BCom 1st year Business Environment Finance Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st year Business Environment Finance Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Environment Finance Study Material Notes in Hindi: Meaning of Finance and Functions of Financial Markets  Financial Intermediaries and Financial Markets  Financial Assets Classification of Financial Market Financial Capital  Indian Financial Market  Capital Market  Reform of the Financial Market Impact of Global Financial Crisis of India Examinations Questions Long Questions Short Question Answer :

Finance Study Material Notes
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BCom 1st Year Business Environment Money Study Notes in Hindi

वित्त

[FINANCE]

वित्त का अर्थ एवं वित्तीय बाजार के कार्य

(MEANING OF FINANCE AND FUNCTIONS OF FINANCIAL MARKETS)

विश्लेषण के दृष्टिकोण से आर्थिक विनिमय को तीन उपवर्गों में बांटा जाता है, यथा,

(1) क्रय या खरीद-बिक्री (Buying-Selling)

(2) लेन-देन (Taking-Giving)

(3) उधार देना-ऋण लेना (Lending-Borrowing)

आर्थिक वस्तुओं को मुद्रा देकर लेने को खरीद या क्रय कहा जाता है, जबकि मुद्रा लेकर आर्थिक वस्तुओं के विक्रय को बिक्री कहा जाता है। शून्य कीमत पर क्रय-विक्रय को लेन-देन कहा जाता है। बाजार को उधार देना तथा बाजार से ऋण लेने को वित्तीय वस्तुओं (Financial goods) की खरीद और बिक्री कहा जाता है। वित्तीय वस्तुएं वित्तीय परिसम्पत्ति (Financial assets) तथा दायित्व (Liabilities) हैं जिनका सृजन ऋण लेने की प्रक्रिया में होता है।

सरल भाषा में हम कह सकते हैं कि जब और जहां जरूरत होती है मुद्रा का प्रावधान करना वित्त कहलाता है। वित्त अल्पकालीन (एक वर्ष तक के लिए), मध्यमकालीन (एक से पांच वर्षों के लिए) तथा दीर्घकालीन (पांच वर्षों से अधिक के लिए) हो सकता है। वित्त की आवश्यकता उपभोग के लिए या निवेश के लिए हो सकती है। निवेश के लिए प्रदत्त वित्त को पूंजी (Capital) कहा जाता है।

वित्तीय सम्पत्ति तथा मूर्त सम्पत्ति (Financial assets and tangible assets) में निम्न अन्तर है:

  • मूर्त सम्पत्ति एक निश्चित आकार तथा उपयोग की होती है, जैसे—मकान, कार, ट्रक, आदि। वित्तीय सम्पत्ति सामान्य दावा (generalised claims) है जिसका मूल्य नामधारक (सांकेतिक) मुद्रा में निश्चित किया जाता है।
  • मूर्त सम्पत्ति प्रत्यक्ष सेवा प्राप्त करने के लिए खरीदी जा सकती है, जैसे—उपभोक्ता की टिकाऊ वस्तुएं। वित्तीय सम्पत्ति को प्राप्त करने का प्रमुख उद्देश्य यह है कि वह आकर्षक आय प्रदानकरने वाला मूल्य का संचय है।
  • वित्तीय सम्पत्ति मूर्त सम्पत्ति की तुलना में अधिक तरल होती है। मुद्रा सबसे अधिक तरल वित्तीय सम्पत्ति है।

किसी अर्थव्यवस्था के वित्तीय क्षेत्र में संस्थाएं (institutions), बाजार (markets) तथा यन्त्र (instruments) समाविष्ट होते हैं तथा ये बहुआयामी होते हैं जिनके घरेलू तथा बाह्य पक्ष होते हैं। वित्तीय व्यवस्था द्वारा बचत की क्रिया को प्रोत्साहन मिलता है तथा यही इसे सर्वोत्तम उपयोग की ओर ले जाती है। इस व्यवस्था में व्यक्ति (बचत वर्ग), बिचवई, बाजार तथा बचत के उपयोगकर्ता शामिल हैं। एक सक्षम एवं सुव्यवस्थित वित्तीय बाजार आर्थिक क्रियाओं तथा विकास को प्रोत्साहित करती है। वस्तुतः एक सुव्यवस्थित एवं विकसित वित्तीय संरचना आर्थिक विकास की आवश्यक शर्त है।

वित्तीय बाजार का प्रमुख कार्य अतिरेक क्षेत्र (surplus sectors) अर्थात् उधार देने वाले क्षेत्र (lenders) स घाटे के क्षेत्र (Deficit Sector) को फण्ड के हस्तान्तरण को सुलभ करना है। सामान्यतः व्यक्ति या परिवार के पास आवश्यकता से अधिक फण्ड अर्थात बचत होती है। वे अपनी बचत को कम्पनियों तथा सार्वजनिक क्षेत्र को उधार देते हैं, क्योंकि उनकी आवश्यकता उनकी बचत से अधिक होती है। वित्तीय बाजार। में निवेशक या क्रेता, विक्रेता, व्यापारी तथा दलाल होते हैं तथा वे किसी स्थान पर अवस्थित नहीं होते हैं (no physical location)। वे संचार व्यवस्था द्वारा एक-दूसरे जुड़े होते हैं। वे प्राइमरी मार्केट (Primary market) में क्रिया करते हैं जिसे खदरा बाजार (retail market) भी कहा जाता है। ऐसा बाजार किसी विशेष स्थाना को इंगित नहीं करता है। दूसरी ओर, उपबाजार (secondary market) या स्टॉक एक्सचेन्ज (stock exchange), जहां शेयर तथा प्रतिभूतियों की खरीद बिक्री होती है, एक नीलामी बाजार है तथा इसके लिए एक विशेष स्थान हो सकता है।

