BCom 1st Year Business Environment Balance Payment Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Environment Balance Payment Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Environment Balance Payment Study Material Notes in Hindi: Meaning Introduction of Balance of Payment  Composition of the balance of Payment Current Account  and Capital Account  current Account Convertibility Capital Account Convertibility Trending Balance of Payment Trend in Balance of Payment Government steps for Correcting Balance of Payment Problems Export Promotion Measures Examinations Question :

Balance Payment Study Material
Balance Payment Study Material

BCom 1st Year Environment International trade study material Notes in Hindi

भुगतान शेष

[BALANCE OF PAYMENTS]

भुगतान शेष का अर्थ/परिचय

(MEANING/INTRODUCTION OF BALANCE OF PAYMENTS)

भुगतान शेष एक वर्ष के अन्तर्गत प्रतिवेदक देश (reporting country) के निवासियों तथा शेष विश्व के निवासियों (residents of the rest of the world) के मध्य होने वाले सभी आर्थिक लेनदेनों का एक व्यवस्थित रिकॉर्ड है। स्पष्ट है कि इस लेखा का निर्माण किसी दिए हुए वर्ष के लिए किया जाता है। ‘निवासियों से तात्पर्य लेनदेन में शामिल सभी व्यक्तियों, व्यवसायियों तथा सरकार एवं सरकारी एजेन्सियों से है। भुगतान शेष का महत्व इस बात में है कि यह सरकार तथा निजी व्यक्तियों और फर्मों को सूचना उपलब्ध कराता है।

भुगतान शेष का विवरण तैयार करते समय दोहरी प्रविष्टि प्रणाली (double-entry book-keeping) अपनाई जाती है। इसके दो पक्ष हैं—लेनदारी पक्ष (Credit side) तथा देनदारी पक्ष (Debit side)। लेनदारी पक्ष में उन मदों को शामिल किया जाता है जिनसे प्रतिवेदक देश के निवासियों को विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। इसके विपरीत देनदारी पक्ष में वे मदें शामिल की जाती हैं जिनके कारण प्रतिवेदक देश (reporting country) के निवासियों को विदेशी मुद्रा का भुगतान करना होता है। भुगतान शेष का लेनदारी पक्ष धनात्मक पक्ष (Credit side) कहलाता है, जबकि देनदारी पक्ष ऋणात्मक पक्ष (Debit side) है। – भुगतान शेष कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएं इस प्रकार हैं:

क्रॉसे के अनुसार, “किसी देश का भुगतान सन्तुलन उसके निवासियों एवं शेष विश्व के निवासियों के बीच दी हुई अवधि में (साधारणतः एक वर्ष) पूर्ण किए गए समस्त आर्थिक लेन-देन का एक व्यवस्थित विवरण अथवा लेखा है।”

बेन्हम के अनुसार, “किसी देश का भुगतान सन्तुलन, उसका शेष विश्व के साथ एक समय की अवधि में किए जाने वाले मौद्रिक लेन-देन का विवरण है

भुगतान सन्तुलन की संरचना (Composition of Balance of Payments)

भुगतान सन्तुलन (शेष) के लेनदारी तथा देनदारी दोनों पक्षों में चार-चार मदें शामिल हैं: यथा : ।

(1) दृश्य निर्यात/आयात या वस्तुओं का निर्यात-आयात (Visible exports/imports or exports/imports of goods);

(2) अदृश्य निर्यात/आयात या सेवाओं का निर्यात/आयात (Invisible exports/imports or exports/imports of services);

(3) एकतरफा प्राप्ति/भुगतान (Unrequited or unilateral or transfer receipts/payments);तथा

(4) पूंजी की प्राप्ति/भुगतान (Capital receipts/payments

Business Environment Balance Payment

चालू खाता एवं पूंजी खाता

(CURRENT ACCOUNT AND CAPITAL ACCOUNT)

भुगतान शेष लेखा को दो भागों में विभाजित करने की परम्परा रही है। एक है चालू खाता और दूसरा पूंजी खाता। प्रत्येक को फिर उपवर्गों में विभाजित किया जाता है। चालू खाते को दृश्य एवं अदृश्य व्यापार तथा एकतरफा हस्तान्तरण में बांटा जाता है, जबकि पूंजी खाते का दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन निजी लेनदेन तथा सरकारी रिजर्व में परिवर्तन में विभाजन होता है। दोनों खातों में प्रमुख अन्तर यह है कि पूंजी खाते का सम्बन्ध घरेलू निवासियों से है, जो विदेशियों को या तो विदेशी मुद्रा प्रदान करते हैं या प्राप्त करते हैं। चालू खाते में ऐसा नहीं होता है।

Business Environment Balance Payment

चालू खाता (Current Account)

इस खाते में वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात एवं आयात तथा एकतरफा हस्तान्तरण का लेखा-जोखा रहता है। वस्तुओं तथा सेवाओं के निर्यात को लेखा के धनात्मक पक्ष में रखने की परम्परा रही है। इनके आयात को ऋणात्मक पक्ष में दिखाया जाता है। निर्यात का आकलन सामान्यतः f.o.b. (free of board) होता है अर्थात् परिवहन, बीमा, आदि को शामिल नहीं किया जाता है, लेकिन आयात का सामान्यतः आकलन c.i.f. रूप में होता है अर्थात् लागत (cost), बीमा (insurance) तथा भाड़ा (freight) को शामिल किया जाता है।

भुगतान शेष लेखा में सामान्यतः वस्तुओं के व्यापार (trade in goods) तथा सेवाओं के व्यापार (trade in services) में अन्तर किया जाता है। निर्यात तथा आयात के शेष (balances) को दृश्य व्यापार शेष (balance of visible trade) या माल व्यापार शेष (balance of merchandise trade) या सिर्फ व्यापार शेष (balance of trade) कहा जाता है। सेवाओं के निर्यात तथा आयात शेष को अदृश्य व्यापार शेष (balance of invisible trade) कहा जाता है।

