BCom 1st Year Business Collection Statistical Data Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Collection Statistical Data Study Material Notes in Hindi

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BCom 1st Year Business Collection Statistical Data Study Material Notes in Hindi : Collection of Primary Data Direct Personal Investigation Indirect Oral Investigation Estimates From Local Correspondents Questionnaire Method Schedules  to be filled in by Informants Schedules to be Filled in by Enumerators Choice of Suitable Method Schedule and Questionnaire  Sources Secondary Data Long Answer Questions Short Answer Questions :

Collection Statistical Data
Collection Statistical Data

BCom 1st Year Business Planning Statistical Investigation Study Material notes in Hindi

सांख्यिकीय समंकों का संकलन

(Collection of Statistical Data)

अनुसन्धान आयोजन के बाद दूसरा महत्वपूर्ण कार्य समंकों का संकलन है । समंक सांख्यिकीय विश्लेषण के लिए आवश्यक विषय-सामग्री हैं, अतः इनको सही एवं उपयुक्त विधि से एकत्र करना न केवल आवश्यक है बल्कि अनिवार्य भी है।

सांख्यिकीय समंक दो प्रकार के होते हैं

() प्राथमिक समंक (Primary Data)

ये वे समंक हैं जो अनुसन्धानकर्ता द्वारा प्रथम बार नये सिरे से एकत्रित किए जाते हैं। ये समंक मौलिक होते हैं । इन समंकों के संकलन के लिए प्रयुक्त विधि को प्राथमिक विधि (Primary Method) कहते हैं।

() द्वितीयक समंक (Secondary Data)

ये वे समंक हैं जो अनुसंधानकर्ता ने स्वयं एकत्रित नहीं किए हैं बल्कि कहीं से प्राप्त किए हैं। ये समंक पहले से ही किसी अन्य अनुसंधानकर्ता द्वारा संकलित एवं प्रयुक्त किए जा चुके हैं और इनके आधार पर निष्कर्ष ज्ञात किए जा चुके हैं। पिछले अध्याय में बताया जा चुका है कि ये प्रकाशित अथवा अप्रकाशित हो सकते हैं। इन समंकों के संकलन के लिए प्रयुक्त विधि को द्वितीयक विधि (Secondary Method) कहते हैं।

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प्राथमिक तथा द्वितीयक समंकों में अन्तर

(Difference between Primary and Secondary Data)

1 सर्वप्रथम अन्तर यह है कि प्राथमिक सामग्री मौलिक सामग्री होती है । अनुसन्धानकर्ता इन्हें स्वयं एकत्रित करता है जबकि द्वितीयक सामग्री उसके द्वारा एकत्रित नहीं की जाती वरन् किसी अन्य व्यक्ति अथवा संस्था के द्वारा पूर्वकाल में एकत्रित की जा चुकी होती है।

2. प्राथमिक समंकों के संकलन में धन,समय, परिश्रम व बुद्धि का प्रयोग अधिक करना पड़ता है क्योंकि नये सिरे से योजना को प्रारम्भ करना होता है । द्वितीयक सामग्री को सिर्फ उद्धृत करना पड़ता है क्योंकि वह पहले से ही एकत्रित होती है।

3. प्राथमिक समंकों का उद्देश्य अनुसन्धान के अनुकूल होता है जबकि द्वितीयक समंक किसी अन्य उद्देश्य को लेकर एकत्रित किये गये होते हैं।

4. अनुसन्धानकर्ता प्राथमिक समंकों को समग्र से उपलब्ध सांख्यिकीय इकाइयों से प्राप्त करता है जबकि द्वितीयक समंक अन्य व्यक्तियों या संस्थाओं द्वारा पूर्व संकलित होते हैं।

5. प्राथमिक समंकों के प्रयोग में सावधानी बरतने की इतनी आवश्यकता नहीं होती जबकि द्वितीयक सामग्री की जाँच-पड़ताल, उनके स्त्रोत, उद्देश्य व अनुसन्धान एजेन्सी को देखे बिना उनका प्रयोग करना अत्यन्त हानिकारक व घातक सिद्ध हो सकता है ।

संक्षेप में,प्राथमिक समंक जिनके द्वारा एकत्रित किये जाते हैं उनके लिए प्राथमिक सामग्री की भाँति कार्य करते हैं। इसके विपरीत,जब वही समंक किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा प्रयोग किया जाता है तो उसके लिए द्वितीयक सामग्री बन जाती है।

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प्राथमिक समंकों का संकलन

(Collection of Primary Data)

प्राथमिक आँकड़ों के संकलन के लिए अनुसन्धानकर्ता निम्न प्राथमिक रीतियों (Primary Methods) में से कोई भी रीति,जो अनुसन्धान के लिए उपयुक्त हो,अपना सकता है

प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान (Direct Personal Investigation)

अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसन्धान (Indirect Oral Investigation)

स्थानीय सम्वाददाताओं के अनुमान (Estimates from local correspondents)

प्रश्नावली विधि (Questionnaire Method)

() सूचकों द्वारा प्रश्नावली भरना (Schedules to be filled in by informants)

() प्रगणकों द्वारा प्रश्नावली भरना (Schedules to be filled in by enumerators)

Business Collection Statistical Data

(1) प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान

(Direct Personal Investigation)

इस विधि के अन्तर्गत अनुसन्धानकर्ता सूचकों (वे व्यक्ति जिनसे सूचनायें प्राप्त करनी है) से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करता है। उन लोगों के बीच में रहकर वह अपने अनुभव,ज्ञान व निरीक्षण द्वारा समंकों का संकलन करता। है । यह विधि निम्न परिस्थितियों में उपयुक्त मानी जाती है जब

(i) अनुसन्धान का क्षेत्र सीमित हो,

(ii) उच्चस्तर की शुद्धता की आवश्यकता हो,

(iii) समंकों का गहन अध्ययन करना हो तथा

(iv) समंकों की मौलिकता एवं गोपनीयता महत्वपूर्ण हो।

गुण (Merits)- यह विधि निम्न गुणों से युक्त है

(i) शुद्धता एवं मौलिकता- इस विधि से प्राप्त निष्कर्ष अधिक शुद्ध,मौलिक एवं विश्वसनीय होते हैं।

