BCom 1st Year Environment Trends Industries Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Environment Trends Industries Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Environment Trends Industries Study Material Notes in Hindi: Industrialisation Trend of Industrial Development Small Scale Industries  Progress of Industrialisation Ganguly working Group Impact of Liberalisation policy  Foreign Direct Investment Examination Questions Long Answer Questions Short Answer Questions :

Trends Industries Study Material
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BCom 1st Year Trends Savings & Investment Study Material Notes in Hindi

उद्योग की प्रवृत्तियां

[TRENDS IN INDUSTRIES]

औद्योगीकरण

(INDUSTRIALISATION)

औद्योगीकरण अर्थात् उद्योगों का विकास आर्थिक विकास की एक रणनीति (strategy) है। युद्धोत्तर काल के प्रारम्भिक वर्षों से लेकर 1960 के दशक के पूर्वार्द्ध तक अनेक अर्थशास्त्रियों का मत था कि निर्धन देशों के आर्थिक विकास के लिए औद्योगीकरण की नीति अत्यन्त प्रभावी हो सकती है। भारत ने भी द्वितीय पंचवर्षीय योजना में इसी रणनीति को अपनाया तथा आधारभूत एवं भारी उद्योगों के विकास पर बल दिया।

औद्योगीकरण के लिए आयात-प्रतिस्थापन (import-substitution) या निर्यात प्रोत्साहन (export promotion) की नीति को अपनाया जा सकता है। भारत ने आयात प्रतिस्थापन की नीति के माध्यम से औद्योगीकरण की रणनीति का क्रियान्वयन प्रारम्भ किया। घरेलू नए उद्योगों को संरक्षण दिया गया तथा कच्ची सामग्री, मशीनरी, आदि का आयात किया गया ताकि नए उद्योगों की स्थापना की जा सके।

Environment Trends Industries

औद्योगिक विकास की प्रवृत्ति

(TREND OF INDUSTRIAL DEVELOPMENT)

योजना के प्रथम चालीस वर्षों, अर्थात् 1950-51 से 1989-90 के मध्य निबन्धित (registered) विनिर्माण उद्योगों (manufacturing industries) में GDP की विकास दर 5.85 प्रतिशत प्रति वर्ष रही, जबकि अनिबन्धित विनिर्माण उद्योगों में राष्ट्रीय आय की विकास दर केबल 4.33 प्रतिशत प्रति वर्ष थी। दोनों को मिलाकर इस क्षेत्र की वार्षिक वृद्धि दर 5.15 प्रतिशत होती है। 1980 के दशक में वार्षिक विकास की दर

अधिक रही-7.51 प्रतिशत निबन्धित विनिर्माण उद्योगों में, 5.72 प्रतिशत अनिबन्धित विनिर्माण उद्योगों में तथा 6.77 प्रतिशत दोनों को मिलाकर। ये वृद्धि दरें उत्साहजनक हैं। फिर भी, अन्य अनेक विकासशील देशों की तुलना में काफी कम हैं। निम्न दरों के कई कारण हैं। इनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं

  • कारण यह नहीं है कि भारत में औद्योगीकरण पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। भारत एक मजबूत औद्योगिक आधार के निर्माण में सफल हुआ है।
  • भारतीय उद्योगों की वृद्धि दर के ऊंची नहीं होने का प्रमुख कारण रहा है गलत औद्योगिक नीति। भारत ने केन्द्रीय योजना (Central Planning) अपनाई समाजवादी एवं साम्यवादी देशों की तरह जो 1950 के दशक के प्रारम्भ में आर्थिक विकास के आदर्श मॉडल समझे जाते थे। इस मॉडल में राज्य को महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की गई तथा लोक उद्यमों (Public Enterprises) को औद्योगीकरण में विशेष महत्व दिया गया।
  • लोक उद्यम अपने आप में बुरे नहीं है, किन्तु भारत के अधिकांश लोक उद्यम कार्यकशल एवं फलोत्पादक नहीं हैं।
  • लोक उद्यम उत्पत्ति को अधिकतम करने की अपेक्षा रोजगार को अधिकतम करने के उद्देश्य से। प्रेरित रहे। इसका असर विकास दर पर पड़ा।
  • निजी क्षेत्र में केवल कम उद्योग ही नहीं रहे बल्कि कम महत्वपूर्ण उद्योग भी तथा जो भी उद्योग रहे उन पर कठोर नियन्त्रण रखा गया, जैसे-नए उद्यम की स्थापना के लिए लाइसेन्स ना उद्योग की प्रवृत्तियां विद्यमान औद्योगिक इकाई में नई वस्तु के उत्पादन को शरू करने के लिए लाइसेन्स लेना, उद्योग के विस्तार, स्थान परिवर्तन, आदि के लिए परमिट लेना, आदि। इस लाइसेन्स-परमिट राज (Licence-Permit Raj) ने निजी क्षेत्र में औद्योगिक विकास का गला घोंट दिया।
  • लघु उद्योगों को मध्यम एवं वृहत् उद्योगों की प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए अनेक सुविधाएं दी गई। साथ ही, अनेक वस्तुओं के उत्पादन को लघ क्षेत्र के लिए रिजर्व कर दिया गया। चूंकि लघु उद्योगों को प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़ा, इसलिए इन पर तकनीकी सुधार, नवीनतम उत्पादन तकनीक के उपयोग, नई वस्तुओं के उत्पादन को प्रारम्भ करने, आदि का दबाव नहीं रहा। संरक्षण लगातार मिलता रहा। इसके लिए इन उद्योगों को न तो एक सीमा के ऊपर विस्तार करने दिया गया और न ही इन्हें सुधार करने तथा विकास करने की प्रेरणा रही।

    Environment Trends Industries

भारतीय औद्योगिक नीति का एक प्रमुख उद्देश्य आत्मनिर्भरता रहा है। भारत में आत्म-निर्भरता का अर्थ है कि जिन वस्तुओं का उत्पादन देश के अन्दर हो सकता है उनका आयात नहीं करना, चाहे इनकी लागत कुछ भी हो। साथ ही, विदेशी विनिमय की दुर्लभता के कारण इसका आवण्टन केवल आवश्यक वस्तुओं की आवश्यकता को पूरा करने के लिए किया गया। इन सब के पीछे यह विचार काम कर रहा था कि विदेशी पूंजी तथा विदेशी तकनीकी पर निर्भरता कम हो सके। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। भारत को न केवल कम विदेशी पूंजी प्राप्त हुई अपितु पुरानी तकनीकी भी। साथ ही संरक्षण के कारण भारतीय उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़ा। आयात कम हुए किन्तु, हमारे निर्यात इतने नहीं बढ़े कि वे हमारे घटे हुए आयात का भी भुगतान कर सकें। इसलिए हमारी विदेशों पर निर्भरता घटी नहीं बल्कि बढ़ ही गई।

ऊंची मजदूरी के कारण श्रमिक लागत बढ़ गयी। दूसरी ओर उद्योगों को अत्यधिक संरक्षण दिया गया। इन दोनों के कारण उद्योगों में पूंजी का उपयोग बढ़ गया, पुरानी तकनीकी का उपयोग किया गया तथा अनार्थिक इकाइयों में प्लाण्ट का विभाजन हो गया। इस स्थिति में भारत में उत्पादित वस्तुओं की गुणवत्ता विश्व स्तर की नहीं बन पाई और न ही कीमतें स्पर्धात्मक हो पाईं।

इस प्रकार घरेलू स्पर्धा, निर्यात प्रतिद्वन्द्विता और आयात प्रतिस्पर्धा की अनुपस्थिति में हमारे उद्योगों का विकास लागत तथा गुणवत्ता पर ध्यान दिए बिना ही हुआ।