अदृश्य व्यापार दृश्य व्यापार की तुलना में अधिक विषम (heterogeneous) वर्ग है। आर्थिक उद्देश्य के लिए साधन (factor) तथा गैर-साधन (non-factor) सेवाओं में अन्तर करना उपयोगी हो सकता है। गैर-साधन सेवाओं व्यापार के प्रमुख रूप जहाजरानी (shipping), बैंकिंग, बीमा सेवाएं तथा किसी देश के निवासियों द्वारा विदेशों में पर्यटक में भुगतान करना, आदि हैं। ऐसी सेवाओं के व्यापार तथा वस्तुओं के व्यापार में अधिक अन्तर नहीं है। इसका यह अर्थ है कि ऐसी सेवाओं के निर्यात तथा आयात उत्पत्तियों के प्रवाह हैं और इनके मूल्य का निर्धारण उन्हीं चरों के द्वारा होता है जो वस्तुओं की मांग तथा पूर्ति को निधारित करते हैं। साधन सेवाओं के प्रमुख उदाहरण ब्याज, लाभ तथा लाभांश है। ये आयात के लिए भुगतान है। इन सेवाओं का निर्यात तथा आयात अधिकांशतः पिछले निवेश तथा विदेशी निवासियों से लिए गए ऋण की मात्रा पर निर्भर करते हैं।

एकतरफा हस्तान्तरण (unilateral transfers or unrequisted receipts) वे प्राप्तियां हैं जिन्हें एक देश के निवासियों को मुफ्त में मिलती हैं तथा जिन्हें वर्तमान या भविष्य में लौटाना नहीं पड़ता है। विदेशों से प्राप्त ऐसी रकम को धनात्मक लेखा के रूप में तथा विदेशियों को किए गए भुगतान को ऋणात्मक लेखा के रूप में लिखा जाता है। ऐसी प्राप्ति के दो रूप हैं-उपहार (gift) जो निजी एकतरफा हस्तान्तरण है तथा सरकारी एकतरफा हस्तान्तरण जो शुद्ध सहायता (pure aid) है।

दृश्य व्यापार तथा अदृश्य व्यापार एवं एकतरफा हस्तान्तरण शेष के शुद्ध मूल्य (net value) को चालू खाता शेष (balance on current account) कहा जाता है

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पूंजी खाता (Capital Account)

पूँजी खाता उन सभी अन्तर्राष्ट्रीय लेन-देनों का रिकॉर्ड है जिसका सम्बन्ध किसी देश के निवासियों द्वारा दूसरे देश के निवासियों की सम्पत्ति या दायित्व में किए जाने वाले परिवर्तनों से है। दूसरे शब्दों में, पंजी खाता स्टॉक-परिसम्पत्ति या दायित्व में परिवर्तन को प्रतिबिम्बित करता है।

पूंजी खाते के निर्माण में विभिन्न प्रकार के पूंजी खाते सम्बन्धी लेनदेन में अन्तर किया जाता है। मूल अन्तर निजी तथा सार्वजनिक लेन-देन, पोर्टफोलियो तथा प्रत्यक्ष निवेश एवं अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक निवेश के मध्य किया जाता है। अधिकांश विदेशी निवेश निजी होता है।।

प्रत्यक्ष निवेश से तात्पर्य न केवल परिसम्पत्ति (assets) की खरीद की क्रिया है बल्कि उस पर नियन्त्रण प्राप्त करना भी। पोर्टफोलियो निवेश से परिसम्पत्ति प्राप्त की जाती है, किन्तु क्रेता को उस पर नियन्त्रण प्राप्त नहीं होता है। उदाहरणार्थ, विदेशी कम्पनी के शेयर की खरीद या विदेशी सरकार द्वारा जारी किए गए बाण्ड, की खरीद।

विदेशी फर्मों या सरकारों को दिए गए उधार को अक्सर अल्पकालिक या दीर्घकालिक में विभाजित किया जाता है। यह उधार भी पोर्टफोलियो निवेश ही है।

भुगतान शेष को निम्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है :

(A) चालू खाता (Current Account)

1 नियात (Exports)

2. आयात (Imports)

3. व्यापार शेष (Trade Balance) यह वस्तुओं के निर्यात तथा आयात का अन्तर है। इसे दृश्य शेष (Visible Balance) भी कहा जाता है।

4. अदृश्य, निवल (Invisible, net) जिसे अदृश्य शेष (Invisible Balance) भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत निम्न शामिल हैं:

(i) गैर-साधन (non-factor) सेवाएं जैसे—बीमा, जहाजरानी, पर्यटन

(ii) निवेश से प्राप्त आय–ब्याज, लाभ, लाभांश का हस्तान्तरण

(iii) निजी हस्तान्तरण, जैसे—दान, गैर-निवासियों द्वारा भेजी गई रकम, आदि

(iv) अन्य हस्तान्तरण

5. चाल खाता शेष (Current Account Balance) इसे सिर्फ चालू शेष (Current Balance) भी कहा जाता है। यह (3) और (4) का योग है।

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(B) पूंजी खाता (Capital Account)

1 विदेशी सहायता, निवल (net)

(i) संवितरण (Disbursement), (ii) ऋण परिशोधन (Amortisation)

2. वाणिज्यिक उधार, निवल (Commercial Borrowings, net)

(i) संवितरण, (ii) ऋण परिशोधन

3. अल्पावधि क्रेडिट, निवल

4. अनिवासी भारतीयों की जमाराशियां, निवल

5. विदेशी निवेश, निवल (Foreign investment, net)

6. रुपया देनदारी शोधन (Rupee Debt Service)

7. अन्य पूंजी, निवल (Other Capital, net)

8. कुल पूंजी खाता (Total Capital Account)

(C) समग्र शेष (Overall Balance) [A (5) + B (8)]