(ii) लोच-इस विधि में अनुसन्धानकर्ता प्रश्नों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करके प्रश्नों को बढ़ाकर या कम करके अभीष्ट सूचनायें प्राप्त कर सकता है।

(iii) गहन अध्ययन- इस विधि में विषय का गहन अध्ययन सम्भव है क्योंकि आवश्यकतानुसार मुख्य सूचनाओं के अतिरिक्त अन्य सूचनायें प्राप्त की जा सकती हैं।

(iv) सजातीयता– समंकों का संकलन स्वयं अनुसन्धानकर्ता ही करता है, अत: उनमें सजातीयता व एकरूपता का गुण पाया जाता है।

दोष (Dermerits)- इस विधि में निम्न दोष हैं

(i) व्यापक क्षेत्र के लिए अनुपयुक्त- यदि अनुसन्धान का क्षेत्र विस्तृत है तो यह प्रणाली अधिक समय व । श्रम लेगी, अत: अनुपयुक्त है।

(ii) पक्षपात– अनुसन्धानकर्ता की पक्षपातपूर्ण भावना का प्रभाव निष्कर्षों पर पड़ सकता है। (iii) अपव्ययी-यह पद्धति अधिक खर्चीली है । इसमें समय,श्रम व धन तीनों का अपव्यय होता है।

सावधानियाँ (Precautions)- इस विधि का प्रयोग करते समय निम्न बातों को विचाराधीन कर लेना अत्यन्त आवश्यक समझा जाता है :

(i) अनुसन्धानकर्ता अनुसन्धान कला में प्रवीण,व्यवहार-कुशल.परिश्रमी व धैर्यवान हो।

(ii) अनुसन्धानकर्ता उस समय या क्षेत्र की विशेषताओं, रीति-रिवाजों तथा भाषा इत्यादि से पूरी तरह परिचित हो।

(iii) प्रश्नों की संख्या सीमित हो तथा वे सारगर्भित हों।

(iv) अनुसन्धानकर्ता को अपना व्यक्तिगत प्रभाव व पक्षपातपूर्ण व्यवहार अनुसन्धान पर नहीं पड़ने देना चाहिए।

(v) उसे इस बात का विश्वास कर लेना चाहिए कि प्रश्न पूछने के लिए उपयुक्त व्यक्ति से सम्बन्ध स्थापित किया गया है।

(vi) सम्बन्धित व्यक्ति प्रश्नों का उत्तर देने की योग्यता रखता है अर्थात् वह उपयुक्त व्यक्ति है, और वह सभी सूचनाओं तथा बातों की पूर्ण जानकारी रखता है।

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(2) अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसन्धान

(Indirect Oral Investigation)

जब अनुसन्धान का क्षेत्र विस्तृत होने के कारण प्रत्येक सूचक से व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित करना असम्भव है। या विषय इतना जटिल है कि सूचकों की अज्ञानता व अनुभवहीनता के कारण उनसे सही व विश्वसनीय सूचनायेंप्राप्त नहीं की जा सकतीं, तो उस समय यह विधि प्रयुक्त होती है । इस विधि के अन्तर्गत अनुसन्धान की समस्या से सम्बन्ध रखने वाले ऐसे व्यक्तियों से सूचनायें प्राप्त की जाती हैं जो परोक्षरूप से समस्या की सही जानकारी रखते हैं। उदाहरण के लिए विद्यार्थियों की किसी भी समस्या के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों, छात्र नेताओं से सूचनायें न प्राप्त करके अनुसन्धानकर्ता अध्यापकों या कक्षा प्रतिनिधियों से सूचना प्राप्त कर सकता है। सरकारी आयोग व समीतियाँ इसी विधि का प्रयोग करती हैं।

गुण (Merits)- इस प्रणाली के प्रमुख गुण निम्न हैं_

(i) समय, श्रम व धन की बचत- इस विधि में अनुसंधान कम समय में पूरा हो जाता है और समय व श्रम भी कम लगता है।

(ii) विशेषज्ञों का परामर्श- इस विधि के अन्तर्गत सुचनायें समस्या के जानकार विशेषजों से प्राप्त की। जाती हैं, अत: उनके परामर्श का लाभ अनुसन्धानकर्ता को अनायास ही मिल जाता है।

(iii) अनुसन्धानकर्ता की निष्पक्षता- इस विधि में अनुसन्धानकर्ता के पक्षपात का प्रभाव नहीं है क्योंकि विशेषज्ञों से वह अपने पक्ष की सूचनायें प्राप्त नहीं कर सकता।

(iv) व्यापक अनुसन्धान के लिए उपयुक्त-व्यापक अनुसन्धान के लिए यह पद्धति सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि इसके अन्तर्गत सब प्रकार की सूचनायें एक ही साथ प्राप्त की जा सकती हैं।

दोष (Demerits)- इस पद्धति के निम्नलिखित दोष हैं

(i) उच्च स्तर की शुद्धता का अभाव- परोक्ष व्यक्तियों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर अनुसन्धान के निष्कर्ष निकाले जाते हैं, इसलिए इस विधि में उतनी अधिक शुद्धता नहीं पायी जाती जितनी कि प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान विधि में अपेक्षित है।

(ii) सूचकों की पक्षपातपर्ण भावना का प्रभाव-सूचकों की पक्षपातपूर्ण भावना का अनुसन्धान के निष्कर्ष पर विशेष प्रभाव पड़ता है,क्योंकि इन्हीं से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

(iii) सूचकों की असावधानी-सचक सचनायें देने में रुचि नहीं लेते हैं और लापरवाही से गलत सूचनाएँ प्रदान कर देते हैं, अतः निष्कर्ष सही नहीं निकल पाते

(iv) सूचकों के चनाव में कठिनाई– सचकों का चुनाव करना एक अति दुष्कर कार्य है क्योंकि अनुसन्धानकर्ता यह चाहेगा कि सूचकों की संख्या पर्याप्त हो, वे विषय की सही व गहन जानकारी रखते हों और वे निष्पक्ष विचारधारा के हों।

सावधानियाँ (Precautions)- इस रीति के प्रयोग में सम्भवतः सबसे अधिक सावधानी तथा सतर्कता बरतने की आवश्यकता होती है । इसलिए निम्न बातों को सदैव ध्यान में रखना चाहिए

(i) सूचना देने वाले व्यक्ति की बातों पर अनायास तथा आवश्यकता से अधिक विश्वास नहीं करना चाहिए । उनकी पुष्टि कर लेना सदैव हितकर होगा।