सकल घरेलू उत्पाद (सघउ) में औद्योगिक क्षेत्र का हिस्सा 1950-51 में 10.65 प्रतिशत था। 1960-61 में यह हिस्सा बढ़कर 13.18 प्रतिशत, 1970-71 में 15.46 प्रतिशत, 1980-81 में 17.45 प्रतिशत तथा 1990-91 में 19.80 प्रतिशत हो गया। इसके पश्चात दो दशकों में इस हिस्से में शायद ही कोई परिवर्तन हुआ।’ इस प्रकार, भारत के औद्योगिक क्षेत्र की रुग्ण स्थिति इसे अन्य विकासशील देशों, विशेषकर पूर्वी एशिया के देशों, से पृथक् वर्ग में रखती है। इन देशों में श्रम-प्रधान उद्योग विकास का महत्त्वपूर्ण घटक रहा है। विनिर्माण उद्योग (manufacturing industry) में धीमी गति से वृद्धि की चर्चा अरविन्द पनगढिया भी करते हैं। सामान्य अनुभव यह है कि विकास प्रक्रिया में विनिर्माण में तेजी से वृद्धि होती है। इसलिए उत्पत्ति एवं रोजगार दोनों में इस क्षेत्र का अंश बढ़ता जाता है। पनगढ़िया का कहना है कि दक्षिण कोरिया में कुल उत्पत्ति में विनिर्माण का हिस्सा 1965 तथा 1980 के मध्य 17.7 प्रतिशत से बढ़कर 30.6 प्रतिशत हो गया। रोजगार का हिस्सा इसी अवधि में 9.4 प्रतिशत से बढ़कर 21.6 प्रतिशत हो गया, जबकि भारत में 1993-94 तथा 2004-05 के मध्य कुल रोजगार में विनिर्माण क्षेत्र के रोजगार का हिस्सा 10.4 प्रतिशत से बढ़कर केवल 11.7 प्रतिशत ही हो सका। 2004-05 में भी रोजगार में कृषि क्षेत्र का हिस्सा 58.5 प्रतिशत था। कुल उत्पत्ति में विनिर्माण क्षेत्र का हिस्सा 1993-94 तथा 2004-05 में 15.8 प्रतिशत पर स्थिर रहा।’ ।

स्थिर कीमतों (2011-12) पर देश में विनिर्माण क्षेत्र में सकल मूल्य वर्धन वृद्धि दर वर्ष 2015-16 में। 10.8% तथा 2016-17 में 7.9 प्रतिशत रही।

देश के सकल घरेलू उत्पाद में औद्योगिक क्षेत्र का हिस्सा 2011-12 में 26.1% था। यह अनुपात बढ़कर 2016-17 में 27.95% तथा 2017-18 में 27.8% हो गया। वर्ष 2011-12 में देश के कुल रोजगार में उद्योग। क्षेत्र का हिस्सा 24.3% रहा।

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औद्योगीकरण की प्रगति

(PROGRESS OF INDUSTRIALISATION)

भारत में संगठित उद्योगों का विकास उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से प्रारम्भ हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) तक सती वस्त्र उद्योग, पटसन उद्योग तथा कोयला खनन उद्योग की स्थापना हो सकी थी। प्रथम। एवं द्वितीय विश्वयुद्धों के मध्य में विभेदात्मक संरक्षण की नीति के अन्तर्गत कई उद्योगों का विस्तार हुआ तथा कई नए उद्योग स्थापित हुए जिनमें प्रमुख इस्पात, चीनी, सीमेण्ट, ग्लास, औद्योगिक रसायन, साबुन, वनस्पति तथा कुछ इन्जीनियरिंग उद्योग थे।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् द्वितीय योजनाकाल से तीव्र गति से औद्योगिक विकास शुरू हुआ। इस्पात के नए कारखाने स्थापित हुए। भारी इलेक्ट्रिकल तथा भारी मशीन टूल उद्योग, भारी मशीन निर्माण कारखाने तथा भारी इन्जीनियरिंग उद्योग की स्थापना हुई। पहली बार सीमेण्ट तथा कागज निर्माण के काम में आने वाली मशीन का उत्पादन शुरू हुआ। विभिन्न प्रकार के रसायन उद्योगों की स्थापना हुई। साइकिल, सिलाई मशीन, टेलीफोन तथा बिजली के सामान के उत्पादन में तेजी से वृद्धि हुई। 1950-51 तथा 1960-61 के मध्य औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक 100 से बढ़कर 194 हो गया।

योजनाकरण के प्रथम 20 वर्षों में तीव्रतर औद्योगीकरण की नीति अपनाई गई जिसमें भारी एवं मशीन निर्माण करने वाले उद्योगों के विकास पर अधिक बल दिया गया। इनके विकास में सार्वजनिक क्षेत्र को महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की गई। लघु स्तरीय उद्योग को पूरक की भूमिका मिली।

द्वितीय योजना काल से औद्योगिक एवं खनिज क्षेत्रों में भारी निवेश के कारण 1950-51 तथा 1960-61 के मध्य औद्योगिक उत्पादन की औसत वार्षिक वृद्धि दर 7 प्रतिशत रही तथा 1961-62 तथा 1964-65 के मध्य यह दर 9 प्रतिशत थी। इसके पश्चात् इस वृद्धि दर में ह्रास आया। 1970-71 तथा 1979-80 के मध्य यह मात्र 4.6 प्रतिशत तथा 1980-81 एवं 1989-90 के मध्य 6.6 प्रतिशत रही, लेकिन सातवीं योजना (1985-90) काल में यह बढ़कर 8.5 प्रतिशत हो गई। इसका प्रमुख कारण उदारवादी नीति का अपनाना था। साथ ही, लाइसेन्सिंग प्रक्रिया, तकनीकी आयात, पूंजी वस्तुओं के आयात, लोक निवेश की दर, अन्तर्राष्ट्रीय संरक्षण तथा आयात प्रतिबन्ध, आदि में अनुकूल परिवर्तन किए गए।

लेकिन आठवीं योजना काल (1992-97) में औद्योगिक विकास की वृद्धि दर कम रही—मात्र 7.4 प्रतिशत । नौवीं योजना काल (1997-02) में औद्योगिक वृद्धि की दर और घट गई और केवल 4.5 प्रतिशत रही। दसवीं योजना (2002-07) की अवधि में यह बढ़कर 8.0 प्रतिशत हो गई। फिर भी यह 10 प्रतिशत के लक्ष्य से कम ही थी। इसी योजना (दसवीं) काल में औद्योगिक वृद्धि की दर में तेजी आनी शुरू हो गई। फलतः योजना के अन्तिम वर्ष (2006-07) में यह वृद्धि दर लक्ष्य के ऊपर चली गयी।

विनिर्माण उद्योग में अधिक तेजी देखी गई। इस उपक्षेत्र की वृद्धि दर जो नौवीं योजना में मात्र 3.8 प्रतिशत थी. दसवीं योजना में 8.7 प्रतिशत हो गई। 2006-07 में यह दर 12.3 प्रतिशत थी। पहली बार ऐसा देखा गया कि यह वृद्धि दर सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर (11.0 प्रतिशत से अधिक रही।

ग्यारहवीं योजना (2007-12) के अनुसार उपर्युक्त प्रवृत्ति के लिए निम्न कारणों ने योगदान किया है, यथा :

  • उदारीकरण की नीति के कारण उपभोग के घरेलू बाजार का अत्यधिक विस्तार हुआ।
  • अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर से प्रतिबन्ध को हटा लेने के कारण भारत के विनिर्माण उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के निर्यात में वृद्धि होने के कारण विदेशी बाजार का भी विस्तार हुआ। मैककिन्से। (McKinsey) के अनुसार भारत में निर्मित वस्तुआ का लागत अमरीका में निर्मित इन्हीं वस्तओं। की लागत का केवल 70 प्रतिशत होती है। (Business Today, January 14, 2007. p. 108) | टाटा की इंडिका कार की कीमत पश्चिमी देशों की तुलना में केवल 40 प्रतिशत है।
  • 1991-92 के आर्थिक सुधारों का भी प्रभाव पड़ा। शुरू में इन सुधारों का प्रभाव प्रतिकूल ही रहा, विशेषकर लघु एवं मध्यम उद्यमों पर। लेकिन इन सुधारों का फायदा उठाते हुए भारतीय कम्पनिया। ने आधुनिकीकरण तथा क्षमता वृद्धि एवं विवेकीकरण की प्रक्रिया को अपनाया। अनेक विदेशी