(D) मौद्रिक घटबढ़ (E + F) [Monetary Movements (E+ F)]

(E) अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, निवल (IMF, net)

(F) आरक्षित निधि मौद्रिक स्वर्ण [वृद्धि (-), ह्रास (+)] [Reserves and Monetary Gold (Increase (-), Decrease (+)]]

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चालू खाते की परिवर्तनीयता (Current Account Convertibility)

इसका अर्थ है विदेशी मुद्रा का उन्मुक्त अन्तप्रवाह तथा बहिप्रवाह पूंजी उद्देश्यों के अतिरिक्त अर्थात् निवेश एवं उधार को छोड़कर। चालू खाते की परिवर्तनीयता निवासियों को व्यापार से सम्बन्धित भुगतान प्राप्त करने तथा भुगतान करने की स्वतन्त्रता प्रदान करती है अर्थात् वस्तुओं तथा सेवाओं के निर्यात के लिए विदेशी मुद्रा प्राप्त करने तथा आयात के भुगतान के लिए विदेशी मुद्रा के भुगतान करने की अनुमति देता है। साथ हो, इसके अन्तर्गत विविध प्रेषण (sundry remittances), यात्रा, अध्ययन, मेडिकल चिकित्सा तथा उपहार के लिए विदेशी मुद्रा प्राप्त करने की भी सुविधा प्रदान की जाती है। भारत में इस सुविधा को IMF की धारा VIII के अन्तर्गत अगस्त 1994 से लागू किया गया।

पूंजी खाते की परिवर्तनीयता (Capital Account Convertibility)

1997 में RBI द्वारा गठित तारापोर समिति के अनुसार पूंजी खाते की परिवर्तनीयता से तात्पर्य है। स्थानीय वित्तीय परिसम्पत्तियों (Local Financial assets) को विदेशी वित्तीय परिसम्पत्तियों में परिवर्तन करने तथा इसके विपरीत की स्वतन्त्रता। ऐसा बाजार द्वारा निधारित विनिमय दर पर होता है। इस तरह पंजी। खाते की परिवर्तनीयता किसी को भी स्थानीय मुद्रा को विदेशी मुद्रा तथा विदेशी मुद्रा को स्थानीय करेंसी में। बदलने की स्वतन्त्रता प्रदान करती है।

मई 1997 में प्रस्तुत तारापोर समिति की पूंजी खाते की परिवर्तनीयता की रिपोर्ट में पंजी खाते में लेन-देन के उदारीकरण का एक ढांचा प्रस्तुत किया गया है। समिति ने सिफारिश की कि इस प्रक्रिया को धीरे-धीरे क्रमशः लागू करना चाहिए तथा 1999-2000 तक इसे पूरा करना होगा। समिति ने यह सिफारिश नहीं की कि पूंजी खाते को पूर्णतः परिवर्तनीय बना देना है, अपितु क्रमशः तीन वर्षों के कुछ नियन्त्रण के साथ पूरा करना है। कुछ प्रवाह विशेषकर ऋण के प्रवाह का प्रबन्ध आवश्यक है। पूंजी खाते की परिवर्तनीयता के क्षेत्र में कुछ प्रगति हुई है तथा अभी आगे और करना बाकी है। इसकी ओर कदम बढ़ाते समय घरेलू तथा अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं को ध्यान में रखना होगा।

भुगतान शेष की प्रवृत्ति

(TREND IN BALANCE OF PAYMENTS)

द्वितीय योजना काल से ही भारत भुगतान शेष की समस्या का सामना करता रहा है। 1991 में इस समस्या ने संकट (Crisis) का रूप धारण कर लिया तथा यह चरमबिन्दु पर पहुंच गयी।

1956-57 से 1990-91 की अवधि को भुगतान शेष की समस्या की तीव्रता के आधार पर तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है, यथा

(i) काल I : 1956-57 से 1975-76

(ii) काल II : 1976-77 से 1979-80

(iii) काल III : 1980-81 से 1990-91

1991-92 से वर्तमान समय की अलग विवेचना की गयी है। काल I और III में भुगतान शेष की समस्या लगातार बनी रही। इस समानता के बावजूद दोनों अवधियों में एक महत्वपूर्ण अन्तर था समष्टि वातावरण तथा राजकोषीय (fiscal) स्थिति को लेकर। काल I में रियायती दर पर बड़ी मात्रा में विदेशी सहायता प्राप्त हुई। काल III में वाणिज्यिक उधार पर अधिक निर्भर करना पड़ा जिस कारण विदेशी ऋण का परिमाण काफी बढ़ गया। काल II की छोटी अवधि (मात्र चार वर्ष) में भुगतान शेष की स्थिति में काफी सुधार हुआ तथा विदेशी विनिमय भण्डार की दशा काफी अच्छी हो गई।

काल I (1956-57 से 1975-76)

इस अवधि में भुगतान शेष अत्यन्त खराब था। इसके दो प्रमुख कारण थे :

  • आयात की आवश्यकता की तुलना में निर्यात की अत्यन्त धीमी वृद्धि दर।
  • इसी अवधि में भारत को 1962, 1965 तथा 1971 में तीन युद्ध लड़ने पड़े, कई भीषण अकालों का सामना करना पड़ा तथा 1973 में पेट्रोलियम की कीमतों में चार गुना वृद्धि का सामना करना। पड़ा। इस तरह बाह्य परिस्थिति भी प्रतिकूल थी।

परिमाणात्मक प्रतिबन्ध के माध्यम से आयात नियन्त्रण तथा विदेशी मुद्रा के नियमन के बावजद भारत का चाल खाता घाटा GDP का 1.8 प्रतिशत था। प्रायः सम्पूर्ण घाटे की वित्त व्यवस्था (92 प्रतिशत) रियायता। विदेशी सहायता के माध्यम से हुई।