(ii) सूचना देने वाले व्यक्तियों की संख्या पर्याप्त होनी चाहिए। किसी एक व्यक्ति से पूछताछ करके निष्कर्ष निकालना अत्यन्त घातक होगा।

(iii) चुने हुए साक्षियों (Evidences) तथा सूचना देने वालों के पक्षपातमय होने की सम्भावना का पहले ही ध्यान रख लेना चाहिए। इसलिए यह अधिक उपयुक्त होगा कि विषय के पक्ष तथा विपक्ष,दोनों में सूचना देने वालों से सम्बन्ध स्थापित किया जाये।

(iv) सूचना देने वाले व्यक्तियों की मानसिक स्थिति तथा मनोवृत्ति (Psychology) का ख्याल रखना आवश्यक है  कुछ लोग आवश्यकता से अधिक आशावादी हो सकते हैं तो कुछ निराशावादी।

(v) यह मान्यता लेकर चलना चाहिए कि ऐसे व्यक्तियों को समस्या का पूर्ण ज्ञान नहीं है, परन्तु उनकी सद्भावना व विश्वास प्राप्त करने के लिए उनकी जानकारी पर अनावश्यक सन्देह करना भी उचित न होगा।

(vi) अनुसन्धानको को पूछताछ व सूचना एकत्रित करते समय धेर्य विनम्रता चतराई तथा निष्पक्षता से काम लेना चाहिए।

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(3) स्थानीय सम्वाददाताओं के अनुमान

(Estimates from Local Correspondents)

इस विधि से अनुसन्धानकर्ता समंकों का संकलन नहीं करता बल्कि स्थानीय सम्वाद-दाता एवं प्रतिनिधियों,द्वारा एकत्रित सूचनाओं व अनमानों पर निर्भर करता है। ये सम्वाद-दाता या प्रतिनिधि,सूचनायें एकत्रित करके। अनुसन्धानकर्ता को भेजते रहते हैं। ये सचनायें या अनुमान ही अनुसन्धान के लिए आधार होते हैं। सामयिक पत्रिकार्य एवं समाचार-पत्र इस विधि का ही प्रयोग करते हैं । यह विधि उन अनुसन्धानों के लिए अधिक उपयक्त। मानी जाती है जहाँ केवल अनुमान या प्रवत्तियाँ ही ज्ञात करनी हैं,कोई ठोस परिणाम नहीं।

गुण (Merits)- इस प्रणाली के निम्नलिखित गुण हैं

(i) व्यापक क्षेत्र के लिए उपयुक्त- यह विधि उस अनुसन्धान के लिए उपयुक्त है जिसका क्षेत्र विस्तृत है। क्योंकि दूर-दूर स्थानों से व्यक्तिगत सूचनायें प्राप्त करना अति दुष्कर कार्य है।

(ii) मितव्ययिता-यह विधि समय,श्रम व धन तीनों की बचत करती है। ।

(iii) शीघ्र निष्कर्ष- इस विधि के अन्तर्गत निष्कर्ष जल्दी से जल्दी निकाले जा सकते हैं। दोष (Demerits)– इस पद्धति में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं

(i) मौलिकता का अभाव-इसमें सम्वाद-दाता अपने अनुमान देते हैं अतःसमंकों में मौलिकता नहीं रहती।

(ii) उच्च स्तर की शुद्धता का अभाव- इस विधि से निष्कर्षों में उच्च स्तर की शुद्धता प्राप्त नहीं की जा सकती,केवल लगभग सही निष्कर्ष ही निकाले जाते हैं।

(iii) सम्वाद-दाताओं का पक्षपात-इसमें सम्वाद-दाताओं की पक्षपातपूर्ण भावना का पूरा प्रभाव पड़ता है।

(iv) समंकों में एकरूपता का अभाव- इस विधि के अन्तर्गत समस्त सम्वाददाता व प्रतिनिधि अपने-अपने तरीकों से एवं अपनी-अपनी इकाई में समंक संकलित करते हैं अतः समंकों में एकरूपता नहीं रहती।

सावधानियाँ (Precautions)– इस प्रणाली का प्रयोग करने में कुछ बातों का सदैव ध्यान रखना चाहिए जो कि इस प्रकार हैं

(i) सम्वाद-दाताओं की नियुक्ति देखभाल करके की जाये ताकि वे उस कार्य के लिए सर्वथा उपयुक्त हों।

(ii) सम्वाददाताओं को अपनी व्यक्तिगत राय और पक्षपातपूर्ण भावना का कम प्रयोग करना चाहिए।

(iii) सम्वाददाताओं की संख्या एक निश्चित क्षेत्र में यथासम्भव अधिक होनी चाहिए ताकि अशुद्धियों की क्षतिपूर्ति होती रहे।

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(4) प्रश्नावली विधि

(Questionnaire Method)

इस विधि के अन्तर्गत अनुसन्धानकर्ता अपनी जांच से सम्बन्धित विषय की जानकारी के लिए प्रश्नों की एक सूची या प्रश्नावली बनाता है। इसमें जाँच से सम्बन्धित सभी पहलुओं व प्रमुख बातों की जानकारी प्राप्त करने के उद्देश्य से सभी प्रकार के प्रश्नों का निर्माण किया जाता है ताकि विषय की जानकारी अधूरी न रह जाये। प्रश्नावली में प्रश्नों के सामने उत्तर के लिए खाली जगह छोड़ दी जाती है। सामान्यतःप्रश्नावली को छपवा लिया जाता है।

प्रश्नावली दो प्रकार की होती हैं

(1) सूचकों द्वारा प्रश्नावली भरना

(2) प्रगणकों द्वारा अनुसूची भरना

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सूचकों द्वारा प्रश्नावली भरना

(Schedules to be filled in by informants)

इस विधि के अन्तर्गत प्रश्नावली डाक द्वारा सम्बन्धित व्यक्तियों के पास भेज दी जाती है । वे व्यक्ति (सूचक) इस प्रश्नावली को भरकर अनुसन्धानकर्ता के पास भेज देते हैं । इस प्रकार कम समय में,कम व्यय करके सूचकों से सीधी सूचनायें प्राप्त कर ली जाती हैं । व्यक्तिगत संस्थाओं ; जैसे व्यापार संगठन,फर्मों व व्यक्तियों द्वारा यही विधि अपनाई जाती है।