कम्पनियों ने भी इस प्रक्रिया को अपनाया। इससे इन कम्पनियों की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता बढ़ गई। जिन उद्योगों में विशेष प्रगति हुई वे इस प्रकार हैं : सूती वस्त्र उद्योग, कपड़ा उद्योग, कागज उद्योग, मल खनिज, मशीनरी, परिवहन, उपकरण, रसायन एवं रसायन उत्पाद, पेय तथा तम्बाकू। पूंजी वस्तु उद्योगों में भी भारी मात्रा में निवेश किये गए। मोटर उद्योग का भी तेजी से विस्तार हुआ।

2007-08 के प्रथम तिमाही से ही उद्योग की वृद्धि मन्द पड़ने लगी और यह प्रवृत्ति 2008-09 में भी बनी रही। इसके लिए जिम्मेदार कारक थे—जनवरी 2006 से जुलाई 2008 तक कच्चे तेल की कीमत में वृद्धि, अन्य मध्यवर्ती वस्तुओं की वैश्विक कीमत में वृद्धि 2006-07 के प्रारंभ से लेकर 2008-09 के उत्तरार्द्ध तक। वैश्विक वित्तीय संकट का भी प्रभाव पड़ा सितम्बर 2008 से। इस संकट के कारण जमा के रूप में विदेशी पूंजी का प्रवाह कमजोर पड़ गया। बाह्य वाणिज्यिक ऋण का प्रवाह भी क्षीण हो गया, लेकिन विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का आना जारी रहा। घरेलू बाजार में निजी क्षेत्र को पूंजी बाजार से पूंजी प्राप्त करना भी कठिन हो गया। रुपये के विनिमय मूल्य में भी गिरावट आयी। इन सभी का प्रभाव औद्योगिक उत्पादन पर पड़ा।

उपर्यक्त कारणों के साथ-साथ एक और कारक ने स्थिति को और विषम बना दिया। सितम्बर, 2008 से भारतीय वस्तुओं की मांग विदेशी बाजार में घटने लगी। इससे निर्यात-प्रधान उद्योगों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इसी अवधि में निर्माण (construction) तथा रीयल इस्टेट (real estate) संबंधी क्रियाओं में हास के कारण इनसे जुड़े विनिर्माण क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इन सभी कारकों का प्रभाव अन्ततः विनिर्माण क्षेत्र के लाभ पर भी पड़ा। 2008-09 की तृतीय तिमाही अर्थात् अक्तूबर 2008 से कम्पनियों की बिक्री दर की वृद्धि दर काफी घट गई—जुलाई-सितम्बर 2008 में 32.1 प्रतिशत से घटकर अक्तूबर-दिसम्बर, 2008 में 6.3 प्रतिशत तथा जनवरी-मार्च में मात्र 0.1 प्रतिशत। अक्तूबर-दिसम्बर 2009 से ही इस दर में वृद्धि देखी जा सकती है। बिक्री की वृद्धि दर के अनुरूप ही कर-भुगतान पश्चात् लाभ/बिक्री अनुपात 2007-08 की चतुर्थ तिमाही से घटने लगा। यह हास 2008-09 के सम्पूर्ण वर्ष में बना रहा। 2009-10 में भी 2007-08 की प्रथम तीन तिमाही (अप्रैल-दिसम्बर) की तुलना यह अनुपात कम रहा, यद्यपि इसमें अक्तूबर 2008 से ही थोड़ी वृद्धि देखी जा सकती है।

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वर्ष 2008-09 के पश्चात्, औद्योगिक क्षेत्र जिसमें विनिर्माण, उत्पादन, खनन, बिजली और निर्माण शामिल हैं, ने तीन वर्ष तक पुनरुद्धार तथा विकास दिखाया, लेकिन आपूर्ति पक्ष और मांग पक्ष के अवरोधों के मिले-जुले असर के कारण इसने अपनी गति खो दी। वर्ष 2009-10 तथा 2010-11 में 9.2% की वृद्धि तक सुधरने के पश्चात् यह वृद्धि दर 2011-12 में 3.5% तथा 2012-13 में औद्योगिक विकास में केवल 1.0% की बढ़ोतरी हुई। 2013-14 में और अधिक मंदा होकर यह विकास दर मात्र 0.4% की रही। जबकि बारहवीं योजना (2012-17) में आधार वर्ष 2011-12 के आधार पर वर्ष 2012-13 तथा 2013-14 में यह वृद्धि दर क्रमशः 2.4% एवं 4.5% आंकी गई। वर्ष 2014-15 के लिए यह वृद्धि दर 5.9% रही। वर्ष 2015-16 तथा 2016-17 में यह वृद्धि क्रमशः 8.8% तथा 5.6% रही। इन तथ्यों से स्पष्ट होता है कि औद्योगिक विकास की बहाली में लम्बा समय लगेगा तथा इसके लिए कड़ी पहले करनी पड़ेगी।

औद्योगिक उत्पादन का सामान्य सूचकांक (आधार वर्ष 2011-12 = 100 ) जो 2012-13 में 103.3 था वह 2013-14 में 106.7, 2014-15 में 111.0, 2015-16 में 114.7 तथा 2016-17 में 120.0 हो गया। इससे स्पष्ट होता है कि देश में औद्योगिक विकास दर में वांछित सुधार नहीं हो पा रहा है।

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लघु उद्योग

(SMALL-SCALE INDUSTRIES)

आधुनिक युग केवल बड़े उद्योगों का युग नहीं है। औद्योगिक देशों में भी लघु उद्योगों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

लघु एवं बड़े उद्योगों के अन्तर के लिए अनेक मापदण्डों का प्रयोग किया जा सकता है, जैसे विनियोजित पूंजी, विनियोजित श्रमिकों की संख्या, यान्त्रिक शक्ति के प्रयोग, आदि। 1967 से भारत में इनमें अन्तर केवल प्लाण्ट एवं मशीनों में किए गए पूंजी निवेश की मात्रा के आधार पर ही किया जाता है।

वे लघु उद्योग, जो बड़े उद्योगों के इर्द-गिर्द पनपते हैं, सहायक उद्योग (ancillary industries) कहलाते। हैं। इनका काम संयन्त्रों के कल-पुर्जे बनाना या अर्द्ध-निर्मित वस्तुओं का उत्पादन करना होता है।

सकल घरेलू उत्पाद में योगदान, औद्योगिक उत्पादन, रोजगार सृजन तथा निर्यात के दृष्टिकोण से। लघुस्तरीय उद्योगों का पर्याप्त महत्व है। 2001-02 के पंजीकृत एवं गैर-पंजीकृत इकाइयों की अखिल भारतीय गणना के अनुसार भारत में 105.21 लाख लघुस्तरीय इकाइयां थीं जिनमें 13.75 लाख पंजीकृत थीं, 91.461 गैर-पंजीकृत इकाइयां थीं। इनका उत्पादन में योगदान 2,82,270 करोड़ का था तथा इसमें 249.09 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ था। वर्ष 2005-06 में देश में 123.42 लाख लघु इकाइयां कार्यरत थीं। इन इकाइयों ने इस वर्ष चालू कीमतों पर 4,97,842 करोड़ रु का उत्पादन तथा 1,50,252 करोड़ ₹ का निर्यात किया। इन उद्योगों में 294,91 लाख व्यक्ति रोजगार में लगे थे। (वर्ष 2005-06 के पश्चात से इन उद्योगों के साथ मध्यम उद्योगों के आंकड़े भी शामिल किए गए है) वर्ष 2013-14 में देश में कार्यरत सूक्ष्म, लघु तथा मझोले उद्योगों की संख्या 488.46 लाख थी। इन उद्योगों ने इस वर्ष 13,63,700.54 करोड़ ₹ का उत्पादन किया। इन उद्योगों में 1,114.29 लाख व्यक्ति रोजगार में लगे थे।