इस अवधि में राजकोषीय घाटा भी GDP के 6 प्रतिशत के अन्दर ही रहा जबकि अवधि में यह 11 प्रतिशत से भी अधिक हो गया।

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काल II (1976-77 से 1979-80)

बिमल जालान के शब्दों में चार वर्षों की यह अवधि भुगतान शेष के लिए स्वर्णिम वर्ष थे। इन वर्षों में चालू खाते में अतिरेक (Surplus) हुआ जो GDP का औसतन 0.6 प्रतिशत था। विदेशी विनिमय भण्डार सात महीने के आयात के बराबर था। निर्यात में सन्तोषजनक वृद्धि हुई। लेकिन इस अवधि की सबसे अधिक महत्वपूर्ण घटना अनिवासी भारतीयों द्वारा भेजी गई रकम थी जिससे निवल अदृश्य मदों में नाटकीय सुधार हुआ-1974-75 में 193 करोड़ से बढ़कर 1979-80 में 2,486 करोड़ र हो गए।

इसी अवधि में औद्योगिक एवं आयात उदारवाद प्रारम्भ हुआ लेकिन धीमी गति से।

1979 में भुगतान शेष की स्थिति बदल गई। इसी वर्ष तेल की कीमतों में दूसरी बार वृद्धि की गई। इसका पूर्ण प्रभाव 1980-81 में प्रकट हुआ।

काल III (1980-81 से 1990-91)

1981 में भुगतान शेष की बिगड़ती हालत को देखते हुए, भारत ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 5 बिलियन SDR के ऋण का प्रबन्ध किया जिसे तीन वर्षों में प्राप्त करना था। लेकिन 3.9 बिलियन SDR प्राप्त करने के बाद भारत ने इस प्रबन्ध को 1984 में समाप्त कर दिया। कारण यह था कि 1983-84 में भुगतान शेष की स्थिति में काफी सुधार हुआ।

तेल के घरेलू उत्पादन में वृद्धि के कारण भारत ने 1984-85 में इससे ही अपनी आवश्यकता का 75 प्रतिशत पूरा किया। नतीजा यह हुआ कि 1982-85 की अवधि में आयात में केवल 2 प्रतिशत की वृद्धि हुई। किन्तु निर्यात में भी धीमी वृद्धि हुई—केवल 3.2 प्रतिशत ।

इस अवधि में बाहर से आने वाली रकम में भी कमी होने लगी। इसके साथ ही कमी हुई रियायती विदेशी सहायता के प्रवाह में। फलतः वाणिज्यिक उधार (निवल) में वृद्धि हुई। इन सब का असर यह हुआ कि विदेशी ऋण तथा ऋण सेवा में वृद्धि होने लगी।

इस अवधि में चालू खाते का घाटा भी बढ़ने लगा। केन्द्र तथा राज्यों का राजकोषीय घाटा भी बढ़ने लगा। मुद्रा की पूर्ति में तेजी से वृद्धि के कारण मुद्रास्फीति की दर में वृद्धि हुई। लेकिन इस अवधि की एक अच्छी बात यह थी कि औद्योगिक उत्पादन तथा आर्थिक विकास की वृद्धि दरों में पर्याप्त वृद्धि हुई। 1980-81 से 1990-91 के मध्य चालू खाते का घाटा GDP का 1.9 प्रतिशत रहा।

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1991-92 से आज तक का काल

1990 के दशक में भारत के बाह्य क्षेत्र की स्थिति अच्छी रही है। 1996-97 से भुगतान शेष में अतिरेक (Surplus) हो रहा है। फलतः 1996-97 तथा 2001-02 के मध्य इसके विदेशी विनिमय भण्डार में औसतन प्रतिवर्ष 6.21 बिलियन डॉलर की वृद्धि हो रही है। इसके चालू खाते का घाटा जो 1990-91 में GDP का 3.1 प्रतिशत था, 2001-02 में घटकर GDP का मात्र 0.3 प्रतिशत रह गया। 1995-96 को छोड़कर बाकी सभी वर्षों में पूंजी खाता में प्राप्ति की स्थिति अच्छी रही है जिस कारण विदेशी विनिमय रिजर्व में बढ़ोतरी हो रही है। इस प्रकार 1990 के दशक के प्रारम्भ से भुगतान शेष की कुल स्थिति अच्छी हो गई है।

अदृश्य मद में प्राप्ति में सुधार के कारण 2001-02 में चालू खाता में 1977-78 के बाद 24 वर्षों में , पहली बार अतिरेक हुआ। पूंजी के अन्तर-प्रवाह (शुद्ध-net) में सुधार के कारण 2001-02 विदेशी विनिमय भण्डार में 11.76 बिलियन अमरीकी डॉलर तथा 2002-03 में 16.98 बिलियन डॉलर की वृद्धि हुई।

2002-03 में भारतीय भगतान शेष में काफी सुधार हुआ। प्रत्येक तिमाही में अतिरेक प्राप्त हआ। 2002-03 में चालू खाते का अतिरेक 3708 मिलियन अमरीकी डॉलर का था, जबकि 2001-02 में यह मात्रा 782 मिलियन डॉलर रहा था। 2000-01 में अतिरेक (surplus) के स्थान पर 3590 बिलियन डॉलर का घाटा हुआ था। 1990-91 में यह घाटा 9680 मिलियन डॉलर का था। एक बात और ध्यान योग्य है-दृश्य मद अर्थात् व्यापार सन्तुलन में घाटा अब भी बना हुआ है। यह घाटा 2002-03 में 8,693 मिलियन डॉलर, 2003-04 में 14,307 मिलियन डॉलर। 2005-06 में 46,075 मिलियन डॉलर, 2007-08 में 88,522 मिलियन डॉलर, 2008-09 में 1,18,401 मिलियन डॉलर, 2009-10 में 1,09,621 मिलियन डॉलर 2010-11 में 1,18,633 मिलियन डॉलर. 2011-12 में 1.83.356 मिलियन डॉलर, 2013-14 में 1,35,795 मिलियन डॉलर, 2014-15 में 1.10,052 मिलियन डॉलर तथा 2016-17 में 1,12,442 मिलियन डॉलर का रहा।