गुण (Merits)- इस विधि के निम्नलिखित गुण हैं(i) मौलिकता–प्रश्नावली सूचकों द्वारा स्वयं भरी जाती है, अतः सूचनायें मौलिक होती हैं।

(ii) व्यापक क्षेत्र के लिए उपयुक्त- यदि अनुसन्धान का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है तो यह विधि अधिक उपयुक्त प्रतीत होती है क्योंकि समस्त सूचकों के पास प्रश्नावली डाक द्वारा आसानी से भेजी जा सकती हैं।

(iii) गहन व विस्तृत अध्ययन-प्रश्नावली द्वारा समस्त प्रकार की सूचनायें एकत्रित की जा सकती हैं, अतः विषय का गहन व विस्तृत अध्ययन सम्भव है।

(iv) मितव्ययी– इस विधि से जाँच करने पर समय, धन व परिश्रम कम लगता है। प्रश्नावली भेजने का। डाक-व्यय व्यक्तिगत सम्पर्क की तुलना में बहुत कम होता है। ।

(1) शीघ्र निर्णय– इस रीति का प्रयोग करके सूचनायें जल्दी प्राप्त की जा सकती हैं क्योंकि एक ही समय में समस्त सूचकों के पास प्रश्नावली भेजी जा सकती है और उनसे सूचनायें प्राप्त की जा सकती हैं।

दोष (Demerits)- यह रीति अनेक दोषों से युक्त है जो निम्न हैं

(i) अशिक्षित सूचकों के लिए अनुपयुक्त- यह रीति तभी सफल हो सकती है जबकि सूचनायें प्रदान करने वाले व्यक्ति शिक्षित व समझदार हों । यदि सूचक अशिक्षित है तो यह रीति नहीं अपनायी जा सकती।

(ii) अलोचपूर्ण– यदि किसी सूचक ने कोई सूचना अपर्याप्त दी है तो उससे पूरक प्रश्न नहीं पूछे जा सकते।

(iii) सूचकों की पक्षपातपूर्ण भावना का प्रभाव- यदि सूचकगण पक्षपातपूर्ण सूचनायें प्रदान करते हैं तो सम्पूर्ण जाँच निरर्थक एवं दोषपूर्ण होगी।

(iv) शुद्धता की कमी- यदि प्रश्नावली ठीक ढंग से तैयार नहीं की गई है तो प्राप्त सूचनाएँ अशुद्ध हो सकती हैं तथा परिणाम भी अशुद्ध होंगे।

सावधानियाँ (Precautions)- यह पद्धति सरल होते हुए भी अत्यन्त जटिल है क्योंकि इसमें व्यक्तिगत सम्पर्क का अभाव तथा सूचना देने वालों की लापरवाही के कारण कभी-कभी सम्पूर्ण जाँच गलत हो जाती है। अत: इस पद्धति में निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है :

1 सूचना देने वाले व्यक्ति का सहयोग प्राप्त करने के लिए उसे योजना से सम्बन्धित सभी बातों को बताना चाहिए।

2. इस प्रकार की व्यवस्था हो कि सूचना शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त हो सके।

3. सूचना देने वालों को पक्षपातपूर्ण व्यवहार नहीं करना चाहिए।

प्रश्नावली में निम्न विशेषताएँ होनी चाहियें

(i) प्रश्न सीमित तथा महत्वपूर्ण हों।

(ii) प्रश्नों का विन्यास इस प्रकार हो कि उनके उत्तर “हाँ” या “नहीं” में दिये जा सकें।

(iii) प्रश्न स्पष्ट एवं सरल हों।

(iv) प्रश्न ऐसे हों जिनकी सत्यता की जाँच की जा सके।

(v) प्रश्न ऐसे न हों जिससे सूचना देने वाले की मानसिक, धार्मिक तथा सामाजिक भावनाओं को आघात लगे।

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प्रगणकों द्वारा अनुसूची भरना

(Schedules to be filled in by enumerators)

सूचकों द्वारा प्रश्नावली भरने की पद्धति के दोषों को दूर करने के लिए यह पद्धति प्रयोग में लायी जाती है। इसमें अनुसूचियाँ या प्रश्नावली डाक द्वारा सूचकों के पास भेजने की अपेक्षा प्रगणकों को दे दी जाती हैं जो अपने-अपने क्षेत्र में रहने वाले सूचकों से भेंट करके तथा पूछकर आवश्यक सूचनाएँ भरते हैं । अतः इस पद्धति की सफलता प्रगणकों की ईमानदारी, परिश्रम, चतुराई तथा व्यवहार-कुशलता पर निर्भर करती है । समंक संकलन की यह पद्धति सबसे महत्वपूर्ण एवं विश्वसनीय समझी जाती है। प्रगणकों की नियुक्ति करते समय यह देख लेना चाहिए कि वे जिस क्षेत्र में कार्य करेंगे वहाँ के सूचकों की भाषा,रीति-रिवाज तथा उनके स्वभाव के बारे में पूरी जानकारी रखते हैं या नहीं। नियक्ति के बाद उन्हें प्रशिक्षण देकर समंक संकलन की कार्यविधि तथा उद्देश्य को समझाया जा सकता है। भारत में जनगणना इसी पद्धति से की जाती है।

गुण (Merits)- इस विधि के निम्नलिखित गुण हैं

(i) व्यक्तिगत सम्पर्क- इस विधि में प्रगणकों द्वारा सूचकों से व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित किया जाता है जिससे प्रत्येक प्रश्न का सही उत्तर प्राप्त होता है । इस विधि में सूचकों की शंकाओं का भी तुरन्त समाधान हो जाता

(ii) विस्तृत क्षेत्र-इस विधि से कम समय में विस्तृत क्षेत्र की सूचनायें प्राप्त की जा सकती हैं, इसीलिये यह विधि भारतवर्ष में जनगणना के समंक प्राप्त करने के लिये प्रयोग की जाती है।

(iii) समंकों की परिशुद्धता- इस विधि के द्वारा प्राप्त समंक अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध एवं विश्वसनीय होते हैं क्योंकि ये शिक्षित,प्रशिक्षित तथा अनुभवी प्रगणकों द्वारा एकत्र किये जाते हैं।