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वित्तीय मध्यस्थ या बिचौलिए तथा वित्तीय बाजार

(FINANCIAL INTERMEDIARIES AND FINANCIAL MARKETS)

वित्तीय बाजार बचतकर्ता-उधारदाता (saver-lenders) तथा ऋणकर्ता-व्ययकर्ता (borrower-spenders) के मध्य हस्तान्तरण यन्त्र है। अनेक प्रकार की तकनीक, उपकरण तथा संस्थाओं के माध्यम से वित्तीय बाजार करोड़ों लोगों की बचत को एकत्र करता है तथा इन्हें ऐसे ऋणकताओं तथा खर्च करने वालों के हाथों में देता है जिन्हें अधिक फण्ड की जरूरत होती है। वित्तीय बाजार वह नाली (Conduit) है जिससे होकर बचत करने वाली इकाइयां अपने अतिरिक्त फण्ड को अपनी आय से अधिक खर्च करने वाली घाटे की इकाइयों (Deficit units) को उधार देती हैं। बचत करने वाली इकाइयों को फायदा है, क्योंकि उन्हें ब्याज या लाभांश प्राप्त होता है अपने फण्ड पर। घाटे की इकाइयों को भी फायदा पहुंचता है, क्योंकि उन्हें निवेश के लिए वित्त प्राप्त होता है जिस पर उन्हें ब्याज के रूप में भुगतान की गई रकम से अधिक की प्राप्ति होती है।

वित्तीय बिचोलिए वे वित्तीय संस्थाएं हैं, जो मध्यस्थ का कार्य करते हैं—उधार देने वालों के फण्ड को ऋण लेने वालों को हस्तान्तरित करते हैं। ऐसी संस्थाएं दो प्रकार की हैं—बैंकिंग क्षेत्र की वित्तीय संस्थाएं, जैसे-वाणिज्य बैंक, सहकारी बैंक आदि तथा गैर-बैंकिंग क्षेत्र की वित्तीय संस्थाएं, जैसे—बिल्डिंग सोसाइटीज, हायर-परचेज कम्पनियां, बीमा कम्पनियां, पेन्शन फण्ड, इन्वेस्टमेण्ट ट्रस्ट, आदि।

बैंकिंग तथा गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं के निम्न प्रकार हैं

  • बैंक के दायित्व मुद्रा की पूर्ति का एक भाग है जो गैर-बैंक के विषय में सही नहीं है। गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं के दायित्व को अधिक से अधिक मुद्रा-जैसा (near money) कहा जा सकता है।
  • बैंक अपने दायित्व के द्वारा साख का सृजन करता है। गैर-बैंक ऐसा नहीं करता, किन्तु यह अन्तर हमेशा स्पष्ट नहीं रहता है।
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वित्तीय सम्पत्ति

(FINANCIAL ASSETS)

भारत में प्रमुख वित्तीय सम्पत्तियां (Financial Assets) करेन्सी, बैंक जमा (चालू, बचत तथा मियादी), डाकघर बचत जमा, जीवन बीमा पॉलिसी, भविष्य निधि, बॉण्ड (सरकारी तथा कारपोरेट), विनिमय बिल, हुण्डी, शेयर (साधारण तथा पूर्वाधिकार), UTI के यूनिट्स, कम्पनी जमा, निधि, चिट फण्ड, आदि।

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वित्तीय बाजार का वर्गीकरण

(CLASSIFICATION OF FINANCIAL MARKET)

वित्तीय बाजार दो प्रकार के होते हैं :

(1) मुद्रा बाजार—यह अल्पकालिक प्रतिभूतियों का बाजार है।

(2) पूंजी बाजार—यह दीर्घकालिक प्रतिभूतियों (एक वर्ष से अधिक समय के लिए) का बाजार है।

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वित्तीय पूंजी

(FINANCIAL CAPITAL)