इस प्रकार घाटा केवल बना हुआ ही नहीं है, बल्कि बढ़ता जा रहा है। अदृश्य मदों में कई वर्षों से अतिरेक प्राप्त हो रहा है। अदृश्य सन्तुलन, चालू खाते का सन्तुलन तथा पूंजी खाते का सन्तुलन 2000-01 से 2016-17 तक चुने हुए वर्षों में नीचे दिया गया है:

इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि लगातार तीन वर्षों तक चालू खाते में अतिरेक प्राप्त हुआ-2001-02 से 2003-04 तक। 2004-05 से अब तक घाटा बना हुआ ही नहीं है बल्कि इसकी मात्रा बढ़ती गयी है-2003-04 में 10,561 मिलियन डॉलर से बढ़कर 2016-17 में 15,296 मिलियन डॉलर। इसके विपरीत पूंजी खाता में परी अवधि में अधिशेष (Surplus) बना ही नहीं रहा, अपितु 2007-08 तक बढ़ता रहा। इसके उपरान्त इसमें कमी आई और 2016-17 में यह 36,846 मिलियन डॉलर हो गया।

व्यापार सन्तुलन में घाटे के दो प्रमुख कारण थे : (1) तेल की कीमतों में अत्यधिक वृद्धि तथा तेल का बड़ी मात्रा में आयात, तथा (2) घरेलू औद्योगिक विकास की गति के तेज होने के कारण अधिक मात्रा में गैर-तेल (non-oil) सामग्री का आयात। लेकिन वैश्विक वित्तीय संकट का प्रभाव भारत के विदेशी व्यापार पर भी पड़ा। बाह्य मांग में गिरावट के कारण भारतीय निर्यात घट गया। दूसरी ओर, तेल की कीमतों में वद्धि के कारण आयात में वृद्धि तथा बाह्य मांग के ढह जाने के कारण निर्यात में हास। यह स्थिति अब तक बनी हुई है।

इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक के प्रथम तीन वर्षों में भारतीय व्यापार संतुलन के चालू खाता में अधिशेष (Surplus) एक विशेष स्थिति थी। किन्तु, यह सुखद स्थिति 2004-05 से ही समाप्त हो गई। 2008-09 से वैश्विक आर्थिक मन्दी ने स्थिति को और बिगाड़ दिया। किन्तु, विकसित देशों की तुलना में भारत कम प्रभावित हुआ। लेकिन अदृश्य मद में अधिशेष जो इस सदी के प्रथम दशक में लगातार बढ़ता रहा, वैश्विक मन्दी के समय भी काफी शक्तिशाली रहा। इसके लिए निम्न दो कारण थे:

  • सॉफ्टवेयर सेवा निर्यात का बना रहना, तथा
  • गैर-निवासी भारतीयों द्वारा भेजी जाने वाली रकम का बना रहना।

2009-10 में भारत की अदृश्य मद में निवल (net) प्राप्ति 80,022 मिलियन डॉलर थी. जो 2016-17 | में 94,147 मिलियन डॉलर आंकी गई।

भारत के भुगतान शेष के पूंजी मद में लगातार वृद्धि होती रही है इस सदी में। 2003-04 में इस मद का अधिशेष पिछले वर्ष की तुलना में लगभग दुगना हो गया। लेकिन इस मद की रचना में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। 2002-03 की तलना में 2003-04 में विदेशी निवेश में लगभग 10 बिलियन डॉलर की वृद्धि हुई। इसी ने 2003-04 में पूंजी खाते के अधिशेष में 70 प्रतिशत का योगदान किया। विदेशी निवेश की वृद्धि में ज्यादा योगदान पोर्टफोलियो निवेश का रहा। गैर-निवासी भारतीयों की भारतीय बैंकों का जमा पूंजी में वृद्धि पूंजी खाते के बाकी अधिशेष वृद्धि के लिए जिम्मेवार रही।

ऐसी वृद्धि 2007-08 तक बनी रही। 2008-09 की तीसरी तिमाही से पूंजी के अन्तप्रवाह की जगह बहिप्रभाव (outflow) बड़ी मात्रा में शुरू हुआ। किन्त, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश पर इस मन्दी का असर नहीं पड़ा। 2007-08 में निवल पोर्टफोलियो निवेश GDP का 2.2 प्रतिशत था। 2008-09 में इसमें GDP के -1.2 प्रतिशत की गिरावट आयी। इसके विपरीत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की निवल मात्रा जो 2007-08 में 1.3 प्रतिशत थी, 2008-09 में बढ़कर 1.4 प्रतिशत हो गई। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश में लगातार वृद्धि (मन्दी के समय भी) यह दर्शाता है कि दीर्घकालीन निवेश के गन्तव्य (destination) के रूप भारतीय अर्थव्यवस्था पर विदेशियों का विश्वास बना हुआ है। यह स्थिति बनी हुई है। किन्तु, 2009-10 में पिछले वर्ष की तुलना में इसमें गिरावट आयी है। वर्ष 2010-11 में एफ. डी. आई 17,966 मिलियन डॉलर तथा पोर्टफोलियो निवेश 32,396 मिलियन डॉलर था जो बढ़कर 2016-17 में क्रमश: 35,612 मिलियन डॉलर तथा 7,612 मिलियन डॉलर हो गया।

भुगतान सन्तुलन समस्या के समाधान हेत सरकार द्वारा उठाये गये कदम

(GOVERNMENT’S STEPS FOR CORRECTING BALANCE OF PAYMENT PROBLEM)