(iv) निष्पक्षता इस रीति के अन्तर्गत समंकों के संकलन के लिये अनेक प्रगणक नियुक्त किये जाते हैं जो पक्ष तथा विपक्ष दोनों प्रकार की अपनी सूचनायें देते हैं, अतः समंकों के संकलन में पक्षपातपूर्ण भावना नहीं आ। पाती।

दोष (Demerits)- इस विधि के निम्नलिखित दोष हैं

(i) अधिक खर्चीली– इस विधि में योग्य व अनुभवी व्यक्तियों की मदद ली जाती है तथा व्यापक स्तर पर। अनुसंधान कार्य किया जाता है, इसलिये यह विधि अधिक खर्चीली सिद्ध होती है।

(ii) प्रगणकों की नियुक्ति- इस विधि की सफलता प्रगणकों की शिक्षा व प्रशिक्षण पर निर्भर करती है। इस विधि में सुयोग्य प्रगणकों को नियुक्त करना व उनको प्रशिक्षण देना एक कठिन कार्य है।

(ii) लोच का अभाव यह विधि लोचपूर्ण नहीं है। इसमें एक बार प्रश्नावली तैयार करने के बाद प्रगणक उसमें अनुपूरक प्रश्नों को सम्मिलित नहीं कर सकता है।

सावधानियाँ (Precautions)- इस विधि का प्रयोग करते समय निम्न सावधानियाँ बरतनी चाहियें(i) प्रगणक क्षेत्र के रीति-रिवाज व सूचकों के स्वभाव से परिचित होने चाहियें।

(ii) प्रगणकों की नियुक्ति करते समय उनकी योग्यता, अनुभव, ईमानदारी व निष्पक्षता पर ध्यान दिया जाना चाहिये।

(iii) प्रगणकों के कार्य के निरीक्षण की समुचित व्यवस्था होनी चाहिये।

उपयुक्त रीति का चुनाव

(Choice of Suitable Method)

प्राथमिक समंकों के संकलन की रीतियों में से किसी एक को सभी परिस्थितियों में सर्वश्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता। परिस्थितियों की भली-भाँति जाँच करके ही आवश्यकतानुसार उपयुक्त रीति का चुनाव करना चाहिए। समंक संकलन की उपयुक्त रीति का चुनाव करने में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए

(i) अनुसंधान की प्रकृत्तयदि अनुसंधान की प्रकृति ऐसी है कि सूचना देने वालों से प्रत्यक्ष सम्पर्क रखना आवश्यक है. जैसे निरक्षर व अशिक्षित मजदूरों की रहन-सहन की स्थिति का अध्ययन करने में तो प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसंधान उपयुक्त है । यदि प्रत्यक्ष सम्पर्क सम्भव या आवश्यक न हो तो अप्रत्यक्ष मौखिक अनुसंधान

अपेक्षित होता है । यदि लिखित रूप में शिक्षित व्यक्तियों से सूचना प्राप्त करनी है तो उनसे अनुसूचियाँ भरवाकर डाक द्वारा प्राप्त कर ली जायेंगी। इसके विपरीत, यदि सूचक अधिकतर अशिक्षत हैं या जनगणना आदि करनी है तो प्रगणकों की सहायता लेना आवश्यक है।

(ii) उद्देश्य क्षेत्र अनुसंधान के उद्देश्य व क्षेत्र के आधार पर अनुकूल रीति का चुनाव किया जाना चाहिए। एक सीमित क्षेत्र में अनेक विषयों पर सूचना उपलब्ध करने के लिए प्रत्यक्ष अनुसन्धान का उपयोग वांछनीय है । बड़े क्षेत्र में पत्र-पत्रिकाओं द्वारा लगातार समंक प्राप्त करने के लिए संवाददाताओं से सूचनाएँ एकत्र की जाती हैं। एक अत्यन्त विशाल क्षेत्र में व्यापक अनुसन्धान के लिए प्रगणकों द्वारा अनुसूचियाँ भरकर आँकड़े एकत्रित किये जाते हैं।

(iii) शुद्धता की मात्रा अनुसंधान के क्षेत्र में शुद्धता की मात्रा पर भी ध्यान देना चाहिए। सीमित क्षेत्र में अत्याधिक शुद्ध समंक प्राप्त करने के लिए प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुसन्धान उपयुक्त होता है। प्रगणकों द्वारा अनुसन्धान में शुद्धता का स्तर ऊँचा होता है; परन्तु सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरवाकर आँकड़े प्राप्त करने में अधिकतर अपर्याप्त व अपूर्ण सूचना ही उपलब्ध होती है।

(iv) आर्थिक साधनप्रत्यक्ष अनुसन्धान तथा प्रगणकों द्वारा अनुसन्धान में सबसे अधिक व्यय होता है । जब कि अन्य रीतियाँ अपेक्षाकृत सस्ती हैं । सूचकों द्वारा अनुसूचियाँ भरवाने में सबसे कम खर्च होता है।

(v) उपलब्ध समययदि सूचनाएँ शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त करनी हैं तो सम्वाददाताओं से अनुमान प्राप्त किये जा सकते हैं या सूचकों से प्रश्नावलियाँ भरवाकर समंक एकत्रित किये जा सकते हैं। इसके विपरीत, यदि अनुसन्धानकर्ता के पास पर्याप्त समय है तो बाकी तीनों रीतियों में से कोई एक अपनायी जा सकती है।

उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखकर संग्रह की उपयुक्त रीति का चुनाव करना चाहिए जिससे उद्देश्यानुकूल शुद्ध प्राथमिक समंक एकत्रित किए जा सकें। संकलन क्रिया की सफलता बहत कुछ अनुसन्धानकर्ता की योग्यता व। अनुभव पर निर्भर होती है । डा० बाउले ने ठीक ही कहा है,“संग्रहण में सामान्य विवेक प्रमुख आवश्यकता है तथा अनुभव मुख्य शिक्षक है।”

अनुसूची तथा प्रश्नावली

(Schedule and Questionnaire)

जनसाधारण अनुसूची तथा प्रश्नावली में कोई भेद नहीं करते, दोनों को एक दूसरे का पर्यायवाची मानते हैं । व्यवहार में दोनों का अर्थ एक ही लगाया जाता है। दोनों का उद्देश्य व अर्थ एक ही होता है। किन्तु सैद्धान्तिक रूप से दोनों में सूक्ष्म अन्तर है। अनुसूची (Schedule) प्रश्नों की वह सूची है जो प्रगणकों द्वारा सूचकों से पूछकर भरी जाती है। इसके विपरीत, ‘प्रश्नावली’ (Questionnaire) सूचकों द्वारा स्वयं भरी जाती है । वास्तव में अनुसूची दो प्रकार की होती है