किसी कम्पनी की तरल परिसम्पत्ति (Liquid Assets) को वित्तीय पूंजी कहा जाता है यह कम्पनी की भौतिक पूंजी से भिन्न है। किसी कम्पनी की पूंजी कई प्रकार की हो सकती है। प्रमुख विभाजन हिस्सा पूंजी (Share Capital) तथा उधार पूंजी (Debenture Capital) के मध्य है। हिस्सा पूंजी को साधारण तथा प्रेफेरेंस (Ordinary and Preference) शेयर के मध्य विभाजित किया जाता है। साधारण हिस्से के स्वामी कम्पनी के मालिक (owner) होते हैं। इन्हें अन्य लोगों की तुलना में अधिक जोखिम वहन करना पड़ता है, क्योंकि इन्हें लाभांश आखिर में मिलता है। साधारण हिस्सा को भी दो भागों में बांटा जा सकता है वे जिन्हें मतदान voting) का अधिकार होता है और वे जिन्हें यह अधिकार नहीं होता है अर्थात् Non-Voting या ‘A’ शेयर। शेयर संचयी (Cumulative) या असंचयी (Non-Cumulative) हो सकता है। किसी वर्ष यदि कम्पनी को नाम नहीं मिला, तो शेयर के स्वामी को लाभांश नहीं मिलेगा। किन्तु, संचयी हिस्सा की स्थिति में अगले वर्ष लाभ प्राप्त होने पर पिछले वर्ष का बकाया लाभांश भी मिल सकता है। असंचयी हिस्सा को यह सुविधा प्राप्त नहीं है।

उधार हिस्सा (Debenture or Loan Share) सबसे उत्तम पूंजी है। इसे सबसे कम जोखिम का सामना करना पड़ता है तथा इसे साधारणतः निश्चित (Fixed) व्याज मिलता है, कम्पनी के लाभ उपार्जन नहीं करने पर भी।

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भारतीय वित्तीय बाजार

(INDIAN FINANCIAL MARKET)

भारतीय वित्तीय बाजार को, अन्य देशों की तरह, दो भागों में विभाजित किया जाता है। एक है मुद्रा बाजार तथा दूसरा पूंजी बाजार। (1) मुद्रा बाजार (Financial Market)

(1) मद्रा बाजार (या साख बाजारCredit Market)

अल्पकालिक मौद्रिक परिसम्पत्ति (assets) जिसकी मियाद एक साल से कम की होती है, के व्यापार का केन्द्र है। भारतीय मौद्रिक बाजार को संगठित (organised) तथा असंगठित (unorganised) दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। संगठित मुद्रा बाजार में वाणिज्य बैंकों का बोल वाला है। इसके अन्य खिलाड़ी भारतीय रिजर्व बैंक, जीवन बीमा निगम, सामान्य बीमा निगम, यूनिट ट्रस्ट ऑफ इण्डिया, भारतीय प्रतिभूति ट्रेडिंग निगम तथा भारतीय बट्टा एवं वित्त सदन (Discount and finance House of India) हैं। संगठित मुद्रा बाजार का हृदय अन्तर बैंक मांग एवं अल्प सूचना मुद्रा है। मद्रा बाजार की तरलता को प्रभावित करने में भारतीय रिजर्व बैंक की प्रमुख भूमिका है। रिजर्व बैंक इस कार्य को खुले बाजार की क्रियाओं, CRR, SLR और बैंक दर में परिवर्तन के माध्यम से साख की लागत तथा उपलब्धता में परिवर्तन करके करता है।

असंगठित मुद्रा बाजार में अल्पकालिक तथा दीर्घकालिक वित्त में स्पष्ट अन्तर करना कठिन कार्य है, क्योंकि हुण्डी में कुछ भी साफ-साफ लिखा नहीं होता है। हुण्डी देशी विनिमय बिल (indigenous bill of exchange) है।

(2) पूंजी बाजार (Capital Market)

पूंजी बाजार के दो भाग हैं—प्राइमरी बाजार (Primary market) तथा अनुपूरक या द्वितीयक बाजार (secondary market)। प्राइमरी बाजार में कम्पनियां अपने शेयर, ईक्विटी, डिबेंचर, आदि जारी करती हैं। केन्द्रीय तथा राज्य सरकारें, लोक उद्यम, राज्य विद्युत् बोर्ड, पोर्ट ट्रस्ट, आदि अपने बॉण्ड तथा शेयर प्राइमरी मार्केट में ही जारी करते हैं।

द्वितीयक बाजार में 23 स्टॉक एक्सचेन्ज, नेशनल स्टॉक एक्सचेन्ज, आदि हैं। पूंजी का निर्माण प्राइमरी मार्केट में होता है, जबकि सेकेण्डरी मार्केट जारी किए गए शेयरों की खरीद बिक्री के लिए सतत बाजार प्रदान करता है।

प्राइमरी मार्केट के प्रमुख खिलाड़ी मर्चेण्ट बैंकर, म्यूचुअल फण्ड, वित्तीय संस्थाएं, विदेशी संस्थागत निवेशक (FIIs) तथा बाजार स्थिरांक (market anchor) व्यक्ति गत निवेशक हैं। सेकेण्डरी बाजार के खिलाड़ी उपर्युक्त के अतिरिक्त शेयर दलाल भी हैं।

भारतीय वित्तीय क्षेत्र में बैंक तथा वित्तीय संस्थाओं के साथ-साथ अनेक प्रकार के वित्तीय यन्त्र भी हैं। अल्पकालिक साख मुख्य रूप से वाणिज्य तथा सहकारी बैंकों द्वारा प्रदान किया जाता है। वाणिज्य बैंकों के कार्यों में अब काफी विविधता पाई जाती है। वे मर्चेण्ट बैंकिंग, म्यूचुअल फण्ड, लीजिंग (Leasing-पट्टे पर देने की क्रिया), उद्यम पूंजी तथा अन्य वित्तीय सेवाओं को प्रदान करने लगे हैं। इनके अतिरिक्त राज्यीय, जिला तथा उपजिला स्तरों पर सहकारी बैंकों तथा सहकारी भूमि विकास बैंकों का जाल बिछा हुआ है।