आर्थिक समीक्षा 2017-18 के अनुसार वर्ष 2015-16 में 633.8 लाख सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम औद्योगिक इकाइयां विभिन्न आर्थिक क्रिया-कलापों में लगी हुई थीं। इनके द्वारा 11.10 करोड़ कामगारों को रोजगार प्रदान किया जा रहा है। एमएसएमई क्षेत्र देश के सकल मूल्यवर्धन में 32% तथा सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 2011-12 की आधार कीमतों पर 31% का योगदान करता है।

सूक्ष्म एवं लघु तथा मध्यम उद्योगों में से 94.94% उद्यम सूक्ष्म आकार के, 4.89% उद्यम लघु आकार। के तथा 0.17% मध्यम आकार के हैं। 45% उद्यम ग्रामीण क्षेत्र में तथा 55% शहरी क्षेत्र में हैं। 67.17% उद्योग विनिर्माण क्षेत्र में, 16.78% सेवा क्षेत्र में तथा 16.13% रिपेयरिंग और अनुरक्षण के क्षेत्र में हैं।

सूक्ष्म तथा लघु उद्योगों का देश में कुल औद्योगिक उत्पादन में हिस्सा 39% तथा कुल निर्यात में हिस्सा 33% है। MSMEs इकाइयां 6,000 से अधिक वस्तुओं का निर्यात करती हैं।

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लघुस्तरीय उद्योगों के विकास कार्यक्रम के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं :

रोजगार सृजन, उद्योगों का विकेन्द्रीयकरण तथा छितराव, कृषि-आधारित एवं सहयोगी उद्योगों का विकास, कारीगरों की प्रवीणता में वृद्धि तथा उनके उत्पाद की क्वालिटी में सुधार, सब्सिडी की भूमिका में कमी तथा उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन को प्रोत्साहन, तथा निर्यात को बढ़ावा।

इस तरह यह उद्योग क्षेत्रीय, असंतुलन, आय एवं सम्पत्ति के असमान वितरण की समस्या के समाधान तथा ‘मेक इन इण्डिया’ कार्यक्रम को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

लघुस्तरीय उद्योग क्षेत्र के समक्ष निम्न समस्याएं थीं :

(i) साख का अपर्याप्त प्रवाह, (ii) पुराने तकनीकी, मशीनरी तथा उपकरण का उपयोग, (iii) निम्न क्वालिटी का उत्पाद, (iv) अपर्याप्त संरचनात्मक सुविधाएं, (v) सूचनाओं एवं परामर्शों का अभाव, (vi) बड़े उद्योगों से प्रतियोगिता, (vii) शक्ति की अपर्याप्तता, (viii) कुशल प्रबंधकों की कमी, (ix) प्रमापीकरण का अभाव, (x) निक्षेपों तथा प्रतिबंधों की अधिकता।।

इन समस्याओं के समाधान के लिए सरकार ने बैंकों की विशिष्ट शाखाएं सिर्फ लघु उद्योगों को साख प्रदान करने के लिए खोली हैं। तकनीकी सुधार के लिए SIDBI ने तकनीकी विकास तथा आधुनिकीकरण कोष (Technology Development and Modernisation Fund) की स्थापना की है। संरचना-सम्बन्धी सविधाओं के विकास के लिए एकीकृत संरचना विकास केन्द्रों (Integrated Infrastructure Development | Centers-IIDCs) की स्थापना की गई है।

मात्रात्मक प्रतिबन्ध को हटा लेने के बाद विश्व के अन्य भागों की वस्तुएं अब हमारे बाजार में आने लगी हैं। इस सन्दर्भ में SSI आरक्षण की भूमिका के सम्बन्ध में मूल प्रश्न उठाए जा रहे हैं। आरक्षण की नीति के कारण पैमाने की सक्षम इकाई का विकास नहीं हो पा रहा है। इसलिए इसके हटाने पर गौर करने की जरूरत है। अतः वर्तमान में 20 वस्तुओं का उत्पादन लघु उद्योगों के लिए सुरक्षित है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में माइक्रो, लघु तथा मध्यम उपक्रमों का योगदान निम्न प्रकार है ।

GDP में योगदान                        8 प्रतिशत

निर्मित उत्पत्ति में योगदान         45 प्रतिशत

निर्यात में योगदान                     40 प्रतिशत।

ग्यारहवीं योजना का कहना है कि विश्व स्तर पर MSMEs को विकास के इंजिन (Engine of | Economic Growth) के रूप में स्वीकार किया जाता है। भारत में MSEs से तात्पर्य माइक्रो तथा लघु उपक्रम होता है जो हाल तक ग्रामीण एवं लघु उद्योगों (VSE) के नाम से जाना जाता था। SME का तात्पर्य है लघु एवं मध्यम उपक्रम तथा MSME का अर्थ है माइक्रो, लघु तथा मध्यम उपक्रम| MSMEs द्वारा 6000 से भी अधिक वस्तुओं का निर्माण किया जाता है जिनमें हस्तकरघा साड़ी, कॉरपेट तथा साबुन से लेकर अचार, पापड़ तथा बड़े उद्योगों के लिए मशीनरी पुर्जे तक शामिल हैं।

MSEs का महत्व समावेशी विकास (Inclusive Growth) के लिए भी है जो समाज के सर्वाधिक निर्बल लोगों के जीवन से जुड़ा है।

माइक्रो, लघु तथा मध्यम उपक्रम विकास (MSMED) अधिनियम 2006 में MSME की परिभाषा दी गई है, यद्यपि विश्वस्तर पर कोई भी सर्वस्वीकृत परिभाषा नहीं है। इस अधिनियम में उद्योग के स्थान पर उपक्रम (enterprise) शब्द का उपयोग किया गया है। MSME को दो वर्गों में रखा गया है, यथा,

(1) वे उपक्रम जो उद्योग (विकास एवं नियमन) अधिनियम 1951 की प्रथम सूची में शामिल उद्योगों से सम्बद्ध वस्तुओं का निर्माण करते हैं; तथा

(2) वे उद्योग जो सेवाओं को प्रदान करने से सम्बद्ध हैं।

MSMED अधिनियम 2006 के अनुसार MSME की निम्न परिभाषा दी गई है :

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गांगुली कार्य दल (Ganguly Working Group)

लघु औद्योगिक इकाइयों के घटते साख प्रवाह की समस्या के समाधान हेतु भारतीय रिजर्व बैंक समय-समय पर कदम उठाता रहा है। 2003-04 में रिजर्व बैंक ने SSI क्षेत्र को दिए जाने वाले उधार की सीमा को 15 लाख ₹ से बढ़ाकर 25 लाख र कर दिया। इसने डॉ. गांगुली (Dr. A.S. Ganguli) की अध्यक्षता में साख प्रवाह के अध्ययन के लिए एक कार्यदल का गठन किया जिसने अपनी रपट अप्रैल 2004 में प्रस्तुत की। कार्यदल की निम्न अनुशंसाओं को रिजर्व बैंक ने स्वीकार कर लिया :

(i) बैंकिंग सेवा के विस्तार द्वारा लघु एवं मध्यम उद्यमों की साख आवश्यकता को पूरा करने के लिए पूर्ण सेवा दृष्टिकोण को अपनाना अर्थात् 4-C दृष्टिकोण को अपनाना। 4-C में निम्न आते है : (क) उपभोक्ता पर ध्यान (Consumer focus), लागत नियन्त्रण (Cost control), क्रॉस

बिक्री (Cross Sell) तथा जोखिम नियन्त्रण (Contain risk)

(ii) बैंक तथा वित्तीय संस्थाओं द्वारा निगम से जुड़े लघु, मध्यम उद्यमों के क्लस्टर मॉडल (Cluster Model) को प्रोत्साहन।

(iii) SIDBI तथा लीड बैंक द्वारा सफल माइक्रो साख प्रबन्धन मॉडल को अपनाना।

(iv) ग्रामीण उद्योगों के प्रोत्साहन के लिए नए उपकरणों का प्रवेश तथा ग्रामीण कारीगरों, उद्योगों तथा।

ग्रामीण उद्यमियों को जाने वाले साख प्रवाह में सुधार।

(v) पहाड़ी क्षेत्रों तथा बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को जाने वाली कार्यकारी पूंजी की सीमा में वृद्धि।। आर्थिक उदारवाद एवं लघु उद्योग : तकनीकी सुधार का महत्व