(a) रिक्त फार्म (Blank form)- रिक्त फार्म प्रश्नावली का वह रूप है जिसमें प्रश्नों के साथ ही उनके उत्तर देने के लिये रिक्त स्थान छोड़ दिया जाता है। प्रश्नावली का यह रूप ही अनुसूची कहलाता है।

(b) प्रश्नावली (Questionnaire)-यह भी प्रश्नों की एक सूची है परन्तु इसमें प्रश्नों के लिये रिक्त स्थान नहीं होता। इसमें प्रश्नों का उत्तरसूचकों द्वारा अलग से कागज पर लिखा जाता है ।

अच्छी प्रश्नावली के गुण- एक उत्तम प्रश्नावली तैयार करते समय निम्न बातों पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए

(i) प्रश्नों की संख्या– प्रश्नावली में प्रश्नों की संख्या उचित होनी चाहिए। प्रश्नों की संख्या न तो आवश्यकता से अधिक होनी चाहिए और न ही आवश्यकता से कम।

(ii) प्रश्न सरल स्पष्ट हों-प्रश्नावली में प्रश्न लम्बे.जटिल व दो अर्थों वाले नहीं होने चाहिएँ। प्रश्नों में सरलता व स्पष्टता होनी चाहिये । प्रश्नावली में अप्रचलित व असम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग नहीं होना चाहिये।

(iii) प्रश्न संक्षिप्त हों-प्रश्नावली में प्रश्न यथासम्भव संक्षिप्त होने चाहिये जिनका उत्तर केवल ‘हाँ’ या ‘ना’ या संक्षिप्त शब्द या अंक में ही दिया जा सके।

(iv) प्रश्न वर्जित हों-प्रश्नावली में ऐसे प्रश्नों का प्रयोग नहीं करना चाहिए जिनके उत्तर देने में सूचक के आत्मसम्मान,धार्मिक या सामाजिक भावना को कोई ठेस लगे।

(v) सत्यता की जाँच-प्रश्नावली में ऐसे प्रश्नों को भी सम्मिलित करना चाहिए जिनके उत्तरों की सत्यता की परस्पर जाँच हो सके; जैसे-बच्चों की आयु से पिता की आयु का ज्ञात होना।

(vi) अनुसन्धान से सम्बन्ध– प्रश्न अनुसन्धान से प्रत्यक्ष रूप से सम्बंधित होने चाहियें ताकि सूचना प्राप्ति में समय,धन व श्रम का अपव्यय न हो।

(vii) सूचकों की योग्यता– प्रश्नावली में प्रश्न सूचकों की योग्यतानुसार रखे जाने चाहिये जिससे उनका उत्तर आसानी से प्राप्त हो सके।

(viii) पुनर्परीक्षणप्रश्नावली का निर्माण करने के पश्चात् दो बार पुनर्परीक्षण कर लेना चाहिए। यदि कुछ प्रश्नों के उत्तर अस्पष्ट व संदिग्ध लगते हैं तो उन प्रश्नों में पहले ही सुधार कर लिया जाये।

(ix) गणितीय प्रयोग-प्रश्नावली में यथासम्भव गणितीय प्रयोग कम से कम होना चाहिए। गणितीय आंकलन सूचक पर ही छोड़ देना चाहिए।

(x) आवश्यक निर्देश- प्रश्नावली के प्रारम्भ में या प्रश्नों के साथ ही सूचकों के लिये आवश्यक निर्देश दिये जाने चाहिएँ । आवश्यक निर्देश देने से प्रश्नोत्तरों में एकरूपता बनी रहती है।

प्रश्नावली का नमूना

(Specimen of Questionnaire)

द्वितीयक समंकों का संकलन

(Collection of Secondary Data)

एक बार संकलित समंकों का प्रयोग यदि दूसरी बार किया जाये तो ये द्वितीयक समंक कहे जाते हैं। चूंकि ये समंक अनेक हाथों से गुजरते हैं इसलिए उनमें अशुद्धियों का होना सम्भव है, अतः अनुसन्धानकर्ता को उन अशद्धियों का अनुमान लगाकर उसमें पर्याप्त संशोधन करने का प्रयत्न करना चाहिए। द्वितीयक समंकों की प्रमुख समस्या उनके संकलन की नहीं होती है क्योंकि यह तो पहले से ही संकलित होते हैं,मुख्य समस्या तो इन समंकों का उचित तरीके से प्रयोग करने की होती है। द्वितीयक समंकों का प्रयोग करने से पहले अनुसन्धानकर्ता को इस बात की पूरी जाँच कर लेनी चाहिए कि वर्तमान उद्देश्य के लिए यह समंक विश्वसनीय,अनुकूल तथा पर्याप्त हैं या नहीं । डा० बाउले ने ठीक ही कहा है कि “प्रकाशित समंकों को ऊपर से देखकर ग्रहण कर लेने में तब तक सुरक्षा नहीं है जब तक उनके अर्थ एवं उनकी सीमाओं का अध्ययन न कर लिया जाये तथा साथ ही यह भी आवश्यक है कि उन तर्कों की सदैव आलोचना की जाये जो उन समंकों पर आधारित किए जा सकते हैं।”

द्वितीयक समंकों के स्रोत

(Sources of Secondary Data)

द्वितीयक समंक प्रकाशित या अप्रकाशित हो सकते हैं

1 प्रकाशित स्रोतविभिन्न विषयों पर सरकारी-गैरसरकारी प्रतिवेदनों, समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं तथा व्यापारिक-पत्रों आदि में समय-समय पर महत्वपूर्ण समंक संकलित करके प्रकाशित किए जाते हैं जिनका प्रयोग विभिन्न व्यक्तियों,शोध विद्यार्थियों तथा अन्य संस्थाओं द्वारा किया जाता है । इसके प्रमुख स्त्रोत निम्न हैं