मच्यमकालिक तथा दीर्घकालिक वित्त मख्य रूप से कुछ अखिल भारतीय विकास बैंकों द्वारा प्रदान किया त हा यह राज्य स्तरीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा भी दिया जाता है। भारतीय औद्योगिक विकास बैंक IDBI राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (NABARD), भारतीय निर्यात-आयात बैंक (EXIM Bank). राष्ट्रीय गृह निर्माण बैंक (NHB) अपने-अपने क्षेत्र के शीर्ष बैंक है। पर्यटन तथा लघु उद्योगों के लिए वित्तीय संस्थाएं हैं। इनके अतिरिक्त यूनिट ट्रस्ट ऑफ इण्डिया, जीवन बीमा निगम तथा सामान्य बीमा निगम जैसी। निवेश संस्थाएं भी हैं। बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं ने कई सार्वजनिक म्यूचुअल फण्ड की स्थापना भी की है।। इन सबके अतिरिक्त निजी क्षेत्र के अनेक गैर-बैंक वित्तीय कम्पनियों ने हायर-परचेज तथा लिजिंग क्षेत्र में। पाए-बैंकिंग क्रियाओं को शुरू किया है।

अल्पकालिक मौद्रिक बाजार, जिसका सम्बन्ध सम्पूर्ण वित्तीय व्यवस्था से है, के निम्न पांच खण्ड हैं ।

  • मांग मौद्रिक बाजार (Call money market)
  • अन्तर-बैंकिंग आवधिक जमा बाजार (Inter-bank term deposit Market)
  • बिल पुनर्बट्टा बाजार (Bills re-discount Market)
  • खजाना बिल बाजार (Treasury bill Market)
  • अन्तर कॉरपोरेट फण्ड बाजार (Inter-corporate fund Markets)

हाल के वर्षों में मौद्रिक बाजार को तरलता तथा गहराई (liquidity and depth) प्रदान करने के लिए निम्न मौद्रिक बाजार यन्त्रों को चलाया गया है:

  • जमा प्रमाण पत्र (Certificates of Deposits) मार्च 1989 से जमा प्रमाण-पत्र की योजना शरू की गई ताकि निवेशकर्ता अल्पकालिक कोषों का विनियोग कर सकें। यह पत्र केवल अनसचित व्यापारिक बैंक द्वारा 25 लाख ₹ के गणक में जारी किए जा सकते हैं। एक निर्गम की न्यूनतम राशि एक करोड़ रुपए है।
  • व्यापारिक पत्र (Commercial Paper)—ये पत्र वैसी सूचीबद्ध कम्पनियों द्वारा जारी किए जाते हैं जिसकी कार्यशील पूंजी की सीमा 25 करोड़ ₹ से कम न हो। इस पत्र की योजना को भी मार्च 1989 से शुरू किया गया।
  • 182 दिवसीय ट्रेजरी बिल (182 days Treasury Bills)-ऐसे बिल केन्द्रीय सरकार द्वारा जारी किए जाते हैं। इनकी खरीद-बिक्री हो सकती है।
  • साधन सेवा का प्रारम्भ (Beginning of Factoring Services) मुद्रा बाजार को विस्तृत करने के उद्देश्य से मार्च 1989 से किया गया। समय पर विक्रय राशि की वसूली नहीं होने से उत्पादकों के कार्यकारी (Working) पूंजी की कमी की समस्या के समाधान के लिए वगुल समिति की सिफारिशों के आधार पर इस सेवा को लागू किया गया। इसे औद्योगिक उत्पादकों के साथ-साथ निर्यात क्षेत्र में भी बाद में लागू कर दिया गया।
  • सरकारी प्रतिभूतियों तथा लोकक्षेत्र के उद्यमों के बॉण्डों हेतु द्वितीयक बाजार विस्तृत करने के लिए। 500 करोड़ र की अधिकृत एवं प्रदत्त प्रारम्भिक पूंजी के साथ भारतीय प्रतिभूति व्यापार निगम(Securities Trading Corporation of India) की स्थापना की गई।

भारतीय पूंजी बाजार को दो भागों में बांटा गया है, यथा प्राइमरी बाजार तथा द्वितीयक बाजार। इन बाजारों में वित्त की मांग कृषि, उद्योग, व्यापार तथा सरकार द्वारा होती है। वित्त की पूर्ति करने वाली संस्थाओं को दो भागों में बांटा जाता है, यथा, बैंक तथा गैर-बैंक संस्थाएं।

भारतीय बैंकिंग व्यवस्था सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों में वाणिज्यिक बैंकों, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और सहकारी बैंकों से बनी है। भारतीय वाणिज्यिक बैंकिंग व्यवस्था में कल वाणिज्यिक बैंकों की संख्या 151 है। इसमें 146 अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक हैं जिनमें से 56 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक हैं। गैर-अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की संख्या 5 हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को छोड़कर शेष बैंकों में से 19 राष्ट्रीयकृत बैंक, 01 एस.बी.आई., 01 आई.डी.बी.आई. बैंक है।