अर्थव्यवस्था में खलेपन के आगमन के कारण SSI क्षेत्र को भूमण्डलीय तथा घरेलू स्पर्धा का सामना। करना पड़ रहा है। इसलिए इस क्षेत्र की स्पर्धात्मक क्षमता में वृद्धि के लिए सरकार ने निम्न कदम उठाए हैं ।।

(i) परीक्षण केन्द्रों की स्थापना के लिए उद्योग संघों तथा स्वैच्छिक संस्थाओं को सहायताः

(ii) जमीनी परीक्षण स्टेशनों के द्वारा गुणवत्ता में प्रोन्नति के लिए सेवा प्रदान करना

(iii) एकीकृत टेक्नोलॉजी प्रोन्नति तथा प्रबन्धन प्रोग्राम के अन्तर्गत 59 क्लस्टर को चुना गया है।

(iv) प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए वित्तीय सहायता:

(v) टेक्नोलॉजी उन्नति के लिए बैंकों तथा अन्य संस्थाओं द्वारा दिए जाने वाले उधार का 15 प्रतिशत

(vi) सब्सिडी के रूप में देना; (vi) SIDO में Biotech Cell की स्थापना।

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उदारवादी नीति का प्रभाव

(IMPACT OF LIBERALISATION POLICY)

औद्योगिक क्षेत्र में उदारवादी नीति का पदार्पण 1985 में ही हुआ जब 31 उद्योग समूहों पर से लाइसेन्स व्यवस्था को उठा लिया गया, लेकिन 1991 में ही आंशिक उदारवाद की यह नीति पूर्ण विकसित हुई। जुलाई, 1991 में नई औद्योगिक नीति की घोषणा की गई। इस नीति की प्रमुख बातें निम्नलिखित थीं:

  • औद्योगिक लाइसेन्स के क्षेत्र को कम करना,
  • प्रक्रिया, नियमों, आदि को सरल बनाना,
  • एकाधिकार एवं प्रबन्धित व्यापार एक्ट (MRTP Act) में सुधार,
  • सार्वजनिक क्षेत्र के लिए रिजर्व क्षेत्र में कमी.
  • लोक उद्यमों की इक्विटी का विनिवेश (disinvestment),
  • घरेलू औद्योगिक इकाइयों में विदेशी ईक्विटी, सहयोग की सीमा में वृद्धि।

1990 के दशक के आर्थिक सुधारों के परिणामस्वरूप विदेशी निवेश के प्रवेश पर लगी बाधाओं को समाप्त कर दिया गया, व्यापार में खुलापन आ गया, विदेशी तकनीकी के प्रवेश द्वार को खोल दिया गया तथा पूंजी बाजार के प्रवेश पर लगे प्रतिबन्धों को हटा लिया गया। इन सब उपायों से ऐसी आशा की गई कि औद्योगिक उत्पादन की दर लगातार ऊंची रहेगी। देश के तुलनात्मक लाभ को देखते हुए यह भी उम्मीद की गई कि निवेश की संरचना में ऐसा परिवर्तन होगा कि पूंजी-प्रधान उद्योग से पूंजी श्रम-प्रधान उद्योगों में जाएगी। यह भी उम्मीद की गई कि इस संरचनात्मक परिवर्तन के कारण लाभ में वृद्धि होगी, निर्यातोन्मुख उद्यमों का विकास होगा तथा उद्यमों में अधिक रोजगार प्राप्त होंगे।

सुधारों की प्रक्रिया के प्रारम्भ में भारतीय फर्मों की क्षमता के विषय में अनेक सन्देह थे, क्योंकि उनका विकास पारम्परिक औद्योगिक नीति तथा संरक्षण के वातावरण में हुआ था। इसीलिए सन्देह था कि क्या वे व्यापार प्रतिबन्ध या प्रवेश पर प्रतिबन्ध की अनुपस्थिति में स्पर्धात्मक वातावरण को झेल सकेंगे। अनेक वर्षों तक ऐसा लगा कि संक्रमण (transition) की क्रिया में उन्हें गम्भीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन अनेक क्षेत्रों में, विशेष कर श्रम-प्रधान उद्योगों में, भारतीय फर्मों ने विश्व स्तर पर अपने को स्थापित करने में सफलता पाई है। विनिर्मित वस्तुओं के निर्यात में इन्हें हाल के वर्षों में बड़ी सफलता मिली है। नए। प्रकार के जो भारतीय फर्म स्थापित हुए हैं वे सफलतापूर्वक अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अपना संचालन कर रहे। हैं। ये भारतीय औद्योगिक विकास के नए चरण हैं।

औद्योगिक नीति के निम्न 6 तत्व हमारी औद्योगिक एवं उत्पादकता वृद्धि में सहायक होंगे :

(i) इन्फ्रास्ट्रक्चर में लगातार प्रगति, –

(ii) निम्न तथा एकरूप आयात टैरिफ की ओर प्रगति,

(iii) GST की पर्दापण,उद्योग की प्रवत्तियां

(iv) श्रम कानूनों में सुधार,

(v) लघु-स्तरीय क्षेत्र में आरक्षण की समाप्ति, तथा

(vi) विफल उद्योगों के विषय में तेजी से समाधान, विफल कम्पनियों को शीघ्र कारोबार समेटने की सविधा तथा ऋणकर्ताओं (Creditors) के अधिकारों को ठोस रूप में लागू करना (sound enforcement)

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दसवीं योजना (2002-07) का व्यावसायिक वातावरण

उदारवाद की नीति को अपनाने के पश्चात् दसवीं योजना के अनुसार (Vol. II, p.675), औद्योगिक क्रियाओं को तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहला चरण जुलाई 1991 से 1992-93 तक का है। दूसरा चरण 1993-94 से 1995-96 तक का है जिसमें औद्योगिक विकास की गति तेज हो गई। तीसरा चरण 1996-97 से शुरू होता है जब औद्योगिक विकास की गति धीमी पड़ गई। आठवीं योजना (1992-97) काल में औद्योगिक विकास की औसत वार्षिक दर 7.3 प्रतिशत थी। नौवीं योजना (1997-02) में औद्योगिक विकास का लक्ष्य 8.2 प्रतिशत वार्षिक रखा गया, जबकि वास्तविक चक्रवृद्धि दर (Compound Annual Growth Rate) मात्र 5 प्रतिशत रही। दसवीं योजना (2002-07) में औद्योगिक क्षेत्र की वार्षिक विकास दर का लक्ष्य (target) 10 प्रतिशत रखा गया है। पिछले दशक के 7 प्रतिशत की औसत वार्षिक दर की तुलना में दसवीं योजना में विकास दर को काफी ऊंचा रखा गया है। सामान्य परिस्थितियों में भी इस दर को प्राप्त करना काफी मुश्किल होता. जबकि दसवीं योजना में यह दर आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण में होने वाली संरचनात्मक विकृतियों तथा परिवर्तनों के कारण चुनौतीपूर्ण हो गई है। निम्न परिवर्तनों पर ध्यान देने की जरूरत है:

(1) निम्न कारणों से एक अत्यन्त ही स्पर्धात्मक वातावरण का सृजन बड़ी तेजी से हो रहा है :

  • आर्थिक एवं सामाजिक आकांक्षाओं में वृद्धि
  • विश्व व्यापार संगठन (WTO) से सम्बन्धित बाजार शक्तियों का बाह्य वातावरण
  • उपभोक्ताओं की रुचि, प्राथमिकताओं, आदि में परिवर्तन के कारण उत्पादकता तथा सक्षमता में सुधार की जरूरत।

(2) विश्व स्तर पर बाजारों के एकीकरण से पारम्परिक तुलनात्मक लाभ के सिद्धान्त को चुनौती मिल रही है। अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धा के निर्धारक अब आधुनिक तकनीकी, पूंजी संसाधन तथा बाजार बन गए हैं, न कि राष्ट्रों को उपलब्ध स्थैतिक साधन (Relative factor endowments of nations)|