(i) सरकारी विभागों या संस्थाओं के प्रकाशन; (ii) सरकारी आयोग एवं समिति द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट (iii) नगरपालिका एवं जिला परिषदों के प्रकाशित समंक; (iv) बैंकों,व्यापारिक संघों, वित्तीय संस्थाओं तथा बीमा कम्पनी के प्रकाशित समंक; (v) शोधकर्ताओं तथा शिक्षा संस्थाओं के प्रकाशित समंक; (vi) पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित समंक; (vii) उपज तथा विनिमय विपणियों द्वारा प्रकाशित बाजार मूल्य समंक ।

2. अप्रकाशित स्रोत (Unpublished sources)- बहुत से अनुभवी एवं योग्य व्यक्तियों द्वारा किये गये शोधकार्य अप्रकाशित ही रह जाते हैं जिनमें महत्वपूर्ण सूचनायें होती हैं। इनका भी प्रयोग द्वितीयक समंकों के लिए किया जा सकता है।

द्वितीयक समंकों के प्रयोग में सावधानियाँ

(Precautions in the use of secondary data)

द्वितीयक समंकों का प्रयोग करने से पूर्व आलोचनात्मक अध्ययन व सम्पादन कर लेना चाहिये क्योंकि द्वितीयक समंक अनेक त्रुटियों से परिपूर्ण हो सकते हैं। कोनर के शब्दों में, “समंक, विशेष रूप से अन्य व्यक्तियों। द्वारा एकत्रित समंक,प्रयोगकर्ता के लिये अनेक त्रुटियों से पूर्ण होते हैं जब तक उनका प्रयोग सावधानी से न किया जाये।”

द्वितीयक समंकों में पाई जाने वाली त्रुटियाँ कई कारणों से हो सकती हैं; जैसे सांख्यिकीय इकाई में परिवर्तन, सूचना का अशुद्ध व अपर्याप्त होना, समंकों पर अनुसन्धानकर्ता की पक्षपातपूर्ण भावना प्रभाव आदि। अतः अनुसन्धानकर्ता द्वारा द्वितीयक समंकों का प्रयोग करने से पहले सामग्री की विश्वसनीयता और शुद्धता की जाँच अवश्य कर लेनी चाहिये । इस सम्बन्ध में डॉ० बाउले का मत उल्लेखनीय है-“प्रकाशित समंकों को बिना उनका अर्थ व सीमायें जाने जैसा का तैसा स्वीकार कर लेना खतरे से खाली नहीं और यह सर्वथा आवश्यक है कि उन तर्कों की आलोचना कर ली जाये जो उन पर आधारित किये जा सकते हैं।”

इसलिये द्वितीयक समंकों के प्रयोग से पहले निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिये

पिछले अनुसन्धानकर्ता की योग्यता-द्वितीयक समंकों का प्रयोग करने से पहले यह देखना चाहिये कि सामग्री का संकलन प्राथमिक रूप से किस अनुसन्धानकर्ता द्वारा किया गया है। यदि उसकी योग्यता, ईमानदारी, निष्पक्षता और अनुभव पर विश्वास किया जा सकता है तो उसके द्वारा संकलित समंक भी शुद्ध एवं विश्वसनीय होंगे।

जाँच का उद्देश्य व क्षेत्र-द्वितीयक समंकों का प्रयोग तभी उचित होगा जब इस बात का निश्चय कर लिया जाये कि प्राथमिक जाँच का उद्देश्य क्या था? यदि प्राथमिक जाँच का उद्देश्य बाद की जाँच से मिलता-जुलता है तो द्वितीयक समंकों का प्रयोग अनुचित नहीं होगा।

समंकों के संग्रहण की रीति-समंकों के संकलन की दो रीतियाँ-संगणन एवं निदर्शन प्रयोग में लायी जाती हैं। यदि प्राथमिक समंकों के संकलन में संगणना विधि का प्रयोग किया गया है तो वह समंकों के द्वितीयक प्रयोग में कहाँ तक उपयुक्त है? यदि अनुसन्धान प्रतिदर्श रीति के आधार पर किया गया था तो यह भी निश्चित कर लेना चाहिये कि प्रतिदर्श यथेष्ट है और समग्र का प्रतिनिधित्व करते हैं या नहीं। इस तथ्य पर विचार करने के पश्चात् ही द्वितीयक सामग्री का प्रयोग किया जा सकता है।

इकाई की परिभाषा-द्वितीयक समंकों के प्रयोग से पहले इसका भी निश्चय कर लेना चाहिये कि पूर्व अनुसन्धान में प्रयुक्त सांख्यिकीय इकाइयों के अर्थ वर्तमान प्रयोग के अनुरूप हैं अथवा नहीं। यदि ऐसा नहीं है तो द्वितीयक सामग्री से प्राप्त निष्कर्ष भ्रमात्मक होंगे।

शुद्धता का स्तरइस बात पर भी विचार कर लेना बहुत आवश्यक है कि प्रकाशित समंकों में शुद्धता का स्तर क्या रखा गया था और उसे प्राप्त करने में कितनी सफलता मिली थी। अधिक शुद्धता वाले समंक अधिक विश्वसनीय होंगे।

उपसाधन का स्तर–समंकों के प्रयोग से पहले यह देख लेना चाहिये कि पूर्व अनुसन्धान में उपसाधन या सन्निकटीकरण का स्तर क्या था? जितनी कम मात्रा में सन्निकटम (Appoximation) होता है उतनी ही अधिक शुद्धता होती है।

जाँच का समय और उनकी परिस्थितियाँ- यह भी निश्चित कर लेना चाहिये कि सामग्री किस समय से । सम्बन्धित है, किन परिस्थितियों में एकत्र की गई थी। युद्धकालीन जाँच के समंकों को शान्तिकाल में प्रयोग नहीं। किया जा सकता। आँकड़ों के प्रारम्भिक संग्रहण और उपयोग के समय में अन्तर हो जाने पर भी उनकी उपयोगिता कम हो जाती है।

विभिन्न स्रोतों से प्राप्त समंकों की तुलना- यदि एक ही विषय पर द्वितीयक समंक,अनेक स्रोतों से प्राप्त किये गये हैं तो उनकी तुलना कर लेनी चाहिये ताकि उनकी सत्यता की जाँच हो सके यदि उपलब्ध सूचनाओं में काफी अन्तर है तो अधिक विश्वसनीय स्रोत की सूचनाओं को आधार मानना चाहिये।

परीक्षात्मक जाँचद्वितीयक समंकों की विश्वसनीयता के विषय में जानकारी परीक्षात्मक जाँच द्वारा ही सम्भव हा सकता ह । पराक्षात्मक जांच में यथासम्भव दर,प्रतिशत, योग आदि के द्वारा देखना चाहिये कि द्वितीयक सामग्री वर्तमान अनुसन्धान के लिये कहाँ तक उपयुक्त है ?