वाणिज्य एवं सहकारी बैंक मुख्य रूप से अल्पकालीन ऋण प्रदान करने वाली संस्थाएं है। दीर्घकालीन विकास वित्त को प्रदान करने वाली वित्तीय संस्थाएं दो प्रकार की हैं यथा विकास वित्तीय संस्थाएं (Development financial Institution-DFIS) तथा वित्तीय मध्यस्थ (Financial Intermediaries) DFIs के अन्तर्गत वित्त प्रमुख हैं IFCI, ICICI, SFCs, IDBI, IIBI तथा UTI जबकि, वित्तीय बिचौलियों में व्यापारी बैंक Merchant Banks), म्यूचुअल फण्ड, लीजिंग कम्पनी, वेन्चर कैपिटल कम्पनी तथा अन्य।

उपर्युक्त के अतिरिक्त भारतीय पूंजी बाजार के घटक गैर-बैंक वित्तीय संस्थाएं भी हैं जिनमें प्रमुख हैं। Equipment Leasing Company, Hire Purchase Finance Company, Investment Company, Residuary Non-banking Company, Nidhi, Chit Fund, आदि।

उल्लेखनीय है कि बैंकिंग तथा वित्तीय संस्थाओं के कार्यों का अन्तर तेजी से समाप्त हो रहा है। इस कारण अखिल भारतीय वित्तीय कम्पनियां बैंक के कार्यों को अपनाते जा रहे हैं। इसका एक उदाहरण है। ICICI का ICICI बैंक में विलय जो 30 मार्च, 2002 को हुआ। यह अखिल भारतीय वित्तीय संस्थाओं का सर्वव्यापी बैंक (Universal Bank) में बदलने की शुरुआत थी। 1990 के दशक के आर्थिक सुधारों के कारण आर्थिक वातावरण में जो परिवर्तन आए उनके आलोक में सरकार ने IDBI को वाणिज्य बैंक में बदलने का निर्णय लिया, यद्यपि वह पारम्परिक विकास वित्त की आपूर्ति करता रहोगा। इसके मुताबिक अक्टूबर 1, 2004 को IDBI को कम्पनीज एक्ट 1956 के अन्तर्गत IDBI Ltd. कम्पनी में बदल दिया गया तथा अक्टूबर 11, 2004 को एक अनुसूचित बैंक में RBI Act 1934 के अन्तर्गत

अखिल भारतीय वित्तीय संस्थाओं की कठिनाइयों को देखते हुए RBI ने एन. सदाशिवन की अध्यक्षता में विकास वित्त पर एक कार्यदल का गठन किया, जिसने अपनी रपट मई 2004 में पेश की। इस रपट में विकास वित्त के दिशा निर्देश के सम्बन्ध में तथा DFIs की भूमिका के विषय में सुझाव दिए हैं। मुख्य सिफारिशें निम्नलिखित हैं:

  • जो DFI बनाए रखने योग्य नहीं हैं उसे या तो बैंक या गैर-बैंक वित्तीय कम्पनी (NBFC) मेंपरिवर्तित कर दिया जाए।
  • नियमिती (regulatory) ढांचे को मजबूत बनाना
  • कुछ प्रकार के निवेश के जोखिम भार (risk weightage) को 20 प्रतिशत से बढ़ाकर 100 nप्रतिशत करना; तथा
  • DFI को बैंक में परिवर्तित करने की स्थिति में परिवर्तन के बाद दी जाने वाली छूट को उसे 5 वर्षों तक विस्तारित करना।

DFI की भूमिका में हास के कारण फण्ड की दीर्घकालीन आवश्यकता को पूरी करने में बैंकों को कुछ कठिनाइयां हो रही हैं। राजकोषीय नियन्त्रण तथा बजट प्रबन्धन अधिनियम (FRBM Act) के पालन से वाणिज्य बैंकों को सरकारी पत्रों को कम मात्रा में खरीदने की जरूरत पड़ेगी। ऐसी स्थिति में वाणिज्य बैंक वाणिज्य क्षेत्र को अधिक मात्रा में दीर्घकालीन वित्त प्रदान कर सकेंगे। ऐसा करने के लिए परियोजनाओं के वित्त पोषण (project financing) के सम्बन्ध में बैंकों को अधिक योग्यता हासिल करनी पड़ेगी।

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वित्तीय बाजार का सुधार (Reform of the Financial Market)

1992-93 में सुधारों की प्रक्रिया को प्रारम्भ करने से पहले भारतीय वित्तीय बाजार खण्डित था। निम्न कारणों से यह विभक्त था :

  • अनेक प्रकार के नियमन एवं नियन्त्रण के अन्तर्गत क्रिया करना;
  • प्रशासनिक कीमत; तथा
  • प्रवेश पर प्रतिबन्ध।