(3) भारत को ताकत तथा तुलनात्मक लाभ जिन तत्वों से प्राप्त होते हैं वे हैं :

  • उच्च क्वालिटी के साहसी एवं उद्यमियों की उपस्थिति:
  • स्थापित वैज्ञानिक एवं औद्योगिक आधार:
  • सस्ती तथा अंग्रेजी बोलने वाली श्रम शक्ति तथा . विशाल घरेलू बाजार।

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(4) बड़ीबड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने अपनी वस्तुओं का उत्पादन भारत में करना शुरू कर दिया है। दूसरी ओर भारतीय बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने विदेशों में काम करना शुरू किया है और इस प्रक्रिया में तेजी से वृद्धि हो रही है। भरत झुनझुनवाला के अनुसार, तीन वर्ष पहले भारत से बाह्य की ओर FDI भारत में आने वाले कुल FDI (Foreign Direct Investment) का लगभग 7 प्रतिशत था। अब यह 16 प्रतिशत हो गया है।

इस बदलते हुए भारतीय व्यावसायिक वातावरण के अनुसार भारतीय उद्योगों को अपने को ढालना पड़ेगा अन्यथा “योग्यतम की उत्तरजीविता” (Survival of the fittest) के दौर में भारत पीछे छूट जाएगा। दसवीं योजना के शब्दों में, “संक्षेप में, भारतीय उद्योगों को अन्तर्मुखी अवधारणा को छोड़ना होगा तथा बहिर्मुखी बनना होगा एवं संक्षरण रहित, अन्तर्राष्ट्रीय स्पर्धात्मक वातावरण में क्रिया करनी होगी।” (In short, Indian industry has to discard its inward-looking approach and become outward-oriented and learn to operate in an unprotected, internationally competitive environment.” Tenth Plan, Vol. II. p. 664.) हमारा सपना तभी साकार हो सकता है जब ऊपर से दिखने वाली धमकी को हम अवसर में बदल दें तथा उसकी सम्भावनाओं से लाभ उठाएं। इसके लिए सरकार और उद्योग को साथ-साथ मिलकर काम करना है।

दसवीं योजना में औद्योगिक विकास के निम्न उद्देश्य हैं :

  • भारतीय ग्रामीण कृषि व्यवस्था को नगरीय, औद्योगिक व्यवस्था में बदलना। ऐसा संरचनात्मक परिवर्तन आर्थिक विकास का सचक है। राष्ट्रीय आय में उद्योग के अंश में वृद्धि तथा कृषि के। योगदान में कमी होने से प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है।
  • विश्व निर्यात में भारतीय विनिर्मित वस्तुओं के हिस्से में वृद्धि।
  • औद्योगिक विकास में क्षेत्रीय विषमताओं को दूर करने में पिछली योजनाओं को सफलता नहीं मिली। राज्य द्वारा प्रत्यक्ष हस्तक्षेप, जो औद्योगिक लाइसेन्सिंग प्रणाली के माध्यम से होता था, की समाप्ति के पश्चात् किसी नए तरीके से इस उद्देश्य को प्राप्त करने के विषय में सोचना पड़ेगा।
  • भारत में रोजगार कृषि क्षेत्र में ही केन्द्रित है। कुल रोजगार का लगभग 60 प्रतिशत इसी क्षेत्र में प्राप्त होता है। इस कारण नगरीय एवं ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में कुशल श्रमिकों में विस्तृत बेरोजगारी एवं अर्द्ध-रोजगारी व्याप्त है। जनसंख्या वृद्धि के अनुमान बताते हैं कि शीघ्र ही 15-59 के आय वर्ग का हिस्सा कुल जनसंख्या में लगभग 60 प्रतिशत हो जाएगा। इससे श्रम शक्ति में काफी बद्धि होगी। इसलिए दसवीं योजना का यह भी लक्ष्य है कि औद्योगिक विकास के द्वारा कुशल श्रमिकों के लिए औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार का सृजन करना।

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दसवीं योजना में औद्योगिक विकास की रणनीति (Strategy)

उपर्युक्त उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए दसवीं योजना में एक विस्तृत एवं सुसंगत रणनीति अपनाई गई है। इस रणनीति के अन्तर्गत एक ऐसे आर्थिक वातावरण का सृजन करना है जिसमें निजी क्षेत्र की सम्पूर्ण उद्यम क्षमता (entrepreneurial potential) को उत्पादन, रोजगार तथा आय के सृजन में लगाया जा सके। निवेश के लिए उपयुक्त आबोहवा तैयार करने के लिए आर्थिक सुधारों के विस्तार के साथ-साथ गहराई में भी जाने की आवश्यकता है। निम्न सुधारों की जरूरत है :

  • श्रम नीति की कठोरता की समाप्ति
  • भूसम्पत्ति (real estate) कानूनों में सुधार;
  • सम्पत्ति के अधिकार को आसान एवं पारदर्शी बनाना
  • वस्तुओं के अन्तर्राज्यीय आवागमन पर से प्रतिबन्ध हटाना;
  • चुंगी (Octroi) की समाप्ति;
  • स्पर्धात्मक बाजार अर्थव्यवस्था के सृजन के लिए विश्वस्तरीय भौतिक, वित्तीय एवं सामाजिक संरचना की स्थापना
  • प्रतिस्पर्धात्मकता के लिए आधुनिकीकरण एवं तकनीकी की उन्नति सर्वाधिक आवश्यक है।

भारत द्वारा निर्मित वस्तुओं का जो निर्यात होता है उसका 80 प्रतिशत उन वस्तुओं का है जो कच्ची सामग्री तथा निम्न तकनीकी पर आधारित हैं। इसके विपरीत 1985-1996 के मध्य निर्मित वस्तुओं के विश्व निर्यात में इनका हिस्सा 35 से 43 प्रतिशत के मध्य था। उच्च तकनीक पर आधारित निर्मित वस्तुओं के कुल निर्मित वस्तुओं के विश्व निर्यात में 1986 से 1996 की अवधि में 7.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसकी तुलना में इन वस्तुओं के भारतीय निर्यात में मात्र 1.4 प्रतिशत की वृद्धि इसी अवधि में हुई। इन वस्तुओं का भारतीय निर्यात इन्हीं वस्तुओं के चीनी निर्यात का मात्र 20 प्रतिशत तथा दक्षिण कोरियाई एवं ताइवानीय निर्यात का मात्र 10 प्रतिशत था। अतः आधुनिकीकरण एवं तकनीकी उन्नति से हमारे निर्यात में न केवल विविधता आएगी अपितु इसके लचीलेपन में भी वृद्धि होगी।

  • औद्योगिक विकास की वार्षिक दर को 10 प्रतिशत करने के लिए बड़े पैमाने पर निवेश की जरूरत होगी। इसलिए निवेश-योग्य संसाधनों की भी बड़ी मात्रा में आवश्यकता पड़ेगी। इसके लिए कई मोर्चों पर क्रिया की आवश्यकता है। सर्वप्रथम, अनुत्पादक लोक उद्यमों को बन्द करना होगा। उन लोक उद्योगों का भी विनिवेश (disinvestment) करना होगा जिनकी उत्पादकता काफी कम है। इससे प्राप्त रकम को उन उद्यमों में लगाना होगा जिनका प्रबन्धन सक्षम हाथों में है। सब्सिडी के बोझ को भी कम करने। की जरूरत है। साथ ही, पूंजी एवं वित्तीय बाजार के स्वस्थ विकास की जरूरत है।
  • विदेशी निवेश-प्रत्यक्ष एवं पोर्टफोलियो पर भी गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है। दसवीं योजना का कहना है कि कुछ अनुमानों के अनुसार FDI को चार गुना करने की जरूरत है। FDI न केवल साधनों का अतिरिक्त कोष है बल्कि तकनीकी का स्रोत भी।

दसवीं योजना में औद्योगिक विकास की औसत वार्षिक वृद्धि के 10 प्रतिशत लक्ष्य की तुलना में 2002.03 में वृद्धि मात्र 5.7 प्रतिशत तथा 2003-04 में 6.9 प्रतिशत रही। 2004-05 में 8.4 तथा 2005-06 में यह दर 8.2 प्रतिशत तथा 2006-07 में 11.6 प्रतिशत थी।

