभाषा, द्वितीय निपटारे के लिए एक समयबद्ध कार्यक्रम तथा तृतीय, वैधानिक अनिवार्यता के स्थान पर बीमार कम्पनी द्वारा बोर्ड के सम्प्रेषण का स्वैच्छिक आधार। आशा है निकट भविष्य में ही बीमार कम्पनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम में संशोधन करके उपर्युक्त सुझावों का समावेश किया जायेगा।

जुलाई 1991 में घोषित नवीन औद्योगिक नीति के अनुसार सार्वजनिक क्षेत्र के निरन्तर घाटे में चले आ रहे उपक्रमों को बीमार इकाइयों की श्रेणी में सम्मिलित किये जाने तथा इन्हें औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्गठन बोर्ड (BIFR) को सन्दर्भित (refer) किये जाने का प्रावधान किया गया। इसके लिए Sick Industrial Companies (Special Provisions) Act में संशोधन करके सार्वजनिक क्षेत्र को भी इसकी परिधि में ला दिया गया। अब तक केवल निजी क्षेत्र की बीमार इकाइयों को ही इस बोर्ड (BIFR) को सन्दर्भित किया जाता था। इससे बोर्ड (BIFR) के दायित्वों में वृद्धि हो गयी है। जहां तक viable उपक्रमों का सम्बन्ध है इनके लिए बोर्ड (BIFR) के निर्देश पर इनके पुनर्वास अथवा पुनर्निर्माण की योजना बनायी जा सकती है किन्तु यदि उनमें कुछ इकाइयां Non-viable प्रतीत होती हैं तो बोर्ड (BIFR) द्वारा उनके समापन (winding-up) के लिए सिफारिश की जा सकती है। ऐसा करने पर नियोजित श्रमिकों के संघों द्वारा प्रबल विरोध किये जाने की सम्भावना बनी रहती है। इसके निराकरण के लिए एक पृथक् कोष की स्थापना की गयी है, जिसे राष्ट्रीय नवीकरण कोष (National Renewal Fund) कहा जाता है। अब तक इस कोष में 1,200 करोड़ ₹ जमा किये जा चुके हैं, जिनका उपयोग स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना के अन्तर्गत क्षतिपूर्ति देने अथवा हटाये गये श्रमिकों को अन्य प्रकार से प्रशिक्षित किये जाने पर किया जाता है।

कम्पनी (द्वितीय संशोधन) अधिनियम 2002 (Companies Second Amendment Act, 2002) के अन्तर्गत राष्ट्रीय कम्पनी कानून ट्रिब्यूनल (National Company Law Tribunal-NCLT) के गठन का प्रावधान किया गया है। रुग्ण औद्योगिक कम्पनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम (Sick Industrial Companies (Special Provision) Act, 1985-SICA) के रद्द होने पर NCLT ही Company Law Board, BIFR तथा हाई कोर्ट (Winding up of Companies) के कार्यों की देखरेख करेगा। SICA की तुलना में NCLT के कई लाभ हैं, जैसे,

  • रुग्णता को फिर से परिभाषित किया गया है,
  • एक पुनरुद्धार तथा पुनर्वास कोष की स्थापना की गई है, तथा
  • ऋणदाता के सुरक्षा (Protection from Creditors) के प्रावधान को हटा लिया गया है।

NCLT अब कम्पनियों के लिए अकेला फोरम होगा तथा यह CLB (Company Law Board), DIFR तथा हाई कोर्ट (winding up of companies) इन तीनों फोरम का स्थान लेगा।

अब तक BIFR उद्योगों की असफलता के समाधान में प्रमुख भूमिका निभा रहा है

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लघु क्षेत्र की बीमार इकाइयां (Sick Units in the S. S. I. Sector)