इनके कारण संसाधनों की गतिशीलता बाधित होती थी तथा इनके आदर्श आवण्टन पर भी प्रभाव पड़ता था। वित्तीय सुधारों के कारण मुद्रा बाजार, सरकारी प्रतिभूतियों के बाजार तथा विदेशी विनिमय बाजार में विस्तृत सम्बन्ध स्थापित हो सका है तथा तरलता में वृद्धि हुई है, लेकिन वित्तीय बाजार के भिन्न-भिन्न खण्डों में प्रतिफल की सापेक्ष दरों में तालमेल स्थापित नहीं हो सका है। इसके कारण हैं निवेश का संकीर्ण आधार तथा द्वितीयक बाजार में गहनता की कमी। कीमत निर्धारण तथा साधनों का आवण्टन तब तक आदर्श नहीं हो सकता जब तक वित्तीय बाजार के भिन्न-भिन्न खण्डों में विवाचन (arbitrage) की सुविधा उपलब्ध नहीं होती है। (अल्पकालिक फण्ड को सर्वाधिक प्रतिफल प्राप्त करने के लिए एक निवेश से हटाकर दूसरे निवेश में लगाने की प्रथा को विवाचन कहा जाता है।)

बाजार द्वारा निर्धारित ब्याज-दर तथा नियन्त्रण मुक्त साख आवण्टन के कारण बचत की दर में वृद्धि हो सकती है, वित्तीय व्यवस्था अधिक सक्षम हो सकती है तथा निवेश-सम्बन्धी निर्णय अधिक उचित हो सकते हैं।।

1992-93 में भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना में मूलभूत परिवर्तन लाए गए जो इस प्रकार थे:

  • उद्योगों पर से नियन्त्रण को हटाना;
  • विदेशी प्रत्यक्ष निवेश नीति को उदार बनाना;
  • लोक उद्यमों में सुधार;
  • कर प्रणाली में सुधार;
  • व्यापार उदारीकरण तथा

वित्तीय क्षेत्र में सुधार। वित्तीय क्षेत्र में सुधार के अन्तर्गत वाणिज्य बैंक, पूंजी बाजार तथा गैर-बैंक वित्तीय कम्पनियों के क्षेत्र में परिवर्तन लाए गए। इन सुधारों के केन्द्र में थे वित्तीय ढांचे की कमजोरियों को दूर करना तथा ठोस आधार पर वित्तीय बाजार का विकास। मुद्रा तथा विदेशी विनिमय बाजारों में सुधारों के द्वारा इनमें विस्तार तथा गहनता लाने का प्रयास किया गया। सरकारी प्रतिभूति बाजार में सुधारों के द्वारा ऋण के मियाद की रचना को इस प्रकार व्यवस्थित करने का प्रयास किया गया ताकि ऋण बाजार ब्याज दर पर प्राप्त हो तथा द्वितीयक बाजार के विकास के माध्यम से सरकारी प्रतिभूतियों की तरलता में वृद्धि हो। ।

पूंजी बाजार में सुधारों का केन्द्र रहा है प्रकटीकरण (disclosure) मानक को मजबूत करना, बाजार संरचना को विकसित करना तथा स्टॉक एक्सचेन्ज के जोखिम प्रबन्धन व्यवस्था को शक्तिशाली बनाना ताकि बाजार की ईमानदारी (integrity-सत्यनिष्ठा) तथा सलामती की रक्षा की जा सके। विभिन्न बाजार खण्डों में संरचनात्मक सुधारों का सम्बन्ध निम्न से था:

  • वित्तीय सम्पत्तियों का स्वतन्त्र कीमत निर्धारण जैसे, सरकारी प्रतिभूतियों पर ब्याज दर का स्वतन्त्रनिर्धारण;
  • जारी की जाने वाली पूंजी तथा विनिमय दर की कीमत का स्वतन्त्र निर्धारण:
  • भागीदारों की संख्या में वृद्धि तथा
  • नए वित्तीय यन्त्रों का प्रवेश।

बैंकिंग क्षेत्र के सुधार में निम्नलिखित शामिल हैं :

  • पूंजी पर्याप्तता मानक (Capital adequacy norms) का निर्धारण
  • आय के सम्बन्ध में विवेकपूर्ण मानक;
  • न चुकाए जाने वाले ऋण (Bad Debts) की पहचान तथा प्रावधान।

पूंजी बाजार के सुधार के लिए 1992 में भारतीय प्रतिभूति तथा विनिमय बोर्ड (Securities and | Exchange Board of India-SEBI) की स्थापना की गई। इसके निम्न उद्देश्य है :

  • प्रतिभूतियों के निवेशकों के हित की रक्षा; तथा
  • प्रतिभूति बाजार का विकास तथा नियमन।

सेबी (SEBI) ने प्राइमरी बाजार के सुधार के लिए दिशा निर्देश जारी किए हैं। द्वितीयक बाजार के सम्बन्ध में भी दिशा निर्देश जारी किए गए हैं। इन सभी उपायों के कारण पंजी बाजार के वातावरण में आमूलचूल परिवर्तन हुए हैं।

गैर-बैंक वित्तीय कम्पनियों के सम्बन्ध में भी भारतीय रिजर्व बैंक ने अनेक उपायों की घोषणा की है। ताकि ये कम्पनियां ठोस व्यावसायिक सिद्धान्तों पर क्रिया करें।