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ग्यारहवीं योजना (2007-12) का व्यावसायिक पर्यावरण

दसवीं योजना में औद्योगिक वृद्धि का लक्ष्य 10 प्रतिशत था। यह लक्ष्य पूरा नहीं हो सका। लेकिन इस योजना में औद्योगिक वृद्धि दर में तेजी आई तथा इसके अन्तिम वर्ष (2006-07) वृद्धि लक्ष्य से ऊपर रही। नौवीं योजना में संयुक्त वार्षिक दर (Compound Annual Growth Rate-CAGR) 4.5 प्रतिशत थी जो दसवीं योजना में बढ़कर 8.0 प्रतिशत हो गई। विनिर्माण (Manufacturing) उद्योगों की वृद्धि दर और अधिकरही नौवीं योजना में 3.8 प्रतिशत से बढ़कर दसवीं योजना में 8.7 प्रतिशत। विनिर्माण उद्योगों की वार्षिक वृद्धि दर दसवीं योजना में लगातार बढ़ती गई तथा 2006-07 में 12.3 प्रतिशत हो गई। अनेक वर्षों में पहली बार 2006-07 में औद्योगिक वृद्धि दर सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर 11.6 प्रतिशत के बराबर हो गई।

विनिर्माण क्षेत्र के प्रभावशील निष्पादन के निम्न कारण थे :

  • घरेलू तथा बाह्य बाजार में मांग में वृद्धि;
  • 1991-92 से औद्योगिक एवं राजकोषीय नीतियों में सुधार;
  • बाह्य प्रतिबन्धों को हटा लेने के कारण स्पर्धात्मक पर्यावरण का सृजन तथा
  • विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) नीति को दसवीं योजना में काफी उदार बनाया गया; 2006 में FDI नियमों को और उदार बनाया गया।

ग्यारहवीं योजना में GDP की औसत वार्षिक वृद्धि दर को 9.0 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए औद्योगिक एवं विनिर्माण उद्योगों की वार्षिक वृद्धि दर को 9.8 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया है। इस वृद्धि दर को प्राप्त करने के लिए भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर में अधिक निवेश करना होगा। कर की रचना को निवेश में वृद्धि के अनुकूल करने के साथ-साथ कच्ची सामग्री की दुर्लभता को समाप्त करना होगा। उसी तरह ऊर्जा की उपलब्धता पर भी ध्यान देना होगा।

नवप्रवर्तन (Innovation) को प्रोत्साहित करने पर भी विशेष ध्यान ग्यारहवीं योजना में दिया गया है। पूरे विश्व में माइक्रो तथा लघु उद्योगों (MSEs) को आर्थिक विकास का इंजन माना गया है। अभी हाल तक MSEs भारत में ग्राम एवं लघु उद्योगों के नाम से जाना जाता था। कुल औद्योगिक उत्पादन में इनका हिस्सा 40 प्रतिशत था, कुल औद्योगिक इकाइयों में इनकी संख्या 95 प्रतिशत थी तथा भारतीय निर्यात में इनका हिस्सा 34 प्रतिशत था। इतना ही नहीं, MSEs समावेशी (Inclusive) वृद्धि का भी एक महत्वपूर्ण माध्यम है

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ग्यारहवीं योजना में MSME क्षेत्र

ग्यारहवीं योजना का कहना है कि MSME क्षेत्र को कृत्रिम ढंग से विभिन्न मन्त्रालयों के मध्य विभाजित कर दिया गया था। इसके परिणामस्वरूप, हस्तकरघा, पावरलूम, हस्तकला, खादी तथा नारियल-जटा (coir) उद्योगों की विनिर्माण तथा सेवा आधारित माइक्रो तथा लघु उद्योगों की तुलना में उपेक्षा हुई। इसी उपेक्षा तथा विसंगति को दूर करने के लिए Micro, Small and Madium, Enterprises Development Act (MSMED Act) को 16 जून, 2006 को पारित किया गया। इस अधिनियम में MSME की जो परिभाषा दी गई उसकी चर्चा पीछे की जा चुकी है।

ग्यारहवीं योजना के अनुसार, लघु फर्मों-औपचारिक एवं अनौपचारिक का GDP तथा रोजगार में योगदान निम्न, मध्यम तथा उच्च आय देशों में प्रायः समान है। किन्तु, आय में ज्यों-ज्यों वृद्धि होती है।

आपचारिक लघु एवं मध्यम उपक्रम क्षेत्र का हिस्सा बढ़ता है तथा अनौपचारिक क्षेत्र का हिस्सा घटता है। इस योजना में, विश्व अर्थव्यवस्था में SME की भूमिका का उल्लेख किया है जोअग्रांकित है

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चीन में पिछले बीस वर्षों में जितने SME उपक्रमों का सृजन किया है वह यूरोप तथा अमरीका की संयुक्त SME संख्या से भी अधिक है।

ज्यों-ज्यों देशों का आर्थिक विकास होता है, त्यों-त्यों रोजगार प्रदान करने तथा GDP में कृषि का हिस्सा घटता जाता है। आस्ट्रेलियाई अर्थशास्त्री क्रिस हॉल (Chris Hall) का कहना है कि विश्व स्तर पर नए रोजगार के 70 प्रतिशत का सृजन लघु एवं मध्यम उपक्रम (SMEs) क्षेत्र में होता है, जबकि बड़े उपक्रम रोजगार ध्वंसक (Job Destroyers) होते हैं।

ग्यारहवीं योजना का कहना है कि लघु एवं मध्यम क्षेत्र का भारत में 1960 से महत्वपूर्ण विकास हुआ है। 1960 में केवल 12,376 इस प्रकार के उपक्रम थे जिनमें 10 लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ था तथा इनके वार्षिक उत्पादन की कीमत 875 करोड़ ₹ थी। 2006-07 में इनकी संख्या 128 लाख इकाइयां थीं और इनमें 295 लाख कार्यरत थे। इकाइयों की वार्षिक वृद्धि दर 4.4 प्रतिशत थी तथा रोजगार के लिए यह दर 4.62 प्रतिशत। यदि खादी उद्योग, ग्रामीण उद्योग तथा नारियल-जटा उद्योग को शामिल कर लिया जाए तो रोजगार की संख्या 332 लाख हो जाती है। हस्तकरघा, हस्तशिल्प, ऊन तथा रेशम को शामिल करने पर कुल रोजगार की संख्या 650 लाख हो जाती है। MSME क्षेत्र में रोजगार के सृजन के लिए 72,000 ₹ के निवेश की जरूरत होती है, जबकि बड़े संगठित क्षेत्र में ऐसा करने के लिए 5.56 लाख ₹ की जरूरत पड़ती है।

ग्यारहवीं योजना के अनुमान के अनुसार इस योजना में 10 प्रतिशत की वृद्धि दर को प्राप्त करने के लिए MSE क्षेत्र में 12 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि की जरूरत पड़ेगी। समावेशी विकास के लिए क्षेत्र का महत्व काफी अधिक है, क्योंकि यह महिलाओं, बच्चों, अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, शहरी गन्दी बस्ती, आदि सभी को शामिल करता है। ।

भारत का MSE क्षेत्र पंचमेल (Hetrogeneous) क्षेत्र है। यह बिखरा हुआ तथा अधिकांशतः असंगठित है। ग्यारहवीं योजना में इस क्षेत्र की समस्याओं की चर्चा करते हुए निम्न को महत्वपूर्ण बताया :

