BCom 1st Year Business Environment Devaluations Study material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Environment Devaluations Study material Notes in Hindi

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Devaluations Study material Notes
Devaluations Study material Notes

BCom 1st year Business Environment Exim Policy Study Material Notes in Hindi

अवमूल्यन

[DEVALUATION

अवमूल्यन का अर्थ

(MEANING OF DEVALUATION)

अवमूल्यन का अर्थ है सरकारी दर (Official rate) में कमी जिस पर एक मुद्रा का दूसरी मुद्रा में विनिमय किया जाता है। दूसरे शब्दों में, अवमूल्यन दो मुद्राओं की स्थिर विनिमय दर में गिरावट को कहा जाता है। जब दो करेंसी के सापेक्ष मूल्य को सरकार द्वारा स्वीकृत स्तर पर स्थिर कर दिया जाता है, एक करेंसी के मूल्य को इस स्वीकृत स्थिर स्तर पर निर्धारित मूल्य से कम कर दिया जाता है तो उसे अवमूल्यन कहा जाता है।

1944 में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना के पूर्व स्वर्णमान के अन्तर्गत किसी करेंसी के विनिमय मूल्य का निर्धारण उसके सोने के रूप में कीमत से होता था। यदि, मान लें, 0.1 आउन्स सोना भारत में 100 ₹ में मिले तथा इतना ही सोना अमरीका में 2 डॉलर में मिले तो 100 ₹ = 2 डॉलर या 1 डॉलर = 50 ₹। इसका यह अर्थ है कि एक डॉलर की विनिमय दर 50 ₹ है। विनिमय दर का अर्थ है किसी करेंसी का अन्तर्राष्ट्रीय मूल्य। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की मूल धाराओं के अन्तर्गत सदस्य देशों ने इस दायित्व को स्वीकार किया कि वे अपनी मुद्राओं के विनिमय मूल्य को सोना तथा डॉलर के रूप में स्थिर रखेंगे। इसमें उतार-चढ़ाव + 1 प्रतिशत की पट्टी के अन्दर ही हो सकता था। दिसम्बर 1971 में इस पट्टी को बढ़ाकर +2.25 प्रतिशत कर दिया गया, लेकिन विनिमय दर में परिवर्तन करने के लिए मुद्रा कोष से अनुमति लेनी पड़ती थी। यह परिवर्तन गंभीर भुगतान संतुलन की समस्या के समाधान के लिए ही हो सकता था।

अवमूल्यन अर्थात् विनिमय दर में हास’ (Depreciation) भुगतान शेष के घाटे को दूर कर सकता है क्योंकि इससे विदेशी मुद्रा के रूप में निर्यात की कीमत घट जाती है तथा घरेलू बाजार में आयात की कीमत बढ़ जाती है। आवश्यक नहीं है कि अवमूल्यन के उद्देश्य—भुगतान शेष में घाटा को समाप्त करना—पूरे होंगे ही। अवमूल्यन का तात्कालिक प्रभाव वही होता है जो व्यापार शर्त (Terms of trade) में परिवर्तन का होता है। निर्यात वस्तुओं के उत्पादन में लगे उन्हीं साधनों से अवमूल्यन के कारण आयात के भुगतान के लिए कम विदेशी विनिमय प्राप्त होता है। यदि आयात पहले के ही बराबर होता है तो इसके भुगतान के लिए अधिक निर्यात करना होगा अर्थात् घरेलू उपभोग तथा निवेश कम करके अधिक उत्पत्ति का निर्यात होगा यथास्थिति (Status quo) को बनाये रखने के लिए। इसका यह अर्थ होगा कि भुगतान शेष को किसी प्रकार का लाभ पहुंचाये बिना अवमूल्यन करने वाले देश में वास्तविक आय में कमी आएगी।

अवमल्यन से भुगतान शेष को तभी फायदा पहुंचेगा जब निर्यात तथा आयात की मांग लोच अनकल हो अर्थात मांग लोचदार हो। निर्यात की मांग के विदेशों में लोचदार होने पर अवमल्यन के कारण विदेशी करेंसी की कीमत घटने के कारण, निर्यात की मात्रा बढ़ेगी तथा लोचदार आयात की मात्रा घटेगी क्योंकि घरेलू मुद्रा की बाह्य कीमत बढ़ जाएगी।