1992-93 से लागू उदारीकरण तथा अन्य सुधारों के कारण वित्तीय क्षेत्र बाजारोन्मुख (market-oriented) होता जा रहा है। दूसरे शब्दों में, भारतीय वित्तीय क्षेत्र सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त होता जा रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक के करेन्सी तथा वित्त पर रपट (2002-03) के अनुसार, वित्तीय उदारीकरण की निम्न विस्तृत रूपरेखा रही है :

(i) साख नियन्त्रण तथा अत्यधिक ऊंची रिजर्व आवश्यकता की समाप्ति:

(ii) ब्याज-दर पर से नियन्त्रण को हटाना:

(iii) निजीकरण:

(iv) बाजार पर से नियमन को हटाकर इसका विकास:

(v) प्रवेश पर लगे प्रतिबन्धों विदेशी बैंकों की भागीदारी तथा बैंकों के विशिष्टीकरण या विविधता पर लगे प्रतिबन्धों को कम करना; तथा

(vi) अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय लेन-देन पर लगे प्रतिबन्धों को कम करना, जैसे, चालू तथा पूंजी खाते की परिवर्तनीयता में वृद्धि, बहुप्रणाली विनिमय दरों का उपयोग, आदि।

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वैश्विक वित्तीय संकट का भारत पर प्रभाव

(IMPACT OF GLOBAL FINANCIAL CRISIS ON INDIA)

विकसित देशों के अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय बाजार में संकट का प्रारंभ लगभग मध्य-2007 से हुआ तथा अगस्त 2008 से यह बड़े पैमाने पर फैल गया। इस संकट के कारण बड़े-बड़े वित्तीय संस्थान चरमरा गये जिसका प्रभाव विकसित देशों की वास्तविक आर्थिक वृद्धि पर पड़ना शुरू हो गया। यह देखने की बात है कि वित्तीय वैश्वीकरण (financial globalisation) में जो पर्याप्त वृद्धि हुई उसके कारण 2007-08 के वैश्विक वित्तीय संकट से भारत किस तरह तथा कितना प्रभावित हुआ।

भारतीय अर्थव्यवस्था अब पहले की तुलना काफी खुली हुई है, यद्यपि यह सही है कि पूंजी खाता (Capital Account) पूर्णतः खुला नहीं है। चालू खाता (= चाल प्राप्ति + चाल भुगतान) 2007-08 में GDP का 53 प्रतिशत हो गया था, जबकि 1991 में यह मात्र 19 प्रतिशत था। उसी तरह पूंजी खाता (= समग्र पूंजी का अन्तरप्रवाह + समग्र पूंजी का बहिरप्रवाह) जो 1990-91 में GDP का 12 प्रतिशत था, 2007-08 में 64 प्रतिशत पर पहुंच गया था। तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय, तो भारत अमरीका से अधिक खुली अर्थव्यवस्था थी, क्योंकि 2007 में अमरीकी चालू खाता (= चालू प्राप्ति + चालू भुगतान) GDP का केवल 41 प्रतिशत ही था और पूंजी का अन्तप्रवाह तथा पूंजी का बहिप्रवाह उस वर्ष क्रमशः 15 तथा 10 प्रतिशत GDP का था।

इस डिग्री में खुलेपन के कारण यह आशा करनी चाहिए थी कि अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के उथल-पुथल का प्रभाव भारतीय अर्थ-व्यवस्था पर भी पड़ेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वैश्विक आर्थिक संकट का प्रभाव भारतीय वित्तीय बाजार तथा भारतीय आर्थिक विकास दर पर सीमित रूप से ही पड़ा। कारण यह रहा कि यद्यपि भारतीय चालू खाते को तो 1990 के दशक में पूर्णरूप से खुला छोड़ दिया गया, क्रमिक रूप से, पूंजी खाते तथा वित्तीय क्षेत्र को आंशिक रूप से ही खोला गया। उदीयमान बाजार अर्थव्यवस्था (emerging market economies) के अनुभव से यही शिक्षा मिलती है कि अर्थव्यवस्था के खुलेपन से सर्वाधिक लाभ विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) से मिलता है। दूसरे स्थान पर पोर्टफोलियो ईक्विटी निवेश है। जब तक घरेलू वित्तीय बाजार पूर्णतः विकसित न हो जाय, तब तक बाह्य ऋण के लाभ पर प्रश्नवाचक चिह्न लगा रहता है। भारत ने ऐसी ही नीति का अनुसरण किया। विदेशी निवेश को तो प्रोत्साहित किया गया, खासकर विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को, विदेशी ऋण के प्रति सावधानी बरती गई। बाह्य वाणिज्यिक उधार (external commercial borrowings) पर उच्चतम सीमा लगी हुई है तथा इसके उपयोग पर भी कुछ प्रतिबन्ध लगा हुआ है, जिनमें समय-समय पर मौद्रिक स्थिति तथा समग्र आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए परिवर्तन किया जाता है।