अथवा

निर्यात प्रोत्साहन के उपाय

(EXPORT PROMOTION MEASURES)

नब्बे के दशक में भारत सरकार ने भुगतान सन्तुलन की समस्या के समाधान के लिए अनेक विशिष्ट उपाय अपनाए

1 उदारीकृत विनिमय दर प्रबन्ध प्रणाली (Liberalised Exchange Rate Management System LERMS) वर्ष 1992-93 के बजट प्रस्ताव में सरकार ने उदारीकृत विनिमय दर प्रबन्ध प्रणाली (LERMS) की घोषणा की जिसके मुख्य पहलू थे:

(i) निर्यात एवं आवक प्रेषण (Inward Remittances) से प्राप्त विदेशी मुद्रा का 40% भाग RBI द्वारा घोषित सरकारी दर पर तथा शेष 60% भाग खुले बाजार में निर्धारित विनिमय दर पर परिवर्तन करने की छूट दे दी गई। (ii) पूंजी खाते पर विनिमय नियन्त्रण यथावत् जारी रखा गया। (iii) डॉलर और पौण्ड का अग्रिम विक्रय समाप्त कर दिया गया तथा RBI को मुक्त बाजार में हस्तक्षेप का अधिकार दिया गया। (iv) निर्यातकों एवं आवक प्रेषण प्राप्तकर्ताओं को कुल प्राप्ति का 15% विदेशी करेंसी खाते में रखने की अनुमति दी गई। (v) निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र, शत-प्रतिशत निर्यातोन्मुखी इकाइयां, इलेक्ट्रॉनिकी सॉफ्टवेयर एवं हार्डवेयर प्रौद्योगिकी पार्कों की इकाइयों को बाजार दर पर शत प्रतिशत परिवर्तनीयता की अनुमति दी गई।

2. रुपए की पूर्ण परिवर्तनीयता (Full Convertibility of Rupee)-LERMS की सफलता से उत्साहित होकर भारत सरकार ने 1993-94 के बजट प्रस्तावों में एकल विनिमय दर लागू कर दी और चालू खाते पर रुपए को पूर्ण परिवर्तनीय बना दिया। मुद्रा की परिवर्तनीयता का अर्थ ऐसी व्यवस्था से लगाया जाता है जिसमें देश की मुद्रा मुक्त रूप से प्रमुख विदेशी मुद्राओं में तथा प्रमुख विदेशी मुद्राएं मुक्त रूप से स्थानीय मुद्रा में परिवर्तनशील होती हैं। रुपए को पूर्ण परिवर्तनीय बनाकर भारत सरकार ने चालू खाते में सम्पूर्ण विदेशी मुद्रा प्राप्तियों को बाजार दर पर रुपए में परिवर्तित करने की सुविधा प्रदान कर दी। RBI ने 19 अगस्त, 1994 को रुपए को चालू खाते में पूर्ण परिवर्तनीय घोषित करते हुए वर्ष 1996-97 से सम्पूर्ण अर्जित आय का प्रत्यावर्तन की छूट प्रदान करने की घोषणा की।

3. आयात लाइसेंस प्रणाली का उदारीकरण (Liberalisation of Import Licensing) सरकार ने नब्बे के दशक में अपनाई गई उदारीकरण की नीति के अन्तर्गत आयात लाइसेंस व्यवस्था को और उदार बना दिया और खुले सामान्य लाइसेंस (OGL) के अन्तर्गत अधिकांश वस्तुओं के आयात के लिए छूट प्रदान कर दी।

4. अग्रिम लाइसेंसिंग में सधार (Improvements in Advanced Licensing)-भूगतान सन्तुलन की प्रतिकूलता को दूर करने के लिए मूल्य आधारित एक अग्रिम लाइसेंसिंग प्रणाली लागू की गई जिसमें निर्दिष्ट ।निर्यातों के मूल्य के एक निश्चित प्रतिशत तक कच्चे माल तथा संघटकों के कर मुक्त आयात की अनुमति प्रदान करने का प्रावधान किया गया है। अग्रिम लाइसेंसिंग प्रणाली की यह सुविधा निर्यात गहों, व्यापारिक । गृहों, स्टार ट्रेडिंग गृहों तथा सुपर स्टार ट्रेडिंग ग्रहों को भी प्रदान की गई है।

5. विशेष आर्थिक क्षेत्र की स्थापना (Establishing Special Economic Zones) भारत में विनिर्मित वस्तुओं के निर्यातों को प्रोत्साहन देने के लिए आठ निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्रों की स्थापना की गई थी जिन्हें बाद में विशेष आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तित किया गया :

(i) सूरत (गुजरात), (ii) काण्डला (गुजरात), (iii) सांताक्रुज (मुम्बई), (iv) फाल्टा (पश्चिम बंगाल), (v) कोच्चि (केरल), (vi) चेन्नई (तमिलनाडु), (vii) नोएडा (उत्तर प्रदेश), (viii) विशाखापट्टनम् (आन्ध्र प्रदेश)। इसके अतिरिक्त सरकार ने 27 अन्य विशेष आर्थिक क्षेत्रों को स्थापित करने की अनुमति प्रदान कर दी है।

6. निर्यातोन्मुख इकाइयों को सुविधा (Facilities to Export oriented units) सरकार ने निर्यातोन्मुख इकाइयों की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए वर्ष 1981 से शत-प्रतिशत निर्यात करने वाली इकाइयों के लिए प्रोत्साहन मूलक अनेक योजनाएं सुविधाएं आरम्भ की है। विदेशी बाजारों में इन इकाइयों को अधिक प्रतियोगी बनाने के लिए सरकार ने मशीन, उपकरण, कच्चा माल आदि के शुल्क मुक्त आयात की अनुमति प्रदान की है।