अवमुल्यन एक ऐसा यंत्र है जिसका उपयोग अन्तिम हथियार के रूप में करना चाहिए। ब्रिटेन में इसके उपयोग के पूर्व घरेलू बाजार में अपस्फीति (deflation) तथा विदेशी ऋण का सहारा लिया जाता था।

Business Environment Devaluations

भारत में अवमूल्यन का उपयोग

(DEVALUATION IN INDIA)

1947 में भारत अन्तर्राष्टीय मद्रा कोष का सदस्य बन गया। इसलिए इसने रुपए का विदेशी मूल्य सोना या डॉलर के रूप में निर्धारित कर दिया। रुपए का विनिमय दर इस प्रकार था : एक रुपया = 0.268691 ग्राम सोना या एक रुपया – 30 सेन्ट (अमरीकी)। याद रहे एक डॉलर = 100 सेन्ट। मद्रा कोष के सदस्य। के रूप में ब्रिटेन ने पाउंड-स्टर्लिंग की जो कीमत सोना या डॉलर के रूप में निर्धारित की उसके अनुसार रुपए। की विनिमय दर एक शिलिंग छ: पेन्स हो गई। _ सितम्बर 1949 में सोना या अमरीकी डॉलर के रूप में स्टर्लिंग का 30.5 प्रतिशत अवमूल्यन किया गया। भारत ने भी, राष्ट्रमंडल के अन्य सदस्य देशों की तरह, अपने रुपए का भी 30.5 प्रतिशत अवमूल्यन किया। इसका कारण यह था कि उस समय भारत का विदेशी व्यापार स्टर्लिंग क्षेत्र के साथ ही अधिक मात्रा में होता था। अतः अब रुपए का विनिमय मूल्य 0.186621 ग्राम सोना या 20.94 अमरीकी सेन्ट हो गया या 1 डॉलर = 4.76₹ तथा £1 = 13.33 ₹।

6 जून, 1966 को रुपए का फिर 36.5 प्रतिशत अवमूल्यन किया गया। फलतः एक रुपया का मूल्य 0.1185 ग्राम सोना हो गया तथा एक अमरीकी डॉलर 7.5 ₹ के बराबर हो गया एवं £1 = 21 ₹ 1 नवम्बर, 1967 में स्टलिंग के 14.3 प्रतिशत अवमूल्यन के कारण £1 = 18₹ हो गया, 217 के बदले में।

दिसम्बर 1971 में डॉलर का 10 प्रतिशत अवमूल्यन किया गया तथा स्टर्लिंग को तैरने के लिए छोड़ दिया गया। एक स्टर्लिंग का मूल्य 19 ₹ हो गया। इसका अर्थ है स्टर्लिंग के रूप में रुपए का 5.1 प्रतिशत अवमूल्यन। फरवरी 12, 1973 को डॉलर का फिर 10 प्रतिशत अवमूल्यन किया गया। सितम्बर 1975 में रुपए का स्टर्लिंग से सम्बन्ध तोड़ लिया गया तथा इसके मूल्य का निर्धारण विश्व की कई मुद्राओं के मूल्य के आधार पर किया जाने लगा।

उदाहरणार्थ, 15 अक्टूबर, 1982 को रुपए का विनिमय मूल्य विश्व की प्रमुख करेंसी के रूप में इस प्रकार था:

£1 =₹16.5871

अमरीका $1=₹9.7166

जर्मन D. Mark 1 =₹3.8589

जापानी Yen 100 =₹ 3.6124

स्टर्लिंग से रुपए के विनिमय मूल्य को मुक्त करने का यह प्रभाव पड़ा कि अब भारत के विदेशी व्यापार तथा भुगतान की विविधताओं का सही प्रतिबिम्ब रुपए के विनिमय मूल्य में नजर आने लगा। इसके

अधिक संतोषजनक परिणाम निकले। रुपए के विनिमय मूल्य में अब अधिक स्थिरता देखी जा सकती है। हमारे निर्यात में लगातार वृद्धि हुई है।

1991 के आर्थिक संकट का प्रमुख कारण भुगतान शेष की समस्या थी। इसलिए रुपए के विनिमय दर में समायोजन (adjustment) जरूरी था। भारतीय रुपए के बाह्य मूल्य में दो चरणों में 18 प्रतिशत की कमी की गई-1 तथा 3 जुलाई, 1991 को। कुछ महत्वपूर्ण मुद्राओं में रुपए का बाह्य मूल्य निम्न सारणी में दिया गया है :

