BCom 1st Year Inflation Accounting Study Material Notes In Hindi
Table of Contents
BCom 1st Year Inflation Accounting Study Material Notes In Hindi: Effect on Profit and Loss Account Effect on Balance Sheet Partial Revolution Accounting (Most important Post Bcom 1st Year Students )
BCom 1st Year Business Regulatory Framework Free Consent Study Material Notes in Hindi
स्फीति लेखांकन
(INFLATION ACCOUNTING)
लेखांकन तकनीक जिसमें खातों की तैयारी एवं उनके परिणामों का प्रदर्शन स्थिर मौद्रिक इकाई (Stable Monetary Unit) की मान्यता पर आधारित है परन्तु यह मान्यता तभी उपयुक्त है जबकि मूल्य स्तर में कोई परिवर्तन न हो, परन्तु व्यवहारिक जीवन में मल्यों में हो रही लगातार वृद्धि से स्थिर मौद्रिक इकाई की मान्यता ध्वस्त हुई है जिसके फलस्वरूप संस्था के वित्तीय विवरण मदों को वर्तमान मूल्यों पर प्रदर्शित नहीं करते।
स्फीति का वित्तीय विवरणों पर प्रभाव
(Effects of Inflation of Financial Statements)
मूल्य-स्तर में परिवर्तन के समय ऐतिहासिक लेखा-विधि के आधार पर तैयार किये गये वित्तीय विवरण व्यवसाय की वित्तीय स्थिति और लाभ प्रदता का सही एवं सच्चा चित्र नहीं प्रस्तुत कर पाते हैं। इस परिवर्तन का वित्तीय विवरणों की विभिन्न मदों पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है
लाभ-हानि खाते पर प्रभाव (Effect on Profit and Loss Account)
मूल्य-स्तर में परिवर्तन का लाभ-हानि खाते की अधिकांश मदों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है क्योंकि ये अधिकतर वर्तमान मूल्यों पर ही दिये जाते हैं। सामान्यतया विक्रय, वेतन, मजदूरी, बीमा कटौती, कमीशन कर आदि मदों पर मूल्य-स्तार के परिवर्तनों का कोई महत्त्वपूर्ण प्रभाव नहीं पडता है, किन्तु लाभ-हानि खाते को ही कुछ मदें ऐसे भी होते हैं जो कि चालू मूल्यों पर नहीं होते। एसा मदें इन परिवर्तनों से बहत अधिक प्रभावित होते हैं और जिसके कारण संस्था के शद्ध लाभ की राशि सही नहीं आती। ये मदें। अनलिखित हैं
(1) विक्रीत माल की लागत (Cost of Goods Sold)-लेखावधि में बेची गई इकाइयों की लागत विक्रीत माल की ला कहलाता है। यह प्रारम्भिक स्कन्ध तथा क्रय (निर्माणी संस्था की दशा में उत्पादन लागत) की राशि के योग में से अन्तिम राशि घटकर ज्ञात की जाती है। इस प्रकार विक्रीत माल की लागत में कच्चे माल की लागत भी सम्मिलित होती है। संस्था में व्यापार माल अथवा कच्चे माल के आवश्यकतानसार विभिन्न समयों पर क्रय किये जाने के कारण इनके लागत-मूल्यों में विभिन्नता पाई सकती है। मूल्य-स्तर में परिवर्तन की स्थिति में तो यह भिन्नता बहत अधिक हो जाती है। ऐसी स्थिति में समस्या यह आती है कि स्टोर से निर्गमित कच्चे माल (एक व्यापारिक संस्था में विक्रीत माल) को किन समयों की क्रयों का भाग माना जाये और उसकी लागत किस प्रकार ज्ञात की जाये। यह निर्णय संस्था में प्रचलित स्कन्ध निर्गमन एवं मूल्यांकन पद्धति पर निर्भर करता है। मूल्य स्तर में परिवर्तन की दशा में प्रत्येक पद्धति के परिणाम एक-दसरे से पर्याप्त भिन्न होते हैं। इस समस्या के समाधान के लिये दो सुझाव दिये जाते हैं /
(i) ‘लिफो’ पद्धति का प्रयोग।
(ii) ‘प्रतिस्थापन लागत’ का प्रयोग।
(2) अन्तिम स्कन्ध का मूल्यांकन (Valuation of Closing Inventory)-लेखावधि के अन्त में अवशिष्ट कच्चे व निर्मित माल के मूल्यांकन के सम्बन्ध में भी समस्या आती है क्योंकि मल्यों में परिवर्तन के कारण इसके लागत मूल्य व बाजार मूल्य । में बहुत अन्तर आ जाता है। इस समस्या का हल विक्रीत माल की लागत ज्ञात करने की विधि के चुनाव से ही सम्बन्धित है।