7. निर्यात संवर्द्धन पूंजीगत सामान योजना (Export Promotion Capital Goods Scheme EPCGS) सरकार ने निर्यातकों को रियायती आयात शुल्क पर पूंजीगत सामान आयात करने की सुविधा के रूप में निर्यात संवर्द्धन पूंजीगत सामान योजना (EPCG योजना) आरम्भ की है जिसके अन्तर्गत निर्यातक EPCG लाइसेंस के साथ केवल 15 प्रतिशत आयात शुल्क चुकाकर पूंजीगत सामान का आयात कर सकते हैं, किन्तु इस योजना में यह प्रावधान है कि ऐसे निर्यातकों को अपने आयातों के CIF मूल्य का चार गुना निर्यात अगले 5 वर्षों में करना अनिवार्य है।

8. निर्यातकों की निर्यात क्षमता में वृद्धि के उद्देश्य से सरकार ने निर्यात गृहों (Export Houses), निर्यात व्यापार गृह (Export Trading House) तथा स्टार ट्रेडिंग गृह (Star Trading House) की योजनाएं लागू की हैं। इसी शृंखला में 1 अप्रैल, 1994 से एक नई श्रेणी ‘सुपर स्टार ट्रेडिंग गृह’ (Super Star Trading House) आरम्भ की है।

9. निर्यात संवर्द्धन में राज्यों की भागीदारी बढ़ाने के उद्देश्य से वाणिज्य मन्त्रालय ने दिसम्बर 1994 तक विभिन्न राज्यों में 11 निर्यात संवर्द्धन औयोगिक पार्क (Export Promotion Industrial Parks-EPIPS) स्थापित करने की स्वीकृति प्रदान की है।

10. नब्बे के दशक में सरकार ने विदेशी निवेश को देश में आकर्षित करने के उद्देश्य उदारवादी विदेशी निवेश नीति अपनाई गई। अब विदेशी मुद्रा निदान अधिनियम (FERA) के स्थान पर FEMA (विदेशी मुद्रा प्रबन्धन अधिनियम 1999) लागू किया गया है। साथ ही अवैध मुद्रा विस्तार रोकथाम विधेयक (Money Laundering Prevention Bill) भी पारित हो चुका है। इन दोनों का मुख्य उद्देश्य भारत में विदेशी मुद्रा व्यापार को क्रमशः विकसित करना तथा विदेशी व्यापार और भुगतान को सुविधाजनक बनाना है। ।

11. निर्यात प्रोत्साहन के नए उपाय (New Measures of Export Promotion)-2009-14 की अवधि के लिए तत्कालीन वाणिज्य मन्त्री, आनंद शर्मा, ने 27 अगस्त, 2009 को एक नई व्यापार नीति की घोषणा की जो मार्च 2014 तक लागू रही। इस नीति के अन्तर्गत निर्यात प्रोत्साहन के नए उपायों की घोषणा की गई थी।

नई विदेश व्यापार नीति (2015-2020)

केन्द्र सरकार ने 1 अप्रैल, 2015 को विदेश व्यापार नीति (2015-20) की घोषणा की। नई विदेश व्यापार नीति में निर्यातकों को मिलने वाले इंसेटिव में कई परिवर्तन किए गए हैं। वहीं ‘मेक इन इण्डिया’ कार्यक्रम को प्रोत्साहित करने के लिए एक्सपोर्ट प्रमोशन कैपिटल गुड्स स्कीम (ईपीसीजी) के अन्तर्गत शल्क में छट पाने के लिए निर्यातकों को निर्यात की शर्त में राहत दी गई है। के अन्तर्गत किए गए सायों भुगतान शेष की सहायता से सरकार ने वर्ष 2020 तक देश के निर्यात को 900 अरब डॉलर वार्षिक तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है। इस नीति में निर्यातकों और विशेष निर्यात जोन (एसईजेड) के लिए कई प्रोत्साहनों की घोषणा की गई है। नई विदेश व्यापार नीति की मुख्य बातें निम्न प्रकार हैं:

  • पांच वर्ष के लिए जारी हुई नीति, प्रति वर्ष नीति में परिवर्तन नहीं होगा।
  • मेक इन इण्डिया, डिजिटल इण्डिया और स्किल इण्डिया को आगे बढ़ाएगी।
  • पांच वर्ष में निर्यात को 900 अरब डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य।
  • सभी निर्यात प्रोत्साहन योजनाओं का दो नई योजनाओं में विलय।
  • निर्यात की सम्भावना वाले देशों का तीन श्रेणी के बाजारों में विभाजन।
  • नौ मुख्य श्रेणी व दर्जन भर उपश्रेणियों की सेवाओं के निर्यातकर्ताओं को 3 और 5 प्रतिशत पुरस्कार। यह पुरस्कार निर्यातकर्ताओं द्वारा अर्जित विदेशी मुद्रा के आधार पर दिया जाएगा।
  • विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड) को भी एमईआईएस और एसईआईएस का लाभ मिलेगा।
  • ड्यूटी क्रेडिट स्क्रिप्स का प्रयोग आयात शुल्क, उत्पाद शुल्क और सेवाकर के भुगतान के लिए किया जा सकेगा।
  • विदेश व्यापार को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले कारोबारियों और निर्यातकों को अब विशेष दर्जा मिलेगा, अब ऐसे कारोबारियों को वन स्टार, टू स्टार, थ्री स्टार, फोर स्टार और फाइव स्टार का प्रमाण-पत्र दिया जाएगा।
  • व्यापार सरलीकरण और कारोबार की प्रक्रिया सुगम बनाने पर बल।
  • रक्षा उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा
  • हैंडलूम और लेदर सामान के ई-कॉमर्स को बढ़ावा।
  • कालीकट एयरपोर्ट, केरल व अराकोनम आईसीडी, तमिलनाडु आयात और निर्यात के लिए अतिरिक्त बन्दरगाह घोषित
  • विशाखापट्टनम और भीमावरम को टाउन ऑफ एक्सपोर्ट एक्सीलेंस का दर्जा।