समकों की पर्याप्तताद्वितीयक सर्मक सामग्री उपयुक्त एवं विश्वसनीय होने के साध-साथ पर्याप्त भी होनी चाहिये। अपर्याप्त एवं थोड़े समंकों के आधार पर की गई जाँच अधूरी ही समझी जाती है। अतः अनुसन्धानकर्ता को द्वितीयक समंकों का प्रयोग करते समय यह अवश्य देख लेना चाहिये कि वे अनुसन्धान के लिये पर्याप्त हैं अथवा नहीं । साथ ही साथ खोजकर्ता के लिये इस बात की जाँच भी आवश्यक है कि पहले जिस अनुसन्धान के लिये समंक सामग्री एकत्र की गई थी उसका क्षेत्र वर्तमान अनुसन्धान के क्षेत्र से मिलता है अथवा नहीं। समान क्षेत्रों में पर्याप्त समंकों के आधार पर ही परिणाम शुद्ध माने जा सकते हैं।

इस प्रकार अनुसन्धानकर्ता को उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर द्वितीयक समंकों की आलोचनात्मक जाँच कर लेनी चाहिये । यदि इस व्याख्या के बाद वे विश्वसनीय, पर्याप्त प्रतीत हों तो उनका प्रयोग प्रस्तुत अनुसन्धान के लिये करना चाहिये अन्यथा नहीं। डॉ० बाउले का निम्न कथन हमारे तर्कों को और अधिक बल देता है। “प्रकाशित समंकों को ऊपर से ही देखकर उसके बाह्य मूल्य पर ग्रहण कर लेना कभी सुरक्षित नहीं है जब तक उनका अर्थ व उनकी सीमाएँ अच्छी तरह ज्ञात न हो जायें; और यह सदैव आवश्यक है कि उन तर्कों की आलोचनात्मक समीक्षा की जाये जो उन पर आधारित हैं।”

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प्रश्न

1 प्राथमिक समंकों से क्या आशय है ? ये द्वितीयक समंकों से किस प्रकार श्रेष्ठ हैं?

What do you understand by Primary Data ? In what ways are they superior to Secondary Data ?

2. प्राथमिक समंकों के संकलन की विभिन्न रीतियाँ कौन-सी हैं? इनमें से कौन-सी रीति सबसे अधिक विश्वसनीय है?

What are the various methods of collecting Primary Data ? Which of these is most reliable ?

3. एक अच्छी प्रश्नावली के क्या आवश्यक गुण हैं? प्रगणकों का चयन करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

What are chief requirements of a good questionnaire for use in statistical enquiry? What points should be taken into consideration while selecting the enumerators?

4. प्राथमिक तथा द्वितीयक समंकों में अन्तर बताइए तथा प्राथमिक समंक को संकलित करने की विभिन्न रीतियों की व्याख्या कीजिए एवं उनके गुण-दोष बताइये।

Explain the difference between Primary and Secondary Data and discuss the various method of colluting primary data and point set their merits and demerits.

5. सावधानी से जाँच किये बिना द्वितीयक समकों को कभी स्वीकार नहीं करना चाहिए।” समीक्षा कीजिए।

Secondary Data should never be accepted wlthout careful enquiry.” Comment,

6. लखनऊ विश्वविद्यालय में वाणिज्य स्नातकों में बेरोजगारी का सर्वेक्षण करने के लिए एक सांख्यिकीय। योजना की संक्षिप्त रूपरेखा बनाइए।

Give briefly the outline of the statistical plan for conducting an enquiry on unemployment amongst Commerce Graduates of the Lucknow University.

7. प्राथमिक समंकों से क्या अभिप्राय है? प्राथमिक समंकों के संग्रह की विभिन्न रीतियों का वर्णन कीजिये तथा इनके गुण-दोष बताइये।

What do you mean by Primary Data? Explain the various methods of colleting Primary Data and point out their merits and demertis.

8. प्रकाशित समंकों को जैसा का तैसा स्वीकार कर लेना कभी खतरे से खाली नहीं है जब तक कि उनका अर्थ एवं सीमायें ज्ञात न हो जायें और जो तर्क उन पर आधारित हैं उनकी आलोचना करना सदैव आवश्यक है।” इस कथन की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए। ”

It is never safe to take published statistics at their face value without knowing their meaning and limitations” and it is always necessary to critical arguments that can be based on them.” Comment.

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लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answered Questions)

9. प्रत्येक प्रश्न का उत्तर 100 से 120 शब्दों में दीजिये

The answer should be between 100 to 120 words:

Distinguish between primary and secondary data.

(ii) उत्तम प्रश्नावली के आवश्यक गुण क्या हैं ?

What are the essentials of a good questionnaire ?

(iii) प्राथमिक समंकों के संकलन की विभिन्न रीतियाँ बताइये।

Explain the various methods of collecting primary data.

(iv) द्वितीयक समंकों से क्या आशय है ? द्वित्तीयक समंकों के स्रोत स्पष्ट कीजिए।

What do you mean by secondary data ? Explain the sources of secondary data.

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न

(Very Short Answered Questions)

(अ) निम्न कथनों में से कौन-सा कथन सत्य या असत्य है

(i) समंक,सांख्यिकीय विश्लेषण के लिये आवश्यक विषय-सामग्री है।

Data are necessary material for statistical analysis.

(ii) प्राथमिक समंकों का उद्देश्य अनुसन्धान के अनुकूल होता है जबकि द्वितीयक समंक किसी अन्य  उद्देश्य के लिये एकत्रित किये गये होते हैं।

The objective of primary data is set up according to the investigation undertaken by investigation but objective of secondary data is set up! according to will of the person who collects data.

(iii) एक बार संकलित समंकों का प्रयोग यदि दूसरी बार किया जाता है तो ऐसे समंकों को प्राथमिक समंक कहते हैं।

When the once collected data is used for a second time then it is known as primary data.

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chetansati

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