यह पहले ही कहा जा चुका है कि कुल बीमार इकाइयों की 98 प्रतिशत इकाइयों का सम्बन्ध लघु क्षेत्र से है। दुर्भाग्य से बीमार कम्पनी (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1985 लघु क्षेत्र की बीमार इकाइयों पर लागू नहीं होता है। इनके पुनरुत्थान एवं पुनर्सस्थापन के लिए रिजर्व बैंक द्वारा दिशा निर्देश निर्धारित किये गये हैं जिनके अनुसार व्यापारिक बैंक इस कार्य में सहयोग देते हैं।

लघु क्षेत्र की बीमार इकाई की संशोधित परिभाषा रिजर्व बैंक द्वारा सितम्बर 1989 में इस प्रकार की गयी-“लघु क्षेत्र में किसी इकाई को बीमार उस दशा में समझा जायेगा जबकि किसी लेखा-वर्ष के अन्त में उसका संचित घाटा (accumulated loss) पूर्व के ठीक पांच वर्षों की सर्वाधिक शुद्ध-स्वामि पूंजी (Peak Net Worth in the immediately 5 years) के बराबर या उससे अधिक हो गया हो।” यही परिभाषा अति लघु क्षेत्र (Tiny Sector) के उपक्रमों पर भी लागू होगी। यदि किसी इकाई की वित्तीय स्थिति भली प्रकार से ज्ञात नहीं की जा सकती हो तो ऐसी दशा में लघु क्षेत्र में कोई इकाई बीमार तब मानी जायेगी “जबकि उसके द्वारा एक वर्ष तक ऋणों के मूल एवं व्याज की किस्तों का भुगतान करने में त्रुटि (default) की गयी हो और साथ ही बैंकों द्वारा स्वीकृत ऋण सीमाओं (credit limits) के विषय में निरन्तर अनियमितताएं बरती गयी हों।”

बैंकों को निर्देश दिये गये हैं कि वे ऐसी बीमार इकाइयों का निरन्तर मानीटरिंग करते रहें। सर्वप्रथम उनकी सक्षमता (viability) की जांच करनी होगी। यदि कोई बीमार इकाई viable है तो उसके उपचार के लिए अन्य सम्बद्ध बैंकों के साथ मिलकर प्रमुख बैंक एक योजना बनाकर उस पर कार्य करेगा। इसके अन्तर्गत अनेक कदम उठाने होंगे जैसे मालिकों से नष्ट हुई पूंजी (Eroded Capital) के एक न्यूनतम भाग की पूर्ति करने को कहना, बैंक ऋणों का पुनः अनुसूचीकरण (Rescheduling of Bank Loans), ब्याज दर में कमी, नयी साख की पूर्ति, प्रबन्ध व्यवस्था में सुधार के लिए परामर्श, आदि। इकाई के non-viable होने की दशा में श्रेयस्कर यही होगा कि ऐसी बीमार इकाई को समापित या बन्द कर दिया जाय।

अप्रैल 1990 के बाद से अब लघु क्षेत्र की बीमार इकाइयों के पुनर्निर्माण का दायित्व भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI) ने अपने हाथ में ले लिया है। राज्य स्तरीय वित्त एवं विकास निगमों के सहयोग से यह कार्य सम्पन्न किया जाता है।

Business Environment Industrial Sickness

प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 औद्योगिक रुग्णता से आप क्या समझते हैं? इसकी वर्तमान स्थिति का वर्णन करें।

2. औद्योगिक रुग्णता के कारणों की विवेचना करें।

3. औद्योगिक रुग्णता की समस्या के समाधान के लिए औद्योगिक एवं पुनर्संगठन बोर्ड (BIFR) की भूमिका की जांच करें।

4. औद्योगिक रुग्णता से क्या अभिप्राय है? औद्योगिक रुग्णता के देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभावों की विवेचना कीजिए।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

1 लघु क्षेत्र की बीमार इकाइयों पर टिप्पणी लिखें।

2. औद्योगिक रुग्णता के लक्षणों पर प्रकाश डालें।

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chetansati

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