सारणी

मार्च 1992 से फरवरी 1993 तक दोहरी विनिमय दर प्रणाली लागू थी जिसमें रिजर्व बैंक द्वारा सरकार दर तय की जाती थी तथा अमरीकी डॉलर के अन्तर बैंक बाजार में बाजार विनिमय दर तय होती थी। मार्च 1992 से रुपए के विनिमय मूल्य की बाजार दर (संकेतात्मक दर) की घोषणा भारतीय विदेशी विनिमय व्यापारी संघ (Foreign Exchange Dealers Association of India FEDAI) द्वारा की जाती है।

अब रुपए की विनिमय दर मोटे तौर पर बाजार द्वारा निधारित होती है। विनिमय दर प्रवन्ध नीति का ध्यान इस पर रहता है कि इस दर में बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव न हो, लेकिन किसी निश्चित दर को लक्ष्य बनाया नहीं जाता है। 2012-2013 में रुपए की औसत विनिमय दर 51 = 54.41 ₹ रही। सितम्बर 2013 में यह 63.75 ₹ प्रति डॉलर हो गई। इसके पश्चात् रुपए के विनिमय मूल्य में वृद्धि शुरू हुई तथा मार्च 2014 में 60.502 १ प्रति अमरीकी डॉलर हो गई। मार्च 2015 में यह 61.01 7 तथा मार्च 2016 में 65.4643 जबकि अक्टूबर 2017 में यह 65.81, हो गई। यह रुपए की मजबूती को प्रदर्शित नहीं करता, लेकिन रुपए की विनिमय दर में यह वृद्धि पाउण्ड स्टर्लिंग के विरुद्ध नहीं हो सकी है।

अवमूल्यन एवं निर्यात

(DEVALUATION AND EXPORT)

ऐसा कहा जाता है कि जब रुपए का मूल्य गिरता है—चाहे ऐसा केन्द्रीय बैंक द्वारा किए गए अवमूल्यन के कारण हो या मांग और पूर्ति की बाजार शक्तियों के कारण रुपए के मूल्य-हास (depreciation) के कारण- भारतीय वस्तुएं और सेवाएं विदेशी बाजार में सस्ती हो जाती हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि 1991 से आर्थिक सुधार की जो प्रक्रिया शुरू की गई उससे रुपए के मूल्य में ह्रास हुआ है और इससे हमारे निर्यात में डॉलर के रूप में वृद्धि हुई है।

इससे विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (Foreign Direct Investment-FDI) में भी वृद्धि हुई है। अवमूल्यन उस समय जरूरी हो जाता है जब दूसरे देश भी ऐसा करते हों या उनकी मुद्रा का मूल्य घट रहा हो।

वर्तमान में सरकार की निर्यात रणनीति यह थी कि उचित विनिमय दर नीति के माध्यम से विश्व निर्यात में भारत का हिस्सा वर्तमान (2016) 1.7 प्रतिशत से बढ़ाकर और अधिक कर दिया जाय 2 मार्च, 2018 को भारत का विदेशी विनिमय रिजर्व 420.758 बिलियन अमरीकी डॉलर था। फिर भी रुपए के मूल्य में हास होता जा रहा है, क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक रुपए के निम्न मूल्य की सहायता से निर्यात को मदद कर रहा है।

लेकिन र का अवमूल्यन एक सीमा तक ही निर्यात को प्रोत्साहित कर सकता है। निर्यात में वृद्धि के लिए यह भी जरूरी है कि निर्यात की वस्तुओं की क्वालिटी, विश्वसनीयता, पैकेजिंग आदि भी विश्व स्तर की हो। निर्यात मांग की कीमत लोच भी महत्वपूर्ण है। साथ ही यह भी देखना है कि अवमूल्यन प्रतिस्पर्धात्मक न हो।

Business Environment Devaluations

प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 अवमूल्यन का क्या अर्थ है? अवमूल्यन तथा विनिमय मूल्य में हास में क्या अन्तर है? अवमूल्यन का निर्यात पर क्या प्रभाव पड़ता है?

2. भारत में अवमूल्यन की नीति पर प्रकाश डालिए।

लघु उत्तरीय प्रश्न

1 अवमूल्यन एवं निर्यात पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।

 

 

chetansati

Admin

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