  • साख तथा कार्यशील पूंजी की अपर्याप्त प्राप्ति;
  • समय पर अच्छी क्वालिटी की कच्ची सामग्री तथा पैकेज सुविधाओं की उपलब्धता का अभाव:
  • बाजार अनुसन्धान, सहसंलग्नता (linkages) तथा डिजाइन इनपुट (design inputs) का पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध न होना;
  • लघूस्तरीय उद्योगों की बीमार इकाइयों का पुनर्वास:
  • वैश्वीकरण (globalisation) के प्रतिकूल प्रभाव से MSE के कई खण्डों को बचाने की आवश्यकता है। ग्यारहवीं योजना में जिनका जिक्र किया गया है, वे हैं सड़कों पर बेचने वाले विक्रेता, छोटे-छोट। व्यापारी, हस्तकरघा तथा पावरकरघा बुनकर, आवास आधारित खाद्यान्न संसाधन इकाइयां खादी। इत्र, जरी श्रमिक, ग्रामीण कारीगर, आदि । वैश्विक प्रतिस्पर्धा का इन पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ा है। “सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि लाइसेंस राज तथा दफ्तरशाही जिन्हें अन्य क्षेत्रों में कम-से-कम किया जा रहा है माइक्रो क्षेत्र में भी समाप्त करने की आवश्यकता है।
  • टेक्नोलॉजी में सुधार तथा पैमाने की बचत को प्राप्त करने के लिए निवेश की मात्रा में वृद्धि करने की आवश्यकता है। ग्यारहवीं योजना की सिफारिश है कि माइक्रो तथा लघु इकाइयों में निवेश की सीमा 5 करोड़ ₹ तक बढ़ाना उचित होगा।

ग्यारहवीं योजना में MSE क्षेत्र के विकास के लिए कल्याण के स्थान पर सशक्तिकरण (empowerment) की नीति को अपनाने की सिफारिश की गई है। इस योजना में इस क्षेत्र को समावेशी आर्थिक विकास तथा रोजगार का इंजिन स्वीकार किया गया है। दो-तरफा रणनीति को अपनाया गया है—जीविकोपार्जन divelihood) तथा सामाजिक सुरक्षा (social security) पर रोशनी दी गई है। यह केवल अधिकार की बात नहीं है, बल्कि यह आर्थिक कामनसेंस (economic commonsense) की भी बात है। कारीगर तथा साहसी । तभी पुरे रूप में उत्पादक हो सकते हैं जब वे शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से सक्षम हो।

इस योजना में MSE क्षेत्र को उद्योग का एक महत्त्वपूर्ण खंड किया गया है। लेकिन यह असंगठित है। इसलिए इस क्षेत्र को भी उद्योग को मिलने वाली सभी सुविधाओं को प्राप्त करने का हक है। उद्योग तथा MSE को एक-दूसरे का विरोधी न मानकर, पूरक मानना चाहिए। उदाहरणार्थ, ग्यारहवीं योजना का कहना था कि हस्तकरघा को दुपट्टा, शॉल, साड़ी तथा साज-सामान का उत्पादन करना चाहिए, जबकि पावरकरघा द्वारा गमछा. धोती. तौलिया, बिछावन तथा मेज के लिनेन, आदि उत्पाद होना चाहिए। बड़े कारखानों द्वारा सूटिंग, शटिंग, शर्ट, आदि का उत्पादन होना चाहिए।

MSE क्षेत्र को निर्यात करने का अवसर मिलना चाहिए। MSME कार्य दल ने यह अनुमान लगाया है कि ग्यारहवीं योजना काल में क्रियाशील पूंजी तथा उधार के रूप में इस क्षेत्र को 2,96,400 करोड़ ₹ की आवश्यकता होगी। बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) का व्यावसायिक पर्यावरण

बारहवीं योजना में औद्योगिक क्षेत्र की विकास दर का 8.2 प्रतिशत लक्ष्य रखा गया है, परन्तु आपूर्ति पक्ष के और मांग पक्ष के अवरोधों के मिले-जुले असर के कारण बारहवीं योजना के वर्षों 2012-13 तथा 2013-14 में औद्योगिक विकास में क्रमश: 1.0 प्रतिशत तथा 0.4% की ही बढ़ोतरी हुई। जबकि आधार वर्ष 2011-12 के आधार पर वर्ष 2012-13 तथा 2013-14, 2014-15, 2015-16 तथा 2016-17 में यह वृद्धि दर क्रमशः 2.4%,4.5%, 5.9%, 8.8% तथा 5.6% आंकी गई। इस योजना में रोजगार सृजन की दृष्टि से विनिर्माण क्षेत्र की विकास दर को तेज करने पर ध्यान दिया गया। इस दृष्टि से बारहवीं योजना में यह निश्चित किया गया कि (i) विनिर्माण क्षेत्र को वैश्विक नेटवर्क से एकीकृत किया जाएगा, (ii) भौतिक अवसंरचना में सुधार किया जाएगा।, (iii) सूक्ष्म, लघु और मध्यम क्षेत्र की भूमिका में वृद्धि की जाएगी, (iv) कुशल मानव संसाधन की उपलब्धता में वृद्धि के कदम उठाये जाएंगे, (v) विनिर्माण क्षेत्र में आने वाली बाधाओं का समाधान करने तथा क्षमता सुजन करने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएंगे, (vi) सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को पेशेवर प्रबंध के आधार पर सुधारा जाएगा, (vii) निर्यातों को प्रोत्साहित किया जाएगा तथा (viii) व्यावसायिक नियमनात्मक ढांचे को प्रतियोगिता प्रेरित बनाया जाएगा।

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समग्र विनिर्माण में अनौपचारिक क्षेत्र की घटती हिस्सेदारी के मद्देनजर सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम क्षेत्र को सुदृढ़ करना अति आवश्यक है। आने वाले वर्षों में बढ़ती जनसंख्या के लिए रोजगार सृजित करना बहुत आवश्यक है। इसके लिए औपचारिक तथा गैर-औपचारिक दोनों क्षेत्रों में छोटे व्यवसायों का पुनरुद्धार अति आवश्यक है। बारहवीं योजना में सूक्ष्म, लघु तथा मध्यम क्षेत्र के विभिन्न पहलुओं को शामिल किया गया है।

बारहवीं योजना सम्बन्धी कार्य समूह ने इस क्षेत्र के विकास हेतु छः घटकों में सुधार हेतु सिफारिशें प्रस्तुत की हैं : (i) वित्त तथा ऋण, (ii) प्रौद्योगिकी, (iii) अवसंरचना, (iv) विपणन एवं खरीद, (v) कौशल विकास एवं प्रशिक्षण, तथा (vi) संस्थागत संरचना।

बारहवीं योजना के शेष वर्षों में केन्द्र तथा राज्य दोनों स्तर पर छोटे व्यवसायों के लिए व्यावसायिक वातावरण सुधारने के तरीकों पर विचार करना होगा। यद्यपि व्यवसाय को शासित करने वाले कानूनों एवं विनियमों को समग्र रूप से पुनर्निरीक्षित करना दीर्घावधि समाधान है फिर भी अल्पावधि में अनेक कदम उठाए जा सकते हैं और अनेक नीतिगत उपाय किए जा सकते हैं।

रोजगार सृजन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए छोटे व्यवसायों और अनौपचारिक क्षेत्र की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। अतः औद्योगिक नीति को अनौपचारिक क्षेत्र में श्रम-साध्य और संसाधन आधारित विनिर्माण पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 क्या भारत का औद्योगिक विकास सन्तोषजनक रहा है? औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर के आलोक में प्रकाश डालें।

2. योजना काल में भारतीय औद्योगिक संरचना में हुए परिवर्तनों पर प्रकाश डालें।

3. हाल के आर्थिक सुधारों का क्या प्रभाव हमारे औद्योगिक विकास पर पड़ा?

4. दसवीं योजना के व्यावसायिक वातावरण की विवेचना करें।

5. लघु उद्योगों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए इनकी वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करें।

6. ग्यारहवीं योजना के व्यावसायिक पर्यावरण की विवेचना कीजिए।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

1 कैसी औद्योगिक नीति भारतीय औद्योगिक विकास के लिए सहायक होगी?

2. उदारवादी नीति का औद्योगिक क्षेत्र पर क्या प्रभाव पड़ा है ?

3. दसवीं योजना के औद्योगिक विकास की रणनीति को स्पष्ट करें।

4. लघु उद्योगों की स्थिति को सुधारने के लिए पिछले कुछ वर्षों में किए गए उपायों पर प्रकाश डालें।

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