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था से प्रतिबन्ध हटाने तथा घरेलू वित्तीय तथा बाह्य सेक्टर को खोलने में श्रेणीबद्ध तरीके से क्रमिक रूप में सरकार आगे बढ़ी। रेडी (Y. V. Reddy) का कहना है। कि अमरीका तथा यूके में अत्यधिक विनियमन (excessive deregulation) ही वित्तीय संकट का कारण रहा है, जबकि भूमंडलीकृत (globalised) वित्त तथा खुला पूंजी खाता छूत (contagion) का कारण बना। भारतीय रिजर्व बैंक काफी सावधान रहा है तथा वित्तीय क्षेत्र के मलभत (basic) नियमों का पालन किया अर्थात् सुरक्षा एवं सरलता पर ध्यान दिया। इसने व्यापक विनाश के वित्तीय यंत्रों (बुफे के शब्दों में) के निर्माण पर जोर नहीं दिया। इसमें संदेह नहीं कि वैश्विक वित्तीय संकट वित्तीय नवप्रवर्तन (innovation) के अनियंत्रित प्रसार का परिणाम था।

घरेलू वित्तीय बाजार के विभिन्न खंडों को इस रूप में विकसित किया ताकि वे संसाधनों को बचतकर्ताओं। सानवशकों तक पहुंचाने का कार्य कशलतापूर्वक कर सकें और घरेलू विकास की गति को बनाये रखा जा सका भारत में निवेश की वित्त-व्यवस्था प्रमख रूप से घरेलू बचत द्वारा ही की गई हैं। 1990 के दशक के प्रारभ से ही चालू खाते का घाटा GDP के 1 से 2 प्रतिशत ही रहा है। यद्यपि सरकार का राजकोषीय घाटा अन्तर्राष्ट्रीय स्टैण्डर्ड से ऊंचा रहा है, तथापि, ध्यान देने की बात है कि इस घाटे का वित्त प्रबंध आन्तरिक वित्तीय स्रोत से सरकारी प्रतिभूतियों के बाजार को विकसित करके किया गया। इसलिए बड़ी मात्रा में राजकाषाय घाटे के बावजूद समष्टि आर्थिक (macro economic) तथा वित्तीय स्थिरता बनी रही।

भारतीय बाह्य एवं वित्तीय क्षेत्रों की इन विशेषताओं तथा बड़ी मात्रा में विदेशी विनिमय रिजर्व के जमा होने की वजह से वैश्विक संकट से भारत अधिक प्रभावित नहीं हुआ। भारतीय अर्थव्यवस्था की ऊंची विकास दर ने भी इस प्रक्रिया को मजबूत बनाया।

निनन (T. N. Ninan) का कहना है कि यह सही है कि भारतीय वित्तीय व्यवस्था पर वैश्विक वित्तीय संकट का बहुत ही कम प्रभाव पड़ा। लेकिन इसका असर भारतीय निर्यात पर अवश्य पड़ा और इसमें 30 प्रतिशत का ह्रास हुआ। इसके कारण रोजमर्रा के लेन-देन के लिए वित्त का अन्तर्राष्ट्रीय प्रवाह सूख गया। 2008-09 में कुछ समय के लिए।

वैश्विक वित्तीय संकट के दुष्प्रभाव से छुटकारा दिलाने में सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है, अर्थात् बाजार व्यवस्था बड़े पैमाने पर असफल हो जाय, तो केन्स (सरकारी हस्तक्षेप की नीति) की आवश्यकता होती है, न कि मिल्टन फ्रीडमैन (बाजार व्यवस्था पर आस्था) की। भारत सरकार ने व्यय में वृद्धि के माध्यम से इस संकट का सामना किया। भारत सरकार का राजकोषीय घाटा जो 2007-08 में GDP का मात्र 1.4 प्रतिशत था, 2008-09 में बढ़ाकर 6.8 प्रतिशत कर दिया गया, जिससे भारत सरकार का समग्र व्यय 2008-09 के संशोधित अनुमान में 13.3 प्रतिशत हो गया अर्थात् 7,12,671 करोड़ र से बढ़कर 9,00,953 करोड़ र। समग्र व्यय में इस वृद्धि के परिणामस्वरूप 2009-10 तथा इसके बाद के वर्षों में वित्तीय बाजार की हालत सुधर गई (रिजर्व बैंक ने भी बैंकों की तरलता में वृद्धि के कई उपाय किए) तथा अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में भी तेजी आई।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 वित्त का क्या अर्थ है? मुद्रा एवं वित्त में क्या अन्तर है? भारत में कितने प्रकार की वित्तीय संस्थाएं हैं? प्रकाश डाले।

2. वित्तीय पूंजी से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार की होती है?

3. वित्तीय संस्थाएं क्या हैं? ये कितने प्रकार की होती है? बैंकिंग तथा गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं में अन्तर करें।

4. वित्तीय बाजार में सुधार के प्रयलों की विवेचना करें।

5. वैश्विक वित्तीय संकट का भारत पर क्या प्रभाव पड़ा? विवेचना करें।

अथवा

वैश्विक वित्तीय संकट का भारतीय वित्तीय व्यवस्था पर कम प्रभाव क्यों पड़ा? विवेचना करें।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

1 वित्तीय पूंजी से आप क्या समझते हैं?

2. गैर-बैंक वित्तीय संस्थाएं क्या हैं?

3. वित्तीय संस्थाओं के बैंकों में परिवर्तन के कारणों की विवेचना करें।

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