(3) स्थायी सम्पत्तियों पर ह्रास (Depreciation on Fixed Assets)-लेखांकन की परम्परागत पद्धति के अनुसार सम्पत्तियों की मूल लागत को ह्रास का आधार माना जाता है। लेखपाल का कार्य प्रत्येक स्थायी सम्पत्ति की ह्रास-योग्य लागत (Depreciable Cost) को उसके उपयोगी जीवन काल में फैलाना मात्र होता है क्योंकि इसके द्वारा संकलित ह्रास आयोजन सम्पत्ति का मूल लागत के समान होगा, न कि इसकी प्रतिस्थापन लागत के। अत: इससे सम्पत्ति के प्रतिस्थापन की व्यवस्था नहीं हो पाती है। ह्रास आयोजन का उद्देश्य किसी सम्पत्ति की मौद्रिक लामत की व्यवस्था करना नहीं होना चाहिये बल्कि उसके प्रतिस्थापन के लिये उचित व्यवस्था करना होना चाहिये अर्थात् यदि मूल्य बढ़ रहे हैं तो ह्रास की कुल राशि सम्पत्ति के बढ़े मूल्य के समान होनी चाहिये न कि उसकी मूल लागत के। इस समस्या के समाधान के लिये ह्रास की गणना के लिये निम्न सुझाव दिये जाते हैं
(अ) प्रतिस्थापन लागत पर हास।
(ब) चालू लागत पर ह्रास।
(स) प्रारम्भिक लागत की क्रय शक्ति पर हास।
(द) प्रतिस्थापन के लिये आयोजन।
BCom 1st Year Inflation Accounting Study Material Notes In Hindi
आर्थिक चिट्ठे पर प्रभाव (Effect on Balance Sheet)
चिट्टे की मदों के विश्लेषण से पता चलता है कि सम्पत्ति पक्ष में चालू सम्पत्तियों में देनदार, प्राप्य बिल, अल्पकालीन विनियोग रोकड़ व पूर्वदत्त व्यय तो बहुत थोड़े समय के लिये क्रय किये जाते हैं और फिर इनमें से देनदार, प्राप्त बिल, विनियोग आदि के लिये समुचित कोष की व्यवस्था करके इन्हें इनके बाजार मूल्य के बहुत कुछ समीप ला दिया जाता है। अतः मूल्य स्तर में परिवर्तन का इन मदों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। किन्तु चालू सम्पत्तियों में ही अन्तिम स्कन्ध मूल्य स्तर के परिवर्तनों से प्रभावित हो सकता है। इसका लागत मूल्य अपने बाजार मूल्य से पर्याप्त भिन्न हो सकता है। अत: इस मद में मूल्य स्तार में परिवर्तनों के अनुरूप समायोजन किया जाना चाहिये।
संस्था में स्थायी सम्पत्तियाँ व दीर्घकालीन विनियोग तुलनात्मक रूप से दीर्घ काल के लिये क्रय किये जाते हैं। मल्य स्तर में परिवर्तन का इन पर भारी प्रभाव पड़ता है। इससे इन सम्पत्तियों की तुल्यता (Comparability) समाप्त हो जाती है और इनके प्रतिस्थापन के समय साधारण परिस्थितियों में चार्ज किया गया ह्रास अपर्याप्त सिद्ध हो सकता है। इसी तरह मल्य स्तार में। परिवर्तन से दीर्घकालीन विनियोगों का वास्तविक मूल्य अपने मौद्रिक मूल्य से काफी भिन्न हो सकता है। अतः मूल्य स्तर में परिवर्तन की स्थिति में सम्पत्तियों और दीर्घकालीन विनियोगों के मूल्यों में समायोजन अति आवश्यक हो जाता है। सम्पत्ति पक्ष में ही जहाँ तक ख्याति, पेटेन्ट्स, ट्रेडमार्क, कापीराइट आदि अमूर्त सम्पत्तियों का प्रश्न है, इनका कोई निश्चित मूल्य नहीं होता। इसीलिये इन्हें शीघ्रातिशीघ्र अपलिखित करने का प्रयत्न किया जाता है। अतः इन मदों में मूल्य स्तर में परिवर्तनों के आधार पर कोई समायोजन की आवश्यकता नहीं होती। इसी तरह प्रारम्भिक व्यय, भारी विज्ञापन आदि अवास्तविक सम्पत्तियों में भी किसी प्रकार के समायोजन की कोई आवश्यकता नहीं होती क्योंकि इनका तो कोई बाजार मूल्य ही नहीं होता।
दायित्व पक्ष में जहाँ तक लेनदान, देय बिल, आय-कर के लिये आयोजन, अदत्त व्यय आदि चालू दायित्वों का प्रश्न है, ये मदें किसी व्यवसाय द्वारा वर्ष के अन्त में देय वास्तविक राशियाँ होती हैं, अत: इनके मूल्यों में समायोजन का प्रश्न ही नहीं उठता है। इस पक्ष में केवल दीर्घकालीन दायित्व, जैसे ऋण-पत्र और स्वामित्य (Net Worth) ही मूल्य स्तरों के परिवर्तन से प्रभावित होते हैं। मूल्य स्तर में वृद्धि से दीर्घकालीन दायित्वों का भार कम हो जाता और इसमें कमी से दीर्घकालीन दायित्वों का भार बढ़ जाता है। मूल्य स्तरो में परिवर्तन का स्वामित्व समता पर प्रभाव अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ता है। इन परिवर्तनों से स्कन्ध व हास की राशियाँ प्रभावित होती हैं. स्कन्ध व हास से शद्ध लाभ प्रभावित होता है और शुद्ध लाभ से स्वामित्व समता प्रभावित होती है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि मूल्य स्तरों में परिवर्तन से वित्तीय विवरण की मदें जो सर्वाधिक प्रभावित होती हैं, वे हैं-(1) स्थायी सम्पत्तियाँ, (2) स्कन्ध और (3) हास। इन मदों में आये परिवर्तनों से हुई समस्या के सामान्य स्वीकृत समाधान के लिये लेखपाल लगातार प्रयत्नशील रहे हैं।