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भारत का विदेशी विनिमय भण्डार

(India’s Foreign Exchange Reserves)

भारत के विदेशी विनिमय भण्डार में निम्नलिखित शामिल हैं :

  • विदेशी मुद्रा, तथा
  • स्वर्ण तथा विशेष आहरण अधिकार (SDRS)|

1991-91 से इस भण्डार में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। 1990-91 में विदेशी मुद्रा का परिणाम घटकर 1.0 बिलियन डॉलर से भी कम हो गया था जिससे भारत के केवल दो महीने के आयात का वित्तीय प्रबन्ध सम्भव था 1 मार्च, 2000 तक यह भण्डार 38 बिलियन अमरीकी डॉलर के मूल्य के बराबर का हो गया 1 मार्च, 2003 तक इस भण्डार का मूल्य 75.4 बिलियन अमरीकी डॉलर, 16 जनवरी, 2004 में यह भण्डार 103.1 बिलियन डॉलर, 15 जुलाई, 2005 को विदेशी विनिमय भण्डार 137.56 बिलियन डॉलर का था तथा फरवरी 2018 के अन्त तक भारत का विदेशी विनियम भण्डार 421.9 बिलियन डॉलर का हो गया है।’

1991 के भुगतान सन्तुलन संकट तक रिजर्व के प्रबन्ध के मामले में भारत ने पारम्परिक दृष्टिकोण अपना रखा था अर्थात् आयात से सम्बन्धित था बाजार-निर्धारित विनिमय दर को अपनाने के पश्चात् आयात के साथ-साथ विनिमय के उतार-चढ़ाव को ध्यान में रखते हुए विदेशी विनिमय भण्डार के परिमाण को निश्चित किया जाता है। 1993 में रंगराजन समिति (High Level Committee on Balance of Payments) ने यह सिफारिश की थी कि 3-4 महीने के आयात के पारम्परिक परिणाम के साथ-साथ भारत के भुगतान के दायित्व की मात्रा को भी ध्यान में रखना चाहिए। पूर्वी एशियाई देशों के करेंसी संकट तथा कुछ विदेशी विशेषज्ञों की सलाह के आलोक में रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा भण्डार के सम्बन्ध में जिन अन्य बातों पर ध्यान दिया वे निम्न प्रकार है:

  • अल्पकालिक तथा अस्थिर बाह्य देयताएं:
  • विनिमय बाजार की अनिश्चितता के दौरान भुगतान प्राप्ति में विलम्ब (lags) के पैटर्न में परिवर्तन
  • विनिमय दरों, वस्तुओं की कीमतों तथा साख विस्तार में परिवर्तनों के कारण उत्पन्न जोखिमः
  • चालू खाते में घाटा:
  • पोर्टफोलियो निवेश, पूंजी तथा अन्य प्रवाहों में सम्भावित परिवर्तनशीलताः
  • बाह्य धक्कों (जैसे पूर्वी एशियाई देशों का संकट, तेल की कीमतों में वृद्धि तथा
  • अनिवासी भारतीयों के विदेशी मुद्रा जमा, जिसे लौटाने की सुविधा प्राप्त है, का आवागमन

इन सबकी वजह से विदेशी विनिमय भण्डार को काफी ऊंचे स्तर पर बनाए रखना आवश्यक है।

मार्च-अन्त 2004-05 भारत का विदेशी विनिमय भंडार रिजर्व 141.5 बिलियन अमरीकी डॉलर था। 2008-09 में यह बढ़कर 252 बिलियन डॉलर का हो गया। 2009-10 के 31 मार्च को यह 279.1 बिलियन डॉलर का था। वर्ष 2010-11 में यह मात्रा बढ़कर 304.8 बिलियन डालर हो गयी। 2011-12 में इसमें कमी हुई और यह घटकर 294.4 बिलियन डॉलर, 2012-13 में और अधिक घटकर 292.0 बिलियन डॉलर. 2013-14 में पुनः बढ़कर 304.2 बिलियन डॉलर, सितम्बर 2014 में यह 313.8 बिलियन डॉलर तथा फरवरी 2018 में 421.9 बिलियन डॉलर हो गया।

भुगतान संतुलन के आधार पर विदेशी विनिमय भंडार के स्रोत निम्नलिखित हैं :

(1) चालू खाते का अधिशेष:

(2) पूंजी खाता (निवल) (a से f); (a) विदेशी निवेश :

(i) विदेशी प्रत्यक्ष निवेश,

(ii) पोर्टफोलियो निवेश,

(b) बाह्य वाणिज्यिक ऋण,

(c) बैंकिंग पूंजी (गैर-निवासी भारतीयों की बैंक में विदेशी मुद्रा जमा सहित),

(d) अल्पकालिक व्यापार साख,

(e) बाह्य सहायता,

(f) पूंजी खाते के अन्य मद।

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प्रश्न

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

1 1980 तथा 1990 के दशकों में भारतीय भुगतान शेष की स्थिति की जांच करें।

2. 1990 के दशक से भुगतान शेष की स्थिति में सुधार के कारणों की विवेचना करें।

3. निर्यात प्रोत्साहन के नए उपायों की विवेचना कीजिए।

3. आर्थिक उदारीकरण की नीति को अपनाने के पश्चात् भारतीय भुगतान शेष की स्थिति की विवेचना करें।

4. वर्तमान सदी में भुगतान शेष की स्थिति पर प्रकाश डालें।

लघु उत्तरीय प्रश्न

1 भुगतान शेष के तात्पर्य को समझाइए।

2. चालू खाते की परिवर्तनीयता क्या है?

3. पूंजी खाते की परिवर्तनीयता की व्याख्या करें।

4. किन कारणों से भारत को पर्याप्त विदेशी विनिमय भंडार रखने की जरूरत है?

5. विशेष आर्थिक क्षेत्र की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

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